प्रविष्टि क्रमांक - 24 लघु कथा मुफ्त की सीख बस स्टेशन से छूटने को तैयार थी कि एक सात-आठ साल का छोकरा बस में घुस आया। नंगे पांव ,बिखरे बाल ,...
प्रविष्टि क्रमांक - 24
लघु कथा
मुफ्त की सीख
बस स्टेशन से छूटने को तैयार थी कि एक सात-आठ साल का छोकरा बस में घुस आया। नंगे पांव ,बिखरे बाल , ऊपर लटकता हुआ कुर्ता और नीचे जांघिया। एक-एक कर बस यात्रियों के सामने हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाने लगा -’’ बाबू जी कल से खाना नहीं खाया है ,एक-दो रूपये दे दीजिए, भगवान के लिए। ’’ एक एक कर सबके सामने हाथ फैलाता , कोई उसके सामने आते ही मुंह फेर लेता तो अगला बड़े हिकारत के भाव से एकाध सिक्का उसकी कटोरी में फैंक देता।
मुझे उसका इस तरह भीख मांगना अच्छा नहीं लग रहा था। ज्यों ही वह मेरे सामने कटोरी बढ़ाने लगा , आदतन मैं उससे भी कह बैठा ,’’ कैसे मा-बाप हैं, ऐसे छोटे छोटे बच्चों को पढ़ने की उमर में भीख मांगने में लगा देते हैं। अच्छा खासा तन्दुरुस्त है, काम कर काम।’’ मेरा इतना कहना था , वह तपाक से बोला - ’’ बाबू जी भीख नहीं दे सकते तो आपको ये मुफ्त की सीख देने की भी जरूरत नहीं है। काम दिला दो न मुझे अपने ही घर पर।’’ वह बड़बड़ाये जा रहा था और उसे चुप कराने के लिए सचमुच मेरे पास कोई उत्तर नहीं था।
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प्रविष्टि क्रमांक - 25
लघु कथा
इतनी सस्ती ?
दिनेश दोपहर के खाने के बाद बिस्तर पर आराम करने ज्यों ही लेटा , किसी ने बाहर से दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खोला - सामने कोरियर डिलीवरी बॉय खड़ा था , एक लिफाफा थमाकर चल दिया। लिफाफे में झट से भेजने वाले का नाम देखा , अरे ! यह तो बड़े भाई साहब का खत है। बड़े भाई साहब लखनऊ में ही बस चुके थे और दिनेश का भी मुंबई से गांव जाना दो-चार वर्षों में कभी हो जाया करता था। भाई से फोन पर ही बात हो ही जाया करती थी , पर आज क्या ऐसी बात है जो उन्हें खत लिखना पड़ा। उत्सुकतावश लिफाफा खोला और बिना रूके शुरू से अन्त तक खत पढ़ते-पढ़ते दोनों हाथ माथे पर टिकाकर पास सोफे पर बैठ गया। तब तक पत्नी उमा भी उसके पास आ चुकी थी।
बोली - ’किसका खत है , इतने परेशान क्यों लग रहे हो ? ’
दिनेश ने एक लंबी सांस खींची और बोला - ’ भाई साहब ने हमारे पहाड़ के गांव की सारी जमीन जायदाद बेच दी है। लिखते है - मैं तो वर्षों से अपने गांव नही जा पाया हॅू , तुम भी कभी-कभार दो-चार साल में जाते हो, जमीन बंजर हो चुकी थी और मकान भी खण्डहर हो रहा था। घर से सामने हिमालय के दर्शन होते थे , सो किसी को रिजार्ट के लिए पसन्द आ गया , मैंने 80 लाख में सौदा कर लिया और तुम्हारे हिस्से का 40 लाख का चैक भेज रहा हॅू। ’
उमा बोली - ’ तो इसमें परेशान होने की क्या बात है , जब उसका उपयोग ही नहीं हो रहा था , तो ठीक तो किया भाई साहब ने।’
दिनेश बोला - ’ नहीं उमा ! बात वो नहीं हैं। तुम्हारी तो डोली भर आई है उस घर पर। मेरी तो पैदा होने से लेकर आज तक की मीठी यादें जुड़ी हैं उस घर से। आज भी रात में जब सपने आते हैं तो घटनाऐं उसी घर के इर्द-गिर्द की होती हैं। याद आता है वो घर का कोना , जहाँ माँ लोरियां सुनायी करती थी , वो रसोई जहाँ बैठकर माँ प्यार से खाना परोसती थी , वो चबूतरा जिस पर पिता जी मुझे कन्धे पर झुलाया करते थे और पिछवाड़े का वह खेत जिस में दोस्तों के साथ सांझ तक हम खेला करते थे। माँ -बाप न रहे लेकिन वहां की हर एक चीज से मेरा अटूट नाता है। अब सब वह एक रिसोर्ट में दफन हो जायेगा , उन पुरानी यादों का पिटारा मैं कहां खोज पाऊॅगा। ऐसा नहीं करना चाहिये था भाई साहब को। ’हर चीज को रूपयों-पैसों से नहीं तौला जाता।
दिनेश ने लम्बी सांसें भरते हुए कहा - ’ लग रहा है आज मेरा अतीत मुझसे छीन लिया गया है। बार-बार वह खत के साथ नत्थी चैक को निहारता , उसे लगता कि जैसे ये चैक उसे चिढ़ा रहा हो कि यही थी तुम्हारी अतीत की मधुर यादों की कीमत। बार-बार उस चैक को निहारता और गम्भीर सोच में खो जाता।’
’नहीं नहीं मेरी अतीत की यादें इतनी सस्ती नहीं ’ भर्राऐ हुए गले से बोला। उमा ज्यों ही ढांढस बंधाने उसकी ओर बढ़ी ही थी कि दिनेश ने चैक उठाया और दो टुकड़ों में उसे फाड़ते हुए अविरल आंसुओं की धारा उसकी आँखों से बह निकली।
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प्रविष्टि क्रमांक - 26
लघु कथा
टोकन
नैनीताल घूमने के इरादे से निकला था ,जैसे ही सुबह 9 बजे तल्लीताल डांट पर हमारी बस पहुंची , नेपाली मजदूर हमारी बस के पीछे एक झुण्ड की शक्ल में दौड़ते हुए आए। बस अभी रूक भी नहीं पाई थी, कि वे अपने अपने टोकन खिड़की से यात्रियों को पकडा़ने लगे। कुछ क्षण तो मैं समझ नहीं पाया ये क्या हो रहा है ? लेकिन अगले ही क्षण एक मजदूर मुझे टोकन थमाते हुए बोला -’’ बाबू साब ! सामान है तो मैं ले जाऊॅगा। ’’ मैंने उसका टोकन हाथ में पकड़ा और बस की छत पर रखा सामान उसको उतारने को बोला। एक ब्रीफ केस और एक बड़ा बैग सड़क पर रखते हुए बोला , ’ बाबू साब कहाँ पहुंचाना है ? ’’ जिस मित्र के पास मुझे ठहरना था , मैंने उनका पता एक कागज पर लिखकर उसे थमा दिया और खुद एक छोटा बैग कन्धे पर टांग कर नैनीताल की माल रोड में प्राकृतिक सौन्दर्य का लुत्फ लेते मल्लीताल की ओर बढ़ गया। च्योंकि कुली का टोकन मेरे पास था ,इसलिए सामान की कोई चिन्ता नहीं थी। यों भी नेपाली मजदूर बहुत ईमानदार होते हैं, अक्सर सुना था।
मुझे मल्लीताल में अमरालय होटल के पास अपने मित्र के घर ठहरना था और प्रायः हर साल नैनीताल आना होता ही है , इसलिए शहर की हर जगह से वाकिफ था। टहलते टहलते मैं 10 बजे अपने मित्र के घर पहुंचा, सामान अभी तक कुली वहां नहीं लाया था। मैं नहाकर नाश्ता ले चुका था , लेकिन सामान नहीं पहुंचा। दोपहर का 1 बज चुका था , दिन के खाने का भी समय हो गया , लेकिन कुली अभी तक नहीं पहुंचा था। मेरे मित्र ने कहा कहीं भटक गया होगा , आइये खाना खा लीजिए फिर साथ-साथ ढॅूढने निकलते हैं, वैसे भी जायेगा कहाँ , टोकन नंबर से नगरपालिका से पूरा हुलिया मिल जायेगा। दोपहर का खाना भी खा लिया , 2 बज चुके थे, मेरी बेचैनी बढ़ने लगी और मैं अपने मित्र को साथ लेकर बाजार की तरफ उतर गया। टोकन का नंबर देखने के लिए जेब तलाशी , लेकिन टोकन शायद कहीं गिर चुका था। सामान के साथ ही टोकन खोने मलालऊपर से और। मल्लीताल बाजार को पूरा छानते हुए कुली की तलाश में तल्लीताल जाने के लिए मालरोड का रूख किया। तल्लीताल रिक्शा स्टैण्ड के पास एक चबूतरे पर रखी मैंने अपनी अटैची और बैग पहचान ली , लेकिन उसके पास कोई नहीं था। मैं अपने सामान के करीब खड़ा हुआ ही था कि तब तक पास पेड़ की छांव में लेटा वह कुली आ गया। बाबू जी बाबूजी ! बहुत अच्छा किया आप आ गये। मुझे देखते ही उसकी आँखों में ऐसी चमक आ गई जैसे कोई खोया खजाना मिल गया हो, लेकिन मुझे उस पर गुस्सा आ रहा था। मैं आक्रोश भरे स्वर में बोला - ’कहाँ चले गये थे ? पूरा दिन खराब कर दिया। जवाब में वह गिड़गिड़ाया - साब ! जिस पर्ची पर आपने पता लिखा था , वह कहीं गिर गया। क्या करता साब! मल्लीताल से लौटकर वापस यहीं आकर रूक गया। सोचा - साब यहाँ मुझे ढूंढने यहां जरूर आयेगा। अच्छा किया , आप आ गये। मेरा दिन का मजदूरी तो गया लेकिन हुजूर गल्ती माफ करना। मेरा टोकन लौटा दीजिए साब ! मेरे पास कोई उत्तर नहीं था , टोकन तो मुझसे खो चुका था। उसकी निगाहें मेरे चेहरे पर थी और मेरी जमीन पर। उसकी वफादारी का ईनाम और दिन बरबाद करने की मजदूरी दे भी दूँ तो टोकन कहाँ से लौटाऊॅगा। मेरी इस लाचारी को शायद उसने भांप लिया था और मसखरी के अन्दाज में बोला परेशान क्यों हो रहे हुजूर ! ये रहा टोकन , जो आप बस के पास ही गिरा दिये थे और मेरे नेपाली साथी ने मुझे उसी समय दे दिया था। उसकी इस ईमानदारी का मोल चुकाने को मैं स्वयं को बौना महसूस कर रहा था।
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भुवन चन्द्र पन्त
रेहड़ ,भवाली ( नैनीताल)
उत्तराखंड
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