आलेख भारत की यायावरी वास्ते रेणु डॉ. सुरेन्द्र नारायण यादव म हाविद्यालय में प्राध्यापक बनने के बाद सन् 1985 ई. में पहली बार रेणु रचित उपन्या...
आलेख
भारत की यायावरी वास्ते रेणु
डॉ. सुरेन्द्र नारायण यादव
महाविद्यालय में प्राध्यापक बनने के बाद सन् 1985 ई. में पहली बार रेणु रचित उपन्यास ‘परतीः परिकथा’ पढ़ने का मौका मिला। अद्भुत नाटकीयता, बिना किसी भूमिका अथवा कथा-सूत्र के स्पष्टीकरण के रचनाकार पाठक को लिये चलता है सीधे दृश्य के पास। दृश्य के समक्ष पहुँचकर पाठक पाठक नहीं रहता, दर्शक बन जाता है और खुद से दृश्य का अवलोकन करने लगता है। दृश्यावतरण करानेवाले शब्द कैसे?- तो मानों सांगीतिक सम पर नाचते हुए और गाते हुए। नाचते और गाते हुए शब्द मुझे कितने प्रिय लगे?- मैं कह नहीं सकता। उसी दिन से मैं रेणु का मुरीद हो गया था। न जाने और भी कितने होंगे जो मेरी ही तरह रेणु की रचनाओं के सम्पर्क में आये होंगे और उनके होते चले गये होंगे। ऐसे ही मुरीदों में एक नाम डॉ. भारत यायावर का भी है। बिहार सरकार की ओर से अररिया हाई स्कूल में रेणु पर 2015 ई. में 9 से 11 अगस्त तक कार्यक्रम आयोजित था, जिसमें भाग लेने वे अररिया पधारे थे। बतौर आधिकारिक वक्ता मैं भी आमंत्रित था। आमंत्रण के साथ ही मुझे सूचना मिल चुकी थी कि डॉ. रामधारी सिंह ‘दिवाकर’, पत्रकार विकास कुमार झा के अलावा डॉ. भारत यायावर भी आ रहे हैं। ‘ना जाने केहि वेष में’ कहानी के अंतिम वाक्य में रेणु ने लिखा है- ‘‘लेकिन यह कैसे कहूँ कि इस यात्रा में मुझे कुछ लाभ नहीं हुआ?’’ रेणु को पढ़ते ही मैंने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था कि शोध करूँगा तो सिर्फ रेणु पर ही। डॉ. दिवाकर रेणु के इलाके के ही निवासी और मेरे शोध निदेशक थे। वे तत्कालीन ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के मुख्यालय, दरभंगा शहर के सी.एम. आर्ट्स कॉलेज में बतौर विश्वविद्यालय प्राचार्य पदस्थापित थे। उनके ही श्रीमुख से डॉ. भारत यायावर का नाम पहली बार सुना था और यह भी कि रेणु साहित्य से जुड़ा यह नाम महत्त्वपूर्ण क्यों है? एक और नाम उन्होंने बताया था- श्री जयशंकर जी का जो फारबिसगंज में ही रहते थे। शोध के क्रम में मैं दो बार उनसे मिला था। पर डॉ. यायावर तो फिर भी ‘श्रुति’ और ‘चर्चा’ का ही विषय बने रहे। इसलिए अररिया का वह कार्यक्रम मेरे लिए विशेष उपलब्धि था, क्योंकि मुझे यायावर जी को देखने और मिलने का अवसर प्रदान कर रहा था। उनके साथ मेरा प्रथम मिलन था और वह महामिलन भी था। मेरे हमउम्र, स्वस्थ और पुष्ट कद-काठी, गौर वर्ण, उन्नत ललाट। बावनदास जैसी भारी वाणी। वाणी में ओज और माधुर्य का विरुद्ध संगम। सिर पर बालों की संख्या अपेक्षाकृत कम। संस्कृत के किसी कवि ने दुरुस्त फरमाया है- ‘गंजे कभी निर्धन नहीं होते और निर्धन कभी गंजा नहीं होता।’ आर्थिक गुरुता का तो मुझे कुछ खास इल्म नहीं था। पर बौद्धिक सम्पदाजन्य गुरुता की कुछ भूमिका अवश्य रही होगी- यह मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ। हम दोनों रेणु को लेकर ‘व्याकुल आत्माएँ’ रहे हैं-
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवै।।
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व्याकुलता का सबब अलग-अलग हो सकता है, किन्तु लक्ष्य दोनों का एक है- रेणु। हम दोनों ने कितनी ही रातें जागी हैं और कितने ही दिन भरमते और भटकते रहे हैं। मैं रेणु के अर्थ खोजता रहा और आप रेणु की रचनाएँ खोजते रहे। मैं अर्थ कहाँ खोजता, यदि आपने रचनाएँ न खोजी होतीं? उनके छह उपन्यास और तीन कहानी संग्रह तो सहज उपलब्ध थे, पर उनकी शेष रचनाओं को साहित्य के पटल पर और पाठकों के बीच लाने का श्रेय सिर्फ और सिर्फ डॉ. यायावर को है। आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने रेणु के प्रथम उपन्यास ‘मैला आँचल’ को प्रेमचन्द के ‘गोदान’ के बाद हिन्दी का दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास घोषित किया था। बावजूद इसके मेरा मानना है कि किसी लेखक की कोई एक रचना, चाहे जितनी महत्त्वपूर्ण हो, पर अगर वह रचनाकार ‘महत्त्वपूर्ण’ है तो उसके साहित्यिक अवदान और महत्त्व को रेखांकित करने के लिए उसकी सभी रचनाओं को विचार के दायरे में लाना आवश्यक होता है। अलग-अलग रचना पर अलग-अलग विचार करने से ‘व्यापक और समग्र सच’ की प्राप्ति नहीं हो पाती। फलतः रचनाकार का समग्रता में मूल्यांकन नहीं भी हो पाता। मेरा शोध-विषय सिर्फ उपन्यास और कथा से सम्बद्ध रहा है। फलतः सहज में उपलब्ध उनकी उपन्यास और कहानी संकलनों से मेरा काम चल गया। पर रेणु का लेखन सिर्फ उपन्यास और कहानियाँ ही नहीं हैं। रिपोर्ताज, कविताएँ, व्यक्तिगत निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, भेटवार्ता आदि से जुड़ी रचनाएँ और उनके पत्र सामने न आ पाते अगर डॉ. यायावर जैसे खोजी ने यह बीड़ा न उठाया होता। मेरा मानना है कि इतिहास की किसी घटना का कोई एक अर्थ नहीं होता। घटना से जो जिस तरह से प्रभावित होता है सकारात्मक, नकारात्मक अथवा उदासीन, वह पात्र इतिहास की घटना का तदनुरूप अर्थ ग्रहण करता है। घटना का अर्थ सम्बद्ध पात्र की मनोरचना से भी निर्धारित होता है। मन के निर्माता कारक भी अनेक होते हैं। जैसे- सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि। कथा-रचनाओं की समीक्षा में सम्बद्ध पात्रों की मनोरचना एक महत्त्वपूर्ण आधार मानी जाती है। ठीक उसी तरह रचनाकारों के ‘लेखकीय मन’ का भी बहुत महत्त्व होता है, जो उनके सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक सिद्धान्तों और विचारों के साथ उनकी व्यक्तिगत पसन्द नापसन्द, रुचि, परिवेश और राष्ट्रीय तथा वैश्विक परिदृश्य से निर्मित और आकृत होता है।
रेणु की सभी रचनाएँ हमारे समक्ष न हों तो रेणु के ‘लेखकीय मन’ का पता हम पूरी तरह कैसे प्राप्त कर पाते? रेणु की रचनाओं को खोज-खोज कर सामने लाकर आपने हिन्दी साहित्य के साथ-साथ रेणु का भी बड़ा उपकार किया है। उनकी तीसरी पत्नी लतिका जी से जुड़े लोगों के हवाले से यह प्रचारित हुआ था कि रेणु बंगाली ब्राह्मण थे। ऐसी ही एक अफवाह मिथिलांचल के वैसे लोगों द्वारा फैलायी गयी थी, जो हर किसी श्रेय को मैथिल ब्राह्मण के अलावा किसी और को मान ही नहीं पाते। ऐसे लोगों ने रेणु को मैथिल ब्राह्मण प्रचारित किया था। खोजी बनकर आपने इस प्रकार की झूठी मनगढ़न्त बातों का खण्डन किया और जो वे वास्तव में थे, उसे सामने रखा। बहुत दुःखद है कि इस देश में अब भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो धानुक जाति के एक व्यक्ति को महान् श्रेय के हकदार के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते। महाश्वेता देवी ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘हजार चौरासीवें की माँ’ में एक कवि धीमान् राय का उल्लेख किया है, जो मंच पर बहुत क्रान्तिकारी बातें करता है, पर किसी भी जनान्दोलन में भाग नहीं लेता। स्पष्ट है कि धीमान राय जैसे कवियों-रचनाकारों की क्रान्तिकारिता ‘फैशन’ से अधिक कुछ नहीं है। यायावर के खोजीराम ने अगर खोज न की होती तो क्या पता श्रेय का हक न देनेवाले फतवाबाज कालान्तर में रेणु को धीमान् राय जैसा फैशनेबुल रचनाकार बताने लगते। रेणु ने भारत को लेकर एक सपना देखा था। हर बड़ा रचनाकार ऐसे सपने देखा ही करता है। पर रेणु सिर्फ सपने देखनेवाला रचनाकार नहीं थे। वरन् उन सपनों को साकार और चरितार्थ करने के लिए उन्होंने कठिन ‘पुरुषार्थ’ भी किया था। उन्होंने देश को आजाद कराने से लेकर किसान आन्दोलन और अन्य जनान्दोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया था। रेणु ‘मेड़ पर बैठकर पहलवानी सिखानेवालों’ में से नहीं थे। पर रेणु ने तो अपने बारे में, अपने आत्मघटित के बारे में, कुछ खास बताया ही नहीं। अगर आपने खोज कर यह न बताया होता कि फ्1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन’ के प्रमुख सेनानी रेणु की गिरफ्रतारी गाँव में सितम्बर में हुई। पुलिस ने अन्य क्रान्तिकारियों के बारे में जुबान खुलवाने के लिए उन्हें कितनी ही यातनाएँ दीं, पर उन्होंने कुछ नहीं बताया। उनकी छाती पर चढ़कर बूटों से उन्हें रौंदा गया। उनके मुँह, नाक और कान से खून निकलने लगा, पर उन्होंने कुछ नहीं बताया। तब उनके दोनों हाथों में रस्सी बाँधकर घोड़े से खींचते हुए लगभग बीस किलोमीटर दूर अररिया ले जाया गया।” (रेणु का है अन्दाजे-बयाँ और, पृ.-16) जिस सादिक अनुभव के साथ रेणु लेखन के क्षेत्र में आये थे, उसका प्रमाण जमाने को न मिला होता, अगर खोजीराम ऐसी घटनाओं को हमारे सामने न लाते। भारत के कम्युनिस्ट अनुभव की ऐसी सच्चाई वाले रेणु को लेखक ही नहीं मानते थे। डॉ. यायावर पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से रेणु को यूँ तो अल्पायु 65-66 ई. से ही पढ़ते आ रहे थे। कालान्तर में रेणु को खारिज करने की कुटिलता जैसे-जैसे आपके सामने आती गयी, उसी अनुपात में आप आहत होते गये और रेणु के अधिक से अधिक निकट होते चले गये। रेणु से आपका जुड़ाव कम्युनिस्टों की प्रतिक्रिया में अधिक प्रगाढ़ होता गया और आपके संकल्प को अधिकाधिक मजबूत करता गया।
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उनकी रचनाओं को खोजने और संकलित करने के लिए आपने कलकत्ता से राजस्थान तक की सालों-साल दौड़ लगायी। जहाँ कहीं भी रेणु की रचना होने की सम्भावना नजर आती, आप वहीं दौड़ पड़ते। आप उनके परिवार के सदस्यों के अलावा, गाँव, समाज, सम्बन्धियों, मित्रों और लंगोटिया यारों से भी मिले। उनके भीतर संरक्षित राज को उगलवाया, जिससे रेणु ‘विविधवर्णी सम्पूर्णता’ के साथ हमारे सामने आ पाये। हमेशा आपकी कोशिश रही- रेणु के चरित्र, व्यक्तित्व, कृतित्व और सपनों का कोई रंग अनदेखा, अनचीन्हा और अनकहा न रह जाय। किसी महान् उद्देश्य की पूर्ति और चरितार्थता के लिए व्यक्ति का ‘सनकी’ और ‘जुनूनी’ होना रेणु आवश्यक मानते हैं। अगर परती को ‘आसव प्रसवा’ बनाना है, डायन कोशी को साधना है और दुलारी दाय की धारा पर डैम का निर्माण करना है तो जितेन्द्र को बाद देकर यह सब कैसे हो सकेगा? इसीलिए तो रेणु हमें वैचारिक रूप से प्रशिक्षित करते हैं- ‘‘....इस पागल अथवा सनकी को छोड़ने से काम नहीं चलेगा।’’ (रेणु रचनावली, भाग-2 पृ.-320) पागलपन, सनक और जुनून से मन संकल्पबद्ध होता है, संकल्प को बल मिलता है और वह कमजोर नहीं हो पाता। विरोध, कटाक्ष,
बाधा उपस्थित करने, निरुत्साहित करने की प्रवृत्ति और सहायता न करने की मनोवृत्ति से बार-बार दो-चार होना पड़ता है। अपने साहित्य और सादिक अनुभव के विरुद्ध रेणु ने ‘हजारों के बोल सहे’। रेणु के लिए आपने भी सुने और सहे। मैं भी सुन रहा हूँ, सह रहा हूँ। यह जमाने की फितरत है, मनुष्य का स्वभाव है। किसी के कटाक्ष से हम क्यों डिगें? यह हमारा स्वनियोजन है, ‘मनमाने की बात’ है। रेणु को न तो आपने देखा है और न ही मैंने। इसलिए रेणु से हमारे जुड़ाव का कारण रेणु नहीं हैं, वरन् उनका साहित्य है, जो उत्कृष्ट है, महान् है। उत्कृष्ट विचार होना मात्र उत्कृष्ट साहित्य की कसौटी नहीं है, क्योंकि साहित्य ‘शास्त्र’ नहीं है, वह एक कलावस्तु है। विचार जब कला के साँचे में ढलकर आता है, किवां कला का रूप धार कर आता है, तभी उत्कृष्ट विचार उत्कृष्ट साहित्य बन पाता है। साहित्य में ‘कला की उत्कृष्टता’ का भी बहुत महत्त्व होता है, क्योंकि इसी से उसमें ‘व्यामोहन’ (पाठक को बाँधने और प्रभावित करने) की क्षमता आती है। शायद ही किसी को इन्कार हो कि रेणु की साहित्यिक रचनाओं में व्यामोहन की अद्भुत-अपूर्व क्षमता है। लेकिन केवल उत्कृष्ट कला से भी साहित्य में अपील की क्षमता नहीं आती। रेणु अगर वैश्विक स्तर पर पढ़े और सराहे जाते हैं तो मानना पड़ेगा कि उनका विचार पक्ष भी जबरदस्त अपीलिंग है। आपने हिन्दी भाषा-साहित्य के दो महान् और निर्णायक हस्तियों पर काम किया और उनकी समस्त रचनाओं का संकलन-सम्पादन कर अनेक खण्डों में दोनों की रचनावलियों को प्रकाशित कराया। एक हैं रेणु और दूसरे हैं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी। मेरी नजर में यह महज संयोग नहीं है। मुझे लगता है एक बड़ा रहस्य इसमें है और हिन्दी भाषा-साहित्य का सौभाग्य ही मैं मानूँगा कि समग्र रचनावली प्रकाशित कराने के लिए भाषा के दो सीमान्तों को आपने चुना। वे दिन खड़ी बोली के स्वरूप के स्थिरीकरण और मानक स्वरूप के निर्माण के थे, जब महावीर प्रसाद द्विवेदी का इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ था। द्विवेदी जी का सर्वप्रमुख महत्त्व ‘खड़ी बोली हिन्दी के मानकीकरण’ में सन्निहित है। जबकि रेणु का महत्त्व ‘मानक के अतिक्रमण’ में है। मानक भाषा शास्त्र, विधि और न्याय तथा प्रशासनिक कार्यों के लिए उपयुक्त होती है, जहाँ शब्दों के अर्थ की एकलता और सुनिश्चितता ही गुण मानी जाती है। पर एकल और रूढ़ अर्थोंवाले शब्दों से रचनात्मक साहित्य का निर्माण नहीं होता। ‘अर्थशेष’ शब्दों का रचनात्मक साहित्य में अशेष महत्त्व होता है। लोग समझते हैं कि रेणु ने शब्दों को बिगाड़ा है। पर रचनात्मक भाषा के मर्मज्ञ और विशेषज्ञ वैसे शब्दों के रचनात्मक महत्त्व को समझते हैं। जिसे सभी मानक रूप में ‘राजनीति’ जानते हैं, उसे ‘परतीः परिकथा’ का बालगोबिन ‘राजनीयत’ कहता है। लुत्तो उसे सुधारते हुए कहता है-राजनीयत नहीं, राजनेति कहो।’ स्पष्ट है कि ‘मानक’ दोनों में से किसी के पास नहीं है। जाहिर हो रहा है कि दोनों अनपढ़ अशिक्षित हैं, ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं। पर जो बात इससे अधिक गहरी है, वह है बालगोबिन पर अपनी श्रेष्ठता का बोध कराने की लुत्तो की गहरी किन्तु प्रच्छन्न इच्छा। सच भी है लुत्तो बालगोबिन से श्रेष्ठ है, जिसकी व्यंजना बालगोबिन की तुलना में मानक से उसकी अधिक निकटता से हो पायी है। ‘राजनीयत’ की तुलना में ‘राजनेति’ मानक ‘राजनीति’ के अधिक निकट है। श्रेष्ठता अश्रेष्ठता के दम्भ के संघर्ष को जिस सूक्ष्म कलात्मकता के साथ रेणु ने प्रस्तुत किया है, उसकी रचना ‘मानकता के अतिक्रमण’ से उत्सृजित हुई है।
आधुनिक भाषाविज्ञानी नॉम चाम्सकी ने मानक के अतिक्रमण को प्रजनित विकल्प (Generative Grammar esa) कहा है और महाभाष्यकार पतंजलि ने इसको ‘अपशब्द’ कहा है। एक शब्द (मानक) के अनेक अपशब्द हो सकते हैं। रेणु अपशब्दों की रचनात्मकता और व्यंजनाशक्ति के विलक्षण ज्ञाता थे, जैसा हिन्दी भाषा में अबतक देखा नहीं गया था। इसलिए मानकता की दृष्टि से आचार्य द्विवेदी अगर हिन्दी भाषा के एक सीमान्त हैं तो अतिक्रमण के शिखर पर अवस्थित रेणु उसके दूसरे सीमान्त हैं। आपने भाषा-व्यापार को उसकी समग्रता में उपलब्ध करने के लिए दोनों का चयन किया। यह मेरी नजर में महज संयोग नहीं है और मैं कहूँ अचानक से ही एक बड़े महत्त्व का कार्य आपके द्वारा सम्पन्न हो गया है। ध्वनि से लेकर प्रोक्ति और महावाक्य तक सभी स्तरों पर रेणु का भाषिक विचलन रचनात्मक दृष्टि से सर्वथा सार्थक और सोद्देश्यतापूर्ण है। आपका यह कहना कि रेणु का ‘अन्दाजे-बयाँ है और’ सर्वथा उचित है और रेणु की भाषिक कला का परिचायक भी है। ऐसे महान् कलाकार-रचनाकार की ‘रचनाओं के लिए’ आप भटके हैं और मैं ‘उनकी रचनाओं में’ भटका हूँ। हम दोनों की युति ‘रेणु-समग्र’ है। रेणु आपको यशस्वी करें और ईश्वर आपको दीर्घायुष्य प्रदान करें.
"जिस ढब से कोई मक्तल पे गया, वो शान सलामत रहती है।
ये जाँ तो आनी-जानी है, इसकी तो कोई बात नहीं।”
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सम्पर्क : हिन्दी विभाग,
डी.एस.कॉलेज, कटिहार
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