आलेख रस-सिद्धान्त और डॉ. नगेन्द्र का योगदान डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय डॉ . नगेन्द्र ने हिन्दी-समीक्षा के क्षेत्र में सैद्धान्तिक और व्यावहारिक...
आलेख
रस-सिद्धान्त और डॉ. नगेन्द्र का योगदान
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय
डॉ. नगेन्द्र ने हिन्दी-समीक्षा के क्षेत्र में सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर गम्भीर एवं तर्कसंगत कार्य किया है तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। सैद्धान्तिक समीक्षा के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने सर्वाधिक चिंतन रस-विषयक किया है जिसके परिणाम स्वरूप वे रस को मात्र काव्य का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण साहित्य का निकष स्वीकारते हैं। यही कारण है कि उन्होंने सार्वभौम साहित्यशास्त्र घोषित किया है। वस्तुतः डॉ. नगेन्द्र रसवादी, रसचेत्ता एवं रसनिष्ठ समीक्षक हैं। वे रस को ही काव्यात्मा मानते हैं। उनके मतानुसार रस का अभिन्न संबंध अनुभूति से है तथा ध्वनि का कल्पना से। ध्वनि और व्यंजना कल्पनारूप होकर अनुभूति का साधन बनते हैं जिसके परिणाम स्वरूप रसवाद और ध्वनिवाद का सामंजस्य स्थापित करते हुए डॉ. नगेन्द्र ने अपने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचना कृतियों का प्रणयन किया।
आधुनिक समीक्षा के समीक्षकों- शुक्ल, डॉ. श्याम सुन्दर दास, बाबू गुलाबराय आदि के साथ डॉ. नगेन्द्र का रसवादी समीक्षकों में विशेष महत्व है। रसवाद का संबंध आधुनिक मनोविज्ञान से भी जोड़कर डॉ. नगेन्द्र ने साहित्यानुशीलन किया है। आचार्य शुक्ल भी मौलिक रसवादी आचार्य रहे हैं लेकिन उनका रसवाद भारती काव्यशास्त्र में पाश्चात्य अवधारणा से कम और भारतीय अवधारणा से अधिक प्रभावित है। बाबू गुलाबराय ने भी अपनी समन्वयवादी समीक्षा में भारतीय और पाश्चात्य अवधारणों का उपयोग किया है। डॉ. नगेन्द्र ने पाश्चात्य अध्ययन-अध्यापन एवं स्वकीय अनुशीलन के बल पर भारतीय काव्यशास्त्रीय प्राचीन परम्पराओं और अवधारणाओं का चिंतन-मनन करते हुए अपना रस-सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। उदार परम्परावादी होते हुए भी उन्होंने तर्कसंगत निष्कर्ष दिए हैं। उन्होंने पश्चिमी चिंतन का पूर्णरूपेण उपयोग किया है। डॉ. नगेन्द्र का ‘रस-सिद्धान्त’ एक मानक और महनीय ग्रंथ है जिसमें रस-विषयक विविध महत्वपूर्ण समस्याओं पर व्यापक दृष्टि से गम्भीर विवेचन किया गया है जिसमें कुल छः अध्याय हैं। रसविषयक अनुशीलन में रस शब्द का अर्थ विकास, रस-सम्प्रदायिका इतिवृत्त, इसकी परिभाषा, रस का स्वरूप, करुण रस का आस्वाद, रस की निष्पत्ति और रस का स्थान, साधारणीकरण, भाव का विवेचन, रस संख्या, रसों का परस्पर संबंध, अंगीरस, रस विघ्न, रसाभास- इन बिन्दुओं पर गम्भीर चिंतन के साथ सटीक निष्कर्ष दिया गया है। रस-विषयक विवेचन में डॉ. नगेन्द्र ने काव्यशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र एवं मनोविज्ञान के आधार पर अपना निष्कर्ष और निर्णय दिया है। हिन्दी में साधारणीकरण की चर्चा आचार्य शुक्ल के निबंध ‘साधारणीकरण और व्यक्तिवैचिन्यवाद’ से प्रारम्भ हुआ है। तत्पश्चात् आचार्य केशवप्रसाद मिश्र, डॉ. श्याम सुंदर दास, पं. रामदहिन मिश्र, बाबू गुलाबराय आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा है लेकिन सर्वाधिक गम्भीर चिंतन आचार्य शुक्ल के बाद डॉ. नगेन्द्र का ही साधारणीकरण के क्षेत्र में रहा है। डॉ. नगेन्द्र ने भारतीय काव्यशास्त्र-विशेषकर संस्कृत काव्यशास्त्र एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र के अध्ययनोपरान्त अपना मत व्यक्त किया है। चूंकि साधारणीकरण का मूल निरूपण संस्कृत काव्यशास्त्र से हुआ है- यही कारण है कि संस्कृताचार्यों के मतों का उल्लेख करना डॉ. नगेन्द्र के लिए अनिवार्य हो गया। ‘रीतिकाव्य की भूमिका’ और ‘रस-सिद्धान्त’ दोनों ग्रंथों में साधारणीकरण पर विवेचन हुआ है। डॉ. नगेन्द्र ने अपना सर्वाधिक चिंतन साधारणीकरण के विविध पक्षों में से एक महत्त्वपूर्ण पक्ष पर किया है कि साधारणीकरण किसका होता है-? इसका उत्तर उन्होंने दिया है कि कवि की अपनी अनुभूति का साधारणीकरण होता है। लोकप्रिय रहा है। ‘रीति काव्य की भूमिका’ में विवेचित साधारणीकरण में तादात्म्य, समानुभूति और साधारणीकरण की सीमाएं परस्पर घुलमिल गई-दर्शाई गयी हैं।
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1. प्रथमः डॉ. नगेन्द्र ने साधारणीकरण के संदर्भ में पांच अवधारणाओं और मान्यताओं को संदर्भित किया है। भट्टनायक की मान्यता जो इसके समस्त अवयवों-विभाव, अनुभाव, स्थायी, संचारीभाव का साधारणीकरण होता है। विभावादि साधारणीकरण पूर्व में होता है और स्थायीभाव का बाद में होता है।
2. द्वितीयः अभिनव गुप्त की मान्यता है कि मूलतः रस के अवयवों विभावादि का साधारणीकरण होता है, उसके परिणामस्वरूप स्थायी का साधारणीकरण होता है- जिससे सहृदय की चेतना व्यक्ति संसर्गों से मुक्त होकर, एकतान हो जाती है। इस मुक्त चेतना में समस्त शेष ज्ञान विलीन हो जाते हैं, समीकृत हो जाते हैं। भट्टनायक के साधारणीकरण में जहाँ विषय तथा विषयी-दोनों पक्षों का संतुलन था वहाँ अभिनव गुप्त के साधारणीकरण में भाव एवं विषयी पक्ष की स्वीकृति मिलती है।
3. तृतीयः विश्वनाथ के साधारणीकरण के संबंध में कहा गया है कि विभावादि तथा स्थायी सबका साधारणीकरण, परंतु साथ ही आश्रय के साथ तादात्म्य की स्थिति बनी रहती है। यहाँ आश्रय विशिष्ट ही रहता है, प्रभाता की चेतना बढ़कर उससे समीकृत हो जाती है, उसका तादात्म्य हो जाता है।
4. चतुर्थः आचार्य शुक्ल का साधारणीकरण- मूलतः आलम्बन या आलम्बनत्व धर्म का होता है। कवि आलम्बन का इस प्रकार वर्णन और अभिव्यंजना करता है कि वह अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए भी साधारणधर्मों के कारण सभी पाठकों और श्रोताओं के मन में समानभाव जागरित करता है जैसा कि काव्य-प्रसंग के अन्तर्गत आश्रय पात्र या चरित्र के मानस में होता है।
5. पंचमः भट्टतौत के साधारणीकरण में कवि, नायक, श्रोता- इन तीनों के भावों का तादात्म्य मिलता है। ये तीनों समन्वित रूप से समान भाव जागरित करते हैं।
उपर्युक्त विवेचनोपरान्त कहा जा सकता है कि डॉ. नगेन्द्र का मत साधारणीकरण विषयक भट्टनायक के मत से मेल खाता है। डॉ. नगेन्द्र का मत फिर भी अभिनव गुप्त से अधिक निकट है। डॉ. नगेन्द्र भट्टनायक की उपलब्धियों को अपने सिद्धान्त के अनुसार ढालने की पूरी कोशिश की है। डॉ. नगेन्द्र की साधारणीकरण की स्थापना है कि ‘साधारणीकरण समस्त काव्य-प्रसंग का होता है।’ डॉ. नगेन्द्र ने तर्क से प्रमाणित किया है कि ‘यह काव्य-प्रसंग तो अपने आप में जड़ वस्तु है- इसका चैतन्य अंश तो इसका अर्थ है और यह अर्थ क्या है-? कवि का संवेग, कजि की अनुभूति, सामान्य अनुभूति नहीं, सर्जनात्मक अनुभूति, भाव की कल्पनात्मक पुनः सर्जना की अनुभूति। अतः काव्य-प्रसंग और कुछ नहीं, कवि की भावना का बिम्बमात्र है। अतः काव्य प्रसंग या रस के समस्त अवयवों का साधारणीकरण मानने की अपेक्षा कवि भावना का साधारणीकरण मानना मनोविज्ञान के अधिक अनुकूल है।’ समग्रतः कहा जा सकता है कि डॉ. नगेन्द्र की यह विवेचना तर्कसंगत एवं शास्त्रीय आधार पर आधृत है। ‘असाधारणया विशिष्ट का व्यक्ति संसर्गों से मुक्त होते हुए साधारण हो जाना’ क्योंकि प्रमाता की चेतना भी व्यक्ति संसर्गों से मुक्त-साधारणीकृत हो जाती हैं। रस-सिद्धान्त में साधारणीकरण विषयक प्रश्न पर यह विवेचन समीक्षात्मक रूप में दिया गया है कि ‘विषयी पक्ष के साधारणीकरण में डॉ. नगेन्द्र दोनों बातों को समेटना चाहते हैंः एक तो प्रमात्य चेतना की व्यक्ति संसर्ग मुक्ति होते हुए शुद्ध साधारणीकृत भाव का उदय, दूसरी काव्य प्रसंग के प्रति कवि के साथ सहानुभूति। अतः जहाँ उनके विषय पक्ष के साधारणीकरण में शुद्ध साधारणीकरण है, वहाँ विषयी पक्ष के साधारणीकरण में साधारणीकरण $ समानुभूति है। विषयी पक्ष का यह साधारणीकरण में भी विषय पक्ष के साधारणीकरण के समान ही, उनके शब्दों की व्याख्या के अनुसार एक कवि की सर्जनात्मक अनुभूति के द्वारा दो ओर को किया गया कार्य है, अतः समूचे रूप में ‘कवि अनुभूति का ही साधारणीकरण है।1’
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वास्तव में रस-सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का मेरुदण्ड कहा जाता है। भारतीय काव्यशास्त्र के प्रतिमान या निकष के रूप में रस-सिद्धान्त का वर्चस्व और प्रभुत्व असांदिग्ध रहा है। भरतमुनि से आरम्भ होकर पं. राज जगन्नाथ में रस-सिद्धान्त का व्यवस्थित और गम्भीर विवेचन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया है जिसमें लोकभूमि, लोकरंजन और लोकमंगल की भावना को रेखांकित किया गया है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद रस-सिद्धान्त पर गम्भीर कार्य करने वाले रसवादी समीक्षक डॉ. नगेन्द्र का शीर्षस्थ स्थान है जिन्होंने इस-सिद्धान्त को शाश्वत किया है। इस सिद्धान्त के सबसे प्रबल पोषक और समर्थक डॉ. नगेन्द्र रहे हैं। डॉ. नगेन्द्र का यह कथन समीचीन है कि ‘संस्कृत काव्यशास्त्र में रसों के परस्पर संबंध विरोध और अविरोध तथा विरोध परिहार आदि का अत्यन्त सूक्ष्म एवं रोचक विवेचन किया गया है। सामान्यतः ये प्रश्न शास्त्र रूढ़ से प्रतीत होते हैं परंतु काव्य की आस्वादन (रसास्वादन) प्रक्रिया के साथ-साथ घनिष्ठ संबंध होने के कारण इनका ता-त्विक मूल्य भी असंदिग्ध है और इन प्रसंगों की व्याख्या से रस के आस्वादन से सम्बद्ध अनेक समस्याओं के समाधान के लिए मार्ग प्रशस्त हो जाता है।’
डॉ. जयचन्द्र राय ने ‘डॉ. नगेन्द्र का रस-सिद्धान्त’ आलेख में लिखा है कि ‘आचार्य शुक्ल की आलम्बनात्मक रस-दृष्टि’ जिस स्वच्छन्तावादी काव्यान्दोलन को उसके पूर्ण वैभव के साथ नहीं ग्रहण कर सकी, उसको डॉ. नगेन्द्र्र की आत्मवादी रसचेतना ने प्रथम श्रेणी का सृजनात्मक आन्दोलन घोषित किया। इस प्रकार सिद्धान्त और व्यवहार, दोनों क्षेत्रों में ही उनके रस-चिंतन की आधारशिला वह आत्माभिव्यक्तिवाद ही बनता है जो स्वच्छन्दतावाद से प्रेरित है।’ इसके स्वरूप का निर्धारण, उसकी निष्पत्ति की प्रक्रिया का निरूपण, उसके निष्पादक-उपकरणों का विश्लेषण, व्यापक और सार्वभौम काव्य मूल्य के रूप में रस की प्रतिष्ठा, अन्य मूल्यों और सिद्धान्तों में उसकी सापेक्षता में उसकी योग्यता और श्रेयस्करता का अनुशीलन और आंकलन तथा विभिन्न काव्य प्रवृत्तियों के परिपार्श्व में उसके सामंजस्य-स्थापन में डॉ. नगेन्द्र का दृष्टिकोण अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं व्यावहारिक है। डॉ. नगेन्द्र ने अपनी अवधारणा प्राचीन आचार्यों के परिप्रेक्ष्य में भी स्पष्ट की है, ‘ऐतिहासिक तथ्य चाहे कुछ भी हो, भरत का आशय जो भी रहा हो, भारतीय साहित्य एवं साहित्यशास्त्र में अभिनव-प्रतिपादित आस्वादपरक रूप ही मान्य हुआ। विषयगत अर्थ अर्थात् भरत का अभीष्ट अर्थ ‘रस’ के स्थान पर ‘काव्य’ का वाचक बन गया। भाव की कलात्मक अभिव्यंजना ‘रस’ नहीं है- काव्य है, और इस प्रकार परिभाषित ‘काव्य’ का आस्वाद ‘रस’ है। भारतीय काव्यशास्त्र में रस का प्रतिनिधि एक परिनिष्ठित अर्थ अन्ततः यही मान्य हुआ, इसीके संदर्भ में रस के स्वरूप का विवेचन सार्थक होगा।’
इस प्रकार कहा जा सकता है कि डॉ. नगेन्द्र ने ठीक ही कहा है कि ‘इस व्यक्तिबद्ध भाव का आस्वाद नहीं है, वैयक्तिकता से रस का कुछ भी लेना-देना नहीं है बल्कि साधारणीकृत भाव का आस्वाद है। आगे यह भी कहा गया है कि साधारणीकृत भाव निर्विषय होने के कारण राग-द्वेष के दंश से सर्वथा मुक्त होता है। इसलिए वह आनंदमय ही होता है- वह एक प्रकार के भाव के माध्यम से आत्मा अर्थात् शुद्ध-बुद्ध चेतना का आस्वाद है जो सर्वथा आनंदमय ही होता है।’ यही कारण है कि रस की परिणति आनंद की अनुभूति है। परम्परागत रस की अवधारणा स्वच्छन्तावाद से साम्य एवं तादात्म्य रखने पर भी नव्य सोच विकसित करने में सक्षम नहीं है। काव्यानंद को आध्यात्मिक आनंद से भिन्न करके डॉ. नगेन्द्र ने अनुभव किया है क्योंकि आनन्दानुभूति व्यावहारिक धरातल पर घटित होती है- अलौकिक या आध्यात्मिक जगत् में नहीं। डॉ. नगेन्द्र ने इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है कि ‘काव्य की रचना या अनुभूति की क्रिया आत्मा की क्रिया नहीं है- कम से कम उस अर्थ में तो नहीं ही है जिस अर्थ में योग साधना या ब्रह्म-चिंतन आदि हैं। ऐसी स्थिति में काव्य-निबद्ध या काव्य-प्रेरित स्थायी भाव के आस्वाद को भी आध्यात्मिक आनंद नहीं कहा जा सकता, अर्थात् काव्यानंद प्रचलित अर्थ में आत्मानंद का पर्याय या उसका रूप विशेष नहीं है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि डॉ. नगेन्द्र का आग्रह आनंद पर है, कल्याण पर है। रस का उनका चिंतन व्यावहारिक है, लौकिक है- इस जीव और जगत से संबंधित है। इसके अलौकिकता और आध्यात्मिकता की कोई गुंजाइश नहीं होती। यही कारण है कि डॉ. नगेन्द्र आनंद को अपने आप में कल्याणकारी मानते हैं। वे स्वयं प्रश्न भी करते हैं कि ‘क्या आनंद अपने आप में कल्याणकर नहीं है या कल्याण की चरमसिद्धी आनंद नहीं है।’ अतएव कल्याणजन्य आनंद रसानंद से सम्बद्ध होने पर भी तात्विक दृष्टि से भिन्नता है। डॉ. नगेन्द्र के समीक्षक रूप की तुलना डॉ. रमेश कुंतल मेघ ने विक्टोरियन कवि समीक्षक मैथ्यू आर्नल्ड से की हैः ‘नगेन्द्र को मैं आत्माभिव्यक्तिमूलक आनंदवादी मानता हूँ, आर्नल्ड नीतिमूलक आनंदवादी थे। दोनों ने रोमांटिक काव्य के वायवीपन, शृंगारिकता तथा रहस्यात्मकता का विरोध किया है किन्तु नगेन्द्र की जमीन व्यक्तिवादी और मनोवैज्ञानिक रही है और आर्नल्ड की संस्कृतिवादी और सामाजिक। नगेन्द्र राजनीति को साहित्य का प्रतिकूल घटक मानते हैं. आर्नल्ड राजनीति दर्शन पर अपने ‘आदर्शराज्य और सर्वोत्तम-स्वायत्त’ की नींव रखते हैं। नगेन्द्र क्लासिकल भारतीय रस की मधुरता और मनोवैज्ञानिक चिंतन के आलोक का समन्वय करते हैं, और आर्नल्ड ईसाई नैतिकता की मधुरता तथा यूनानी संस्कृति के आलोक का समन्वय करते हैं।’2 इस प्रकार दोनों में समन्वायत्मक दृष्टि का उन्मेष देखने को मिला है। सार्वभौम साहित्यशास्त्र की प्रकल्पना में डॉ. नगेन्द्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, क्योंकि पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों के कृतियों का अनुवाद करके तथा सम्पादन करके भारतीय साहित्यशास्त्र के साहित्यकारों के लिए नव्य सामग्री डॉ. नगेन्द्र उपलब्ध करा दी है। अपने आप में यह एक बृहद और महनीय कार्य है। उनके अनुवाद कार्य की अनुशंसा करते हुए डॉ. गोपाल शर्मा ने लिखा है कि ‘भारतीय काव्यशास्त्र के गहन अध्ययन, अनुसंधान एवं उन्नयन के लिए डॉ. नगेन्द्र ने वर्षों तक कठोर साधना की है। इसी के फलस्वरूप हिन्दी साहित्य के इस क्षेत्र में उन्हें आचार्यत्व प्राप्त हुआ है। आलोचना के क्षेत्र में जो विचारक एकांगी चिंतन नहीं करता, वह विश्व के अन्य भागों के समृद्ध साहित्य में उपलब्ध सामग्री और विचारों के प्रति जागरूक रहता है और साथ ही तुलनात्मक अध्ययन द्वारा विचारों के सम्यक् समन्वयशील परिपक्वता की सृष्टि करता जाता है।3 डॉ. नगेन्द्र अंग्रेजी साहित्य के भी समर्थ विद्वान हैं। सम्भवतः इसलिए उन्होंने काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों का परिशीलन करने के लिए अंग्रेजी के माध्यम से उपलब्ध अरस्तू और लोंजाइनस के विचारों को भलीभांति आत्मसात् करने के लिए अनुवाद के क्षेत्र में पदार्पण किया। भारतीय काव्यशास्त्र के विचेनात्मक अध्ययन के लिए उससे सम्बद्ध और उसके अनुपूरक पाश्चात्य काव्यशास्त्र का भी तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करना और इस उद्देश्य से उसके अनुवाद के प्रेरक और निष्पादक बनना डॉ. नगेन्द्र की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
अरस्तू के प्रसिद्ध निबंध ‘पेरिपारतिकेस’ का पाश्चात्य काव्यशास्त्र में भारतीय काव्यशास्त्र में भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ के सदृश्य ही स्थान प्राप्त है। लोंजाइनस की रचना ‘पेरिइप्सुस’ शैली की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी जाती है। डॉ. नगेन्द्र इस प्रकार अनुवादकों के प्रेरक, नियामक एवं विधायक सिद्ध हुए हैं। यूनानी भाषा के महनीय और मानक ग्रंथों का अंग्रेजी माध्यम से अनुवाद करना भी सहज सरल कार्य न था, जिसको डॉ. नगेन्द्र ने अपने कर कमलों से कर दिखाया। शास्त्रीय शब्दावली के हिन्दी रूप का निर्धारण करते समय उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्र के पारिभाषित शब्दों का प्रयोग करने के साथ-साथ नवरूप सृजन भी किया है जो एक अभिनव उपलब्धि है। डॉ. नगेन्द्र के समीक्षक की यह विशेषता रही है कि वह रसेतर सम्प्रदायों की परिणति भी रसवाद में ही देखना चाहता है, क्योंकि वे रसचेत्ता, रसनिष्ठ एवं रसवादी-समन्वयशील समीक्षक रहे हैं।
भारतीय काव्यशास्त्र का विवेचन-विश्लेषण करते हुए डॉ. नगेन्द्र उसकी गहराइयों में उत्तरोत्तर उतरते गए और पाश्चात्य काव्य-सिद्धान्तों का तुलनात्मक अध्ययन करके उसके साम्य और वैषम्य पर गहन विचार किया तथा सार्वभौम साहित्यशास्त्र की प्रकल्पना की_ ताकि भारतीय काव्यशास्त्र की निर्मिति भी हो सके। सभी काव्य सम्प्रदायों का गहन और सूक्ष्म अध्ययन डॉ. नगेन्द्र ने किया तत्पश्चात् ही अपना रस-सिद्धान्त निर्धारित किया क्योंकि आनंदवादी, कल्याणवादी, रसवादी एवं समन्यवादी प्रवृत्ति डॉ. नगेन्द्र के मनोनुकूल एवं मनोवृत्ति की संवाहिका सिद्ध हुई है। यही कारण है कि काव्यमूल्यों का निर्धारण उस अखण्ड मानव चेतना के आलोक में करने के पक्षधर डॉ. नगेन्द्र रहे हैं। रस-सिद्धान्त को काव्य मूल्यांकन का सार्वभौम सिद्धान्त उन्होंने इसलिए घोषित किया है कि उनका अटूट आत्मविश्वास है तथा अडिग आस्था है कि शास्त्र रूढ़ियों से मुक्त रस-सिद्धान्त ही काव्य मूल्यांकन का व्यापक और विकासशील सिद्धान्त है और भविष्य में भी रहेगा जिस पर विकासशील सिद्धान्त है और भविष्य में भी रहेगा, जिस पर प्रत्येक राष्ट्र और काल से सर्जनात्मक साहित्य का मूल्यांकन किया जा सकता है। इसकी प्रकल्पना सर्वांगीण है, व्यापक है एवं विशद् है। वस्तुतः मानव चेतना की मूलवृत्ति रागात्मक है। यही कारण है कि जीवन के समस्त रूपों में और विविध मूल्यों के साथ रस-सिद्धान्त का पूर्णतः सामंजस्य है, तादात्म्य है जिसमें अन्तर्विरोध घुल-मिल जाते हैं, समीकृत हो जाते हैं।
रस-सिद्धान्त तीन दशक की साधना की चरम परिणति है। चूंकि डॉ. नगेन्द्र ने इस तथ्य को स्वयं स्वीकार किया है- इसलिए इससे इतर वे किसी दूसरी काव्य सिद्धान्त की कल्पना भी नहीं कर सकते। उन्हीं के शब्दों में, ‘पिछले तीस वर्षों में काव्य के मनन और चिंतन से मेरे मन में जो अन्तः संस्कार बनते रहे हैं, उनकी संहति रस-सिद्धान्त में ही हो सकती हैं। अतः रस-सिद्धान्त की उपलब्धि मैंने मूलतः ‘साधु काव्य निषेवण’ के द्वारा की है- शास्त्र के अनुचिंतन से तो उसका पोषण मात्र हुआ है।
रस को सार्वभौम और सार्वकालिक काव्य-निकष और साहित्य का मानदण्ड स्वीकारने वाले रसचेता समीक्षक डॉ. नगेन्द्र हैं जिन्होंने रस को मानव और आत्मा के साथ-साथ भूत, वर्तमान और भविष्य के साथ अभिन्न और अभेद संबंध दर्शाया है। मानव संवेदना के सतत् और अनवरत विकास के लिए रस परमावश्यक तत्व है। रस के अभाव में न केवल मानवजीवन में शुष्कता और उष्ठाता आएगी अपितु साहित्यरस और साहित्य सम्प्रदायों का परिहास और उपहास होगा क्योंकि रस की सार्वभौमिकता, सातत्यता और सारस्वतता असंदिग्ध है। डॉ. नंगेद्र के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि ‘जीवन की निरंतन विकासशील धारणाओं और आवश्यकताओं का आंकलन जिस प्रकार मानववाद में ही हो सकता है, उसी प्रकार साहित्य की विकासशील चेतना का परितोष भी रस-सिद्धान्त के द्वारा ही हो सकता है। जीवन की भूमिका में जब तक मानवता से महत्तर सत्य का आविर्भाव नहीं होता- और साहित्य की भूमिका में जब तक मानव संवेदना से अधिक प्रामाणिक सिद्धान्त की प्रकल्पना भी नहीं की जा सकती।
रस-सिद्धान्त को सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता की कसौटी घोषित करने वाले आधुनिक समीक्षकों में एकमात्र रसनिष्ठ समीक्षक डॉ. नगेन्द्र हैं। उनके रस-सिद्धान्त में भारतीयकाव्य शास्त्र, पाश्चात्य-काव्याशास्त्र के साथ मनोविज्ञान की त्रिवेणी का संगम और समागम देखने को मिला है। भारती रसवाद को उन्होंने पश्चिमी मनोविश्लेषण बाद से समन्वित कर देखा है जिसमें उपयोगितावाद, प्रभाववाद एवं सौंदर्यवाद का समाहार भी परिलक्षित होता है।’ इस प्रकार आधुनिक काव्यशास्त्र के विकास का यह तीसरा चरण रस-सिद्धान्त का स्वर्णयुग है। आज से लगभग एक हजार पूर्व दर्शन के आधार पर जिस प्रकार आनंदवर्धन, भट्टनायक, अभिनव गुप्त, महिम भट्ट और भोजराज आदि अनेक आचार्यार्ें ने रस-सिद्धान्त का चरम विकास किया था, उसी प्रकार वर्तमान युग के आलोचकों ने बीसवीं शताब्दी के दूसरे चरण में मनोविज्ञान आदि से आलोक एवं प्रेरणा ग्रहण कर नए ढंग से उसका पुनर्विकास किया है।4’ यही कारण है कि डॉ. नगेन्द्र का रस के प्रति विशेष आग्रह है तभी तो उन्होंने लिखा है कि ‘रस-सिद्धान्त इतना व्यापक है कि वह लोकमंगल का विरोधी या प्रतिद्वन्द्वी नहीं हो सकता और रागात्मक विश्रांति पर आधृत होने पर भी उचित सीमा के भीतर बुद्धितत्व का बहिष्कार नहीं कर सकता। वह तो केवल इतना ही मानता है कि बुद्धि जहाँ राग से स्वतंत्र हो जाती है, वहाँ कवित्व से भी उसका संबंध टूट जाता है। ऐसी स्थिति में, यह विश्वास करना कठिन नहीं है कि इस प्रकार के विरोध स्थायी नहीं हो सकते और रस-सिद्धान्त अपने व्यापक एवं विकासशील मानवतावादी आधार के कारण, इस युग में ही नहीं, भविष्य में भी काव्य के मूल्यांकन का मानक सिद्धान्त बना रहेगा।’5
करूणरस के आस्वादन में डॉ. नगेन्द्र अरस्तू के थार सिस सिद्धान्त के सन्निकट हैं। कला आनंदमयी चेतना है। वह कल्याणकारी, सुखकर एवं प्रीति कर होती हैं। सच्ची कला में असीम में समी, भेद में अभेद, अनेकता में एकता की प्रतीति होती है। इस प्रकार कला की प्रक्रिया वैविध्य को समाहित करने की प्रक्रिया है- बिखरे उपकरणों को समंजित कर कलाकार अनेकता में एकता स्थापित अन्विति जिसका रागात्मक आधार है। भेद में अभेद की प्रतीति और भेद में अभेद की प्रतीति निश्चय ही सुखकर अनुभूति है।’6 ठीक इसी प्रकार का कथन भी ‘रीतिकाव्य की भूमिका’ में देखा गया है। साक्ष्य हैं ये पंक्तियां, काव्य के भावन का अर्थ ही अव्यवस्था में व्यवस्था स्थापित करना है और अव्यवस्था में व्यवस्था ही आनंद है। इस प्रकार जीवन के कटु अनुभव भी काव्य में, अपने आधारभूत संवेदनों के समन्वित हो जाने से, आनंदप्रद बन जाते हैं।’ अतएव करुण रस का आस्वाद भी आनंदवाद है। उनका आनंवाद मूलतः आत्मानुभूति पर आधृत है। डॉ. नगेन्द्र के आनंदवाद में यथार्थ और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का समाहार है। डॉ. नगेन्द्र की रसवादी अवधारणा ‘आस्था के चरण’ में भी देखने को मिली है। उनकी मान्यता है, ‘आधुनिकता की चेतना जीवन की भाँति साहित्य-सर्जना की विधि का ही अंग है और यह चेतना जितनी प्रच्छन्न तथा अन्तर्व्याप्त रहेगी उतनी ही उपयोगी होगी। प्रबल अनुभूति की सफल अभिव्यक्ति ही साहित्य का मूल तत्व है, और अनुभूति की प्रबलता तथा अभिव्यक्ति के सफलता के आधार पर ही साहित्यगुण के तारतम्य का आंकलन किया जाता है। अनुभूति के मूल्यांकन की पहली कसौटी है उसका मानवीय गुण और मानवीण गुण के निर्णायक तत्व हैं आनंद और कल्याण, प्रेय और श्रेय।’7 डॉ. नगेन्द्र की यह भी स्थापना है कि ‘संस्कृत काव्यशास्त्र में विभिन्न आचार्यों ने शब्द-अर्थ के चमत्कार और भाव की आनंदमयी परिणति के विषयों में सूक्ष्म गहन अनुसंधान कर अन्ततः रस को ही काव्य की आत्मा माना है और रस की नाना प्रकार के व्याख्या कर उसे आत्मवाद के रूप में ही स्वीकार किया है। हिन्दी और मराठी के आधुनिक आलोचकों ने रस-सिद्धान्त का पुनराख्यान कर पाश्चात्य आलोचना के आनंदवादी अथवा सौंदर्यवादी मूल्यों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित किया।’8
उपर्युक्त विवेचन से डॉ. नगेन्द्र के रसवादी समीक्षक के आनंदवादी और सौंदर्यवादी प्रवृत्ति दृष्टिगोचन हुई है। साथ ही समन्वयात्मक दृष्टि तथा सामंजस्यवादी वृत्ति भी काम्य सिद्ध है। डॉ. नगेन्द्र की सौंदर्यानुभूति प्रकारान्तर से रसानुभूति की प्रक्रिया में परिवर्तित हो जाती है क्योंकि मनः रमण की स्थिति और परिस्थिति में विशेष आहलाद की स्थिति बनती है और शारीरिक तथा मानसिक स्तर पर परिवर्तन होना स्वाभाविक जिसकी परिणति में व्यक्ति रससिक्त हो जाता है जो व्यक्ति को आद्र बना देता है, नम और विनम्र बना देता है और व्यक्ति मुक्तावस्था में आनंद का भोग और सुख अनुभव करता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि रस-सिद्धान्त मानव संवेदनाओं और रागात्मक वृतियों पर आधृत एक विकासशील सार्वभौम सिद्धान्त है जिसका संबंध जीवन के उन शाश्वत और चिरंतन मूल्यों से है जो देशकाल परिस्थित के परिवर्तित होने पर भी चिरस्थायी और नित्य रहते हैं।
1. सम्पादक : डॉ. रणबीर रांग्रा : डॉ. नगेन्द्र : व्यक्तित्व सौर कृतित्व पृ. 108
2. डॉ. नगेन्द्र : कृतित्व और व्यक्तित्व पृ. 194
3. डॉ. नगेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व पृ. 270
4. डॉ. नगेन्द्र : रस-सिद्धान्त पृ. 73
5. उपरिवत् पृ. 75
6. उपरिवत् पृ. 133
7. आस्था के चरण पृ. 222
8. डॉ. नगेन्द्र : अनुसंधान और आलोचना पृ. 45
संपर्क : 8/29ए, शिवपुरी
अलीगढ़-202001 (उ.प्र.)
आलेख
रस-सिद्धान्त और डॉ. नगेन्द्र का योगदान
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय
डॉ. नगेन्द्र ने हिन्दी-समीक्षा के क्षेत्र में सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर गम्भीर एवं तर्कसंगत कार्य किया है तथा सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। सैद्धान्तिक समीक्षा के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने सर्वाधिक चिंतन रस-विषयक किया है जिसके परिणाम स्वरूप वे रस को मात्र काव्य का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण साहित्य का निकष स्वीकारते हैं। यही कारण है कि उन्होंने सार्वभौम साहित्यशास्त्र घोषित किया है। वस्तुतः डॉ. नगेन्द्र रसवादी, रसचेत्ता एवं रसनिष्ठ समीक्षक हैं। वे रस को ही काव्यात्मा मानते हैं। उनके मतानुसार रस का अभिन्न संबंध अनुभूति से है तथा ध्वनि का कल्पना से। ध्वनि और व्यंजना कल्पनारूप होकर अनुभूति का साधन बनते हैं जिसके परिणाम स्वरूप रसवाद और ध्वनिवाद का सामंजस्य स्थापित करते हुए डॉ. नगेन्द्र ने अपने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचना कृतियों का प्रणयन किया।
आधुनिक समीक्षा के समीक्षकों- शुक्ल, डॉ. श्याम सुन्दर दास, बाबू गुलाबराय आदि के साथ डॉ. नगेन्द्र का रसवादी समीक्षकों में विशेष महत्व है। रसवाद का संबंध आधुनिक मनोविज्ञान से भी जोड़कर डॉ. नगेन्द्र ने साहित्यानुशीलन किया है। आचार्य शुक्ल भी मौलिक रसवादी आचार्य रहे हैं लेकिन उनका रसवाद भारती काव्यशास्त्र में पाश्चात्य अवधारणा से कम और भारतीय अवधारणा से अधिक प्रभावित है। बाबू गुलाबराय ने भी अपनी समन्वयवादी समीक्षा में भारतीय और पाश्चात्य अवधारणों का उपयोग किया है। डॉ. नगेन्द्र ने पाश्चात्य अध्ययन-अध्यापन एवं स्वकीय अनुशीलन के बल पर भारतीय काव्यशास्त्रीय प्राचीन परम्पराओं और अवधारणाओं का चिंतन-मनन करते हुए अपना रस-सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। उदार परम्परावादी होते हुए भी उन्होंने तर्कसंगत निष्कर्ष दिए हैं। उन्होंने पश्चिमी चिंतन का पूर्णरूपेण उपयोग किया है। डॉ. नगेन्द्र का ‘रस-सिद्धान्त’ एक मानक और महनीय ग्रंथ है जिसमें रस-विषयक विविध महत्वपूर्ण समस्याओं पर व्यापक दृष्टि से गम्भीर विवेचन किया गया है जिसमें कुल छः अध्याय हैं। रसविषयक अनुशीलन में रस शब्द का अर्थ विकास, रस-सम्प्रदायिका इतिवृत्त, इसकी परिभाषा, रस का स्वरूप, करुण रस का आस्वाद, रस की निष्पत्ति और रस का स्थान, साधारणीकरण, भाव का विवेचन, रस संख्या, रसों का परस्पर संबंध, अंगीरस, रस विघ्न, रसाभास- इन बिन्दुओं पर गम्भीर चिंतन के साथ सटीक निष्कर्ष दिया गया है। रस-विषयक विवेचन में डॉ. नगेन्द्र ने काव्यशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र एवं मनोविज्ञान के आधार पर अपना निष्कर्ष और निर्णय दिया है। हिन्दी में साधारणीकरण की चर्चा आचार्य शुक्ल के निबंध ‘साधारणीकरण और व्यक्तिवैचिन्यवाद’ से प्रारम्भ हुआ है। तत्पश्चात् आचार्य केशवप्रसाद मिश्र, डॉ. श्याम सुंदर दास, पं. रामदहिन मिश्र, बाबू गुलाबराय आदि का उल्लेखनीय योगदान रहा है लेकिन सर्वाधिक गम्भीर चिंतन आचार्य शुक्ल के बाद डॉ. नगेन्द्र का ही साधारणीकरण के क्षेत्र में रहा है। डॉ. नगेन्द्र ने भारतीय काव्यशास्त्र-विशेषकर संस्कृत काव्यशास्त्र एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र के अध्ययनोपरान्त अपना मत व्यक्त किया है। चूंकि साधारणीकरण का मूल निरूपण संस्कृत काव्यशास्त्र से हुआ है- यही कारण है कि संस्कृताचार्यों के मतों का उल्लेख करना डॉ. नगेन्द्र के लिए अनिवार्य हो गया। ‘रीतिकाव्य की भूमिका’ और ‘रस-सिद्धान्त’ दोनों ग्रंथों में साधारणीकरण पर विवेचन हुआ है। डॉ. नगेन्द्र ने अपना सर्वाधिक चिंतन साधारणीकरण के विविध पक्षों में से एक महत्त्वपूर्ण पक्ष पर किया है कि
साधारणीकरण किसका होता है-? इसका उत्तर उन्होंने दिया है कि कवि की अपनी अनुभूति का साधारणीकरण होता है। लोकप्रिय रहा है। ‘रीति काव्य की भूमिका’ में विवेचित साधारणीकरण में तादात्म्य, समानुभूति और साधारणीकरण की सीमाएं परस्पर घुलमिल गई-दर्शाई गयी हैं।
1. प्रथमः डॉ. नगेन्द्र ने साधारणीकरण के संदर्भ में पांच अवधारणाओं और मान्यताओं को संदर्भित किया है। भट्टनायक की मान्यता जो इसके समस्त अवयवों-विभाव, अनुभाव, स्थायी, संचारीभाव का साधारणीकरण होता है। विभावादि साधारणीकरण पूर्व में होता है और स्थायीभाव का बाद में होता है।
2. द्वितीयः अभिनव गुप्त की मान्यता है कि मूलतः रस के अवयवों विभावादि का साधारणीकरण होता है, उसके परिणामस्वरूप स्थायी का साधारणीकरण होता है- जिससे सहृदय की चेतना व्यक्ति संसर्गों से मुक्त होकर, एकतान हो जाती है। इस मुक्त चेतना में समस्त शेष ज्ञान विलीन हो जाते हैं, समीकृत हो जाते हैं। भट्टनायक के साधारणीकरण में जहाँ विषय तथा विषयी-दोनों पक्षों का संतुलन था वहाँ अभिनव गुप्त के साधारणीकरण में भाव एवं विषयी पक्ष की स्वीकृति मिलती है।
3. तृतीयः विश्वनाथ के साधारणीकरण के संबंध में कहा गया है कि विभावादि तथा स्थायी सबका साधारणीकरण, परंतु साथ ही आश्रय के साथ तादात्म्य की स्थिति बनी रहती है। यहाँ आश्रय विशिष्ट ही रहता है, प्रभाता की चेतना बढ़कर उससे समीकृत हो जाती है, उसका तादात्म्य हो जाता है।
4. चतुर्थः आचार्य शुक्ल का साधारणीकरण- मूलतः आलम्बन या आलम्बनत्व धर्म का होता है। कवि आलम्बन का इस प्रकार वर्णन और अभिव्यंजना करता है कि वह अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए भी साधारणधर्मों के कारण सभी पाठकों और श्रोताओं के मन में समानभाव जागरित करता है जैसा कि काव्य-प्रसंग के अन्तर्गत आश्रय पात्र या चरित्र के मानस में होता है।
5. पंचमः भट्टतौत के साधारणीकरण में कवि, नायक, श्रोता- इन तीनों के भावों का तादात्म्य मिलता है। ये तीनों समन्वित रूप से समान भाव जागरित करते हैं।
उपर्युक्त विवेचनोपरान्त कहा जा सकता है कि डॉ. नगेन्द्र का मत साधारणीकरण विषयक भट्टनायक के मत से मेल खाता है। डॉ. नगेन्द्र का मत फिर भी अभिनव गुप्त से अधिक निकट है। डॉ. नगेन्द्र भट्टनायक की उपलब्धियों को अपने सिद्धान्त के अनुसार ढालने की पूरी कोशिश की है। डॉ. नगेन्द्र की साधारणीकरण की स्थापना है कि ‘साधारणीकरण समस्त काव्य-प्रसंग का होता है।’ डॉ. नगेन्द्र ने तर्क से प्रमाणित किया है कि ‘यह काव्य-प्रसंग तो अपने आप में जड़ वस्तु है- इसका चैतन्य अंश तो इसका अर्थ है और यह अर्थ क्या है-? कवि का संवेग, कजि की अनुभूति, सामान्य अनुभूति नहीं, सर्जनात्मक अनुभूति, भाव की कल्पनात्मक पुनः सर्जना की अनुभूति। अतः काव्य-प्रसंग और कुछ नहीं, कवि की भावना का बिम्बमात्र है। अतः काव्य प्रसंग या रस के समस्त अवयवों का साधारणीकरण मानने की अपेक्षा कवि भावना का साधारणीकरण मानना मनोविज्ञान के अधिक अनुकूल है।’ समग्रतः कहा जा सकता है कि डॉ. नगेन्द्र की यह विवेचना तर्कसंगत एवं शास्त्रीय आधार पर आधृत है। ‘असाधारणया विशिष्ट का व्यक्ति संसर्गों से मुक्त होते हुए साधारण हो जाना’ क्योंकि प्रमाता की चेतना भी व्यक्ति संसर्गों से मुक्त-साधारणीकृत हो जाती हैं। रस-सिद्धान्त में साधारणीकरण विषयक प्रश्न पर यह विवेचन समीक्षात्मक रूप में दिया गया है कि ‘विषयी पक्ष के साधारणीकरण में डॉ. नगेन्द्र दोनों बातों को समेटना चाहते हैंः एक तो प्रमात्य चेतना की व्यक्ति संसर्ग मुक्ति होते हुए शुद्ध साधारणीकृत भाव का उदय, दूसरी काव्य प्रसंग के प्रति कवि के साथ सहानुभूति। अतः जहाँ उनके विषय पक्ष के साधारणीकरण में शुद्ध साधारणीकरण है, वहाँ विषयी पक्ष के साधारणीकरण में साधारणीकरण $ समानुभूति है। विषयी पक्ष का यह साधारणीकरण में भी विषय पक्ष के साधारणीकरण के समान ही, उनके शब्दों की व्याख्या के अनुसार एक कवि की सर्जनात्मक अनुभूति के द्वारा दो ओर को किया गया कार्य है, अतः समूचे रूप में ‘कवि अनुभूति का ही साधारणीकरण है।1’
वास्तव में रस-सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का मेरुदण्ड कहा जाता है। भारतीय काव्यशास्त्र के प्रतिमान या निकष के रूप में रस-सिद्धान्त का वर्चस्व और प्रभुत्व असांदिग्ध रहा है। भरतमुनि से आरम्भ होकर पं. राज जगन्नाथ में रस-सिद्धान्त का व्यवस्थित और गम्भीर विवेचन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया है जिसमें लोकभूमि, लोकरंजन और लोकमंगल की भावना को रेखांकित किया गया है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद रस-सिद्धान्त पर गम्भीर कार्य करने वाले रसवादी समीक्षक डॉ. नगेन्द्र का शीर्षस्थ स्थान है जिन्होंने इस-सिद्धान्त को शाश्वत किया है। इस सिद्धान्त के सबसे प्रबल पोषक और समर्थक डॉ. नगेन्द्र रहे हैं। डॉ. नगेन्द्र का यह कथन समीचीन है कि ‘संस्कृत काव्यशास्त्र में रसों के परस्पर संबंध विरोध और अविरोध तथा विरोध परिहार आदि का अत्यन्त सूक्ष्म एवं रोचक विवेचन किया गया है। सामान्यतः ये प्रश्न शास्त्र रूढ़ से प्रतीत होते हैं परंतु काव्य की आस्वादन (रसास्वादन) प्रक्रिया के साथ-साथ घनिष्ठ संबंध होने के कारण इनका ता-त्विक मूल्य भी असंदिग्ध है और इन प्रसंगों की व्याख्या से रस के आस्वादन से सम्बद्ध अनेक समस्याओं के समाधान के लिए मार्ग प्रशस्त हो जाता है।’
डॉ. जयचन्द्र राय ने ‘डॉ. नगेन्द्र का रस-सिद्धान्त’ आलेख में लिखा है कि ‘आचार्य शुक्ल की आलम्बनात्मक रस-दृष्टि’ जिस स्वच्छन्तावादी काव्यान्दोलन को उसके पूर्ण वैभव के साथ नहीं ग्रहण कर सकी, उसको डॉ. नगेन्द्र्र की आत्मवादी रसचेतना ने प्रथम श्रेणी का सृजनात्मक आन्दोलन घोषित किया। इस प्रकार सिद्धान्त और व्यवहार, दोनों क्षेत्रों में ही उनके रस-चिंतन की आधारशिला वह आत्माभिव्यक्तिवाद ही बनता है जो स्वच्छन्दतावाद से प्रेरित है।’ इसके स्वरूप का निर्धारण, उसकी निष्पत्ति की प्रक्रिया का निरूपण, उसके निष्पादक-उपकरणों का विश्लेषण, व्यापक और सार्वभौम काव्य मूल्य के रूप में रस की प्रतिष्ठा, अन्य मूल्यों और सिद्धान्तों में उसकी सापेक्षता में उसकी योग्यता और श्रेयस्करता का अनुशीलन और आंकलन तथा विभिन्न काव्य प्रवृत्तियों के परिपार्श्व में उसके सामंजस्य-स्थापन में डॉ. नगेन्द्र का दृष्टिकोण अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं व्यावहारिक है। डॉ. नगेन्द्र ने अपनी अवधारणा प्राचीन आचार्यों के परिप्रेक्ष्य में भी स्पष्ट की है, ‘ऐतिहासिक तथ्य चाहे कुछ भी हो, भरत का आशय जो भी रहा हो, भारतीय साहित्य एवं साहित्यशास्त्र में अभिनव-प्रतिपादित आस्वादपरक रूप ही मान्य हुआ। विषयगत अर्थ अर्थात् भरत का अभीष्ट अर्थ ‘रस’ के स्थान पर ‘काव्य’ का वाचक बन गया। भाव की कलात्मक अभिव्यंजना ‘रस’ नहीं है- काव्य है, और इस प्रकार परिभाषित ‘काव्य’ का आस्वाद ‘रस’ है। भारतीय काव्यशास्त्र में रस का प्रतिनिधि एक परिनिष्ठित अर्थ अन्ततः यही मान्य हुआ, इसीके संदर्भ में रस के स्वरूप का विवेचन सार्थक होगा।’
इस प्रकार कहा जा सकता है कि डॉ. नगेन्द्र ने ठीक ही कहा है कि ‘इस व्यक्तिबद्ध भाव का आस्वाद नहीं है, वैयक्तिकता से रस का कुछ भी लेना-देना नहीं है बल्कि साधारणीकृत भाव का आस्वाद है। आगे यह भी कहा गया है कि साधारणीकृत भाव निर्विषय होने के कारण राग-द्वेष के दंश से सर्वथा मुक्त होता है। इसलिए वह आनंदमय ही होता है- वह एक प्रकार के भाव के माध्यम से आत्मा अर्थात् शुद्ध-बुद्ध चेतना का आस्वाद है जो सर्वथा आनंदमय ही होता है।’ यही कारण है कि रस की परिणति आनंद की अनुभूति है। परम्परागत रस की अवधारणा स्वच्छन्तावाद से साम्य एवं तादात्म्य रखने पर भी नव्य सोच विकसित करने में सक्षम नहीं है। काव्यानंद को आध्यात्मिक आनंद से भिन्न करके डॉ. नगेन्द्र ने अनुभव किया है क्योंकि आनन्दानुभूति व्यावहारिक धरातल पर घटित होती है- अलौकिक या आध्यात्मिक जगत् में नहीं। डॉ. नगेन्द्र ने इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है कि ‘काव्य की रचना या अनुभूति की क्रिया आत्मा की क्रिया नहीं है- कम से कम उस अर्थ में तो नहीं ही है जिस अर्थ में योग साधना या ब्रह्म-चिंतन आदि हैं। ऐसी स्थिति में काव्य-निबद्ध या काव्य-प्रेरित स्थायी भाव के आस्वाद को भी आध्यात्मिक आनंद नहीं कहा जा सकता, अर्थात् काव्यानंद प्रचलित अर्थ में आत्मानंद का पर्याय या उसका रूप विशेष नहीं है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि डॉ. नगेन्द्र का आग्रह आनंद पर है, कल्याण पर है। रस का उनका चिंतन व्यावहारिक है, लौकिक है- इस जीव और जगत से संबंधित है। इसके अलौकिकता और आध्यात्मिकता की कोई गुंजाइश नहीं होती। यही कारण है कि डॉ. नगेन्द्र आनंद को अपने आप में कल्याणकारी मानते हैं। वे स्वयं प्रश्न भी करते हैं कि ‘क्या आनंद अपने आप में कल्याणकर नहीं है या कल्याण की चरमसिद्धी आनंद नहीं है।’ अतएव कल्याणजन्य आनंद रसानंद से सम्बद्ध होने पर भी तात्विक दृष्टि से भिन्नता है। डॉ. नगेन्द्र के समीक्षक रूप की तुलना डॉ. रमेश कुंतल मेघ ने विक्टोरियन कवि समीक्षक मैथ्यू आर्नल्ड से की हैः ‘नगेन्द्र को मैं आत्माभिव्यक्तिमूलक आनंदवादी मानता हूँ, आर्नल्ड नीतिमूलक आनंदवादी थे। दोनों ने रोमांटिक काव्य के वायवीपन, शृंंगारिकता तथा रहस्यात्मकता का विरोध किया है किन्तु नगेन्द्र की जमीन व्यक्तिवादी और मनोवैज्ञानिक रही है और आर्नल्ड की संस्कृतिवादी और सामाजिक। नगेन्द्र राजनीति को साहित्य का प्रतिकूल घटक मानते हैं. आर्नल्ड राजनीति दर्शन पर अपने ‘आदर्शराज्य और सर्वोत्तम-स्वायत्त’ की नींव रखते हैं। नगेन्द्र क्लासिकल भारतीय रस की मधुरता और मनोवैज्ञानिक चिंतन के आलोक का समन्वय करते हैं, और आर्नल्ड ईसाई नैतिकता की मधुरता तथा यूनानी संस्कृति के आलोक का समन्वय करते हैं।’2 इस प्रकार दोनों में समन्वायत्मक दृष्टि का उन्मेष देखने को मिला है। सार्वभौम साहित्यशास्त्र की प्रकल्पना में डॉ. नगेन्द्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, क्योंकि पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों के कृतियों का अनुवाद करके तथा सम्पादन करके भारतीय साहित्यशास्त्र के साहित्यकारों के लिए नव्य सामग्री डॉ. नगेन्द्र उपलब्ध करा दी है। अपने आप में यह एक बृहद और महनीय कार्य है। उनके अनुवाद कार्य की अनुशंसा करते हुए डॉ. गोपाल शर्मा ने लिखा है कि ‘भारतीय काव्यशास्त्र के गहन अध्ययन, अनुसंधान एवं उन्नयन के लिए डॉ. नगेन्द्र ने वर्षों तक कठोर साधना की है। इसी के फलस्वरूप हिन्दी साहित्य के इस क्षेत्र में उन्हें आचार्यत्व प्राप्त हुआ है। आलोचना के क्षेत्र में जो विचारक एकांगी चिंतन नहीं करता, वह विश्व के अन्य भागों के समृद्ध साहित्य में उपलब्ध सामग्री और विचारों के प्रति जागरूक रहता है और साथ ही तुलनात्मक अध्ययन द्वारा विचारों के सम्यक् समन्वयशील परिपक्वता की सृष्टि करता जाता है।3 डॉ. नगेन्द्र अंग्रेजी साहित्य के भी समर्थ विद्वान हैं। सम्भवतः इसलिए उन्होंने काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों का परिशीलन करने के लिए अंग्रेजी के माध्यम से उपलब्ध अरस्तू और लोंजाइनस के विचारों को भलीभांति आत्मसात् करने के लिए अनुवाद के क्षेत्र में पदार्पण किया। भारतीय काव्यशास्त्र के विचेनात्मक अध्ययन के लिए उससे सम्बद्ध और उसके अनुपूरक पाश्चात्य काव्यशास्त्र का भी तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करना और इस उद्देश्य से उसके अनुवाद के प्रेरक और निष्पादक बनना डॉ. नगेन्द्र की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
अरस्तू के प्रसिद्ध निबंध ‘पेरिपारतिकेस’ का पाश्चात्य काव्यशास्त्र में भारतीय काव्यशास्त्र में भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ के सदृश्य ही स्थान प्राप्त है। लोंजाइनस की रचना ‘पेरिइप्सुस’ शैली की दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी जाती है। डॉ. नगेन्द्र इस प्रकार अनुवादकों के प्रेरक, नियामक एवं विधायक सिद्ध हुए हैं। यूनानी भाषा के महनीय और मानक ग्रंथों का अंग्रेजी माध्यम से अनुवाद करना भी सहज सरल कार्य न था, जिसको डॉ. नगेन्द्र ने अपने कर कमलों से कर दिखाया। शास्त्रीय शब्दावली के हिन्दी रूप का निर्धारण करते समय उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्र के पारिभाषित शब्दों का प्रयोग करने के साथ-साथ नवरूप सृजन भी किया है जो एक अभिनव उपलब्धि है। डॉ. नगेन्द्र के समीक्षक की यह विशेषता रही है कि वह रसेतर सम्प्रदायों की परिणति भी रसवाद में ही देखना चाहता है, क्योंकि वे रसचेत्ता, रसनिष्ठ एवं रसवादी-समन्वयशील समीक्षक रहे हैं।
भारतीय काव्यशास्त्र का विवेचन-विश्लेषण करते हुए डॉ. नगेन्द्र उसकी गहराइयों में उत्तरोत्तर उतरते गए और पाश्चात्य काव्य-सिद्धान्तों का तुलनात्मक अध्ययन करके उसके साम्य और वैषम्य पर गहन विचार किया तथा सार्वभौम साहित्यशास्त्र की प्रकल्पना की_ ताकि भारतीय काव्यशास्त्र की निर्मिति भी हो सके। सभी काव्य सम्प्रदायों का गहन और सूक्ष्म अध्ययन डॉ. नगेन्द्र ने किया तत्पश्चात् ही अपना रस-सिद्धान्त निर्धारित किया क्योंकि आनंदवादी, कल्याणवादी, रसवादी एवं समन्यवादी प्रवृत्ति डॉ. नगेन्द्र के मनोनुकूल एवं मनोवृत्ति की संवाहिका सिद्ध हुई है। यही कारण है कि काव्यमूल्यों का निर्धारण उस अखण्ड मानव चेतना के आलोक में करने के पक्षधर डॉ. नगेन्द्र रहे हैं। रस-सिद्धान्त को काव्य मूल्यांकन का सार्वभौम सिद्धान्त उन्होंने इसलिए घोषित किया है कि उनका अटूट आत्मविश्वास है तथा अडिग आस्था है कि शास्त्र रूढ़ियों से मुक्त रस-सिद्धान्त ही काव्य मूल्यांकन का व्यापक और विकासशील सिद्धान्त है और भविष्य में भी रहेगा जिस पर विकासशील सिद्धान्त है और भविष्य में भी रहेगा, जिस पर प्रत्येक राष्ट्र और काल से सर्जनात्मक साहित्य का मूल्यांकन किया जा सकता है। इसकी प्रकल्पना सर्वांगीण है, व्यापक है एवं विशद् है। वस्तुतः मानव चेतना की मूलवृत्ति रागात्मक है। यही कारण है कि जीवन के समस्त रूपों में और विविध मूल्यों के साथ रस-सिद्धान्त का पूर्णतः सामंजस्य है, तादात्म्य है जिसमें अन्तर्विरोध घुल-मिल जाते हैं, समीकृत हो जाते हैं।
रस-सिद्धान्त तीन दशक की साधना की चरम परिणति है। चूंकि डॉ. नगेन्द्र ने इस तथ्य को स्वयं स्वीकार किया है- इसलिए इससे इतर वे किसी दूसरी काव्य सिद्धान्त की कल्पना भी नहीं कर सकते। उन्हीं के शब्दों में, ‘पिछले तीस वर्षों में काव्य के मनन और चिंतन से मेरे मन में जो अन्तः संस्कार बनते रहे हैं, उनकी संहति रस-सिद्धान्त में ही हो सकती हैं। अतः रस-सिद्धान्त की उपलब्धि मैंने मूलतः ‘साधु काव्य निषेवण’ के द्वारा की है- शास्त्र के अनुचिंतन से तो उसका पोषण मात्र हुआ है।
रस को सार्वभौम और सार्वकालिक काव्य-निकष और साहित्य का मानदण्ड स्वीकारने वाले रसचेता समीक्षक डॉ. नगेन्द्र हैं जिन्होंने रस को मानव और आत्मा के साथ-साथ भूत, वर्तमान और भविष्य के साथ अभिन्न और अभेद संबंध दर्शाया है। मानव संवेदना के सतत् और अनवरत विकास के लिए रस परमावश्यक तत्व है। रस के अभाव में न केवल मानवजीवन में शुष्कता और उष्ठाता आएगी अपितु साहित्यरस और साहित्य सम्प्रदायों का परिहास और उपहास होगा क्योंकि रस की सार्वभौमिकता, सातत्यता और सारस्वतता असंदिग्ध है। डॉ. नंगेद्र के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि ‘जीवन की निरंतन विकासशील धारणाओं और आवश्यकताओं का आंकलन जिस प्रकार मानववाद में ही हो सकता है, उसी प्रकार साहित्य की विकासशील चेतना का परितोष भी रस-सिद्धान्त के द्वारा ही हो सकता है। जीवन की भूमिका में जब तक मानवता से महत्तर सत्य का आविर्भाव नहीं होता- और साहित्य की भूमिका में जब तक मानव संवेदना से अधिक प्रामाणिक सिद्धान्त की प्रकल्पना भी नहीं की जा सकती।
रस-सिद्धान्त को सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता की कसौटी घोषित करने वाले आधुनिक समीक्षकों में एकमात्र रसनिष्ठ समीक्षक डॉ. नगेन्द्र हैं। उनके रस-सिद्धान्त में भारतीयकाव्य शास्त्र, पाश्चात्य-काव्याशास्त्र के साथ मनोविज्ञान की त्रिवेणी का संगम और समागम देखने को मिला है। भारती रसवाद को उन्होंने पश्चिमी मनोविश्लेषण बाद से समन्वित कर देखा है जिसमें उपयोगितावाद, प्रभाववाद एवं सौंदर्यवाद का समाहार भी परिलक्षित होता है।’ इस प्रकार आधुनिक काव्यशास्त्र के विकास का यह तीसरा चरण रस-सिद्धान्त का स्वर्णयुग है। आज से लगभग एक हजार पूर्व दर्शन के आधार पर जिस प्रकार आनंदवर्धन, भट्टनायक, अभिनव गुप्त, महिम भट्ट और भोजराज आदि अनेक आचार्यार्ें ने रस-सिद्धान्त का चरम विकास किया था, उसी प्रकार वर्तमान युग के आलोचकों ने बीसवीं शताब्दी के दूसरे चरण में मनोविज्ञान आदि से आलोक एवं प्रेरणा ग्रहण कर नए ढंग से उसका पुनर्विकास किया है।4’ यही कारण है कि डॉ. नगेन्द्र का रस के प्रति विशेष आग्रह है तभी तो उन्होंने लिखा है कि ‘रस-सिद्धान्त इतना व्यापक है कि वह लोकमंगल का विरोधी या प्रतिद्वन्द्वी नहीं हो सकता और रागात्मक विश्रांति पर आधृत होने पर भी उचित सीमा के भीतर बुद्धितत्व का बहिष्कार नहीं कर सकता। वह तो केवल इतना ही मानता है कि बुद्धि जहाँ राग से स्वतंत्र हो जाती है, वहाँ कवित्व से भी उसका संबंध टूट जाता है। ऐसी स्थिति में, यह विश्वास करना कठिन नहीं है कि इस प्रकार के विरोध स्थायी नहीं हो सकते और रस-सिद्धान्त अपने व्यापक एवं विकासशील मानवतावादी आधार के कारण, इस युग में ही नहीं, भविष्य में भी काव्य के मूल्यांकन का मानक सिद्धान्त बना रहेगा।’5
करूणरस के आस्वादन में डॉ. नगेन्द्र अरस्तू के थार सिस सिद्धान्त के सन्निकट हैं। कला आनंदमयी चेतना है। वह कल्याणकारी, सुखकर एवं प्रीति कर होती हैं। सच्ची कला में असीम में समी, भेद में अभेद, अनेकता में एकता की प्रतीति होती है। इस प्रकार कला की प्रक्रिया वैविध्य को समाहित करने की प्रक्रिया है- बिखरे उपकरणों को समंजित कर कलाकार अनेकता में एकता स्थापित अन्विति जिसका रागात्मक आधार है। भेद में अभेद की प्रतीति और भेद में अभेद की प्रतीति निश्चय ही सुखकर अनुभूति है।’6 ठीक इसी प्रकार का कथन भी ‘रीतिकाव्य की भूमिका’ में देखा गया है। साक्ष्य हैं ये पंक्तियां, काव्य के भावन का अर्थ ही अव्यवस्था में व्यवस्था स्थापित करना है और अव्यवस्था में व्यवस्था ही आनंद है। इस प्रकार जीवन के कटु अनुभव भी काव्य में, अपने आधारभूत संवेदनों के समन्वित हो जाने से, आनंदप्रद बन जाते हैं।’ अतएव करुण रस का आस्वाद भी आनंदवाद है। उनका आनंवाद मूलतः आत्मानुभूति पर आधृत है। डॉ. नगेन्द्र के आनंदवाद में यथार्थ और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का समाहार है। डॉ. नगेन्द्र की रसवादी अवधारणा ‘आस्था के चरण’ में भी देखने को मिली है। उनकी मान्यता है, ‘आधुनिकता की चेतना जीवन की भाँति साहित्य-सर्जना की विधि का ही अंग है और यह चेतना जितनी प्रच्छन्न तथा अन्तर्व्याप्त रहेगी उतनी ही उपयोगी होगी। प्रबल अनुभूति की सफल अभिव्यक्ति ही साहित्य का मूल तत्व है, और अनुभूति की प्रबलता तथा अभिव्यक्ति के सफलता के आधार पर ही साहित्यगुण के तारतम्य का आंकलन किया जाता है। अनुभूति के मूल्यांकन की पहली कसौटी है उसका मानवीय गुण और मानवीण गुण के निर्णायक तत्व हैं आनंद और कल्याण, प्रेय और श्रेय।’7 डॉ. नगेन्द्र की यह भी स्थापना है कि ‘संस्कृत काव्यशास्त्र में विभिन्न आचार्यों ने शब्द-अर्थ के चमत्कार और भाव की आनंदमयी परिणति के विषयों में सूक्ष्म गहन अनुसंधान कर अन्ततः रस को ही काव्य की आत्मा माना है और रस की नाना प्रकार के व्याख्या कर उसे आत्मवाद के रूप में ही स्वीकार किया है। हिन्दी और मराठी के आधुनिक आलोचकों ने रस-सिद्धान्त का पुनराख्यान कर पाश्चात्य आलोचना के आनंदवादी अथवा सौंदर्यवादी मूल्यों के साथ उसका सामंजस्य स्थापित किया।’8
उपर्युक्त विवेचन से डॉ. नगेन्द्र के रसवादी समीक्षक के आनंदवादी और सौंदर्यवादी प्रवृत्ति दृष्टिगोचन हुई है। साथ ही समन्वयात्मक दृष्टि तथा सामंजस्यवादी वृत्ति भी काम्य सिद्ध है। डॉ. नगेन्द्र की सौंदर्यानुभूति प्रकारान्तर से रसानुभूति की प्रक्रिया में परिवर्तित हो जाती है क्योंकि मनः रमण की स्थिति और परिस्थिति में विशेष आहलाद की स्थिति बनती है और शारीरिक तथा मानसिक स्तर पर परिवर्तन होना स्वाभाविक जिसकी परिणति में व्यक्ति रससिक्त हो जाता है जो व्यक्ति को आद्र बना देता है, नम और विनम्र बना देता है और व्यक्ति मुक्तावस्था में आनंद का भोग और सुख अनुभव करता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि रस-सिद्धान्त मानव संवेदनाओं और रागात्मक वृतियों पर आधृत एक विकासशील सार्वभौम सिद्धान्त है जिसका संबंध जीवन के उन शाश्वत और चिरंतन मूल्यों से है जो देशकाल परिस्थित के परिवर्तित होने पर भी चिरस्थायी और नित्य रहते हैं।
1. सम्पादक : डॉ. रणबीर रांग्रा : डॉ. नगेन्द्र : व्यक्तित्व सौर कृतित्व पृ. 108
2. डॉ. नगेन्द्र : कृतित्व और व्यक्तित्व पृ. 194
3. डॉ. नगेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व पृ. 270
4. डॉ. नगेन्द्र : रस-सिद्धान्त पृ. 73
5. उपरिवत् पृ. 75
6. उपरिवत् पृ. 133
7. आस्था के चरण पृ. 222
8. डॉ. नगेन्द्र : अनुसंधान और आलोचना पृ. 45
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संपर्क : 8/29ए, शिवपुरी
अलीगढ़-202001 (उ.प्र.)
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