आलेख आत्म निरीक्षण - एक श्रेष्ठ गुण सनातन कुमार वाजपेयी ‘सनातन’ प रमात्मा द्वारा हमारे शरीर की संरचना की गई है। इसमें रक्त, मांस, मज्जा और त...
आलेख
आत्म निरीक्षण - एक श्रेष्ठ गुण
सनातन कुमार वाजपेयी ‘सनातन’
परमात्मा द्वारा हमारे शरीर की संरचना की गई है। इसमें रक्त, मांस, मज्जा और तरह-तरह की आवश्यक अस्थियों का निर्माण किया है। इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियां नेत्र, कान, त्वचा, नाक एवं रसना की संरचना की है। जिनके माध्यम से हम सभी प्रकार के रसों (विषयों) का उपयोग एवं उपभोग करते हैं। यथाः- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध। यदि ज्ञानेन्द्रियां नहीं होतीं तो हम इन रसों के उपभोग से वंचित रह जाते हैं।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि हम इन विषयों की प्राप्ति कैसे करें? इसके निमित्त ईश्वर ने हमारे शरीर में पाँच कर्मेन्द्रियां बनाइंर्। इनमें हाथ, पाँव, मुख, मूत्रद्वार एवं उपस्थ प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त परमात्मा ने हमें मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये चार अन्तःकरण प्रदान किये। इस प्रकार हमारे शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और चार अन्तःकरण मिलाकर कुल चौदह करण (इन्द्रियां) हैं। हमारा जीवन इन्हीं सब कारणों की सहायता से ही संचालित होता है।
इन सब कारणों में नेत्रेन्द्रिय अत्यन्त महत्वपूर्ण है। परमात्मा का हम पर विशेष अनुग्रह है कि उसने हमें नेत्र प्रदान कर संसार के स्वरूप को देखने की शक्ति प्रदान की है। परमात्मा ने हमारे चेहरे में नेत्र सामने बनाये हैं। जिससे हमें सामने की प्रत्येक वस्तु दिखाई पड़ती है। सामने कौन से पेड़ पौधे हैं, कौन सी वस्तु हैं, कौन से मनुष्य हैं, किन में कौन सी अच्छाई है, या बुराई है। हमारा पूरा दिन इन्हीं सब बातों के विश्लेषण में बीत जाता है।
हमारे जीवन में जितने भी मनुष्य आते हैं, उनमें हमें दोष अधिक और गुण कम दिखाई पड़ते हैं। हमें अपने आप में ऐसा अनुभव होता है कि इस संसार में सर्वश्रेष्ठ मनुष्य मैं ही हूं। शेष सब मुझसे कम बुद्धिवाले हैं। यही कारण है कि हम दूसरों की अपेक्षा स्वयं को अधिक महत्व देते हैं।
यह एक अलग बात है कि किसी के घर आने पर या उनके सामने पड़ने पर औपचारिकता का निर्वाह करते हुये हम उसे सम्मान देने का अभिनय करते रहते हैं। किन्तु इस सम्मान के साथ हमारा हृदय कदापि नहीं होता।
जहां भी दो चार लोग एकत्र होकर बैठते हैं वहाँ अन्यों के सद्गुणों की चर्चा तो कम ही होती है। खोज-खोज कर उसके अवगुणों को एकत्र किया जाता है। फिर घंटों उन अवगुणों की निन्दा की जाती है। इस निन्दारस में हमें जिस सुख की अनुभूति होती है। वह तो वर्णनातीत होती है। हमें उसमें सुख की अनुभूति होती है।
यह संसार तो गुण दोषों का पिटारा है ही। विधाता ने दोनों को मिलाकर ही संसार को बनाया है। इन्हें ही इन्द्र कहा जाता है। यह संसार द्वन्द्वात्मक है। इसमें रात है तो दिन भी है। सुख है तो दुख भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी वस्तुयें जोड़ी सहित हैं। श्री रामचरित मानस में कहा गया है कि-
विधि प्रपंच गुण दोष मय, विश्व कीन्ह करतार।
किन्तु इसका तात्पर्य यह तो नहीं है कि कोई दोष युक्त वस्तु में कोई अच्छी बात है ही नहीं। उदाहरण के लिये हम सर्प को ही लेते हैं। अगर उसका जहर प्राण लेता है तो औषधि के रूप में वह प्राणदान भी देता है।
इसी प्रकार संसार की प्रत्येक वस्तु के भी दो पक्ष होते हैं। यदि किसी व्यक्ति में कोई दुर्गुण है तो उसमें निश्चित ही कुछ सद्गुण भी होंगे। किन्तु हमारी दृष्टि सद्गुणों की ओर कम ही जा पाती है। हम उसमें बुराइयाँ अधिक देखा करते हैं।
यदि हम दूसरों की बुराइयों की ओर देखना बन्द कर दें। केवल उसके सद्गुणों की ओर देखना प्रारम्भ कर दें। उन्हें अपने चरित्र में उतारने का प्रयत्न करें तो यह अधिक श्रेयस्कर बात होगी। किन्तु हम ऐसा करते नहीं।
अच्छाइयां बुराइयां सभी में होती हैं। हम भी संसारी मनुष्य हैं। अतः हम भी इससे अछूते नहीं हैं। यदि हम स्वयं की बुराइयों की ओर ध्यान दें। आत्म निरीक्षण की प्रवृत्ति अपने आप में डालें तो हम पायेंगे कि हम अन्यों से अधिक दोषयुक्त हैं।
हमारे मन में अनेक मनोविकार हैं। जिनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, मान, सम्मान आदि न जाने कितने दुर्गुणों की भरमार है।
काम अथवा कामनाओं से कभी हमारा मन विलग ही नहीं हो पाता। कहीं हम किसी सुन्दर स्त्री की कामना करते हैं, तो कहीं भव्य भवन की। यह काम इतना शक्तिशाली विकार है जो हमारे मन को शान्ति से कभी बैठने ही नहीं देता। उसे सदा दौड़ाता ही रहता है। यह बलशाली भी बहुत है। बड़े-बड़े सन्त महात्माओं और मनीषियों को भी यह पछाड़ा लगा देता है।
इसी प्रकार हम रात दिन क्रोध में फुंफकारते रहते हैं। किसी की छोटी सी त्रुटि भी हमें सहन नहीं होती। लोभ ने तो हमारा गला ही पकड़ रखा है। आज चोरी, डकैती, घूस, भ्रष्टाचार, हत्या आदि सभी के मूल में यह लोग की प्रवृत्ति ही है। दूसरों की सम्पत्ति को देखकर यह प्रवृत्ति उछालें भरने लगती है। इस लोभ का संवरण बड़े-बड़े लोग नहीं कर पाते। चाहे वे सन्त हों, महात्मा हों, राजनीतिज्ञ हों अथवा किसी उच्च पद पर आसीन अधिकारी हों। तब फिर हम किस गिनती में हैं। हमें किसी दूसरे के धन का अपहरण करने का मौका न मिले यह अलग बात है। किन्तु यह दोष तो हममें है. अपने परिश्रम से यदि हम उस वस्तु को प्राप्त करने की चेष्टा करें तो यह तो गौरव की बात होगी। किन्तु हम ऐसा न करके छीन छपटकर येन केन प्रकारेण उस वस्तु को पाने की इच्छा रखते हैं।
हमारे मन में ईर्ष्या का भाव भी विराजमान है। हम सदैव अन्यों के वैभव, पद प्रतिष्ठा, मान, सम्मान अथवा अन्याय उपलब्धियाँ देखकर ईर्ष्या से जल भुन जाते हैं। ऊपर से उसे
बधाई देने का उपक्रम किया करते हैं। किन्तु मन के अन्दर ईर्ष्या का भाव रहता है।
मान-सम्मान के तो हम इतने अधिक भूखे हैं कि चाहते हैं कि पूरी दुनिया ही हमारे चरणों में आकर प्रणाम करे। अन्यों को सम्मान देने से हमें सम्मान की प्राप्ति होती है, इस मंत्र को पूरी तरह भूल जाते हैं।
हमें संसार के सारे लोगों में कुछ न कुछ दोष दिखाई देते हैं। किन्तु आश्चर्य की बात है कि हमें अपने स्वयं के दोष दिखाई नहीं देते हैं। जबकि सबसे अधिक दोष इसमें हैं। सन्त कबीरदास ने कहा है किः-
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजो आपनो, मुझ से बुरा न कोय.
हम एक बात की ओर और ध्यान दें कि जब हम किसी की ओर अपनी एक उँगली उठाते हैं तो उस समय तीन उँगलियां हमारी ओर रहती हैं। हम उंगलियों की इस मुद्रा के आशय को समझें। हम तीन गुने दोषी हैं।
अधिक अच्छा होगा कि हम दूसरों में बुराइयां देखने की प्रवृत्ति को पूर्णतः बन्द कर दें। यदि बुराइयां ही देखना है तो अपनी बुराइयों को देखें। सदैव आत्मनिरीक्षण करते रहें। पूर्णतः तटस्थ भाव से अपने दोषों को जानें, पहिचानें। क्रमशः उन्हें दूर करने का संकल्प लें और प्रयत्नशील रहें। तभी हमारा सुधार संभव है।
ये मनोविकार इतने चुस्त चालाक होते हैं कि मन के किसी कोने में दुबके पड़े रहते हैं और अवसर मिलते ही ये विकराल रूप धारण करके हमारा सत्यानाश करने को तत्पर हो जाते हैं। अतः हमें सदैव सावधान रहने की आवश्यकता है। पर दोष देखने की अपेक्षा आत्मनिरीक्षण करते रहना एक अत्यन्त श्रेष्ठ गुण है। इससे धीरे-धीरे हमारे दोषों का परिहार होता है और हममें चारित्रिक चारूता आती है। इसी में हमारा आत्म कल्याण निहित है। हमारी श्रेष्ठता निर्भर है।
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संपर्क : पुराना कछपुरा स्कूल
गढ़ा, जबलपुर-482003 (म.प्र.)
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