काव्य जगत गजल हरदीप बिरदी उसे रोका अगर होता तो यूँ बिगड़ा नहीं होता। जरा सी बात पर फिर यूँ कभी दंगा नहीं होता। तुझे गर खून की कीमत कहीं अपने ...
काव्य जगत
गजल
हरदीप बिरदी
उसे रोका अगर होता तो यूँ बिगड़ा नहीं होता।
जरा सी बात पर फिर यूँ कभी दंगा नहीं होता।
तुझे गर खून की कीमत कहीं अपने पता होती,
कभी खत यार को फिर खून से लिख्खा नहीं होता।
उसे जो याद करता है उसी का रब हुआ समझो,
निकालो बात दिल से ये कि रब सबका नहीं होता।
मुहब्बत की खनक दिल में अगर तेरे नहीं होती,
यकीं कर ले, तू बनके दिल मेरा धड़का नहीं होता।
दिलों के तार तुझसे हैं कहीं बेशक जुड़े वर्ना,
तेरे बारे में यूँ इतना कभी सोचा नहीं होता।
जहां पर प्यार होता है भरोसा हो ही जाता है,
खुदा की रहमतों से फिर कभी धोखा नहीं होता।
बिगड़ जाती है बनती बात भी नफरत के चश्मों से
मुहब्बत के बिना झगड़े का समझौता नहीं होता।
खुदा की हो अगर रहमत लिखा जाता है तब ‘बिरदी’
वगरना यह गजल क्या एक भी मिसरा नहीं होता।
Add : 6826, St. No. 10,
New Janta Nagar,
Daba Road, Ludhiana
PIN-141003 (Punjab)
जगदीश तिवारी की गजल
लिखना है तो बेहतर लिख
लोगों से कुछ हटकर लिख
दुनिया से डरना कैसा
डर मत खुलकर हँसकर लिख
भावों की नदिया बन जा
चल भावों में बहकर लिख
कल-कल कल-कल करता जा
झरना बनकर झर-झर लिख
झूठे मक्कारों पर भी
कुछ कसकर कुछ जमकर लिख
जीवन इक अनुभव शाला
इस शाला में तपकर लिख।
संपर्कः 3-क-63, सेक्टर-5
हिरन नगरी, उदयपुर-313002 (राज.)
डॉ. श्वेता दीप्ति की कविताएं
डॉ. श्वेता दीप्ति
13 अक्टूबर, 1970 को भागलपुर (बिहार) में जन्मी डॉ. श्वेता दीप्ति वर्तमान में नेपाल का एक जाना-पहचाना चेहरा हैं. त्रिभुवन विश्वविद्यालय, काठमांडो (नेपाल) के हिन्दी विभाग की सहायक आचार्य तथा पूर्व अध्यक्ष डॉ. दीप्ति नेपाल से प्रकाशित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी-पत्रिका ‘हिमालिनी’ की सम्पादक हैं. ‘अनुभूतियों के बिखरे पल’ कविता-संग्रह सहित आधा दर्जन महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं.
सम्पर्क : सम्पादक, हिमालिनी, काठमांडो (नेपाल)
चाह
कौन जाने, कब कहां
किस राह पर मिलोगे तुम
या फिर कभी मिलोगे ही नहीं.
पर निगाहों में
आज भी खींची हैं तस्वीरें
चन्द यादगार लम्हों की.
वह जगह, वह शिला
वह दरख्त, वह सांझ,
वह अनुभूति,
जो दे गई थी
तुम्हें पाने की, छूने की.
महसूसने की
असीम चाह.
तुम
शब्दों के सागर से
मोती-सा फिसला
एक शब्द ‘तुम’
अनायास ही
विस्तृत हो गया है मुझमें.
परिणति पा गया है
‘तुम’ ‘मैं’ होकर.
रिश्तों के अथाह सागर में
एक यह ‘तुम’
किसी स्पष्ट परिचय का
मुहताज नहीं है
इसे पाकर अक्सर
मेरा मौन मुखर हो उठता है
इन खामोश पन्नों पर,
और मैं सम्पूर्ण हो जाती हूं
इस असीम ‘तुम’ के
अनजाने संसार में.
कही-अनकही
तुमने कही नहीं
या मैंने सुना नहीं.
कुछ तो है-
जो तुम्हें कहना है
और मुझे सुनना है.
यह कहने
और न कहने की स्थिति
शायद इसलिए है
कि हमें यकीन नहीं है,
खुद पर.
डरते हैं हम वक्त से,
जो न जाने कब
रुख बदल ले
और हम उड़ जायें
सूखे पत्ते की तरह,
किसी अनजानी दिशा की ओर.
और जा अटकें
एक अनजानी-सी मंजिल पर.
सतपाल स्नेही
1. गीत
ओ मेरे दुर्भाग्य बता तो कितना और रुलायेगा तू
जो दिखते ही टूटें ऐसे कितने स्वप्न दिखायेगा तू
क्या है तेरा स्वार्थ कि मधुरिम मन का हर मधुमास जला कर
मधुलय में गाते भँवरों को शूलों की भाषा सिखला कर
कब तक इन पतझरी हवाओं के गायन सुनवायेगा तू
ओ मेरे दुर्भाग्य बता तो...
बस्ती सूनी आँगन सूना, दृष्टि भी सूनी-सूनी है
धड़कन मौन हुई जाती है, हृदय में पीड़ा दूनी है
इन चुपचाप शांत अधरों को कितना गरल पिलायेगा तू
ओ मेरे दुर्भाग्य बता तो...
चैत जला बैसाख जला है, जेठ और आषाढ़ जले हैं
मेरे पल-छिन और रात-दिन ताप में तेरे ही पिघले हैं
क्या सावन की रिमझिम को भी ऐसे ही झुलसायेगा तू
ओ मेरे दुर्भाग्य बता तो...
खेल न पाया बचपन मेरा तेरी ही सेवा में बीता
और जवानी में भी तेरे संग रहा मैं रीता-रीता
क्या सारी ही उम्र रे निष्ठुर अपने नाम लिखायेगा तू
ओ मेरे दुर्भाग्य बता तो...
2. गजल
कुछ ऐसा-वैसा लगता है
जाने क्यूँ डर-सा लगता है
कई बार तो सागर से भी
दिल-दरिया गहरा लगता है
गुलदस्ता नकली फूलों का
मुझको महक रहा लगता है
हाँ जी, हाँ जी बोल गया वो
ना जी का खटका लगता है
चेहरे निर्मल दिखा रहा है
दर्पण नया-नया लगता है
फिर परसों की तरह मिला वो
सपना टूट गया लगता है
जाने क्या हो गया हृदय को
फिर कोई अच्छा लगता है
सम्पर्क : 362,गली नं-8, विवेकानन्द नगर,
बहादुरगढ़-124507.
(हरियाणा)
हरीलाल ‘मिलन’ की गजल
सो गये नीरज
देश-दुनिया से खो गये नीरज
चांद-तारों के हो गये नीरज
आसमां देख रहा, धरती पर
प्यार-ही-प्यार बो गये नीरज
‘भोर में फूल’ ‘रात में तारे’
प्रीति की शय में रो गये नीरज
‘एक पाती’ में कहानी लिखकर
कानपुर को भिगो गये नीरज
छंद पर वक्त की सियाही थी
गीत की लय से धो गये नीरज
भाव टूटे न गेयता छूटे
अक्षरों को संजों गये नीरज
फूल गीतों के बिखेरें खुशबू
शूल के हंसके ढो गये नीरज
गीत उनके ‘उन्हें’ जगाएंगे
थक गये थे तो सो गये नीरज
सम्पर्क : 300ए/2, प्लॉट-16, दुर्गावती सदन,
मछरिया रोड, हनुमंत नगर, नौबस्ता
कानपुर- 208021 (उ.प्र.)
सुरेश प्रकाश शुक्ल की गजल
मीत क्यों अपनी व्यथा सबसे बताते हो.
हर किसी के सामने क्यों गिड़गिड़ाते हो।
दे सको तो दो खुशी सद्भाव भी भर लो,
रंज की अनुभूति में खुद को सताते हो।
कुन्द होती जा रहीं संवेदनायें अब,
कलियुगी बन देश में दुर्भाव लाते हो।
है जमाना अब दिखावे और लकदक का,
कौन पूछे काम क्या कैसे कमाते हो.
नामसझ हो दर्जनों में कर लिया कुनबा,
घोर संकट में गृहस्थी को चलाते हो,
कुछ तो होगी ही कमाई काम कुछ भी हो,
है मुझे संतोष बच्चों को पढ़ाते हो।
हर तुम्हारे दुःख-सुख में ‘शुक्ल’ हैं साथी,
रोज कह अपनी व्यथा उनको रुलाते हो।
सम्पर्क : 554/63, लेन 5,
आलमबाग, लखनऊ-(उ. प्र.)
देवेन्द्र कुमार मिश्रा की दो कवितायें
रास्ते
सिर पर जमीन
पैरों तले आसमान
आगे खाई
पीछे पहाड़
और चलने
की कोशिश करते
भी हैं दो चार लोग
और जीवन भर गिरने-उठने
के बाद भी यही लोग
अंत में सफल कर जाते हैं
अपना मरण
दूसरों के लिए
और जो सीधी राह पकड़कर
रपटते रहते हैं लगातार बहुत कुछ पाकर इतराते हैं
अपनी जीत पर
दिखने में भले ही वे
सफल लगे
किंतु होते खोखले ही हैं
और अंत में चोट खा बैठते हैं
फिसलकर।
हार
पता ही नहीं चलता
कब और कैसे
बेच दिये जाते हैं
आंसू
पवित्रता, भावनायें
मात्र एक खेल के नाम पर।
शामिल कर लिया जाता है
इस खेल में पत्नी
बच्चों और बूढ़ी मां को
ये कहकर कि खेल के
मध्य मनोबल
बना रहेगा
बाजार की ताकत कहें
या आपकी कमजोरी
लगातार झुकते और
टूटते जा रहे हैं
और समझ भी नहीं
आ रहा है
कि अब भी हम मात्र
मोहरे हैं
बिजेता की ट्राफी पकड़े हुए
आप समझ ही नहीं पाते
कि कितनी शर्मनाक हार
मिली है आपको।
सम्पर्क : पाटनी कॉलोनी,
भरत नगर, चन्दनगांव
छिन्दवाड़ा (उ.प्र.)-480001
डॉ. कृपा शंकर शर्मा ‘अचूक’ के दो गीत
अर्थहीन जीवन की भाषा, आशा लिए हुए
भावों का गंगाजल आए, हम तो पिए हुए
मिले सफलता या असफलता
अपनी मर्यादा
सब कुछ है मन के भीतर ही
कम अथवा ज्यादा
संवेदनिक उर्वरा धरती, लेकर लिए हुए
भावों का गंगाजल आए, हम तो पिए हुए
करने लगी साधना अपनी
उड़ी-उड़ी बातें
अपराधों की बोई फसलें
बिगड़ी हालातें
साल महीने दिवस गुजारे, वादे दिए हुए
भावों का गंगाजल आए, हम तो पिए हुए
सांसों का सब करते सौदा
नित रिश्ते नाते
पका-पका चतुराई चूल्हा
बातें ही खाते
टुकड़ों-टुकड़ों हुई चदरिया, सदियों सिए हुए
भावों का गंगाजल आए, हम तो पिए हुए
आशीषों का बेरहमी से
कतल किया हमने
शुभारम्भ श्रद्धा की कर दी
अब तो मातम ने
खण्ड-खण्ड ‘अचूक’ हो बिखरे, अरमां किए हुए
भावों का गंगाजल आए, हम तो पिए हुए
2
धूप-छाँव का ताल-मेल, जीवन पर्याय बना
चाहत की उगती फसलों का, एक उपाय बना
माटी सोना और बिछौना
कब सोए जागे
उगती नागफनी राहों में
बड़े रोए आगे
गीतोत्सव तो होठ मनाते, कौन सहाय बना
धूप-छाँव का ताल-मेल, जीवन पर्याय बना
दबी उमंगें बोलें भी क्यों
बीच बजरिया के
टूटे रीति रिवाज जुड़े ना
कोई जरिया के
जिसे जगत परिभाषित करता, वह अन्याय बना
धूप-छाँव का ताल-मेल, जीवन पर्याय बना
घंटा शंख मृदंग बजाता
समय ‘अचूक’ चला
कोई चौदह कला दीखता
या फिर अति विकला
नए-नए साँचों में ढाले, नव अध्याय बना
धूप-छाँव का ताल-मेल, जवीन पर्याय बना
सम्पर्क : 38-ए, विजय नगर,
करतारपुरा, जयपुर-302006
डॉ. मधुर नज्मी की दो गजलें
जो मुझमें, उनमें इतनी दूरियां हैं
यकीनन मुझमें भी कुछ खामियां हैं
मैं मुड़-मुड़कर बराबर देखता हूं
मेरे कद से बड़ी परछाइयां हैं
उधर महफिल सजी है कहकहों की
इधर मैं हूं मेरी परछाइयां हैं
जमाने वालो समझने में हैं कासिर
मेरी गजलों में जो बारीकियां हैं
बरस तू टूट के ऐ उमड़े बादल
समय की रेत पर कुछ मछलियां हैं
जो बेचे हैं बदन बच्चों की खातिर
वो आवारा नहीं हैं देवियां हैं
जो दिन में चुटकियां लेती हैं पैहम
तुम्हारी याद की पुरवाइयां हैं
जहां हो जाहिलों की भीड़ इकट्ठा
वहां बेहतर तेरे रूप में खामोशियां हैं
नजर आती हैं तेरे रूप में जो
कहां फूलों में वो रानाइयां हैं.
2
वक्त की मैं निशानियां देखूं
मां के चेहरे की झुर्रियां देखूं
सूनी-सूनी कलाइयां देखीं
और कितनी तबाहियां देखूं
शाइरी मैं तेरे हवाले से
इल्मों-हिकमत का आसमां देखूं
जब करूं आंख बन्द अपनी
तेरा ‘सरकार’ आस्ता देखूं
अपनी पलकों के मैं झरोखों से
तेरे जल्वों की झांकियां देखूं
मुझको आवाज दे कहां है तू
तुझको ढूंढ़ूं, कहां-कहां देखूं
मेरी अपनी बिसात ही क्या जो
ऊंची-ऊंची हवेलियां देखूं
शर पसन्दों के हाथों में अपना
उजड़ा-उजड़ा-सा गुलसितां देखूं
जिस तअल्लुक में थी मिठास कभी
उसमें भी आज तल्खियां देखूं
जाने वाले चले गये लेकिन
दूसरों पर उठाऊं क्यूं उंगली
पहले मैं अपनी खामियां देखूं।
सम्पर्क : गोहना मुहम्मदाबाद,
जिला- मऊ-276403 (उ.प्र.)
अशोक ‘अंजुम’ की दो गजलें
1.
बना रहे हैं लोग जहां में जाने कैसी-कैसी बात
उस पर तुर्रा तने हुए हैं लेकर अपनी-अपनी बात
इतने कड़वे निकलेंगे वे इसका कुछ अंदाज न था
जब भी मिलते थे करते थे जो मीठी-मीठी बात
कल तक जिस बच्चे के मुंह से फूल बरसते रहते थे
उसने कह दी आज अचानक कैसे तीखी-तीखी बात
करीं वक्त ने ताजपोशियां कुछ यूँ नकली बातों की
थकी-थकी-सी आज लग रहीं सारी अच्छी-अच्छी बात
धीरे-धीरे सारे जग ने उनको अपनाया ‘अंजुम’
इतनी सच्चाई से बोलीं उसने झूठी-झूठी बात
2.
ये करना है, वो करना है सोचा करते हैं
यूं ही सांस-सांस हम अपनी जाया करते हैं
बात अलहदा है वे तुम तक पहुँच नहीं पाते
रोजाना हम खत कितने ही लिक्खा करते हैं
सच के चेहरे पर भी कालिख मलते हैं या रब
झूठी खुशियों की खातिर हम क्या-क्या करते हैं
जो रखते हैं हुनर सभी को धकियाने वाले
आज सियासत में वो आगे निकला करते हैं
गरमी, वर्षा, धूप, आँधियाँ सबसे लड़कर ही
कुछ अहसास जहां में सदियों महका करते हैं
गीत : अशोक अंजुम
झूठ-साँच के झगड़े में
हम बने तमाशाई,
अगर कर सके समय
हमें तू माफ कर देना!
सच्चाई ने की गुहार
हम बहरे बने रहे,
अपने मन पर आशंका के
पहरे बने रहे,
आंखों के रहते हमको
कुछ दिया न दिखलाई!
अगर कर सके समय
हमें तू माफ कर देना!
औरों के झंझट से हमको
क्या लेना-देना,
उथली नदिया, नाव स्वयं की
बस उसमें खेना,
हमें डराती रही उम्र-भर
अपनी परछाई!
अगर कर सके समय
हमें तू माफ कर देना!
संपर्कः गली-2, चन्द्र विहार कॉलोनी (नगला डालचन्द), क्वारसी बाईपास, अलीगढ़-202002
राजकुमार जैन ‘राजन’ की कविताएं
1. सार्थकता
तुम कभी टूटे नहीं
इसलिए हंस रहे हो
जिस दिन टूटेगा
तुम्हारी आत्मा का दर्पण
उस खण्डित दर्पण में
अपने आपको
अनेक खण्डों में
विभाजित हुआ पाओगे
तब अहसास होगा तुम्हें
टूटना कैसा होता है
दर्पण की टूटन में
हर एक का दर्द है
हर एक की पीड़ा.
धरती पर रह कर
आकाश बनने के सपने
हर कोई देखता है
आकाश बन जाने के बाद
धरती के सपने कोई नहीं देखता
दर्पण अपनी सार्थकता
कभी नहीं खोता
उसकी खण्डता में भी
अखण्डता विराजमान रहती है.
वह तुम्हारे अस्तित्व का कवच है
दर्पण बनोगे तो
तुम हार बन जाओगे
सच...
इसी में तुम्हारे होने की सार्थकता है.
2. भागे न कोई हार के
अंधेरे से समझौता
पुरानी बात है
रोशनी अब रोशनी नहीं रही
वह अपना रंग बदलने लगी है.
लेकिन सूरज ढलने के बाद
भोर भी आती है
अपनी रूह की रोशनी
को पहचानो
दिल में झांको
आत्मा के दर्पण में
अपना दर्प आंको.
लौट जाओ
रात ढल चुकी है
मन में बुझती आशा की लौ
फिर से जला दो.
मुस्कराओ
खिल जाए नई सुबह की किरण
जगमगाये चमन
तुम्हारे हास से ट्टतुम्भरा
धरा की सगाई
जुड़ जाये मधुमास से.
फसलें उगें
शांति की, प्यार की
जिन्दगी एक संग्राम है
जिससे भागे न कोई हार के!
संपर्क : चित्रा प्रकाशन
आकोला-312205 (चित्तौड़गढ़) राज.
रमेश कुमार सोनी की कविता
समझौतों के चारागाह
मरे शब्दों का अथाह समंदर
बेखौफ और खारा होने लगा है
नदियों से आने वाले शब्द
नृशंस यातनाओं से प्रदुषित हैं
खूंखार और बाहुबली लोगों की दुनिया से
सहमे हुए बेहद आंतकित शब्द भी
आँखें मूंद हाँक दिए गए हैं
हाशिए पर सुबकते रहने के लिए
मेरा समंदर सुनाना चाहता है
भाप बनकर सर्वत्र उड़ते हुए
गड्ड-मड्ड हो गये हैं शब्द।
समझौतों के इस चारागाह में जहाँ
दुनिया चित्रलिपि की ओर
अग्रसर हैं इनसे मेरे
हीरक हस्ताक्षर वाले शब्दों को
विलुप्तता का खतरा है,
फिर पन्नों में दफन हो जाएंगे-
सद्भावना, संवेदना एवं प्यार के शब्द
क्योंकि चीखते शब्दों के वन कट चुके हैं
लोग अपने शब्दों को छोड़
विदेश उड़ चले हैं।
मैं अपने शब्दों को
महुए सा बिन रहा हूँ
अपने दिल के गुल्लक में संजोने
ताकि सनद रहे वक्त पर काम आए
इसकी महक मुझे गौरैया सा निडर बनाती है
मैं बचाना चाहता हूँ अपने शब्दों में-
सहिष्णु जिंदगी की इबारत और
संपूर्ण मानवता की सेवा करते
जादूगरी शब्दों के साथ
बचपन के शब्दों का बगीचा
जो मेरी वसीयत भी है...
संपर्कः जे. पी. रोड बसना (छ.ग.)-493554
पारुल श्रीवास्तव की कविता
जख्म
न लगाओ जख्मों पर मरहम
जख्मों के कुछ निशान रहने दो
न तोड़ो मेरे वजूद को बार-बार
मेरे अस्तित्व की कुछ पहचान रहने दो
मेरी किस्मत पर न हंसो दुनियावालों
मेरी जिन्दगी के कुछ क्षण वीरान रहने दो.
भरोसा न अब किसी और पर
अपनी रक्षा के लिए तीर-कमान रहने दो
वक्त बदलता है रिश्ते बदलते हैं
नर्म बिस्तर पर भी करवट बदलते हैं
जीने के लिए कुछ अरमान रहने दो.
यूं तो छल और फरेब के मुखौटे का जहान है
थोड़ी इंसानियत भी इस दरम्यान रहने दो
रिश्तों को अक्सर तराजू पर तौलते हैं
अपने ही अपनों के भेद खोलते हैं
ऐसे रिश्तों की जगह श्मशान ही रहने दो.
आज दुख की काली बदली है
कल सुख का सूरज निकलेगा
सब जानते हुए भी अनजान रहने दो
जिन्दगी को खुशी से जीने के लिए
अधरों पर थोड़ी मुस्कान रहने दो.
कौन अपना, कौन पराया
हर तरफ है दुख का साया
रिश्ते बनते-बिगड़ते रहते हैं
इनकी पहचान के लिए
जिन्दगी में थोड़े तूफान रहने दो.
इस अंक की चित्रकार
इस अंक में प्रकाशित रेखाचित्रों की चित्रकार सुश्री अनुभूति गुप्ता हैं. वह एक कवयित्री और लेखिका भी हैं. ‘प्राची’ को प्रथम बार उनके रेखाचित्रों को प्रकाशित करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है. आशा है, आप भविष्य में भी उनकी कला से रूबरू होते रहेंगे. उनका परिचय इस प्रकार हैः-
जन्मतिथि : 05.03.1987.
जन्मस्थान : हापुड़ (उ.प्र.)
शिक्षा : बी.एस-सी. (होम साइन्स), एम.बी.ए., एम.एस-सी. (आई.टी.)
प्रकाशन : हंस, दैनिक भास्कर (मधुरिमा), हिमप्रस्थ, कथाक्रम, सोच-विचार, वीणा, गर्भनाल, जनकृति, शीतल वाणी, पतहर, नवनिकष, दुनिया इन दिनों, शुभतारिका, गुफ्रतगू, शब्द संयोजन, अनुगुंजन, नये क्षितिज, परिंदे आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन. नवल, आधारशिला और चंपक पत्रिका में कहानी का प्रकाशन। साहित्य साधक मंच, अमर उजाला, दैनिक नवज्योति, दैनिक जनसेवा मेल, मध्यप्रदेश जनसंदेश, ग्रामोदय विजन आदि विभिन्न समाचार पत्रों में 300 से अधिक कविताएं एवं लघुकथाएँ प्रकाशित।‘कविता कोष’ में 60 से
अधिक कविताएं संकलित।
प्रकाशित कृतियां : बाल सुमन (बाल-काव्य संग्रह), कतरा भर धूप (काव्य संग्रह), अपलक (कहानी संग्रह)
सम्प्रति : प्रकाशक- उदीप्त प्रकाशन, 1 वर्ष तक साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘नवपल्लव’ का प्रकाशन एवं संपादन, स्वतंत्र लेखिका एवं चित्रकार (रेखाचित्र, जलरंग चित्र)
सम्पर्क सूत्र : 103, कीरतनगर, निकट डी.एम. निवास, लखीमपुर-खीरी 262701 (उ.प्र.)
ईमेल : anubhuti53@gmail.com
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