भाषा शब्द : विराट भाषाई सम्पदा का क्षीण स्वामी डॉ. सम्राट सुधा डॉ. सम्राट् सुधा जन्म : 6 जून, 1970 प्रकाशन : वर्ष 1985 से राष्ट्रीय पत्र- पत...
भाषा
शब्द : विराट भाषाई सम्पदा का क्षीण स्वामी
डॉ. सम्राट सुधा
डॉ. सम्राट् सुधा
जन्म : 6 जून, 1970
प्रकाशन : वर्ष 1985 से राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशित।
प्रसारण : आकाशवाणी व बी. बी. सी. लन्दन रेडियो
पुस्तक : उत्तर आधुनिकता -भूमंडलीकरण तथा शशि-काव्य
पुरस्कार : संचेतना सम्मान-2002
शब्द किसी भी भाषा की प्राथमिक सार्थक इकाई है. शब्द की ‘सम्पदा’ अकूत है, परंतु प्रश्नगत उत्तर से पृथक् मात्र एक शब्द की सत्ता क्षीण है. भाषा शब्दों का समुच्चय है, परन्तु वैयाकरणिक सम्बद्धता होने पर ही! वैयाकरण पतंजलि ने ‘महाभाष्य’ में लिखा है- ‘जो वाणी वर्णों में व्यक्त होती है, उसे भाषा कहते हैं’ स्पष्ट है कि भाषा सार्थक शब्दों का व्याकरण संबद्ध सम्मिलित रूप है.
भाषा विज्ञान व विभिन्न शब्दकोशों में ‘सार्थक शब्द’ तथा ‘निरर्थक शब्द’ का वर्णन किया गया है, परंतु एक भाषाविज्ञानी के नाते इन पक्तियों के लेखक का यह मत है कि जो अर्थहीन है, उसे शब्द स्वीकृत करना समीचीन नहीं है! उदाहरणार्थ-‘थाली’ एक शब्द है, क्योंकि इसका अर्थ है, जो इस शब्द के उच्चारण के संग ही उस पात्र का चित्र भी हमारे मस्तिष्क में उपस्थित कर देता है, परंतु वर्ण परिवर्तन कर यदि ‘लीथा’ कहा जाये, तो अर्थहीनता के कारण यह एक व्यर्थ उच्चारण मात्र ही होगा. शब्द वही है जिसका कोई अर्थ हो! सार्थक शब्द या निरर्थक शब्द अनावश्यक प्रयोग हुए!
गहनता से विचारें, तो पूर्व निर्धारित अर्थ के अतिरिक्त शब्द का अर्थ उसके उच्चारण-स्वरूप पर भी निर्भर करता है. किसी को महान् कहना, उसके चरित्र और कर्म की महत्ता प्रतिपादित करना है, परंतु इसी महान् शब्द को यदि तनिक लंबे उच्चारण के संग यूँ कहा जाए कि- ‘ये तो महा-हा-हा-न् हैं,’ तो श्रोता यह तत्काल समझ जायेगा कि जिसका परिचय दिया जा रहा है, वह वस्तुतः महान् नहीं है!
शब्द की इकाई ‘ध्वनि’ एकाकी होते हुए भी बहुत शक्तिशाली है! हिंदी वर्णमाला में दैहिक और चिकित्सकीय उपचार के तत्व भी विद्यमान हैं. लगभग पाँच वर्ष पूर्व स्नातकोत्तर की एक छात्रा ने मुझे बताया कि उसका भतीजा ‘पापा’ शब्द नहीं बोल पाता है. मैंने उससे कहा कि निश्चित रूप से वह बच्चा पतंग को तंग, फल को ल, बदन को दन, भाग को ग और मन को न बोलता होगा. छात्रा हाँ में सिर हिलाते हुए आश्चर्य करने लगी कि मुझे यह कैसे पता. उस बच्चे की उक्त समस्या का निवारण भाषाविज्ञान में छिपा है, जो शब्द से भी सूक्ष्म इकाई ‘वर्ण’ की महत्ता को प्रतिपादित करता है! हिंदी वर्णमाला इस प्रकार है-
स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
व्यंजन उच्चारण अंग
1. क वर्ग- क, ख, ग, घ , घ कंठव्य
2. च वर्ग- च, छ, ज, झ, ×ा तालव्य
3. ट वर्ग- ट, ठ, ड, ढ, ण मूर्धन्य
4. त वर्ग- त, थ, द, ध, न दन्त्य
5. प वर्ग- प, फ, ब, भ, म ओष्ठड्ढ
अन्तस्थ- य,र,ल, व
उपर्युक्त सूची में क्रम संख्या 1 से 5 तक के व्यंजनों के समक्ष मुख से उन्हें उच्चारित करने के अंगों के नाम लिखित हैं.कक्षा में छात्रा ने बताया कि उसका भतीजा ‘पापा’ शब्द नहीं बोल पाता अर्थात् हिंदी वर्णमाला के अनुसार ‘प’ ध्वनि का उच्चारण नहीं कर पाता, तो यह सुनिश्चित है कि वह उपर्युक्त सूची के प वर्ग के एक भी व्यंजन का उच्चारण नहीं कर पायेगा। प वर्ग के सभी व्यंजन ‘ओष्ठड्ढ’ हैं, अर्थात् दोनों होंठों को मिलाने पर ही उच्चारित किये जा सकते हैं.
छात्रा को सलाह दी गयी कि उस बच्चे को यह कहा जाए कि प, फ, ब, भ या म का उच्चारण करते हुए वह अपने दोनों होंठ मिलाकर बोलने का प्रयास करे. कुछ समय इस अभ्यास के पश्चात् उस बच्चे का उच्चारण संबद्ध उक्त दोष समाप्त हो गया. शब्द की सत्ता विराट होते हुए भी यह एक विरोधाभासपूर्ण तथ्य है कि शब्दों के व्यवहार से बनी भाषा अभिव्यक्ति का क्षीण माध्यम है! शब्द से पूर्व ‘नाद’ था! नाद एक चिर्तिं ध्वनि थी, सुनायी देती थी और अनुभव भी होती थी! मनुष्य के पास वैयक्तिक सम्पदा के रूप में ‘चेष्टा’, संकेत या ‘मुख मुद्रा’ थी. भाषा का लिखित स्वरूप नहीं था, तो मनुष्य अपनी इसी प्राकृतिक सम्पदा के सम्प्रेषण द्वारा स्वयं को अभिव्यक्त करता था. स्पष्ट अभिव्यक्ति के क्रम में ध्वनि चिर्िंं के द्वारा भाषाएँ अस्तित्व में आयीं.
शब्द या भाषा से परे वह क्या है, जो अन्ततः इन दोनों पर अवलंबित ना रह ‘सत्य’ को उद्घाटित करता आया है? अर्थविज्ञान, जो भाषाविज्ञान का एक महत्वपूर्ण अंग है, में भाषा में प्रयुक्त शब्द की क्षीण शक्ति की पर्याप्त व्याख्या की गयी है. कुमारिल भट्टठ्ठ ‘न्यायमंजरी’ में लिखते हैं- ‘यौर्थ प्रतियते यस्मात् स तस्यार्थ इति स्मृति.’ अर्थात्- जो अर्थ जिसके साथ प्रतीत हो वही उसका अर्थ है. पाश्चात्य भाषाविज्ञानी एल्फ्रेड सिजविक मानते हैं कि -"MEANING DEPENDS ON CONSEQUENCE AND TRUTH DEPEND MEANING-" अर्थात- अर्थ प्रतिफल पर निर्भर है और सत्य अर्थ पर निर्भर है. ‘दिन-प्रतिदिन का व्यवहार उक्त दोनों परिभाषाओं का यदाकदा खंडन करता है! अर्थ स्थापना के अन्य कारक श्रोता की मनःस्थिति, श्रव्य उपादानों या सहायक यंत्रों की प्रस्तुति और संबद्ध बाह्य कारकों का भी अर्थ स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान है, जिन पर भाषाविज्ञान में यथेष्ट अध्ययन अभी शेष है!
शब्द सम्बद्ध अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि स्वयं में एक विराट भाषाई सत्ता का स्वामी होने के पश्चात् भी शब्द अभिव्यक्ति का एकमात्र स्वामी नहीं है! भाव या मंतव्य उन दो व्यक्तियों के मध्य भी पर्याप्त संप्रेषित होते हैं, जो एक दूजे की भाषा से अपरिचित होते हैं! स्मरण रखने की बात यह है कि शब्द ‘नाद’ का भाषाई रूपाकार है. नाद प्राकृतिक है और शब्द मानवकृत! मानव स्वयं एक अपूर्ण इकाई है, ऐसे में उसके निर्मित किसी भी उपादान को पूर्ण मानना उचित नहीं! शब्द को विराट भाषाई सम्पदा का स्वामी मानते हुए भी उसे क्षीण कहने का हेतु यही है!!
संपर्क : 94, पूर्वावली, गणेशपुर,
रुड़की-247767 (उत्तराखंड)
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