महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी साहित्याकाश के ऐसे नक्षत्र हैं जिनकी कीर्ति रश्मियाँ युगों-युगों तक निखिल विश्व को आलोकित ...
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' हिन्दी साहित्याकाश के ऐसे नक्षत्र हैं जिनकी कीर्ति रश्मियाँ युगों-युगों तक निखिल विश्व को आलोकित करती रहेंगी। नवनीत हिन्दी डाइजेस्ट के सम्पादक डॉ0 गिरिजा शंकर त्रिवेदी बताते हैं, ''बैसवारा क्षेत्र उन्नाव, रायबरेली एवं फतेहपुर जपनद के एक बड़े भूभाग में फैला हुआ है जो अंग्रेजों के दमन का शिकार हो गया था। इसी क्षेत्र के उन्नाव जनपद में एक गाँव गढ़ा कोला है जो बीघापुर से 4 किमी0 की दूरी पर उत्तर में स्थित है। उसी गाँव में शिवाधार तिवारी नामक एक गरीब ब्राह्मण रहा करते थे। उनके चार बेटों में गयादीन,जोधा, रामसहाय एवं रामलाल थे। गढ़ा कोला के पड़ोसी गाँव के कुछ लोग बंगाल चले गये जिससे उनकी स्थिति सुधर गई। एक बार निराला के पिता भी गरीबी से निजात पाने के लिए उनके साथ बंगाल चले गये और वहाँ जाकर पुलिस में भर्ती हो गये। उसके बाद उन्होंने अपने छोटे भाई राम लाल को भी वहीं बुलवा कर पुलिस में भर्ती करवा दिया। लेकिन पुलिस का कार्य उन्हें नहीं जमा और वे दोनों वहाँ से महिषादल जाकर वहाँ के राजा के यहाँ नौकारी करने लगे। यहीं निराला जी का जन्म हुआ।''
कविवर निराला का जन्म 21 फरवरी 1896 को हुआ था। पंडित ने कुंडली बनाकर बताया था कि लड़का मंगली है किन्तु भाग्यवान है। समय के साथ यह दुनिया में नाम करेगा। निराला जब मात्र तीन वर्ष के थे तभी उनकी माँ का निधन हो गया। उनके पिता ने ही उनका पालन पोषण किया। निराला के पिता उन्हें पैतृक गाँव गढ़ाकोला में लाते रहते थे। निराला का नाम सूर्ज कुमार रखा गया था। जब निराला मात्र 8 वर्ष के थे तभी उनके पिता ने उन्हें गाँव गढ़ाकोला लाकर उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया। 14 वर्ष की आयु में निराला का विवाह रायबरेली जिले की डलमऊ तहसील के श्री राम दयाल दुबे व श्रीमती पार्वती की पुत्री मनोहरा देवी के साथ 1910 में संपन्न हुआ। मनोहरा देवी ने 1914 में पुत्र रामकृष्ण व 1917 में पुत्री सरोज को जन्म दिया। साहित्यकार डॉ0 रामनिवास पंथी ने लिखा है, ''सुरजीपुर के किसी अहीर ने निराला को तालाब से तोड़कर दो कमल के फूल दिये थे। निराला ने उस व्यक्ति से कहा कि इसी के नाम पर अपनी पुत्री का नाम सरोज रखा था। सरोज के पैदा होने के वर्ष में ही निराला जी के पिताजी का निधन हो गया। 1918 में आई एक महामारी में मनोहरा देवी का भी स्वर्गवास हो गया। निराला के अन्य परिवारीजन भी इस महामारी में काल कवलित हो गये। निराला ने अपने पुत्र रामकृष्ण व पुत्री सरोज को उनकी नानी के पास डलमऊ में छोड़ दिया जहाँ उनका लालन-पालन निराला की सलहज जानकी ने किया।
कविवर निराला ने अपनी कृति 'सरोज स्मृति' में अपनी पुत्री सरोज के जन्म से लेकर मृत्यु तक का घटनाक्रम प्रस्तुत किया है। सरिता विश्नोई ने वेब पत्रिका www.sahityakunj.net में लिखा है, ''सरोज सिर्फ सवा साल की चपल बालिका थी और अपनी कोमलता और चपलता में माँ का मुख पहचान ही रही थी कि उसकी माँ अपना जीवन चरित्र पूरा कर चली गयी। मातृहीन सरोज नानी के घर पली। वहीं वाल्यकाल के सारे विनोद कौतुक करती रही। महाप्राण निराला ने 'सरोज स्मृति' में स्वयं लिखा है-
तू सवा साल की जब कोमल
पहचान रही ज्ञान में चपल
माँ का मुख हो चुम्बित क्षण-क्षण
भरती जीवन में नव जीवन
वह चरित पूर्ण कर गयी चली
सब किये वहीं कौतुक विनोद
उस घर निशिवासर भरे मोद
खाई भाई की मार विकल
रोई उत्पल-दल-दृग छल-छल
चुमकारा उसने सिर निहार
फिर गंगा तट सैकत विहार
करने को लेकर साथ चला
तू गहकर चली हाथ चपला
आँसुओं धुला मुख हासोच्छल
लखती प्रसार वह ऊर्मि धवल
'सरोज स्मृति' में कवि निराला को वे दिन याद आते हैं जब वे दूर स्थित प्रवास से करीब दो वर्ष बाद अपनी पुत्री सरोज को देखने अपनी ससुराल गये। वहाँ वे फाटक के बाहर मोढ़े पर बैठे थे और हाथ में अपनी जन्म कुंडली पकड़े हुए थे। उनकी जन्म कुंडली में दो विवाह लिखे हुए थे। वे अपना दूसरा विवाह करके बच्चों की सौतेली माँ लाकर उन्हें परेशानी में नहीं डालना चाहते थे। वे अपनी कुंडली में लिखे भाग्य अंक को खंडित करना चाहते थे। उनके विवाह के तमाम प्रस्ताव आये किंतु वे अपने को मांगलिक कहकर टालते रहे। उन्होंने अपनी जन्म कुंडली को सरोज को खेलने को दे दिया। सरोज ने फाड़-फाड़ कर कुंडली के टुकड़े कर दिये। निराला के शब्दों में 'सरोज स्मृति' में यह चित्रण देखें-
याद है दिवस की प्रथम धूप
थी पड़ी हुई तुझ पर सुरूप
खेलती हुई तू परी चपल
मैं दूर स्थित प्रवास में पल
दो वर्ष बाद होकर उत्सुक
देखने के लिए अपने मुख
था गया हुआ बैठा बाहर
आँगन में फाटक के भीतर
मोढ़े पर ले कुंडली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ गाथ
पढ़ लिखे हुए थे दो विवाह
हँसता था मन में बड़ी चाह
अपनी पत्नी मनोहरा देवी की मृत्यु के बाद निराला ने सरोज के माता और पिता दोनों के कर्तव्य का निर्वहन किया। बाल्यावस्था को छोड़कर जब सरोज ने यौवनावस्था में प्रवेश किया तो वह सुंदरता की प्रतिमूर्ति बन गयी। निराला जी ने सरोज की युवावस्था का वर्णन भी 'सरोज स्मृति' में किया है-
धीरे-धीरे फिर बढ़ा चरण
बाल्य की कलियों का प्रांगण
कर पार कुंज तारूण्य सुघर
आई लावण्य भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यों मालकोश नव वीणा पर
नैश स्वप्न ज्यों तू मंद-मंद
फूटी उषा जागरण छंद
काँपी भर निज आलोक भार
काँपा वन काँपा दिक प्रसार
परिचय-परिचय पर खिला सकल
नभ, पृथ्वी, द्रुम कलि किसलय दल
सरोज जब शादी योग्य हो गई तब निराला जी की सास ने निराला जी से सरोज की शादी करने को कहा। 'सरोज स्मृति' में निराला ने लिखा है-
सासु ने कहा लख एक दिवस
भैया अब नहीं हमारा वश
पालना-पोसना रहा काम
देना सरोज को धन्य धाम
शुचि वर के कर कुलीन लख कर
है काम तुम्हारा धर्मोत्तर
अब कुछ दिन रहो ढूंढकर वर
जो योग्य तुम्हारे करो ब्याह
होंगे सहाय हम सहोत्साह
कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने अपनी कन्या सरोज का विवाह बहुत ही सीधे-साधे ढंग से किया था। वे कन्नौजी बाह्मणों की विवाह पद्धति का समर्थन भी नहीं करते थे। वे दहेज तथा बारात पर किया गया खर्च व्यर्थ समझते थे। कान्य कुब्ज ब्राह्मणों के पैर पूजने में भी उन्हें संकोच था। 'सरोज स्मृति' में उन्होंने लिखा है-
सोचा मन में हत बार-बार
ये कान्यकुब्ज कुल कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद
इनके कर कन्या अर्थ खेद
इस विषय बेलि में विष ही फल
यह दग्ध मरूस्थल नहीं सुजल
फिर सोचा मेरे पूर्वज गण
गुजरे जिस राह वह शोभन
कविवर निराला आर्थिक विपन्नता से ग्रस्त रहे थे। उन्हें सरोज के लिए एक ऐसा वर मिल गया था जो धन सम्पन्न तो नहीं था पर विद्धान था। उन्होंने 'सरोज स्मृति' मेंं लिखा है-
कल प्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूं ऐसी नहीं शक्ति
ऐसे शिव से गिरिजा विवाह
करने की मुझको नहीं चाह
फिर आई याद मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्वज्जन
नव युवक एक सत्साहित्यिक
कुल कान कुब्ज वह नैमित्तिक
दहेज और बारात पर किये गये व्यय को मिथ्या बताते हुए निराला जी 'सरोज स्मृति' में कहते हैं-
खत लिखा बुला भेजा तत्क्षण
युवक भी मिला प्रफुल्ल चेतन
बोला- मैं हँू रिक्त हस्त
इस समय विवेचन में समस्त
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला करूँ अर्पण
यदि महा जनों को तो विवाह
कर सकता हँू पर नहीं चाह
मेरी ऐसी दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूँ यह नहीं सुघर
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय
मैं करूँ नहीं ऐसा सुसमय
निराला जी सरोज के विवाह में कुछ साहित्यिक मित्रों को बुलाकर बिना किसी आडंबर के पुरोहित कार्य स्वयं ही करने लगे थे। निराला ने विवाह के समय कलश का जल पड़ने पर सरोज के सौन्दर्य का वर्णन 'सरोज स्मृति' में इस तरह किया है-
देखा विवाह आमूल नवल
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल
देखती मुझे तू हँसी मंद
होठों में बिजली फाँसी स्पंद
उर में भर झूली छवि संुदर
प्रिय की अशब्द श्रृंगार मुखर
तू खुली एक उच्छ्वास संग
विश्वास स्तब्ध बँध अंग-अंग
नत नयनों में आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर
तरूण कन्या सरोज जब निराला जी का घर छोड़कर दूसरे के घर जातीं है उस समय का चित्रण करते हुए वे लिखते हैं-
जाना बस पिक बालिका प्रथम
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम
होती उड़ने को अपना स्वर
भर करती ध्वनि मौन प्रांतर
कविवर श्री राम नरायण 'रमण' ने अपने एक लेख में बताया है कि सरोज का जन्म 1917 में और 1929 में उसका विवाह हुआ तथा 1935 मे उसकी मृत्यु हुई। रमण जी के अनुसार विवाह के समय सरोज की उम्र बारह वर्ष होनी चाहिए जो सही प्रतीत नहीं होती। वेब पत्रिका m.patrika.com पर एक लेख में सुधीर ने बताया है कि निराला की पुत्री सरोज के विवाह के एक वर्ष बाद ही सरोज की मृत्यु हो गई। वेब पत्रिका www.sahityakunj.net पर एक लेख में सरिता विश्नोई ने लिखा है, ''वे सरोज की मृत्यु बीमारी और समुचित चिकित्सा के अभाव को कारण न मानकर यह मानते हैं कि उसके जीवन के अठारह अध्याय पूरे हो चुके थे। सरोज का मरण जीवन के शाश्वत विराम की ओर जाने की यात्रा है क्योंकि उसने अपने जीवन के अठारह वर्ष जो गीता के अठारह अध्याय के समान हैं, पूरे कर लिए थे।'' इस प्रकार यदि 1917 में यदि 18 वर्ष जोड़ दिए जायें तो 1935 में सरोज की मृत्यु होगी। स्वयं निराला ने सरोज की मृत्यु के बारे में 'सरोज स्मृति' में लिखा है-
उनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन सिन्धु तरण
तनये ली कर दृक्पात तरूण
जनक से जन्म की विदा अरूण
गीते मेरी तज रूप नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
सरिता विश्नोई ने वेब पत्रिका www.sahityakunj.net पर बताया है कि निराला सरोज की मृत्यु बीमारी और समुचित चिकित्या के अभाव को कारण न मानकर यह मानते हैं कि उसके जीवन के अठारह अध्याय पूरे हो चुके थे जो गीता के अठारह अध्याय के समान हैं। सरोज का मरण जीवन के शाश्वत विराम की ओर जाने की यात्रा है। निराला जी ने 'सरोज स्मृति' में लिखा है-
पूरे कर शुचितर सपरियाय
जीवन के अष्टादशाध्याय
चढ़ मृत्यु तरणि पर तूर्ण चरण
कहा पितु पूर्ण आलोक वरण
करती हूँ मैं यह नहीं मरण
'सरोज' का ज्योति-शरण-तरण
निराला अपने हृदय की करूणा उड़ेलते हुए अपना जीवन दर्शन प्रस्तुत करते हैं-
मुझ भाग्य हीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल
दुःख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूँ आज . . नहीं कही
कविवर निराला को यह बात सालती रही कि वे अपनी एक मात्र पुत्री के प्रति पिता का दायित्व सही तरह नहीं निभा सके। वे लिखते हैं-
धन्ये मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित कर न सका
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित काय
लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर
शुचिते पहना कर चीना शुक
रख सका न तुझे अतः दधिमुख
अपनी पुत्री सरोज का तर्पण स्वयं निराला ने दार्शनिक विधान के साथ किया था-
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म रहे नत सदा साथ
इस पथ मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के से शतदल
कन्ये गत कर्मों का अर्पण
कर करता मैं तेरा तर्पण
अंत में निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि सरोज महाप्राण निराला की अति प्रिय लाड़ली बेटी थी जिसे असमय ही काल ने अपना ग्रास बना लिया। सरोज अपना पार्थिव शरीर तो निराला जी के जीवन काल में ही छोड़कर चली गयी थी किन्तु निराला जी ने अपनी लेखनी से 'सरोज स्मृति' के माध्यम से उसे अमरत्व प्रदान कर दिया है।
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डॉ0 हरिश्चन्द्र शाक्य, 'डी0लिट्0
शाक्य प्रकाशन, घंटाघर चैक
क्लब घर, मैनपुरी - 205001 (उ0प्र0)
स्थाई पता- ग्राम कैरावली, पोस्ट तालिबपुर
जिला- मैनपुरी (उ0प्र0)
ई मेल - harishchandrashakya11@gmail.com
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