यह कहानी टिहिया की है। टिहिया के साथ जो भी चरित्र जुड़ गए हैं, ये उन चरित्रों की ज्यादती है। टिहिया ने कभी उनसे जुड़ने की कोशिश नहीं की। हाला...
यह कहानी टिहिया की है। टिहिया के साथ जो भी चरित्र जुड़ गए हैं, ये उन चरित्रों की ज्यादती है। टिहिया ने कभी उनसे जुड़ने की कोशिश नहीं की। हालांकि समझा यही जाता है कि टिहिया उन चरित्रों से जबरन ही जुड़ गया। चूंकि टिहिया किसी को जानता-पहचानता ही नहीं तो उसके जुड़ने का सवाल ही नहीं उठता फिर भी अगर यह समझा जाता है कि टिहिया खुद ही उन चरित्रों से जुड़ गया, तो यह समझने वाले समझते रहें। टिहिया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तो इन चरित्रों से जुड़ने के पहले तक टिहिया ही था और इनसे जुड़ने के बाद भी टिहिया ही हैं। उसके लिए इतना ही काफी है कि वह टिहिया है और उसे टिहिया के रूप में पहचाना जाता हैं। किसी व्यक्ति की मौलिक पहचान बनी हैं, यह क्या कम है। वैसे पहचान कायम रहने यानी अस्मिता का अधिकार टिहिया जैसे लोगों को संविधान में प्राप्त है, मग़र मौलिक अधिकारों की व्याख्या अभी नहीं, क्योंकि इस तरह की व्याख्या में देश ने कई मौलिक बातों को भुला दिया हैं।
बहरहाल, इस कहानी का केन्द्रीय पात्र टिहिया ही हैं। वही टिहिया जिसे आपने कभी नहीं देखा मग़र हर वक्त, आपके साथ ही रहता है। जिसे देश ने सिर्फ जनगणना या चुनाव के समय ही याद रखा और वह भी अब तक समझ नहीं पाया कि आखिर देश होता क्या है। आज़ादी के सत्तर बरस में योजनाएं टिहिया तक पहुँचने की कोशिश करती रही और सरकार के मुताबिक टिहिया अक्सर अपने घर पर नहीं मिला। जब-जब कोई सर्वे हुआ टिहिया के घर पर ताला पाया गया। आश्चर्य यह कि जब-जब मतदान पर्व आया तब-तब टिहिया को इस आधार पर उपस्थित माना जाता रहा कि उसका मत डाला गया था। यानी टिहिया था, और टिहिया को यह जानकर संतोष था कि उसका अस्तित्व अब तक कायम है। अब तक आप समझ ही चुके होंगे कि टिहिया कौन है और कहाँ का रहने वाला है। फिर भी टिहिया इस कहानी का केन्द्रीय पात्र है इसलिए यह बताना आवश्यक है कि टिहिया आखिर है कौन?
उजाला रहता है जहाँ
टिहिया को कब और कैसे टिहिया कहा जाने लगा, यह टिहिया को याद नहीं अलबत्ता उसकी प्राथमिक विद्यालय की अंकसूची से यह प्रमाणित ज़रूर होता है कि उसका असली नाम टीकमसिंह हैं। इतना तो टिहिया को याद है कि उसका यह नामकरण भी स्कूल में दाखिला देते वक्त मास्टर साब ने किया था, और उसकी जन्म तारीख भी मास्टर साब ने ही तय की थी। इससे आपको विश्वास हो गया होगा कि यह अपने देश की ही घटना है, और जहाँ कि यह घटना है वह देश का पिछड़ा, ग्रामीण यानी इसी तरह का इलाका है। इस तरह के इलाकों में अधिकांश बच्चों के नाम स्कूल के मास्टर साब ही लिखते आए हैं, क्योंकि इन इलाकों में बच्चों के नाम रखने या जन्म तिथि याद रखने की शुरूआत पालकों द्वारा अब तक नहीं हो सकी है। शायद मास्टर के राष्ट्र निर्माता होने वाली बात यहीं सार्थक होती है। आखिर नाम और जन्मतिथि का निर्धारण निर्माता ही कर सकता है। बहरहाल टीकमसिंह अपने सहपाठियों की शरारत, स्नेह, प्रेम या चिढ़ावनी की वजह से टिहिया में बदल गया और जैसा कि अक्सर देश में होता है, असल पर नकल भारी रहती है, स्कूल के नाम से घर का नाम अधिक प्रचलित होता है, उसी तर्ज पर टीकमसिंह को टिहिया के रूप में ही जाना जाने लगा।
[post_ads]
टिहिया कहाँ रहता है? यह सवाल अगर टिहिया से किया जाए तो वह कहेगा टापरे में। इसे विकासशील देश के बुद्धिजीवियों या अर्थशास्त्रियों की भाषा में ‘रूरल एरिया’ कहा जाता है, और इनकी परिभाषा में ‘टापरे’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता। दुर्भाग्य देखिए, देश को चलाने वालों को यह नहीं मालूम कि टापरा किसी झोंपड़ी या घर के समूह का कहते हैं और इस टापरे में रहने वालों को अब तक यह नहीं मालूम हो पाया कि देश होता क्या है? यही कारण है कि जब भी टिहिया से पूछा जाता है कि वह कहाँ रहता है, तो वह कहता ‘टापरे में’। इससे आगे वह जिले, प्रदेश या देश की सीमाओं से अब तक अनजान है। उसके लिए सभी कुछ उसका टापरा ही है, और वह अपने आस-पास रहने वाले उसके साथियों के अलावा किसी को नहीं जानता। मग़र यही टापरा टिहिया के लिए किसी जन्नत से कम नहीं। उसके इस टापरे में अब तक प्यार-मुहब्बत की रस्में कायम हैं। यहाँ रहने वाला हर व्यक्ति एक-दूसरे के सुख-दुःख में भागीदार होता है। हर तीज-त्यौहार सभी मिल जुल कर मनाते हैं। ईमानदारी यहीं पाई जाती है। टिहिया जिस टापरे में रहता है वहाँ अभी तक बिजली नहीं पहुँची है और हर चुनाव से पहले यहाँ बिजली पहुँचाने का वायदा किया जाता है। उम्मीद है कि बिजली यहाँ अवश्य पहुँचेगी, मग़र कब यह पता नहीं। फिलहाल इस टापरे में बिजली की आवश्यकता भी महसूस नहीं होती है क्योंकि यहाँ वैसे ही अच्छाइयों का उजाला मौजूद है। यानी टिहिया वहीं रहता है जहाँ उजाला रहता है, और जहाँ अब तक अंधेरे के हिमायती लोगों के कदम नहीं पड़े हैं।
बार-बार इधर को आना
सुविधाएँ जब व्यक्ति तक नहीं पहुँचती है तो व्यक्ति को मजबूरन सुविधाओं तक पहुँचना पड़ता है। टिहिया के साथ भी यही हुआ। सुदूर आदिवासी अंचल तक सुविधाएँ नहीं पहुँच सकी तो टिहिया को इन सुविधाओं तक पहुँचना पड़ा। टिहिया की तरह कितने ही सुदूरवर्ती क्षेत्रों के निवासी इन सुविधाओं तक पहुँचने में अपना समय, श्रम और धन बर्बाद कर रहे हैं। खैर, टिहिया कोई खास व्यक्ति तो था नहीं जो उस तक सुविधाएँ पहुँचती। उसे भी सुविधाओं तक ही पहुँचना था। वैसे भी बाज़ार की खासियत होती है कि वह पहले लोगों को लुभाता है और बाद में गला दबाता है तो, अपने टापरे से बार-बार इधर शहर की ओर भागना टिहिया की मजबूरी थी। केरोसीन, गेहूं, चावल, शकर, तेल इत्यादि सामग्री बरसों से टिहिया के टापरे के लिए रवाना हो रही है मग़र अब तक टापरे को नहीं पहुंच पाई है। व्यवस्था के लिहाज से कागज़ों में यह सामग्री यहां तक पहुंचती रही है और इसी से व्यवस्था कायम है। व्यवस्था की व्यवस्था जाने, मग़र यहाँ टिहिया को ज़रूरत की हर सामग्री लेने के लिए शहर की दौड़ लगाना पड़ती हैं। बार-बार इधर आना और हर अपने टापरे को एक नए ख्वाब के साथ पहुँचना टिहिया के भाग्य में लिखा है। बाज़ार से गुज़रते हुए हर बार कोई न कोई ख्वाब टिहिया के साथ जुड़ जाता। यह बाज़ार का अतिरिक्त प्रभाव या साईड इफेक्ट भी कहा जा सकता है कि उसके पास से गुज़रने वाले हर व्यक्ति को वह अपनी सुगन्धित देह से आकर्षित कर ही लेता है। टिहिया भी इससे अछूता नहीं रहा। इस आकर्षण के कारण भी टिहिया इधर बार-बार आने लगा।
हर कोई आता रहा है गिरफ़्त में
टिहिया ने जो दुनिया इधर देखी उस दुनिया की न कभी कल्पना की थी और न ही ऐसी किसी थी और न ही ऐसी किसी दुनिया का ख्वाब भी उसे कभी आया था। इससे यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि व्यक्ति जो कुछ हकीकत में देखता है, वही सपनों में भी दिखता है। जब तक टिहिया ने यह दुनिया नहीं देखी भी तब तक उसे इस दुनिया के सपने भी नहीं आते थे, मग़र जब से यह दुनिया उसने देखी तब से उसे यह दुनिया बार-बार पुकारने लगी। कभी ख्वाबों में कभी हकीक़त में। इस दुनिया की चकाचैंध के बीच जिस बात ने टिहिया को सर्वाधिक प्रभावित किया, वह था पहनावा। शहरी पहनावा उसके इलाके से बिल्कुल अलग था। उसके यहाँ ग़रीबे-गुरबे तन नहीं ढंग पाते और यहाँ जो जितना सम्पन्न है, उतना ही नग्न दिखने की कोशिश करता है। कपड़े हों तो भी तन से चिपके हुए। कई बार तो इतने चुस्त कपड़े उसने देखे जिसमें से भीत ही जिस्म टपकता हुआ प्रतीत हुआ। एक पल ठहरकर उसे यह यकीन करना पड़ा कि कपड़े पहने हैं भी या नहीं। मग़र शहर में इसी तरह के कपड़े जाते है, यह बात टिहिया की समझ में आ कभी वह बाज़ार में गुम होने की कोशिश करता तो कभी बाज़ार उस पर काबिज होने में लगा होता। बाज़ार की गिरफ़्त में जब अच्छे से अच्छा तीसमार खां आ जाता है, तो फिर टिहिया की क्या बिसात थी? उसे बाज़ार की गिरफ़्त में आना था और वह आया भी।
[post_ads_2]
बाज़ार की तमाम सुविधाओं, प्रलोभनों, रियायतों से अनजान टिहिया के मन में यह इच्छा जागृत हुई कि चुस्त बनियान खरीदा जाए। शहर में जिसे टी शर्ट कहते हैं, वह टिहिया के लिए बनियान ही था, और बनियान खरीदने दुकान पहुँचने तक वह उसे बनियान ही कह रहा था। वो तो दुकानदार ने उसके बनियान कहते ही जोर का ठहाका लगाया तब उसे अहसास हुआ कि गाँव से शहर आते ही बनियान, टी शर्ट में तब्दील हो जाता है। तो टिहिया ने अपने मन की इच्छा दुकानदार को बताई और बहुत कोशिश के बाद ‘‘टी शरट’’ उच्चारण कर सका। दुकानदार ने नौकर को इशारा किया और पल भर में उसके सामने टी-शर्ट का ढ़ेर लगा था। कोई हरा, कोई पीला, कोई नीला तो कोई उस रंग का जिसे टिहिया ने पहली बार ही देखा। उसे यहीं आभास हुआ कि उसके गाँव तक तो अभी इतने रंग भी नहीं पहुँचे हैं। वह जंगल में खिलते फूलों के रंगों को याद करने की कोशिश करने लगा। जंगली चिडियाँ और तितलियों में उन रंगों को खोजने की कोशिश करता रहा। उसे आसमान में बारिश के समय कभी-कभी दिखने वाली वो लकीरें भी याद आईं, जिसे मास्टर साब ने इन्द्रधनुष कहा था। मग़र उसके रंग भी टिहिया को फीके दिखाई दिये। टिहिया रंगों की इस दुनिया में और गोते लगाता अगर दुकानदार उसे टोकता नहीं।
दुकानदार को हमेशा दुकान में आता और सामान खरीदता ग्राहक अच्छा लगता है। अधिक पारखी ग्राहक को दुकानदार पसन्द नहीं करते। बाज़ार वैसे भी सोचने समझने का किसी को मौका नहीं देता हैं। देखने की भी एक सीमा बाज़ार ने निर्धारित की हुई है। अधिकांश काम बाज़ार खुद कर देता है। कुछ काम उसके लोकलुभावन आफर कर देते हैं। इस आफर के चक्कर में ग्राहक दुकानदार के सामने समर्पित हो जाता है और ग्राहक के घर में बाज़ार के पहुँचने की शुरूआत यहीं से होती है।
टिहिया से भी दुकानदार को यही अपेक्षा थी कि वह जल्दी से अपनी पंसद का ‘टी शर्ट’ खरीदे और अगले ग्राहक के लिए जगह खाली करे। टिहिया ने सामने रखे ‘टी शर्ट’ के ढे़र पर एक नज़र घुमाई और बहुत डरते हुए एक ‘टी शर्ट’ को छू कर देखा। टी शर्ट को हाथ लगाते ही उसे कपास की याद आ गई जो कभी उसके इलाके में पैदा होता था। कपास पैदा तो अब भी होता है मग़र अब उस ज़मीन पर उसका अधिकार नहीं है। सूदखोर ने कर्ज के बदले वह ज़मीन भी हड़प ली और ब्याज अब तक वसूल रहा है। कहने को ज़मीन अब भी उसकी है मग़र वही अपनी ज़मीन पर मजदूरी कर रहा है। उसकी ज़मीन से निकालने वाले कपास को सूदखोर ‘‘सफेद सोना’’ कहता है और इस सफेद सोने की वजह से ही सूदखोर स्वर्ण आभूषणों से लदा रहने लगा है। इस ज़मीन पर बुआई से लेकर कटाई तक का सारा काम टिहिया ही करता है, मग़र उसे मेहनताना भी नहीं मिल पाता। पता नहीं उसे इस जनम में इस ज़मीन का मालिक कहलाने का हक़ मिल पाएगा भी या नहीं? खैर, आज़ाद मुल्क में हर किसी को कुछ भी करने की आज़ादी है और सूदखोर कुछ नया तो कर नहीं रहा है। टिहिया जैसे कितने ही आदिवासी किसान पीढ़ियों से इन सूदखोरों की गिरफ़्त में है और पता नहीं कब तक रहेंगे?
नज़रों की कैद से बचना
फिलहाल टिहिया दुकानदार की पैनी नज़रों की गिरफ़्त में था। इसलिए जैसे ही टिहिया ने टी शर्ट को छुआ दुकानदार ने हाथ हटाते हुए कहा- ‘‘दूर से देख, गन्दा हो जाएगा।’’
टिहिया ने इस तरह हाथ हटाया जैसे कि करंट लगा हो। दुकानदार का यह व्यवहार मौलिक अधिकारों के व्याख्याताओं, दलित विमर्श के महारथियों या मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए बड़ा मुद्दा हो सकता है पर टिहिया के लिए यह हर पल होने वाली बात हैं। इस तरह का व्यवहार टिहिया ही नहीं आप और हम जैसे नासमझ कहलाने वाले लोग हर दिन सहते हैं। सहकर मुस्कुराते भी हैं। टिहिया भी दुकानदार के इस व्यवहार से नाराज़ नहीं हुआ, सिर्फ मुस्कुरा दिया। नाराज़ होना वैसे भी टिहिया के अधिकारों में शामिल नहीं है। टिहिया की जगह कोई समझदार, धनाढ्य होता तो वह नाराज़ होकर दुकान से उतर जाता और दूसरी दुकान की ओर रूख कर लेता। मग़र तब शायद दुकानदार का व्यवहार ऐसा न होता। अभी टिहिया सामने पड़े टी-शर्ट को ग़ौर से देख एक को चुनने की तरफ बढ़ रहा था। दुकानदार आश्वस्त था कि टिहिया के पास खरीदने लायक राशि है इसलिए वह इतनी देर तक परखने और चयन करने का मौका देता रहा। वरना इस बाज़ार में देखने-परखने और समझने का अवसर कहाँ मिलता है। चयन करना तो दूर की बात है।
जेब के रूपए बाहर निकलवाने के लिए अक्सर जो किया जाता है, वही दुकानदार ने किया। टिहिया को उलझन में देख दुकानदार ने उस ढ़ेर में से एक टी शर्ट सामने रखते हुए कहा, ‘‘यह एकदम नई चीज है। साथ में एक टोपी मुफ्त।’’ यह बाज़ार का आफर था जिसमें अच्छे पढ़े-लिखे लोग उलझ जाते हैं तो फिर टिहिया तो टिहिया था। उसे लगा एक साथ दो चीजे़ं मिल रही है। दुकानदार ने टिहिया के चेहरे के भावों को पहचानते हुए एक और आफर दे डाला। ‘‘टी शर्ट पर दो फोटो छापे हैं न। नीचे खाली जगह पर तेरा फोटो भी छपवा दूंगा।’’ टिहिया के लिए यह चमत्कार की तरह था। दुकानदार की बात पर टिहिया को सहसा विश्वास नहीं हुआ। दुकानदार हर ग्राहक का चेहरा पढ़ना जानता था, टिहिया का चेहरा भी पढ़ लिया। वह समझ गया कि ग्राहक को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ है। उसने तत्काल दो-तीन टी शर्ट उसके सामने रख दिए। उन पर दूसरे चित्रों के बीच खरीदने वाले का फोटो छापा गया था। टिहिया को अब विश्वास हो गया कि दुकानदार जो कह रहा है, वह ठीक कह रहा है और उसका फोटो भी टी शर्ट पर छप सकता है। टिहिया को यह प्रस्ताव जम गया। उसने दुकानदार को हाँ कहा और रूपए थमा दिए। दुकानदार ने टिहिया को एक टोपी थमा दी। यह वही टोपी थी जो इस टी शर्ट के साथ मुफ्त देने का वादा दुकानदार ने किया था। टिहिया दुकानदार की इस ईमानदारी पर चमत्कृत था और उसका विश्वास दुकानदार के प्रति बढ़ गया था। चतुर दुकानदार मुफ्त आफर वाली चीज़ें थमाकर ग्राहकों का इस तहर विश्वास अर्जित करता है। बाज़ार दुकानदार को यही तो सिखाता है। इस विश्वास के बाद जब दुकानदार ने टिहिया से कहा कि ‘‘दो दिन बाद आकर टी शर्ट ले जाना, क्योंकि फोटो छापने में वक्त लगेगा’’, तो टिहिया कुछ नहीं कह सका। टिहिया का फोटो अपने मोबाइल कैमरे से खींच कर दुकानदार अगले ग्राहक से मुखातिब हो चुका था और टिहिया के सामने दुकान से बाहर आने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा।
दो दिन का समय टिहिया के लिए किसी प्रेमिका के इंतजार से कम नहीं था। बाज़ार प्रेम करना नहीं सिखाता है, ऐसा कहने वालों के लिए यह ग़ौर करने की बात है कि टिहिया इन दो दिनों में प्रेम करना सीख गया था। उसे अपने टी शर्ट को पाने के इंतजार में यह समय भारी लग रहा था। रह-रह कर उसे टी शर्ट का खयाल आ जाता और वह दुकान में उस ढ़ेर में फिर से अपने टी शर्ट को ढूंढने का प्रयास करता। जैसे-तैसे दो दिन बीत गए और वह दुकान खुलने से पहले ही बाज़ार में पहुंच चुका था। दुकान खुलते ही दुकानदार के सामने टिहिया खड़ा था। वादे के मुताबिक दुकानदार ने टिहिया के सामने वही ‘टी शर्ट’ रख दिया। अब उस टी शर्ट पर तीन फोटो छपे हुए थे। टिहिया अपना फोटो छपा देख इस चमत्कार को समझ नहीं पा रहा था। उसने इस चमत्कार को हकीकत में महसूस करने के लिए छूने की कोशिश की, मग़र दुकानदार की हिदायत उसके दिमाग़ में कौंध गई। उसने हाथ हटा लिया। इस बार दुकानदार ने कहा, ‘‘अब यह तुम्हारा ही है। हाथ लगाकर देखो।’’ टिहिया ने टी शर्ट को छुआ तो उसे ऐसा नर्म, मुलायम अहसास हुआ जो उसने कभी महसूस नहीं हुआ थां अब इस करिश्मे से, इस रेशमी अहसास से टिहिया भला क्यूं न इस बाज़ार पर मोहित होता? वह मोहित हुआ और इसी बाज़ार के प्रति शुक्रिया अदा करता रहा।
टिहिया ने जब वह टी शर्ट पहनी तो देखने वाले उसको आश्चर्य से देखते। शहर के लिए यह सामान्य टी शर्ट थी मग़र जहाँ टिहिया रहता है, वहां के लिए बिल्कुल नई, चमत्कार जैसी। भले ही टिहिया के गांव में राशन नहीं पहुँच पाया है अब तक, मग़र मोबाइल तो पहुँच चुका है। कपास के खेत पर टिहिया जैसे कितने ही युवाओं का आधिपत्य अब तक नहीं हो सका पर इस टी शर्ट के जरिये बाज़ार ने उसके गाँव में प्रवेश कर ही लिया। क्या यह भी किसी क्रांति से कम नहीं?
यूँ ही चिपक जाता है कोई
बहरहाल, टिहिया ने जो टी शर्ट पहना उस पर तीन चित्र बने थे। तीनों एक-दूसरे से अपरिचित, अनजान, अनभिज्ञ। पहला चित्र अंग्रेजी फिल्मों के किसी नायक की तरह दिखाई दे रहा था, और जो आजकल अधिकांश कपड़ों पर दिखाई दे जाता है। इस चित्र को वे तो पहचानते ही नहीं है जो इसे अपने कपड़ों पर लिए घूम रहे हैं, वे भी नहीं जानते जो इस चित्र को छाप रहे हैं। बस, डिमांड है इसलिए यह चित्र छप रहा है। बाज़ार हर मांग की इसी तरह पूर्ति करता रहा है, अब भी कर रहा है। जब इतने लोग इस चित्र से अनजान हैं तो टिहिया की क्या बिसात? उसे यूं भी इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं कि दो चित्र किसके हैं, वह तो इसी से खुश है कि उसका चित्र टी शर्ट पर छपा है। बहरहाल पहले चित्र को कुछ बुद्धिजीवी किस्म के लोग ‘‘चे’’ कहकर पुकारते हैं, इससे यह साबित होता है कि यह चित्र प्रसिद्ध क्रांतिकारी चे ग्वारा का ही है। ‘चे’ के नाम और काम से अनजान लोग उसका चित्र छाप रहे हैं यह भी और काम से अनजान लोग उनका चित्र छाप रहे है यह भी क्या काम है। बहरहाल टिहिया केा इससे कुछ सरोकार नहीं कि चे ग्वारा उस क्रांतिकारी का नाम है, जिसने अपनी जवानी में क्रांति की नई परिभाषा गढ़ी थी और जिसका नाम ही क्रांति का पर्याय बन गया था। टिहिया को इस जानकारी में भी दिलचस्पी नहीं कि चे के इस चित्र को दुनियाभर के युवा पसंद करते है। इस मामले में टिहिया दुनिया भर के उन युवाओं के समान है क्योंकि न तो वे युवा चे के बारे में कुछ जानते है और न ही टिहिया। वे युवा चे के सौष्ठव से प्रभावित होकर अपने कपड़ों पर चे का चित्र छपवाते है और टिहिया की इसमें कोई सहमति भी नहीं थी और रूचि भी नहीं। संयोग से भी चे का साथ टिहिया को मिल गया था। अधिकांश लोग चे को किसी फिल्म का हीरो समझते हैं और उनका चित्र इसी अनुमान से कई जगह पाया जाता है। फिर टिहिया को कोई दोष दिया भी नहीं जा सकता क्योंकि टी शर्ट उसने खरीदा था और उसकी खरीदी चीज़ पर क्या छापा है, यह जानने या समझने का हक़ किसी को नहीं है। वैसे टिहिया ने कहा भी नहीं था कि कौन सा चित्र छपा है। यद्यपि जो छपा है, उसे वह समझने की कोशिश ज़रूर करता रहा। दूसरा चित्र था ‘पा’ का। पा यानी महानायक। किसी को करोड़पति बनाने का ख्वाब दिखाते, किसी कपड़े के ब्राण्ड एम्बसेडर बनते या किसी तेल का विज्ञापन करते ये महानायक अभिताभ बच्चन। जिनके बिना फिल्मी दुनिया खुद को अधूरी समझती रही और जिनके आने से ही सिनेमाघरों में तालियाँ पीटी जाती रही। मग़र टिहिया को महानायक नहीं जानते। जानना भी नहीं चाहिए। टिहिया होता ही कौन है जिसे महानायक जाने या जानने की कोशिश करें। महानायकों से इस तरह की उम्मीद नहीं की जाना चाहिए। टिहिया और महानायक दोनों ही एक दूसरे के साथ होकर भी एक-दूसरे से अनजान थे। जैसे महानायक के लिए टिहिया वैसे ही टिहिया के लिए ‘पा’। काफी ज़ोर देने के बाद टिहिया को यह विश्वास हो गया था कि यह चित्र वैसा ही है जो उसमें एक बार हेयर कटिंग सेलून पर देखा था। नाई ने उस चित्र को दिखाकर टिहिया से पूछा भी था ‘‘ऐसे बाल काट दूँ?’’ टिहिया ने तब इंकार कर दिया था और हर बार की तरह साधारण कटिंग ही करवाई थी। टिहिया को उस सेलून पर लगा वह चित्र याद था और वह मान चुका था कि टी शर्ट पर बना चित्र वैसा ही है। यूँ टिहिया को इस बात पर अधिक ग़ौर करना भी नहीं था। ‘पा’ टिहिया के लिए न तो सूदखोर थे जो उसकी ज़मीन वापस लौटा देते, और ना ही गाँव के सरपंच जो उसे बिना काम किये ही रोजगार गारंटी योजना का मेहनताना दे देते। टिहिया के लिए सूदखोर या सरपंच के चेहरों को याद रखना अधिक ज़रूरी था, क्योंकि उनसे उसके हित जुड़े थे। मग़र यहाँ जो चेहरे उसके साथ थे वे टिहिया के लिए कोई मतलब नहीं रखते थे।
इसे टिहिया का भाग्य कहे या दुर्भाग्य की चेहरा हर बार उसी का बदलना है। बाकी सब तो बाज़ार की मर्जी से स्थापित है। जान-पहचान के चेहरों को मन पर और अनजान चेहरों को तन पर ढोने को हर कोई मजबूर है, सो टिहिया भी इसी मजबूरी का शिकार है। उसे संतोष है तो बस इतना कि उसे ‘टापरे’ के लोग उसका छपा हुआ चित्र देखकर उसकी तारीफ करते है। जब-जब भी टिहिया बाज़ार जाता दुकानदार उस पर नज़रें गडाए रहते। आखिर बाज़ार को टापरों तक पहुँचाने के लिए टिहिया पर सवार होना ज़रूरी हैं। बाज़ार इसी तरह टिहिया पर सवार होकर उसके गांव तक पहुँच रहा हैं। टिहिया पर सवार बाज़ार की नज़र उसके जंगल, उसकी ज़मीन पर टिकी हुई है। बाज़ार का गठजोड़ सूदखोर से हो चुका है। टिहिया को अपनी ज़मीन मिलने की अब कोई आस नहीं है। अलबत्ता परिपक्व होते लोकतंत्र में टिहिया को अब तो हर दिन नये अधिकार प्राप्त हो रहे है। इन अधिकारों से बेखबर टिहिया अपने टी शर्ट पर अपना ही चित्र देखकर प्रसन्न है, उधर देश के अर्थशास्त्री अब ‘टापरे’ का अर्थ समझने लगे है।
---
संक्षिप्त परिचय
नाम - आशीष दशोत्तर
जन्म - 05 अक्टूबर 1972
शिक्षा - 1. एम.एस.सी. (भौतिक शास्त्र)
2. एम.ए. (हिन्दी)
3. एल-एल.बी.
4. बी.एड
5. बी.जे.एम.सी.
6. स्नातकोत्तर में हिन्दी पत्रकारिता पर विशेष अध्ययन।
प्रकाशन - 1 मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा काव्य संग्रह-खुशियाँ कैद नहीं होती-का प्रकाशन।
2 ग़ज़ल संग्रह 'लकीरें',
3 भगतसिंह की पत्रकारिता पर केंद्रित पुस्तक-समर में शब्द-प्रकाशित
4 नवसाक्षर लेखन के तहत पांच कहानी पुस्तकें प्रकाशित। आठ वृत्तचित्रों में संवाद लेखन एवं पार्श्व स्वर।
5. कहानी संग्रह 'चे पा और टिहिया' प्रकाशित।
पुरस्कार - 1. साहित्य अकादमी म.प्र. द्वारा युवा लेखन के तहत पुरस्कार।
2. साहित्य अमृत द्वारा युवा व्यंग्य लेखन पुरस्कार।
3. म.प्र. शासन द्वारा आयोजित अस्पृश्यता निवारणार्थ गीत लेखन स्पर्धा में पुरस्कृत।
4. साहित्य गौरव पुरस्कार।
5, किताबघर प्रकाशन के आर्य स्मृति सम्मान के तहत
कहानी, संकलन हेतु चयनित एवं प्रकाशित।
6. साक्षरता मित्र राज्य स्तरीय सम्मान
सम्प्रति - आठ वर्षों तक पत्रकारिता के उपरान्त अब शासकीय सेवा में।
संपर्क - 12@2,कोमल नगर,बरबड़ रोड
रतलाम (म.प्र.) 457001
E-mail- ashish.dashottar@yahoo.com
COMMENTS