साबुन साबुन विविध रंगों-गंधों में उपलब्ध एक सामाजिक वस्तु है आप ज्यों ही फाड़ते हैं रैपर किसी जिन्न की तरह यह पूछ बैठता है हुक्म यह वर्षों ...
साबुन
साबुन
विविध रंगों-गंधों में उपलब्ध
एक सामाजिक वस्तु है
आप ज्यों ही फाड़ते हैं रैपर
किसी जिन्न की तरह
यह पूछ बैठता है हुक्म
यह वर्षों से पूछता आया है हुक्म
कभी सुनी है आपने इसकी आवाज
आप हमेशा हड़बड़ी में होते हैं
इसलिए सँपेरे की तरह दबोच लेते हैं इसे
यह दुबक जाता है मुट्ठी में
घोंघा बनकर
इसे घुमा-घुमाकर जब
माँज रहे होते हैं देह
चुपचाप आँखें मिचमिचाते
यह देख रहा होता है आपका सब कुछ
फिर रहा होता है
नो इंट्री जोंस में भी बेबस
साबुन ने कभी नहीं मानी कोई व्यवस्था
जितना यह निखार सकता है आपको
उतना ही
शादी में श्राद्ध के मंत्र बाँचते किसी पंडित को
या हफ्तावार नहाते किसी मुल्ले को
कोई चोर भी स्मार्ट हो सकता है इससे
इससे धुल सकते हैं किसी बलात्कारी के
दागदार कपड़े भी
कोई वेश्या भी हो सकती है चकाचक
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घिसकर अपने आखिरी दिनों में भी
यह तैयार रहता है
बाथरूम के किसी ताखे पर
या आँगन में मोरी के पास
आप उठते हैं
और उठाकर
गुनगुनाते हुए माँज लेते हैं हाथ
इसके माथे पर शिकन तक नहीं आती
किसी दिन इसी तरह
यदि माँजते हुए हाथ
यह छिटककर गिर पड़ता है कचरे की दुनिया में
तब आप कितना झल्ला उठते हैं इस पर
और
कितनी कातर दृष्टि से
यह निहारता रह जाता है आपका चेहरा।
पिता की तस्वीर
आज झाड़ते हुए आलमारी
अखबार के नीचे मिल गई
पिता की वही तस्वीर
कई साल पहले
ढूधवाले के हिसाब के वक्त भी
यह इसी तरह पाई गई थी
माँ की डायरी में
फूल की पँखुरी-सी सुरक्षित
फिर एक रात
जब दादी के दाँतों में हुआ था
भीषण दर्द
तब अँधेरे में
दवा के लिए निकलते हुए पैसे
यह भी खिंची चली आई थी
सिरहाने से बाहर
या पिछले ही साल
बहन के गौने के समय
जब भरा जा रहा था उसका ब्रीफकेस
तब भी संदूक से निकल आई थी
साड़ियों के साथ अचानक
पिता के यौवन से भरी
यही तस्वीर दिखती रही है सालों से
कोई नहीं जानता
कि पिता के बेफिक्र बचपन
और लुटे वर्तमान की तस्वीरें
कहाँ दबी पड़ी हैं
किसके अलबम में
किसकी स्मृति में...
तुम
जैसे वेदों में साम
रामचरितमानस में राम
और महाभारत में गीता
जैसे संसृति में मानव
जैसे मानव में मन
और मन में हो ईश्वर
वैसे ही
मेरे जीवन में, प्रिये, तुम !
तुमने कहा प्रेम
तुमने कहा प्रेम
और
कलम की नोक पर उछलने लगे अनायास
अनजाने जानदार शब्द
कूँचियों से झड़ने लगे
सपनों के रंग
फूट पड़ा सामवेद कंठ से
तुमने कहा प्रेम
और
हृदय के भूले कमलवन में
दौड़ने लगी
नई और तेज हवा वासंती
मन की घाटी में गूँजने लगा
उजाले का गीत
खिल उठा ललाट पर सूर्य
चंदनवर्णी
उफनने लगी
आँसूवाली नदी
तुमने कहा प्रेम
और बिछ गई यह देह
और तपती रही...तपती रही...
फिर तुमने क्यों कहा प्रेम ?
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शून्य
अंक से पहले
यह एक सुडौल पहरेदार
धूर्तताओं के इस महासमुद्र में
बचाता हुआ पृथ्वी का सच अपने नथने पर
बाद में
भरता हुआ साथी के हृदय में
दसगुनी ताकत
दूसरों के अस्तित्व से
जो कई गुना होती चली जाती है संख्या
उसे अपने रंग में ढाल लेने की महान् शक्ति से लैस
यह सवार हो जाता है जिसके सिर पर
उसे ला पटकता है शनीचर की तरह
विफलता के सबसे निचले पायदान पर
शून्य एक संत भी
गणितीय जीवन में कभी-कभी
कुछ जुड़ने-घटने के प्रति
उदासीन
चित्रकला सीखते छात्र की पहली सिद्धि यह
कि कितनी सफाई से
वह उकेर पाता है शून्य
सुबह के स्वर्णजल में पैठकर
एक पुजारी
जब उचारता है ओम
उसके होंठ शून्य बन जाते हैं
प्रकृति ने नहीं थामा हाथ
तब भी पूर्ण है यह सृष्टि का नियंता
अगर तोड़ो वटवृक्ष का बीज
तो उसके अंतर में जो शून्य है कुछ नहीं का
उसी की आत्मा में होता है कहीं
एक वृक्ष बहुत विशाल
मेरे वे सूर्यपिता
जो बोलते थे
तो कंठ से झरता था अमृत
और देखते थे
तो चीजें चमचमा उठती थीं नक्षत्रों-सी
आजकल क्यों ताकते हैं शून्य में
एक रात
जब पूरा शून्य हो जाता है चंद्रमा
तो मिल जाता है
मेरी माँ की शक्ल से
और यह खास सच है
कि सीधेपन से भरे चेहरे संसार के
अधिकतर गोल हैं
उन्हें गौर से देखो
तो दया आ जाएगी
तुम कहाँ हो नागार्जुन...आर्यभट्ट
नरेंद्रदत्त कहाँ हो
आओ देखो
कितना फैल गया है शून्य का साम्राज्य
जो दिखता है चारों ओर
उससे भी बड़ा है
नहीं दिखने का सच
खाए-अघाए हुए ईश्वर के पट-पीछे
भूख के अँधेरों में भटकते
उस ईश्वर के सच की तरह
जिसके सपनों में खनकते हैं शून्य-से
अगिन सिक्के !
ताला
कितना परेशान करता है यह ताला
जब बंद करो
बंद नहीं होगा
खोलो हड़बड़ी में
खुलेगा नहीं
पसीना छुड़ा देगा सबके सामने
एकदम बच्चा हो गया है यह ताला
कभी अकारण अनछुए ही
खुल जाएगा ऐसे
साफ हुआ हो जैसे
कोई जाला...मन का काला !
ऐ लड़की
ऐ लड़की, सुनो !
वहाँ
सबसे अलग
अपने एकांत में खोया
जो बैठा हुआ है लड़का
उसकी तरफ कभी मत जाना तुम
उसकी आँखों का समुद्र
तुम्हें खींच लेगा अपनी गहराई में
हो सकता है
कभी अचानक ही वह उठे
और तुम्हारे द्वार से होकर गुजरने लगे
तो सुनो
एकदम से भागकर तुम
घर के पिछवाड़े चली जाना
उसे झाँकना भी मत कहीं से
कि उसकी चाल में
असंख्य कामदेवों की चाल है
असंभव है जिसकी मादकता से बच पाना
यह भी हो सकता है
कि किसी रोज
किसी बहाने तुम्हारे द्वार पर
वह आ जाए
मसलन
कि वह तुम्हारे भाई से मिलने आया है
कि वह तुम्हारे मरणासन्न दादाजी को
गाकर सुनाने आया है रामचरितमानस
कि तुम्हारी दादी के गहनतम दुःख में
शामिल होने आया है वह
कि तुम्हारे माता-पिता का विश्वास बनकर वह आया है
कि वह आया है
ज्ञान की अपार प्रकाश-राशि से तुम्हें नहलाने
तुम्हें जीवन की हर बाधा पार कराने वह आया है
पर सुनो
वह तुम्हें केवल बहलाने आएगा
उसके भुलावे में कभी मत आना
वह तुम्हें हर रंग का सपना देगा
जपने को नाम केवल अपना देगा
वह मायावी है–मायावी
जादूगर है भाषाओं का
उसकी छाया से भी बचना
कि जब कहीं वह जाता है
गाड़ी में सवार होकर
तो भाड़ा देते समय
जनभाषा में बतियाता है
और जब सुंदरियों से बात करता है
तो खड़ीबोली की ऊँचाई से बोलता है
या धाराप्रवाह अंग्रेजी से उन्हें तोलता है
बचो
उससे बचो
उसके बिना ही
दुनिया अपनी रचो।
साड़ी बेचनेवाली सुंदरियाँ
जाने कहाँ से प्रकट होती हैं अचानक
अचानक ही
कहाँ गुम हो जाती हैं
ये साड़ी बेचनेवाली सुंदरियाँ
जिनकी गठरियों के पहाड़ों में
जीवन के रंगों की
कितनी ही बसी हुई हैं साड़ियाँ
ये चलती तो हैं ऐसे
जैसे बिन बोले ही
साफ हो जाएँगी
सारी की सारी साड़ियाँ
जो जितनी ही खूबसूरत-जवाँ
वह उतना ही बड़ा कोश
धारे हुए हृदय में गालियों का
थोड़ी भी चूक हुई नहीं खरीदार से
कि पल में धुन देगी सातों पुश्त
एक बार माँ ने बिठाया एक को
खुलवाई गठरी
और जो सबसे लहकदार चंपई साड़ी थी
पूछा उसका भाव
पूरे चार हजार बताए थे उसने सन् चौरासी में
माँ ने हँसते हुए पूछा
चालीस में दीजिएगा ?
इतना पूछना था
कि उसने तमतमाते हुए तुरंत कस ली गठरी
और देखते ही देखते
गालियों के असंख्य विषैले तीर
धँसा दिए माँ की आत्मा में
माँ अवाक् !
क्या कहे–क्या करे ?
इतने में ही महान् आश्चर्य हो गया
उसने उसी वेग से फिर खोली गठरी
और साड़ी निकालकर
जमीन पर पटकते हुए कहा
ले चुड़ैलिया, फिर कभी ऐसे न करना
बोहनी का समय है
चल ला!
अल्ला रे !
किनकी हैं ये बेटियाँ
किनकी ये माँएँ
किनकी हैं बीवियाँ
किनकी प्रेमिकाएँ ?
हाय, कैसी ठसक है !
मेरे दिल में कसक है !
अब मैं कभी नहीं आ पाऊँगा
तुमने कहा
आना
मैंने भी कहा
आऊँगा
तुमने मन दाबकर कहा था
आना
मैंने भी मन दाबकर ही कहा था
आऊँगा
तुम जब कह रहे थे
आना
तुम जानते थे
मैं नहीं आऊँगा
मैं भी जब कह रहा था
आऊँगा
मैं जानता था
तुम्हारे पास
अब मैं कभी नहीं आ पाऊँगा।
तुम
तुम सच हो
या स्वप्न हो
हम कभी साथ थे भी
या साथ रहनेवाली बात
स्वप्न में देखी गई बात है
जो हो
मैं कुछ भी नहीं जानता
जानता हूँ बस इतना
कि हमने जो पल
साथ कहीं भी जिए हैं
इस जीवन के
अंधकार में वे
जगमगाते दिए हैं !
अधूरी रचना
गर्भस्थ शिशु
सूखता हुआ
अपनी ही देह में
लौटता हुआ
अपने प्रारंभ की ओर
बिलाता हुआ
बिलबिलाता हुआ
अपनी आत्मा के अनंत में...!
समय
एक दिन
बात-बात में
तुमसे कहा था मैंने
कि जब से हम साथ हैं
मैंने कुछ भी नहीं लिखा है
मेरे जेहन में
कविता नहीं आती
तुमने उस दिन
मेरा हाथ थामकर कहा था
आएगा समय लिखने का
एक दिन सब दुरुस्त हो जाएगा
आज
इतने वर्षों बाद
वाकई
सब दुरुस्त हो गया है
अब तुम
मेरे साथ नहीं हो
मेरे साथ
अब रहता है
समय का अपार अंधकार
जिसमें मैं लिखता हूँ
जिससे मैं लिखता हूँ।
अभी के बाद
अब हम दोनों
नहीं मिलेंगे
फूल स्वप्न के
नहीं खिलेंगे !
मैं आऊँगा
मैं आऊँगा
यहाँ बार-बार आऊँगा
यहाँ के पेड़
फूल और पत्तियाँ
उड़ती चिड़ियाँ और तितलियाँ
बेहद पसंद हैं मुझे
उनका होना फिर से देखने
मैं आऊँगा
मुझे पहाड़ यहीं के चाहिए
झीलें और झरने
तालाब, उपवन और वन
सब यहीं के चाहिए
और जैसे हैं, वैसे ही चाहिए
आऊँगा धरती से देखने आकाश
असंख्य ताराओं की गिनती के
अनगिनत प्रयासों के लिए आऊँगा
चंद्रमा का अमृत आत्मा में धारने
सूरज की तपिश से फिर-फिर हारने आऊँगा
मैं दुखों से
अभावों से
आनंदों से बार-बार गुजरना चाहूँगा
इसलिए आऊँगा
आऊँगा
कि बेहद प्यार है मुझे इस धरती से
मोह के समुद्र में
मैं फिर से डूब जाना चाहूँगा
इसलिए आऊँगा
आऊँगा
कि मुझे प्यास चाहिए और भूख
अकर्मण्यता का छप्पनभोग मुझे नहीं चाहिए
आऊँगा
वनस्पतियों और प्राणियों के
इसी लोक में फिर आऊँगा
और हाँ,
मोक्ष का हर प्रलोभन
ठुकराकर आऊँगा !
नकारनेवाले
वे नकारनेवाले हैं
एक शब्द ही से नहीं
एक अक्षर से भी नकारनेवाले
उनके हाथ में
न तलवार है न कुल्हाड़ी
जुबान ही की धार से
वे काटते हैं द्वंद्व के पाँव
भ्रम की दीवार को पल में ढहा देते हैं
जैसे वे नकारते हैं
नकारने की हर बात
मसलन—
घृणा के फण को
कुचलते हैं साहस के नकार से
ठीक वैसे
वे स्वीकारते भी हैं
स्वीकारने की हर बात
मसलन—
स्नेह के मोती को
धारते हैं
हृदय-सीप में प्यार से
उनकी फिजाओं में
चटक रंग कम होते हैं
हरा और लाल-जैसे रंग तो होते ही नहीं
उनकी भावनाओं में
पानी का रंग होता है
और साहस में आग का
बेहद कम हैं इस भवारण्य में वे
पर निकलते हैं तो शेरों की तरह निकलते हैं
भेड़ियों के पीछे चलनेवाली भेड़ें वे नहीं हैं
वे पहाड़ हैं महानता के
दुनिया के बेहद ऊँचे-ऊँचे पहाड़
पर टूटते हैं साजिशों से कभी-कभार
और प्यार से बार-बार...लगातार...
हत्यारे से निवेदन
मुझे मत मारो
आज जब चल रहा था घर से
तो पता नहीं था तुम मिल जाओगे
मुझे तो लगता ही नहीं था
कोई मार भी सकता है मुझे
कैसी गलतफहमी में मैं जी रहा था
जब निकल रहा था घर से
तो बेटे ने कहा था–
पापा, आज लौटकर मेला ले चलना
पत्नी ने कहा था–
आओगे तो आटा लेते आना
पिताजी चावल नहीं, रोटी खाते हैं
भाई ने कहा था–
आकर अपनी नई कविताएँ फाइनल करके
सभी अच्छी पत्र-पत्रिकाओं में भेज दीजिए
संग्रह आने से पहले
कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में छा जानी चाहिएँ
देखो
मैंने किसी को नहीं बताया है
कि मेरे जाने के बाद
वे कहाँ-कहाँ मेरा पैसा खोजेंगे
मुझे बस एक मौका दो
मैं बहुत जल्द यह सब कर लूँगा
मैं यह पूछूँगा भी नहीं
कि भाई, तुम मार क्यों रहे हो मुझे
मैं जानता हूँ
मैं लिखता हूँ
जानता हूँ
तुम्हारे खिलाफ हूँ
जानता हूँ
तुम सरकार के आदमी हो
भरोसा रखो
और मुझ-जैसे आदमी पर
तुम्हें भरोसा रखना चाहिए
मुझे स्वयं के जाने का तनिक भी भय नहीं
पर जो बचा हुआ है
उसके बिलट जाने का बहुत भय है
आज छोड़ दो
बहुत जल्द तुम्हारे सामने
अपना सीना लेकर मैं उपस्थित हो जाऊँगा।
नींद और मृत्यु
(एक)
नींद एक मृत्यु है
छोटी-सी मृत्यु
जैसे मृत्यु एक नींद है अंतहीन...
इस नींद से जागकर
मैं उठता हूँ इस पार
उस नींद के बाद
कभी उठूँगा उस पार भी
इस नींद में
मुझे मृत्यु के स्वप्न आते हैं अक्सर
पर हर बार
मैं जीवित हो उठता हूँ इनमें
क्या उस नींद में
मुझे स्वप्न आएँगे जीवन के
आएँगे तो क्या होगा उनमें
और कौन होंगे
तुम्हारी अनुपस्थिति का
कोई स्वप्न
कैसे जीवंत हो सकता है, प्रिए, मेरी पृथ्वी !
इसलिए आना
उस नींद में भी आना
और स्वप्न में जगाना
मुझे बार-बार जगाना ।
(दो)
नींद एक नदी है
जैसे नदी एक बहुत गहरी नींद
दृश्यादृश्य जिसमें तैरते हैं दिशाहीन...
और मृत्यु?
मृत्यु महासमुद्र है
नमकीन और अथाह
जिसमें डूबा हुआ कोई
एकदम लय हो जाता है
प्रेम में होने की तरह...
समय के शब्दों का पुल
समय के धुँधलके में
समय की कोई नदी
कहीं बह रही होगी...
समय के कुकृत्यों से स्याह
समय के सच से भासित
कोई नदी
कहीं बह रही होगी...
एक दिन मैं
हाँ,
समय की बुलंदियों पर
चढ़ा हुआ मैं
समय के कीचड़ से
गढ़ा हुआ मैं
एक दिन वहाँ जाऊँगा जरूर
जाऊँगा
और उसकी बगल में
चुपचाप बैठ जाऊँगा
और बैठा रहूँगा...
बैठा ही रहूँगा समय के अनंत तक...
और इस अनंत में ही
धीरे
धीरे
एक पुल बना दूँगा
समय का
कैसा लगेगा
समय की नदी पर पुल
समय का ?
समय के शब्दों का पुल ?
पुल
समय के रंगों का ?
समय की ध्वनियों-आलापों का पुल ?
बन कर
जब तैयार हो जाए ऐसा पुल
कभी तुम भी आना इधर
समय पर चढ़ कर
समय को पार कर
समय के एकदम करीब।
अमावस की नदी
अमावस की रात–
इस पुल से
नदी के दोनों तट दिख रहे
कितनी दूर...कितने अलग...
रात ने
नदी पर डाल रखी है
अपनी चादर
चाँद का
दूर...दूर तक पता नहीं
होगा कहीं
किसी पर फिदा
आज की रात
आकाश से ज्यादा
नदी ही काली हो गई है
क्या आकाश ने भी
अपनी नीलिमा घोल दी है
नदी में चुपचाप
अमावस की इस रात–
इस पुल से जो दिख रहे तट
उनमें कितनी विषमता है
एक ओर तो ऊँचे-ऊँचे प्रकाश-स्तंभ हैं
जिनसे नदी के हृदय पर
प्रकाश-ऊर्मियों की असंख्य मछलियाँ
झिलमिला रही हैं
पर दूसरी ओर
घनघोर अँधेरे के रेगिस्तान में
फँसा धँसा पड़ा है
वह दियारा-क्षेत्र
जहाँ से सियारों की आवाजें
लगातार बह रही हैं कानों तक
तटों का लोकतंत्र
यहाँ
एकदम बिखर-सा गया है !
आकाश की प्रेम-वर्षा
चारों ओर से नदी को घेर कर
आकाश
कई दिनों से
उस पर प्रेम बरसा रहा है...
कभी घनघोर
कभी छिटपुट वर्षा
लगातार हो रही है नदी की देह पर...
आकाश की
प्रेमाकुलता के समय
नदी भी
उसे भेजा करती थी हृदय-वाष्प
नदी,
कवि हटता है
तुम दोनों के बीच से
अब तुम्हीं सँभालो आकाश का यह प्रेम तरल—प्रेम विरल
झंझावातों की सवारी से भेजा हुआ...
नदी मुस्कुराई
नदी,
क्या हो तुम
माँ हो या बहन
बेटी हो
या दोस्त हो मेरी
घर के बारे में सोचता हूँ
और सोचने लगता हूँ
तुम्हारे बारे में
परिवार के बारे में विचारता हूँ
जेहन में तुम्हारा भी खयाल आता है
देश का ध्यान करता
तो पहले
तुम्हारा चित्र उभरता है
मन के मानचित्र पर
जीवन के रूप में
तुम्हीं सामने आती हो
मृत्यु के बाद
तुम्हारी ही गोद
अंतिम सत्य लगती है
नदी, क्या हो तुम
कि सारे रास्ते
तुम्हीं तक जाते हैं विचारों के
नदी मुस्कुराई
और बोली धीरे से
इतने धीरे से
कि केवल मैं सुन सकता था
उसकी आवाज
उसकी मुस्कुराहट
केवल मैं देख सकता था
उसने वेग-स्वर में कहा—
तुम ठीक समझते हो, कवि!
मैं स्त्री हूँ, सिर्फ स्त्री
जो विचारों में मिलती है प्रायः
या रास्तों में...
उस घाट का कोई नाम नहीं
यह रास्ता
जिस घाट तक जाकर
खत्म हो जाता है
उस घाट का कोई नाम नहीं
उसके करीब
कई घाट हैं नामोंवाले
पर उस घाट का कोई नाम नहीं
उस घाट पर
एक मंदिर है प्राचीन
नाम—शिव-मंदिर
और बगल में
एक मस्जिद है मुगलकालीन
नाम—पत्थर की मस्जिद
रंग-रंग के पंछी हैं
उस घाट पर
सबके कुछ न कुछ नाम होंगे जरूर
उनकी भाषा में या हमारी भाषा में
अपने नामों के पंखों पर सवार
वे उड़ते होंगे सारे जहान में
भाँति-भाँति की सुंदरियाँ
कई कारणों से वहाँ जमी रहतीं
बतियाती हुई एक दूसरी से
नामों के आलोक में
अनेक बहानों से पुरुष
दिनभर जमघट लगाए रहते
नामों के संबोधन के साथ
उस घाट से
गुजरती रहती नदी
उसके साथ
गुजरता रहता उसका नाम
जो वहाँ आता है
नाम के साथ आता है
जो जाता है
नाम ही के साथ चला जाता है
रहनेवाला
नाम के साथ रहता आया है अनंत काल से
सिवा उस घाट के
जिसका कोई नाम नहीं !
आग्रह
अब मान जाओ
इतना गुस्सा
इतनी उदासी
अब खत्म करो
आओ, हम फिर बैठें
और बतियाएँ
ऐसा क्यों नहीं हो सकता
कि एक प्रयास फिर से करें
इस अंतिम प्रयास में
हम जरूर सफल होंगे
और यकीन करो
हर बार अंतिम ही प्रयास में
मैं सफल हुआ हूँ
तो आओ,
इस अंतिम के लिए
फिर से शुरुआत करें
और यह वादा है तुमसे
कि यदि हम असफल रहे
तो मुक्त हो जाएँगे एक दूसरे से
मेरी डाल से
तुम उड़ जाना सदा के लिए अनंत में
मैं खुद ही सूखकर ठूँठ हो जाऊँगा
वैसे,
मैं यह भी जानता हूँ, प्रिए!
न तुम उड़नेवाली हो कहीं
न मैं सूखनेवाला हूँ कभी...
जिस दिन तुम जाओगी
जिस दिन तुम जाओगी
उस दिन भी मैं तुम्हारे साथ रहूँगा
बात ऐसे करूँगा
जैसे हम केवल दोस्त रहे इतने दिन
देखूँगा भी इस तरह
जिस तरह औरों को मैं देखा करता हूँ
जिस दिन जाओगी
उस दिन एकदम नहीं पूछूँगा
कि तुम्हारे बगैर
अब कैसे कटेगा समय का पहाड़
सागर अपार एकाकीपन का
कैसे पार होगा
जंगल तुम्हारे न होने का
कैसे रौशन होगा एकदम नहीं पूछूँगा
जिस दिन जाओगी
उस दिन भी
मेरे होंठों पर वही मुस्कान होगी
जिस पर तुम फिदा रहीं अब तक
और तुम्हारे फिदा होने के अंदाज पर
शायद मैं भी फिदा रहा
उस दिन
तुम्हारे जाने के बाद
सब एक एक कर
मेरी ओर देखेंगे और पाएँगे
मैं तब भी कमजोर नहीं हुआ हूँ
हालाँकि
तुम यह जानती हो
और बेहतर जानती हो
कि एकदम कमजोर क्षणों में
मैं बेहतरीन अभिनय करता हूँ।
हम वे नहीं थे
हमारी नजरें
अचानक ही
एक दूसरे से मिलीं
हमें लगा
हम वही हैं
जिस कारण
हमारी नजरें मिली हैं
हमने
दूर ही से
सिर हिलाया
यह देखने के लिए
कि हम वही हैं
हम जरा आगे बढ़े
बढ़े ही थे
कि लगा
हाय, हम वे नहीं हैं
हम तो और ही हैं
ऐसा लगना था
कि तुरत एक नदी
हमारे बीच बहने लगी
अचानक ही
हमारे चेहरे
पत्थरों में तब्दील हो गए।
विराम-चिह्न
भाषा का आदमी
सबसे अंत में
विराम-चिह्नों के पास जाता है
जाता है
और धीरे...धीरे
प्यार के जाल में उन्हें फाँसता है
फाँसता है और साधता है
साधने के बाद
भाषा का आदमी
धीरे...धीरे
भाषा से उन्हें
बाहर फेंक देता है
यकीन न हो
तो आजकल जो पढ़ रहे हो
या लिख रहे हो
उसे गौर से देखो
तुम्हें जरूर लगेगा
तुम्हारी भाषा में
बहुत कम बच गए हैं विराम-चिह्न !
परिचय
जन्म : 15 अगस्त, 1970 |
स्थान : जढ़ुआ बाजार, हाजीपुर |
शिक्षा : स्नातकोत्तर (प्राणिशास्त्र) |
वृत्ति : अध्यापन | रंगकर्म से गहरा जुड़ाव | बचपन और किशोरावस्था में कई नाटकों में अभिनय |
प्रकाशन : कविताएँ हिंदी की प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं ‘अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले‘ (सारांश प्रकाशन, दिल्ली) तथा ‘जनपद : विशिष्ट कवि’ (प्रकाशन संस्थान, दिल्ली) में संकलित | कविता-संकलन ‘उदय-वेला’ के सह-कवि | दो कविता-संग्रह 'समय का पुल' और 'नदी मुस्कुराई ' शीघ्र प्रकाश्य |
संपादन : ‘संधि-वेला’ (वाणी प्रकाशन, दिल्ली), ‘पदचिह्न’ (दानिश बुक्स, दिल्ली), ‘जनपद : विशिष्ट कवि’ (प्रकाशन संस्थान, दिल्ली), ‘प्रस्तुत प्रश्न’ (दानिश बुक्स, दिल्ली), ‘कसौटी’ (विशेष संपादन सहयोगी के रूप में ), ‘जनपद’ (हिंदी कविता का अर्धवार्षिक बुलेटिन), ‘रंग-वर्ष’ एवं ‘रंग-पर्व’ (रंगकर्म पर आधारित स्मारिकाएँ) |
संपर्क : साकेतपुरी, आर. एन. कॉलेज फील्ड से पूरब, हाजीपुर (वैशाली), पिन : 844101 (बिहार) |
आभार!
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