भारत माँ के भाल की बिन्दी ===================== भारत माँ के भाल की बिन्दी, गौरव की मिसाल है हिन्दी । भारत की परिभाषा हिन्दी, जन-जन की अ...
भारत माँ के भाल की बिन्दी
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भारत माँ के भाल की बिन्दी,
गौरव की मिसाल है हिन्दी ।
भारत की परिभाषा हिन्दी,
जन-जन की अभिलाषा हिन्दी।।
अ’ से अनपढ़ पाठ सीखकर,
’ज्ञ’ से ज्ञानी बने, वो हिन्दी ।
स्वर-व्यंजन को करे पृथक जो ,
भाषा में सरताज है हिन्दी ।।
राष्ट्र पिरोये एक सूत्र में ,
ऐसा सुन्दर हार है हिन्दी।।
भावों का सौन्दर्य निरूपण,
करने में श्रृंगार है हिन्दी ।।
’शब्द-शक्ति’ सामर्थ्य संजोती ,
गागर में सागर है हिन्दी ।
बिन्दी से शब्दार्थ बदलती,
ग्राम्या भी नागर भी हिन्दी ।।
निष्ठुर को भी द्रवित करा दे,
सौम्य, सरस, प्रवाहमय ऐसी।
सम्प्रेक्षण की अद्भुत क्षमता,
रखती है बस केवल हिन्दी।।
भाव निरूपण करने में जब,
चुक जाये शब्दों का संग्रह।
तब देती है साथ अकेली,
भाषा में आशा है हिन्दी ।।
सन्धि, समास, अलंकृत रस से,
सभ्य, सुशोभित भाषा हिन्दी।
तोड़-मोड़ कर भी बोलें तो,
भावों का परिमार्जन हिन्दी।।
जिसकी जननी देववाणी ने,
वेद ऋचाओं के स्वर ढाले।
विश्व गुरू पद देने वाली,
भाषा की अधिकारिणी हिन्दी।।
वतन परस्तों की भाषा में,
क्रान्ति-शान्ति संवाहक हिन्दी ।
देशज भाषाओं की जननी,
पोषक और अभिभावक हिन्दी ।।
तालोष्ठ्य , कण्ठादि स्वरों से,
भेद सिखाये अक्षरमाला।
वर्गीकरण करे वर्णों का,
शब्दों का अनुशासन हिन्दी ।।
जैसा लिखें पढ़ें वैसा ही,
व्याकरणों में शान है हिन्दी।
सरल शब्द में कहा जाय तो,
भाषा में विज्ञान है हिन्दी।।
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पीढ़ी.अन्तराल
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वक़्त की दरिया में
हमारा जो जुदा.जुदा ख्याल है
तुम मुझे नहीं समझते
मैं तुम्हें गलत मानता हूँ
युगों से गतिमान यही पीढ़ी अन्तराल है
कसूरवार तुम भी नहीं हो
गुनहगार में भी नहीं
तुम भी सही हो
और मैं भी सही
तुम जिसे दक़ियानूसी मानते हो
मेरा संस्कार है वह
तुम जिसे आदर्श मानते हो
मेरे लिए नाग़वार है वह
यक़ीनन कल तुम भी पीछे छूट जाओगे
वक़्त की दरिया के प्रवाह में
खुद को मेरी जगह पाओगे
अपने अतीत की चाह में
बस नज़रिये का अन्तर है
क्यों बढ़ाएं रार
ये तो वक़्त का वक़्त से जज़्बाती बवण्डर है
आओ !
एक काम करें
थोड़ा तुम पीछे मुड़कर देखो
थोड़ा मैं आगे झाँकता हूँ
तुम मुझे समझने की कोशिश करो
मैं तुम्हें आँकता हूँ
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बोलो ! किससे फरियाद करूँ
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बचपन की मीठी यादों से ,
भावी जीवन आबाद करूँ ।
या फिर से लौटाने उसको ,
बोलो ! किससे फरियाद करूँ ?
वह बेफिक्री वह अल्हड़पन ,
खुशियों से इठलाता तन- मन ।
गुड्डे . गुड़ियों संग की दुनियाँ ,
सबसे बढ़कर था मेरा धन ।।
खुशियाँ थी माँ के आँचल में ,
सोचा करता था निश्छल में ।
करता था , मन जो कहता था ,
आशा नहीं रखता था फल में ।।
सीमित था खेल . खिलौने तक,
यह मेरा है , वह तेरा है ।
अब होश संभाली दुनियाँ में ,
जग कहता इसे सबेरा है ।
बचपन की यादों में जी कर ,
अब, कब तक में अवसाद करूँ ?
यादों से भरा पिटारा है ,
क्या भूलूँ और क्या याद करूँ ?
............................
रवि तू फिर ओझल हो जा
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(पर्वत शिखरों पर जब हिमपात होता है ए तो यह मनोहारी छवि हर प्रकृतिप्रेमी को भावविभोर कर देती है ए लेकिन निगोड़ा सूरज है कि अपनी रश्मियों से यह दृश्य हमसे छीन लेता हैं. इसी भाव के साथ रवि और धरा का प्रियतम और प्रेयसी के रूप में मानवीकरण करने का प्रयास किया गया है इस कविता में )
धवलान्शुक ओढ़े धरा वधू ,
पर्वतश्रृंगों पर हिमप्रपात ।
अदृश्य करों से वसन छीन,
भाता तुमको क्या नग्न गात ।।
या युगसंगिनी का श्वेत वस्त्र,
लगता है तुम्हें विरह का वेष ।
क्यों आर्द्र हृदय से धरा वर्ण,
परिवर्तित करते निर्निमेष ।।
विरह आता बनकर सन्देश ,
हमें जो याद दिलाता है ।
तू क्यों अधीर होता इतना ,
दुःख के पीछे सुख आता है ।।
तुमको जो भाता हमें नहीं,
तेरी तो वह सहचरी हुई ।
मानव स्वभाव मुस्कानों को,
सह सका कदाचित अपर कहीं ?
रवि तू फिर ओझल हो जा,
रहने दे यों ही धवलधान ।
सात्विकी वेष हमको भाता,
गाने दे हमको विरह गान ।।
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नपुंसकता
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नपुंसकता /
अथवा . जीवन व्यापार से निष्क्रियता /
निर्दोष पर अत्याचार में संवेदनहीनता /
अन्याय के विरुद्ध /
बवाल में न पड़ने की मानसिकता /
न पुंसत्व है/
न स्त्रीत्व /
पुंसत्व . पौरुष /
स्त्रीत्व . करुणा , त्याग और अनुराग /
जानवर सोच नहीं सकते /
इसीलिए /
वे नपुंसक नहीं होते /
नपुंसकता/
लिंग नहीं विचारधारा है /
जिसने /
इंसान व इंसानियत को मारा है /
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ग़ज़ल
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ना चाह है जन्नत की ,न खुदा की तलाश है ।
गर आदमी को आदमी , इंसान सा लगे ।।
नाज़ था जिन पर कभी , हमदर्द होने का ।
खोला जो मुखौटा तो , अनजान से लगे ।।
दिखने को तो रौनक़ है बड़ी, हर मुकाम पै ।
फिर भी न जाने क्यों बड़ा, वीरान सा लगे ।।
अपनों की बंदगी भी नहीं, ना गैर से गिला ।
मुझको तो हर एक शख्स यहाँ , बेज़ान सा लगे ।।
चेहरों में तलाशो ना कभी, किसी दिल की दास्तां ।
जख्मों से भरे दिल भी , शहंशाह से लगे ।।
जज्बातों से नहीं वास्ता , खुद ही में हैं मशगूल ।
इस शहर में हर शख्स , परेशान सा लगे ।।
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लहू को बहाने का न तुम्हें अधिकार है
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दो ही लफ़्ज़ों में जाना, धरम मरम मैंने ,
जो ’चाहिए’ धरम ’औ’ ’ना चाहिए’ वो पाप है ।
छान डालो सारी बाइबिल -औ -क़ुरआन, गीता,
परहित धरम , दुखाना अभिशाप है ।।
मज़हब एक है, नेकी है सार सब ही का ,
मानने के ढंग भले हों सभी जुदा .जुदा ।
सुनने वाला तो एक , चाहे तुम कैसे बोलो ,
चाहे कहो राम , ईसा, चाहे बोलो ऐ ! खुदा ।।
मजहब एक हैं, जीने के ढंग हैं अनेक ,
द्वेष का न इससे कोई भी सरोकार है ।
पाट डालो यारो ! सारी मज़हबी दीवारों को ,
बंद करो इसे राजनीति का व्यौपार है। ।
आओ ! लड़ें मिलकर मजहबी दीवानों से ?
चाहे सीमा वार हैं , या चाहे उस पार हैं ।
जन .जन बीच में ,जहर ये हैं घोल रहे ,
नग्नता के नाटक के जो भी किरदार हैं ।।
तृण.तृण योग से, बने ज्यों सूत मजबूत ,
बूँद . बूँद जल से ज्यों, बने पारावार है ।
जन .गण .मन से, बना है ये वतन भी तो,
इसके सृजन का न, एक ठेकेदार है ।।
भिन्न .भिन्न रंगों से ज्यों ,बनता धनुष.इन्द्र,
वर्ण . धर्म .जाति से, हरेक साझीदार है ।
याद करो एक बार, पुरखों का उद्घोष ,
पूरी वसुधा हमारी एक परिवार है ।।
बंट रहे दिल जब, छोटी .छोटी बहसों में ,
वतन के दीवानों से, मेरी ये पुकार है ।
एक बूँद लहू भी न , बना सके यदि तुम ,
लहू को बहाने का न, तुम्हें अधिकार है ।।
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माटी का मोल चुका डालो !
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पैगाम लिए मानवता का ,
ओ ! जग भर में फिरने वालो ।
क्या निभा सके हो इस व्रत को
कुछ थाह स्वयं की भी पा लो ।।
जिसने इस धरती पर पहले ,
नैतिकता का अभिषेक किया ।
दया , प्रेम और मानवता का ,
दुनियां को सन्देश दिया ।।
तुम पंचशील के निर्माता ,
तुम वेद पुराणों के ज्ञाता ।
इतिहास गवाही देता है ,
सुख.शांति यहाँ जन जन पाता ।।
पर आज यहाँ की धरती पर ,
क्यों फिर से ये घनश्याम घिरे ।
क्यों धर्मध्वजा के डण्डों पर,
ये पग.पग कत्लेआम फिरे ।
मत करो कलंकित मज़हब को ,
तुम अपना धर्म बदल डालो ।
पैगाम लिए ....................... फिरने वालो ।।
सुबक .सुबक चुपचाप किसी ,
कोने पर मानवता रोती ।
लुट रहा मान पांचाली का ,
दुःशासन खींच रहा धोती ।।
क्यों रोते हो वैदेही पर ,
वह जो लंका में कैद रही ।
इस युग की ललनाओं ने ,
क्या.क्या पीड़ाएँ नहीं सही ।।
वीभत्स रूप ले चुकी आज ,
घर.घर दहेज़ की ज्वालाएँ ।
मौत वरण करती जिसमें ,
ना जाने कितने बालाएं ।।
नारी पीड़ा को जानो तो ,
ओ ! धन.वैभव के मतवालो ।
पैगाम लिए ....................... फिरने वालो ।।
जीवन की गोधूलि पर ,
क्या बने किसी के वैसाखी ।
क्या मिटा सके हो भेदभाव ,
चाहे कोई भाषा.भाषी ।।
यदि रिश्वत ही लेनी है तो ,
केवट सा रिश्वतखोर बनो ।
यदि चोरी धर्म तुम्हारा है ,
मोहन सा माखनचोर बनो।।
गाँधी.गौतम की धरती को ,
तुम यों ही मत बदनाम करो ।
मानवता तुमको याद करे ,
जग में कुछ ऐसा काम करो ।।
यदि पड़े जरूरत इसको तो ,
प्राणों का मोल चुका डालो ।
पैगाम लिए ....................... फिरने वालो ।।
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रास्ते
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रास्ते ही रास्ते/
मंजिल की तलाश के वास्ते/
बीहड़ .पथरीले/
सुगम .दुर्गम/
चढ़ते . उतरते/
बनते .बिगड़ते/
रास्ते कभी थकते नहीं/
रुकते नहीं/
नदी .नाले और पहाड़ों के सम्मुख भी/
झुकते नहीं /
यह जानते हुए भी/
रास्ते स्वयं नहीं बनते/
बनाये जाते हैं/
फिर भी हमें बने बनाये/
सुगम रास्ते ही क्यों भाते हैं /
मत पूछो रास्ता किसी से/
वरना भटक जाओगे/
खुद चुनो अपना रास्ता/
बस/
चलते जाओ , चलते जाओ/
एक न एक दिन मंजिल/
जरूर पाओगे/
हर रास्ता अनागत से जोड़ता/
अतीत से रिश्ता तोड़ता है/
नहीं जानता राही/
यह उसे किस तरफ मोड़ता है/
हर रास्ता एक मंजिल से मिलाता है/
मंजिल दर मंजिल रास्ते निकलते हैं/
अन्ततः सारे रास्ते फिरकर/
इसी चौराहे पर मिलते हैं/
रास्ता और मंजिल/
मंजिल और रास्ता/
पूरक हैं परस्पर/
इनसे कभी नहीं छूटता/
इंसानी वास्ता/
रास्ते मिलकर चौराहे बनाते हैं/
फिर वही चौराहे/
नए रास्ते दिखाते हैं/
चौराहा विकल्प है/
और रास्ता संकल्प/
विकल्प से संकल्प की अथक तलाश/
ख़त्म नहीं होती कभी /
राह और पथिक की यही अन्तहीन जद्दोजहद/
जिन्दगी कहलाती है /
................................................................
( यह कविता मैंने भारतवंशी एवं अमेरिकी अंतरिक्ष वैज्ञानिक कल्पना चावला के ’स्पेस शटल कोलंबिया’ के दुर्घटनाग्रस्तहोने पर लिखी थी , जब 01 फरवरी 2003 को अंतरिक्ष वैज्ञानिक कल्पना चावला को काल के क्रूर हाथों ने छीन लिया था । )
कल्पना की ’कल्पना’ ही रह गयी अब
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कल्पना के लोक को साकार कर
बन्द मुट्ठी में गगन को भींच लूँगी
सफर कर नक्षत्रभेदी यान से
मैं धरा पर ही गगन को भींच लँूगी
था अटल विश्वास ’औ’ प्रण भी अटल था
लक्ष्य के आगे हमारा सुखद कल था
गौरवान्वित थे सभीभारत सुता पर
धरा पर अब लौटलने का निकट पल था
कल्पना का मन हिलोरे ले रहा था
व्योम के अनुभव सुनाने जो भी देखा
थीं न जाने और क्या-क्या योजनाऐं
वो ही जाने योजना की रूपरेखा
विश्व की आँखें बिछी थी गगन पथ पर
थाम कर हाथों में अपने पुष्प माला
यह विजय केवल नहीं थी कल्पना की
थी सगर्वित विजय पर हर एक बाला
उसी क्षण जब यान का सम्पर्क टूटा
एक क्षण स्तब्धता सी छा गई थी
नियति को कुछ और ही मंजूर था अब
नभ परी तो मौत को भी भा गई थी
सब धरे ही रह गये थे स्वप्न सारे
योजनाएँ लुप्त सारी हो चुकी थी
धरा का कब रहा नाता ’कल्पना’ से
व्योम प्रेमी गगन में ही सो चुकी थी
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बन बैठे हो मित्र छबीले
छीन लिया है अमन चैन सब
जब से तुमने पांव पसारे
हर घर में मेहमान बने हो
सिरहाने पर सांझ-सकारे
भुला दिये हैं तुमने अब तो
रिश्तों के संवाद सुरीले
सारे रिश्ते धता बताकर
बन बैठे हो मित्र छबीले
सब के घर में रहने पर भी
ऐसी खामोशी है छाई
बतियाते हैं सब तुमसे ही
मम्मी-पापा, बहना भाई
घर के रिश्ते मूक बने हैं
तुमसे रिश्ते जोड़ रहे हैं
खुद रोते हॅसते तेरे संग
हमसे नाता छोड़ रहे हैं
नन्हें से बच्चे तक को भी
तुमने ऐसे मोह में जकड़ा
रोता बच्चा चुप हो जाये
ज्यों ही उसने तुमको पकड़ा
गुस्से में मैं बोला इक दिन
क्यों रिश्तों को छीन रहे हो
हमसे इतना प्यार जताने को
तुम क्यों घ्घ्घ् शौकीन रहे हो ?
चुपके से आकर वो बोला
खता न मेरी खुद को रोको
यकीं नही मेरी बातों पर
मुझको इस पत्थर पर ठोको
कसम तुम्हारी चॅू न करूंगा
चाहे कितना भी धोओगे
पर ये सच है तोड़ के मुझको
सबसे ज्यादा तुम रोओगे
मैं बोला फिर कौन हो तुम ?
बोला, मैं सबकी स्माइल
बड़े यत्न से रखते मुझको
लोग मुझे कहते मोबाइल
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अटल जी के महाप्रयाण पर
अटल बिन, विकल जन
समग्र राष्ट्र, व्यथित मन
काल के कपाल पर बस लिखते-मिटाते
अटल जी तुम यों न जाते !
राजनीति तिमिर गहन
विप्लव, विद्वेष, विघ्न
सत्तासुख , बन प्रचण्ड
मूल्य हुए खण्ड-खण्ड
तिमिर की ओट में, छिपता आलोक दुबक
झूठ की गोद में, सत्य रोता है सुबक
मौन सिसकियों को तुम, एक स्वर दे जाते
काल के कपाल पर बस लिखते-मिटाते
अटल जी तुम यों न जाते !
रचनात्मक प्रतिपक्ष के, तिरोहित प्रतिमान हुए
स्वार्थवश, सिद्धान्त त्याग, सारे दल सिमट गए
प्रतिपक्ष व्यष्टि हित ,प्रतिशोध में बदलना
तिरोहित राजधर्म, परिभाषा स्वहित गढ़ना
एक वह लोकतंत्र, संख्याबल को नमन
खींचकर लकीर एक, सत्ता से बर्हिगमन
लोकतंत्र रक्षा हित , जनमत को शीश झुकाते
काल के कपाल पर बस लिखते-मिटाते
अटल जी तुम यों न जाते !
संसद की गरिमा के, भीष्म थे शीर्ष पुरूष
न्यायहित विरोध बस, मन में ना तनिक कलुष
कह गये प्रत्यागमन , काव्यमय उद्घोष में
आतुर है कातर मन, स्वागत जयघोष में
लौटकर एक बार, फिर से सिंहनाद करो
आर्तनाद जन-मन का, फिर से तुम याद करो
रोशनी की किरण हम , इतर नहीं पाते
काल के कपाल पर बस लिखते-मिटाते
अटल जी तुम यों न जाते !
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अलविदा गुड्डू
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बिना आहट के कर गये दुनियां से अलविदा
इस हकीकत पर यकीन कर पायेगा कौन ?
रह न पाते थे जिसके बिना एक पल
उस नन्हीं सी ’गुन्नू’ को अपने कांधे पर झुलायेगा कौन ?
जो आ भी न पाया था इस दुनियां में
मासूम को पिता का अहसास अब करायेगा कौन ?
बने थे जिस बूढ़ी माँ की वैसाखी
उसे तुम्हारी मौजूदगी अब करायेगा कौन ?
खायी थी कसम जिससे सात जन्मों के साथ की
जीवन संगिनी को ताउम्र तन्हा से बचायेगा कौन ?
परिजनों के चहेते बनकर साथ देने वाले ’गुड्डू’ !
अब हर दुख-दर्द में अनुज का फर्ज निभायेगा कौन ?
स्मृतियों की दीवारों पर खींची गयी
इन गहरी लकीरों को अब भला मिटायेगा कौन ?
यादों में जिन्दा रहूँगा अब भी, गुलिस्तां से बस बिखर गया हूँ
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(प्रिय गुड्डू (नवीन) को आज इस दुनियां से अलविदा हुए पूरा एक महीना बीत चुका है । आज ही के दिन 13 मार्च 2018 को उन्होंने सारे मायावी रिश्तों से नाता तोड़कर शाश्वत सत्य की ओर महाप्रयाण कर लिया था, लेकिन ये उनकी सख्सियत का जादू है कि आज भी उनकी उपस्थिति इर्द-गिर्द ही अनुभव हो रही है । लगता है दुनियां से विदा होकर भी जैसे कुछ यों बयां कर रहे हों )
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माँ ! तेरे उपवन का नन्हा पौधा,
बहार आते उखड़ गया हूँ
महक से अपनी गुलजार हूँ मैं ,
ये मत समझना उजड़ गया हूँ
यों तो डगर एक है सभी की ,
मैं थोड़ा आगे ही बढ़ गया हूँ
उठाना जिनको था कांधे अपने ,
उन्हीं के कांधों पै चढ़ गया हूँ
गर हो सके माफ करना मुझको ,
जो तुमसे जल्दी बिछड़ गया हूँ
कसूर मेरा ना इसमें किंचित,
जीवन की जंग में पिछड़ गया हूँ
मिले थे जीवन के चार दिन जो,
उन्हीं में सब कुछ मैं कर गया हूँ
श्वासों से अपनी हारा हूँ मैं बस,
ये मत समझना मैं मर गया हूँ
सतरंगी गुलशन का पुष्प अन्तिम,
गुलिस्तां से अब बिखर गया हूँ
जुबां से तुमने चाहा मुझे यों,
मैं पहले से भी निखर गया हूँ
थे एक डाली के हम परिंदे
ना करना गम कि मैं उड़ गया हूँ
आये थे हम सब जहाँ से उड़ के
मैं उस जहाँ को ही मुड़ गया हूँ
दस्तूर कुदरत का है चिरन्तन,
यहाँ से इकदिन सबको ही जाना
डरावना ख्वाब समझ के बस यँू,
गर हो सके तो मुझको भुलाना
दुनियां की नज़रों से हुआ हूँ ओझल,
तुम्हारी सुध तो मैं अब भी लँूगा
ये मत समझना हैं हम अकेले,
इक साया बनकर मैं साथ दूँगा
उसके आगे सब बौने हैं
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चाँद सितारों पर कदमों से
गुरूता का हम ना दंभ भरें
विज्ञान भले कितना उन्नत
इक दाने अन्न न उगा सकें
मत सोच प्रकृति से आगे हम
उसके आगे सब बौने है
जब रूष्ट हुई कुदरत तो बस
हम केवल एक खिलौने हैं
’मी टू’ की दहशत
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टैटू युवकों की चाहत थी ,
अब तो ’मी टू’ का दौर चला ।
जन शंकित है, मन कंपित है ,
किसके सर ना आ जाये बला ।।
तुम कितने ही चारित्रिक हो ,
’मी टू’ से बच न पाओगे ।
गर एक कुदृष्टि पड़ी इनकी,
फिर जीवन भर पछताओगे ।।
जिसने ने ’मी टू ’ कहकर ही बस ,
दामन पर दाग लगा डाला ।
अस्मिता दांव पर लगा स्वयं ,
’मी टू’ का बनकर निवाला ।।
सहमति थी अथवा जबरन था,
तुमको तो सीढ़ी चढ़वाई ।
तब क्यों वह सब कुछ जायज था ,
अब क्यों यह ? कड़वी सच्चाई।।
जुल्मों को सहना न्याय नहीं ,
फिर क्या थी ऐसी मजबूरी ?
सीने को क्यों ना चीरा तब ?
क्या कुंद हो गयी थी छूरी ?
वो जुल्मी था जिसने तेरी ,
अस्मत पर यों डाका डाला ।
पर जुल्म तुम्हारा भी क्या कम,
जो इतने सालों तक पाला ।।
जब ऐसी ओछी हरकत थी,
तब का तब चुकता कर लेते।
कुछ तुम सुकून से जी लेते ,
कुछ वो सुकून से मर लेते ।।
आओ ! ऐसे दीये जलायें
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आओ! ऐसे दीये जलायें
गहन तिमिर की घुप्प निशा में
तन-मन की माटी से निर्मित
गढ़ कर दीया मात्र परहित में
परदुख कातरता से चिन्तित
स्नेह दया का तेल मिलायें
आओ! ऐसे दीये जलायें
दीवाली के दीये से केवल
होता है बाहर ही जगमग
गर अन्तर के दीप जला लो
ज्योर्तिमय होगा अन्तरजग
ख़ुशी सौ गुनी करनी हो तो
खुद जलकर बाती बन जायें
आओ ! ऐसे दीये जलायें
बन असक्त की शक्ति कभी हम
उसके अन्तर्मन को झांकें
सीने पर भी हाथ लगाकर
निजमन की खुशियों को आंकें
अगर जरूरत पड़े अपर को
अन्धे की लाठी बन जायें
आओ! ऐसे दीये जलायें
दीपालोकित अपना घर हो
बाजू घर ना चूल्हा जलता
श्रम तुमसे दुगना करता वह
क्या तुमको ये सब नहीं खलता ?
क्यों न पड़ोसी के घर को भी
मानवता का हाथ बढा़यें
आओ! ऐसे दीये जलायें
एक ही माटी के सब पुतले
वो धुंधले हैं और तुम क्यों उजले ?
तकदीरों का खेल तमाशा
निराधार की तुम हो आशा
क्या जाने ऊपर वाला ही
नीयत तुम्हारी परख रहा हो
इक ऐसा भी जश्न मनायें
आओ ! ऐसे दीये जलायें
.......
आत्म परिचय
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नाम - भुवन चन्द्र पन्त
जन्मतिथि - ०९ जनवरी १९५४
शिक्षा - स्नातकोत्तर
आकाशवाणी से कई रचनाएँ प्रसारित
डाक का पता - वार्ड नंबर - ५, रेहड़
भवाली ( नैनीताल)
फोटो - संलग्न
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