हाशिये पर साहित्य. अगर यह आरोप है तो पक्षपातपूर्ण और पूर्णतः ग़ैरवाज़िब है, किंतु अगर यह प्रश्नाकुलता भरी जिज्ञासा है, तो वाक़ई गहन विचार विमर्...
हाशिये पर साहित्य. अगर यह आरोप है तो पक्षपातपूर्ण और पूर्णतः ग़ैरवाज़िब है, किंतु अगर यह प्रश्नाकुलता भरी जिज्ञासा है, तो वाक़ई गहन विचार विमर्श की वज़ह होना चाहिए; क्योंकि मौज़ूदादौर के जिस सामाजिक तथा असामाजिक परिदृश्य में हम रह रहे हैं, वहाँ जीवन का हर क्षेत्र आज हमें हाशिये पर ही दिखाई दे रहा है. पूछा जा सकता है कि साहित्य सहित वह ऐसा कौन-सा क्षेत्र संभव हो पा रहा है, जिसे हम हाशिये से इतर देख-सुन कर थोड़ी भी प्रसन्नता का अनुभव कर सकते हैं? अगर हम अपने घर-परिवार से विरक्त अथवा असम्प्रक्त होकर हँसने के लिए ‘हास्य-क्लब’ जाते हैं, तो क्या यह हाशिये पर जीवन नहीं है? तो क्या हाशिये का जीवन, बाज़ार का जीवन नहीं है?
जिस तरह आधुनिक जीवन-प्रणाली में ‘क्लब-संस्कृति’ से कोई इंकार नहीं है, ठीक उसी तरह ‘हास्य-क्लब-संस्कृति’ से भी इंकार कैसे हो सकता है? किंतु इस बीच जिस परिवारिकता और सामाजिकता का क्षरण हो रहा है और कि जिसकी वज़ह से आपसी रिश्तों में शून्यता आती जा रही है, उस सबको क्यों नहीं तर्कपूर्ण ढंग से रेखांकित करते हुए परिभाषित किया जाना चाहिए? मामला मात्र स्त्री-पुरुष संबंधों तक सीमित नहीं है. मामला भविष्य की पीढ़ी सहित, भविष्य के देश और समाज का भी है. अगर लोकतांत्रिक-क्षरण ने हमारे घर-परिवार और देश-समाज में स्थायी जगह बना ली है, तो यह एक भयानक ख़बर है, जिसे बाज़ार बना रहा है.
बाज़ारवाद हमें मूल्यहीनता की ओर धकियाता है. सत्ता के साथ-साहित्य का रिश्ता आँख-मिचौली जैसा हो सकता है, लेकिन बाज़ार के साथ साहित्य हमेशा ही विपरीत ध्रुव पर रहा है. वर्ष 1990 में आए आर्थिक उदारीकरण के बाद से ही साहित्य में बाज़ार ने अपार अनुकूलता अर्जित करना प्रारंभ कर दिया था. फुटपाथों पर बिकने वाली अश्लीलता सीधे-सीधे आवरणहीन होकर बतौर पुस्तक की शक्ल लेकर घरों में पहुंचने लगी थी. बाज़ार ने नंगई को भी साहित्य क़रार दे दिया.
स्वार्थ और लिप्सा के वशीभूत होकर अब हम इस कदर तेज़ रफ़्तार से भाग रहे हैं कि बहुत कुछ नहीं, बल्कि सब कुछ ही पीछे छूटता जा रहा है और हर किसी जगह हम नितांत अकेले हो गए हैं. यहाँ तक कि हँसने-बोलने, रोने-धोने और लड़ने-झगड़ने तक के लिए हम अपने अकेलेपन के कैदी हो गए हैं. कहने को मोबाइल, टी.वी., सोशल मीडिया आदि ने दुनिया हमारी मुट्ठी में कर दी है, लेकिन फिर भी हम एक ही छत के नीचे रहने के बावज़ूद अपने परिजनों से मिलना-जुलना तो दूर, बात तक नहीं कर पा रहे हैं. वक़्त बहुत है, लेकिन कमबख्त फ़ुरसत नहीं है. रोने-रोने को जी चाहता है, मगर रोना नहीं आता है और अगर ख़ुदा-न-खास्ता एक-दो आँसू आ भी गए तो चेहरे पर चिपके महँगे मेकअप का ख्याल आ जाता है. सोचा जा सकता है कि हाशिये पर कौन है? मनुष्यता हाशिये पर है, किंतु हाशिये पर होते हुए भी साहित्य मनुष्यता का पक्षधर है.
चाँद-तारे-सूरज तो अब भी समय पर दिखाई देते हैं, लेकिन हममें से कितने हैं, जो उन्हें ठीक-ठीक देख पाते हैं? फूलों का खिलना, चिड़ियाओं का चहचहाना और मोरों का नाचना अब भी समय पर हो रहा है, लेकिन हममें से कितने हैं, जो इस सब में शामिल होकर आनंद उठाते हैं? बच्चे अब भी अच्छे हैं, स्त्रियाँ अब भी गाती हैं, गाएं अब भी रंभाती हैं, तितलियाँ अब भी रंग-बिरंगी हैं, आसमान में अब भी इन्द्रधनुष तनते हैं, प्रभात फेरियों में भजन अब भी गाए जाते हैं, मस्ज़िदों में अजान और मंदिरों में प्रार्थनाएँ अब भी होती हैं, नए जूते पैरों में अब भी काटते हैं और दाढ़ी के बढ़े बाल साफ़ करने के लिए अब भी रेज़र का ही इस्तेमाल करना पड़ता है, लेकिन हमारे पास लज्जित होने के सिवाय समय नहीं है और अगर समय है भी तो फ़ुरसत नहीं है; क्योंकि हमें भागने और जल्दी पहुँचने की जल्दी है, जबकि हममें से कोई भी नहीं जानता है कि पहुँचना कहाँ है? तब हाशिये पर कौन है? क्या हमारे पास कोई विचार है? विचार हाशिये पर है और विचार करने का विचार भी हाशिये पर है.
आज के दौर का विचार यही है कि आज के दौर का कोई भी विचार नहीं है. आज के दौर का अंडरकरंट यही है कि आज के दौर का कोई भी अंडरकरंट नहीं है. आज के दौर का सवाल यही हैकि आज के दौर में सवाल तो बहुतेरे हैं, लेकिन समाधान कोई नहीं है? समाधान शायद इसलिए नहीं है कि हमारे पास विचारों की कमी है. समाधान शायद इसलिए नहीं है कि हम समाजनिष्ठ न होते हुए सिर्फ़ व्यक्तिनिष्ट होते जा रहे हैं. समाधान शायद इसलिए नहीं है कि हमारे देश में जिस रफ़्तार से अमीर बढ़े हैं, ठीक उसी रफ़्तार से ग़रीब भी बढ़े हैं. असमानता और असंतुलन ने हमारे समाज में सौहाद्र की जगह वैमनस्य ने ले ली है. हम असहमति का सम्मान करना भूलते जा रहे हैं, जिससे असहिष्णुता ने अपनी जड़ें जमा ली हैं. जल,जंगल, ज़मीन को जलवायु परिवर्तन के ख़तरों ने जकड़ लिया है. नदियाँ शून्य-स्तर तक गंदी हो गई हैं. गंगा तो हरिद्वार में आचमन लायक भी नहीं रह गई है. कहीं भयानक सूखा, तो कहीं भयानक बाढ़ ने सब कुछ तबाह कर दिया है. कहीं अधिक उपज हो रही है, तो कहीं फ़सलें बरबाद हो रही हैं. पृथ्वी भीषण गर्मी की चपेट में है. किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. सब हाशिये पर खड़े हैं.
तो क्या साहित्य हाशिये पर है? या क्या साहित्य ही हाशिये पर है? जैसे सवाल उठाने से पहले हमें यह भी भली-भांति देख लेना चाहिए कि आज वह क्या नहीं है, जो हाशिये पर नहीं है? अमेरिका का कैथोलिक चर्च इस वक़्त बेहद ही क्रूर अंतर्द्वंद से जूझ रहा है. रोमन कैथोलिक का नेता चुने जाने के साथ कि उदारवादी पोप फ्रांसिस शुरू से ही कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे हैं. वामपंथी कैथोलिक सीधे-सीधे आधुनिक पूंजीवाद के विरोधी हैं, किंतु मामला प्रशिक्षु पादरियों के यौन-शोषण का है, जिसे लंदन के ‘संडे टाइम्स ‘ ने चर्च के भीतर गृहयुद्ध कहा है. सोचा जा सकता है कि ये कौन-सा हाशिया है?
तमाम समृद्ध भाषाओँ के होते हुए भी समस्त मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं. टी.एस. एलियट ने कहा था कि शब्द कितने ना काफी हैं? अव्यवहारिक इच्छाएं प्रबल होती जा रही हैं. इरादों के अनुकूल कार्य-संपन्नता नहीं होने से निराशा, हताशा और कुंठाएं पसर रही हैं. संवादहीनता ने हर कहीं अतिक्रमण कर लिया है. बेहतर संवाद के लिए बेहतर विकल्प की तलाश नहीं है. जज़्बात और अल्फाज़ के बीच कोई सामंजस्य ही दिखाई नहीं दे रहा है. संवेदनशीलता की जगह संवेदनहीनता ने ले ली है. सभी कामना करते हैं कि जो है उससे बेहतर चाहिए, लेकिन सवाल वही है कि कोशिश कौन करे? सभी चाहते हैं कि यातायात सही राह चले, किंतु खुद बाएं कब चलेंगे? क्या हम सभी मूक-बधिरों का जीवन नहीं जी रहे हैं? आधिकारिक जानकारी के अभाव में अवतारवाद से क्यों पीछा नहीं छूट रहा है? करुणा, दया, ममता, प्रेम आदि कहाँ हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि वैज्ञानिक-उपकरणों ने मानवीय-उपकरणों को अपदस्थ कर दिया है? आख़िर हम कब समझेंगे कि सिर्फ़ मंत्रोच्चार करते रहने से पवित्र-आत्माओं का जन्म नहीं होता है? और जो पवित्र आत्माएँ उपलब्ध दिखाई दे रही हैं, क्या उनकी ज़ुबानें संदिग्ध नहीं हो गई हैं? लेखकों पर हो रहे नाना-प्रकार के हमले क्या दर्शाते हैं?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मलयालम लेखक एस. हरीश के उपन्यास ‘मीशा’ (मूँछ) पर अभी तक़रीबन दो माह पहले प्रतिबंध लगाने से इंकार करते हुए कहा है कि लेखक को अपने शब्दों से उसी तरह खेलने की अनुमति दी जाना चाहिए जैसे कि चित्रकार रंगों से खेलता है. स्मरण रखा जा सकता है कि एस. हरीश ने इस फ़ैसले से पहले दक्षिणपंथियों की धमकियों के मद्देनज़र कुछ अंशों को वापस लेने का ऐलान कर दिया था. विचारों के स्वतंत्र-प्रवाह को बाधित किया जाना क्या लोकतांत्रिक कहा जा सकता है? तो क्या हाशिये बनते नहीं, बना दिए जाते हैं?
दुनिया संरक्षणवाद की चादर ओढ़ने में लगी है और भाषाएं अपनी विविधता खो रही हैं या लुप्त हो रही हैं. संवेदना अपना अर्थ खोते-खोते बिलकुल ही बेदम हो गई है. संवेदनशीलता ने नया चोगा पहन लिया है. जहाँ हत्या हुई है, दंगा हुआ है, मार-काट मची है, लोग चीख-चिल्ला रहे हैं, अब उस क्षेत्र-विशेष को संवेदनशील इलाक़ा कहा जाता है. निजी सरोकारों की जकड़न के मौज़ूदादौर में सुनने वाला कोई नहीं है. शहरों का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है. शहर जितना बड़ा होता जाता है, व्यक्ति उतना ही छोटा और अकेला होता जाता है. लॉर्ड बेकन ने आज से तक़रीबन चार सौ बरस पहले कहा था कि शहरों का बढ़ता आकार लोगों को अकेला बनाने का प्रमुख कारण है. रूसी कहानीकार चेखव के एक पात्र की कहानियां जब कोई नहीं सुनता है, तो वह प्रतिदिन अपनी एक कहानी अपने घोड़े को सुनाकर संतुष्ट होता है, लेकिन आज तो हमारे आस-पास घोड़े ही नहीं हैं कि जिन्हें हम अपनी व्यथा-कथा सुना सकें|. क्या अब हमारी व्यथा-कथा अब सिर्फ़ घोड़े ही सुनेंगे?
हमारी व्यथा-कथा को थोड़ी-सी राहत देने के मक़सद से दिसम्बर 1993 में सांसद-निधि का प्रावधान किया गया था. उसी वर्ष राम जेठमलानी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव पर शेयर दलाल हर्षद मेहता से एक करोड़ रुपये की घूस लेने का आरोप लगाया था, किंतु उसकी अनदेखी करते हुए तुरत-फुरत एक करोड़ रूपए प्रति सांसद, सांसद-निधि का प्रावधान कर दिया गया. जो सांसदनिधि नरसिम्हाराव ने एक करोड़ रखी थी, उसे अटलबिहारी बाजपेयी ने दो करोड़ और फिर मनमोहनसिंह ने पाँच करोड़ कर दिया. अब उसी सांसद- निधि को पचास करोड़ रुपये कर दिए जाने की माँग उठने लगी है, क्यों? क्योंकि सांसदनिधि में घपला-घोटाला करना बेहद आसान है. हैरानी होती है कि उक्त फंड का इक्कीस हज़ार करोड़ रूपया तो अभी ख़र्च ही नहीं हुआ है, जबकि सांसद का निश्चित कमीशन, निश्चित तौर पर घर बैठे आ जाता है. हाशिये की राजनीति का एक चेहरा यह भी है. कुख्याति हर कहीं अपने चरमोत्कर्ष पर ही चल रही है. बाज़ार ने सब कुछ बाज़ारू बना दिया है.
बाबा लोग बलात्कार में जेल जा रहे हैं, उद्योगपति करोड़ों का चूना लगा कर विदेश भाग रहे हैं. आर्थिक मंदी एक बार फिर अपना आँचल फैला रही है. छोटे-छोटे सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार के बल पर बड़ी-बड़ी सम्पत्तियाँ बनाते हुए पकड़े जा रहे हैं. अस्पतालों में ग़रीब मरीज़ों के अंग-प्रत्यंगों की चोरी हो रही है. शिक्षा-संस्थानों ने व्यावसायिक-संस्थानों का संस्कार अपना लिया है. युवा-शक्ति कंप्यूटर और गूगल के आगे नतमस्तक है. सफाईकर्मी सीवर में उतर कर जान दे रहे हैं. चर्च अपनी जगह हैं और चर्च के आंतरिक-क्रियाकलाप अपनी जगह. चारों तरफ़ मार-काट मची है. निर्बल-निर्धन की जान सस्ती है. सत्ता में मस्ती है. सवाल पूछने वालों को संदेह की द्रष्टि से देखा जा रहा है. हर किसी की देशभक्ति को नाप-तोल कर आजमाया जा रहा है. पत्रकारिता भौंचक है. पत्रकारिता को साहित्य की कई-कई विघाओं का सर्व स्वीकार्य सम्मिश्रण मान लिया गया है. कविता-कहानी, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, चर्चा-परिचर्चा आदि पठनीयता के अभाव का आरोप लेकर ग़ायब हैं. कविता सिर्फ़ फिलर की तरह ही छपती है, जब तक कि कोई विज्ञापन न आ जाए और विज्ञापन आते ही सबसे पहले उसी का वध किया जाता है. कविता और पत्रकारिता का स्वभाव भिन्न होता है. दोनों ही हाशिये का विषय नहीं है और न ही कभी हो सकते हैं, किंतु साहित्य हाशिये पर है, जिसे आज बाज़ार तय कर रहा है. क्या बाज़ार का बाज़ारूपन जीवन की हर कला को बाज़ारू नहीं बना रहा है?
कविता, सूक्ष्म-संवेदना की अभिव्यक्ति है, जबकि उसका हर संभव अनुभव जीवन-संग्राम से आता है, इसीलिए कविता का अनुभव जीवन के अनुभव से व्यापक होता है. औपनिवैशिक-काल में हमारा शत्रु, मूर्त रूप से हमारे सामने खड़ा था, लेकिन आज हमारे सामने इतने सारे शत्रु अट्टहास कर रहे हैं कि हम उन्हें कोई भी एक मूर्त रूप दे ही नहीं सकते हैं. आज हम जिस किसी को भी अपनी लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए अमूल्य मान बैठते हैं, वही हमें चलता करते हुए कोड़ियों के भाव बिक जाता है. हम सुअरों, गीदड़ों और गिरगिटों को तो बेहतर पहचान लेते हैं, लेकिन अपने भीतर छुपे हुए इन धोखेबाज़ों, बेईमानों, ठगों को नहीं पहचान पाते हैं; क्योंकि वे हमीं में से होते हैं. इस उत्तर-आधुनिक काल की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा दुश्मन है बल्कि यह है कि वह हम में से ही कोई है, जो दग़ा देगा और हमारे साथ है और हम जैसा ही है. जब तक दोस्तों में छुपे हुए दग़ाबाज़ों की पहचान नहीं हो जाती है, तब तक शिक़ायत बनी रहना लाज़मी है कि साहित्य हाशिये पर है. फ़िलहाल उसे बेहतर पहचानने की ज़रूरत है, जो कुछ हाशिये पर हो रहा है; क्योंकि मुख्यधारा में आने से पहले सच्चाई हाशिये पर ही ज़ाहिर होती है. देश और काल, सक्षम होते हुए भी सापेक्ष हैं, हाशिये पर साहित्य के बारे में कवि कुंवर नारायण के शब्दों में कुछ यूँ कहा जा सकता है कि ‘उसे कोई हड़बड़ी नहीं है वह इश्तहारों की तरह चिपके / जुलूसों की तरह निकले / नारों की तरह लगे / और चुनावों की तरह जीते’; क्योंकि हाशिये पर होते हुए भी साहित्य कभी भी पुराना नहीं होता है. साहित्य हाशिये पर होते हुए भी कालजयी है.
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संपर्क: 331,जवाहरमार्ग,इन्दौर 452002 Email: rajkumarkumbhaj47@gmail.com
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