स्वाधीनता संग्राम विभाजन की त्रासदी के साथ पूरा हुआ। आधी रात को देश आजाद हो गया। विरासत में दे गया अनगिनत सवाल जिनसे देश आज 71-72 सालों बाद ...
स्वाधीनता संग्राम विभाजन की त्रासदी के साथ पूरा हुआ। आधी रात को देश आजाद हो गया। विरासत में दे गया अनगिनत सवाल जिनसे देश आज 71-72 सालों बाद भी जूझ रहा है। एक परिपक्व राष्ट्र खण्ड-खण्ड हो रहा है। स्वाधीनता संग्राम और वैचारिक संदर्भों की व्याख्या आज बहस का विषय नहीं है। यह गंभीरता से चिन्तन और मनन का विषय है। यथार्थ के धरातल पर वैचारिक संदर्भ बिखरे हुये हैं। और एक दूसरे से गुंथे हुये हैं। सामाजिक धरातल पर जो फूट अंग्रेज वैधानिक नियम बनाकर डाल ये थे वो आज न केवल विकराल हो गई है बल्कि विकृत और घृणात्मक भी हो गई हैं देश का अध्यात्मिक धरातल रसातल में चला गया है। राजनीति हस्तिनापुर में शासक की तरह दृष्टिहीन हो गई है। एकता, विश्वास, आत्मीयता की पवित्रता से समृद्ध धार्मिक विचारधारा कुण्ठित और ग्रसित हो गई है। 1947 से 2018 तक न जाने कितनी बार आसमान में कलाबाजियाँ खाते हुए हमने विमानों से तिरंगा बनाया है, न जाने कितने नवीन अस्त्रों-शस्त्रों के साथ हमने शक्ति प्रदर्शन किया है। तकनीकी विकास की नई ऊँचाईयों को हमने छुआ है पर यह भी सच है कि न जाने कितनी बार लोकतंत्र की गरिमा खण्डित हुई है, संसद अपमानित हुई हैं। संविधान में राजनैतिक दलों ने अपने हितों के खातिर न जाने कितने संशोधन कर लिये पर देश का सच यह है कि अंग्रेजों ने 1932-35 में जो अधिनियम बनाकर देश को जाति और वर्गों में बांटा था उस साम्प्रदायिक पंचाट को संविधान निर्माताओं ने आजादी के बाद ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया और उसमें संशोधन की आवश्यकता ही नहीं समझी। आज चुनाव जातिगत समीकरण बन गया है। आज स्थिति यह है कि कक्षा के कमरे में बैठे 40 बच्चे अलग-अलग जाति, वर्ग, धर्म में न केवल बटे हुये हैं वरन् वे एक-दूसरे से घृणा करते हैं। जबकि संविधान में मूल रूप में समाहित है समता बन्धुत्व और प्रेम। आज समता असमानता में बदल गई, प्रेम घृणा में बदल गया और आत्मीयता विश्वासघात में बदल गई।
अहिंसा के बल पर मिली आजादी आज कदम-कदम पर रक्त से सन गई। सर टामस रो 1615 में जहांगीर के दरबार में आये थे। तब उन्होंने लिखा था यहां सौ से अधिक जातियां और धर्म है, पर वे अपने सिद्धांतों या पूजा निधि पर झगड़ते नहीं है। धर्म के कारण यहां सताया जाना अज्ञात है पर आज के भारत में जाति-धर्म के नाम पर हिंसा और नफरत की आग लगी हुई है। यही नहीं जब 1889 में कांग्रेस के अधिवेशन में अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों का प्रश्न उठाया गया तब ए.ओ. ह्यूम ने कहा था - ‘‘भारतीय, भारतीय है। अल्पमत, बहुमत का प्रश्न क्यों उठाया जाये।’’ लखनऊ के वैरिस्टर हामिद अली खां ने उनका समर्थन किया था। आज हालात एकदम विपरीत है। राष्ट्रपति चुनाव तक को हमारी वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों ने मजाक बना डाला। संपूर्ण भारत जाति, उपजाति, वर्गवाद, प्रान्तीयता, क्षेत्रीयता, धर्म आदि में खण्ड-खण्ड होता जा रहा है। राष्ट्रीयता के जिस धरातल पर आजादी का आन्दोलन 1947 तक चला उस राष्ट्रीयता की विराट कल्पना बहादुरशाह जफर की नज्मों में तथा गीतों में रची बसी है।
1947 से 2012 तक की लोकतांत्रित व्यवस्था पर नजर डालें तो भारतीयता केवल संविधान में दिखाई देती है। यह प्रश्न अत्यंत संवेदनशील है कि हम क्यों मजबूर थे संविधान जो अंग्रेजों ने बनाया था उसे आजादी के बाद ज्यों का त्यों अपनाने के लिये। हमने एक देश की आजादी के लिए खून की नदियाँ बहाई थी पर आज देश के न जाने कितने टुकड़े हो गये। आजादी के सारे संदर्भों को याद करने का दिन है स्वतंत्रता दिवस। स्वार्थों की पूर्ति हेतु संविधान में संशोधन संभव है पर देश की आम जनता के लिए नहीं। आज समाज का सामाजिक स्तरीकरण असंतुलित हो गया है। रोजगार केवल एक वर्ग तक सिमट कर रह गया है। छात्रवृत्ति हो या अन्य सुविधा सिर्फ एक वर्ग विशेष के लिये। क्या दूसरे वर्गों ने आजादी के संघर्ष में अपना रक्त नहीं बहाया? फिर समाज खामोश क्यों है? लगता है। संविधान केवल कागजों का एक पुलिन्दा मात्र रह गया है। तभी तो भ्रष्टाचार, अराजकता और तानाशाही का साम्राज्य है। अपराध की वृत्ति अपने पांव पसार चुकी है। बहुत आसानी से लोग संविधान की प्रतियां जला देते है। संसद को अखाड़ा बना देते हैं।
आज खण्ड-खण्ड होता हुआ अखण्ड भारत उस राष्ट्रीयता की बाट जोह रहा है जिसे आजादी से पहले 1936 में बर्लिंग ओलम्पिक के फाइनल में 14 अगस्त को केवल भारत में नहीं पूरे विश्व ने देखा था। बारिश के कारण यह मैच 15 अगस्त को होना तय हुआ। जर्मनी की टीम हिटलर के नाम पर मर मिटने को तैयार थी। अभ्यास मैच में भारत 4-1 से जर्मनी से हार गया। कोई भी खिलाड़ी पूरी रात चैन से नहीं सो पाया। सुबह टीम मैनेजर श्री पंकज गुप्ता ने मैदान में जाने से पूर्व सभी खिलाड़ियों को अपने पास बुलाया। एक शब्द नहीं कहा। सब खामोश थे, उन्होंने बड़ी संजीदगी के साथ तिरंगा निकाल कर मेज पर फैला दिया। कुछ देर सभी खामोशी से तिरंगे को ध्यान से देखते रहे फिर सबने एक साथ पैर ठोककर तिरंगे को फौजी सलाम किया और निकल पड़े मैदान में जहां हिटलर स्वयं मैच देखने आया था।
तिरंगे झंडे से पुलकित भारतीयें ने जर्मनी को 8-1 से हरा दिया। तिरंगे की शान को कम नहीं होने दिया। एक 1936 का वह दिन था जब गुलामी में राष्ट्रीयता हमारी नसों में दौड़ती थी और आज घरेलू मैचों में हमारे खिलाड़ी बिक जाते हैं या अपने अहं के आगे देश को कुछ नहीं समझते। टेनिस का अहंकार हो या अन्य खेल राजनीति की शतरंज के मोहरे बन गये हैं।
आजादी से पहले का अखण्ड भारत आज जातियों, उपजातियों, वर्गों, सम्प्रदायों में बंट गया है। प्रान्तीय, क्षेत्रवाद और धर्म ने संविधान की आत्मा को खण्ड-खण्ड कर दिया है। राष्ट्रीयता को लेकर चन्द्र वर्मा ने ठीक ही लिखा है -
‘‘इक दिन मिला तिरंगा झण्डा
कुछ दुःखी कुछ उदास
गुस्से से बोला
आज सभी हर एक को काट रहे हैं
कमबख्त मुझे ही बांट रहे हैं।
हरा, केसरिया हट जाने पर
मुझमें जो
रंग बचता है
उससे केवल कफन बनता है।
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डॉ.हंसा कमलेश
13/149 सदर बाजार
होशंगाबाद
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