------------------------------------------ - यादें - ------------------------------------------ मुझे याद आते हैं बचपन के वह पल जिन्हें ब...
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- यादें -
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मुझे याद आते हैं बचपन के वह पल
जिन्हें बिसरा दिया था मैंने बरसों पहले ...
वह कागज़ की नाव वह छुपाछुप्पवल
वह चोर सिपाही का खेल वह मानमनुउवल
वह मिश्रा चाची का प्यार वह पांडे मौसी का दुलार
वह दुबे मामी की डांट वह चंदा बुआ की फटकार
मुझे याद आते हैं बचपन के वह पल
जिन्हें बिसरा दिया था मैंने बरसों पहले ...
खोजता हूँ उस पड़ोस को आज भी
जहाँ मिलता था विश्वास एक परिवार का
माँ की अनुपस्थिति में मिलती थी जहाँ एक माँ
जो पड़ोस में रह कर भी कहलाती नहीं थी पड़ोसी
भूक लगने पर देती थी खाना जो प्यार से
माँ की याद आने पर पास में सुलाती थी दुलार् से
माँ अस्पताल में है बीमार
पड़ोस की सारी औरतें
बन जाती थीं
माँ मौसी ओर चाची
पूरा मोहल्ला ही
बन जाता था परिवार
मुझे याद आते हैं बचपन के वह पल
जिन्हें बिसरा दिया था मैंने बरसों पहले ...
दादी की मौत को
कैसे भूल सकता हूँ मैं
बीमारी से उनकी
परिवार ही नहीं
मोहल्ला भी लड़ा था
एक साथ ...
फिर जीना चाहता हूँ
उस जिंदगी को
उन सारे परिवारों के साथ
जो पड़ोस नहीं परिवार थे
मेरे जीवन का सार थे
सम्पूर्ण परिवार का
आधार थे ...
पर अब क्या ये संभव है ?
सोचता हूँ तो
क्रोध सा आता है
खुद पर
शहर शहर ...
क्या इसे ही शहर कहते हैं
मुझे तो ये लगता है जंगल
एक दुसरे को
नोचने खचोटने को तत्पर
ये इन्सान नहीं
जानवर से लगते हैं मुझे
पड़ोस कहीं खो गया है शहर में
ढूंड रहा हूँ उसे
फ्लैट के बंद दरवाजे के पीछे
क्या वैसे ही इन्सान बसते होंगे ?
जैसे देखे थे मैंने बचपन में ...
क्या ये भी
हँसते रोते ओर
मुस्कुराते होंगे
मिश्रा चाची की तरह ...
यहाँ तो देखा है मैंने
अबाल वृद्ध सभी को
एक चिरंतन तनाव के साथ
जो शायद
शहर का स्थायी भाव है
मुझे याद आते हैं बचपन के वह पल
जिन्हें बिसरा दिया था मैंने बरसों पहले ...
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खिलखिलाती लड़कियां
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मुझे अच्छी लगती हैं हंसती खिलखिलाती लड़कियां
मैं देखता हूँ उनमें समृद्ध संस्कारी भारत की तस्वीर को
खुश हो जाता हूँ यह देखकर
बदल रही है मानसिकता मेरे देश की
धमाचौकड़ी मची है आज गाँव में
बिरजू के घर पैदा हुई है आज बेटी
सास ने दुलारा है आज बहु को
पति आभारी है पत्नी का इस तोहफे के लिए
खुश हो जाता हूँ यह देख कर
बदल रही है मानसिकता मेरे देश की
देखता हूँ एक सामान्य सा घर है
माँ है बाप है और हैं मात्र बेटियां
खुश है परिवार अपनी ही दुनिया में
कोई शिकवा नहीं है उन्हें कुलदीपक न होने का
खुश हो जाता हूँ यह देख कर
बदल रही है मानसिकता मेरे देश की
जा रही है बेटी अब स्कूल में
खेल रही है अपनी सहेलियों के साथ उन्मुक्त हो कर
घर आ कर भी खिलखिलाती है वह लड़कों की तरह
नहीं पिस रहा है उसका बचपन परम्पराओं में
खुश हो जाता हूँ यह देख कर
बदल रही है मानसिकता मेरे देश की
किया है टॉप बेटी ने पुरे विश्वविद्यालय में
दे रहा है बधाईयां सारा नगर
हो गया है चयन इस होनहार का एक बड़ी कंपनी में
कर रहे है तैयारी माँ बाप उसे बाहर भेजने की
खुश हो जाता हूँ यह देख कर
बदल रही है मानसिकता मेरे देश की
बेटियां खिलखिलाएं तो बदलती है तस्वीर पूरे देश की
सुगंध छा जाती है पूरे परिसर में आत्माभिमान की
लगता है बेटियां नहीं राष्ट्र खिलखिला रहा है
मैं देखता हूँ हँसते खिलखिलाते असंख्य बेटियों को
खुश हो जाता हूँ यह देख कर
बदल रही है मानसिकता मेरे देश की .....
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शर्म आती है मुझे -सुधीर ओखदे
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शर्म आती है मुझे समाज के उस तबके से
जो जी रहा है जिंदगी अपनी ऐशोआराम से
जो नहीं निभा रहा है ज़िम्मेदारी सामाजिक दायित्व की
जो अनदेखा कर रहा है परिसर में उठती समस्याओं को
शर्म आती है मुझे उस प्रबुद्ध व्यक्ति से
जो मानवाधिकार पर देता है समृद्ध भाषण
ओर करता है हनन मानवाधिकार का अपनी नौकरानी से
जो नहीं होता व्यथित उसकी मर्मांत पीड़ा से
शर्म आती है मुझे उस सुशिक्षित नारी से
जो भूल चुकी है अपने बचपन ओर यौवन को
जिसके फलने फूलने में किया था बलिदान दादी और माँ ने
जो नहीं उठाना चाहती ज़िम्मेदारी परिवार की,नारी स्वतंत्रता के नारे तले
शर्म आती है मुझे उस वर्ग भेद से
जो अपनी जगह पक्की कर रहा है समाज में
जो बदलना ही नहीं चाहता अपने दायरे को
जो कोसा जाता है भाषणों में साहित्य में पर जिंदा है सर्वत्र
क्या ये शर्म कभी तोड़ने देगी दीवारें असमानता की
क्या ये शर्म महसूस करेगा प्रबुद्ध वर्ग अपने अन्तर में
क्या ये शर्म फिर परिवर्तित होगी ममत्व ओर वात्सल्य में
क्या ये शर्म अंततः बदल देगी समाज व्यवस्था को
इंतज़ार है मुझे इस अनहोनी का ....
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पानीपुरी -सुधीर ओखदे
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मैंने देखा है एक अबोध बच्चे को
पानीपुरी के ठेले पर
खड़ा है इंतजार करते उस मानवता का
जो शायद मृत हो चुकी है
आशा है उसे कोई तो दिल पिघलेगा
ओर मिलेगी उसे चटपटी पानीपुरी
जो आती है उसके सपने में सदैव
वह खड़ा है इंतजार करते चमत्कार का
देख रहा है वह उन सब को एकटक
अपनी निरीह ओर भोली आँखों से
जो अनदेखा कर रहे हैं उसे
और नकार रहे हैं उसकी उपस्थिति को
खड़े हैं सब द्रोण लिए परिवार के साथ
दे रहा है पूरियाँ वो सब को चटपटे पानी के साथ
बच्चा अभी भी प्रतीक्षा में है करुणा के एक निर्झर की
जो शायद उसकी शाम बना दे चटपटी
अचानक मैं देखता हूँ कोमल सी बच्ची को
जो देती है द्रोण अपना उस बच्चे के हाँथ
वह अचानक जी उठता है द्रोण पा कर
दो भाव एक साथ उभरते हैं उनके चेहरों पर
एक के चेहरे पर कृतज्ञता है
दूसरे के चेहरे पर ग्लानि
लड़की निहारती है अपने माँ बाप को
जो बस मौन हैं शांत हैं स्तब्ध हैं
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शहर ख़ामोश क्यूँ है ....सुधीर ओखदे
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आज फिर हुआ है अत्याचार शहर ख़ामोश क्यूँ है
आज फिर हुआ है अनाचार शहर ख़ामोश क्यूँ है ...
फिर जला दी गई है एक ज़िंदगी दहेज के लिए
फिर छीना गया है स्वाभिमान किसी ग़रीब का
वो आते हैं रौंदते हैं और चले जाते है .....
शहर अंधा है या बहरा ,कहो शहर ख़ामोश क्यूँ है ...
छीन लिया है ग़रीब से उसका घर दबंगो ने
वो पड़ा है सड़क पर अपने परिवार के साथ
शिकार हो रही है वो उन गंदी नज़रों की
जिसकी असहमति ही बनी है वजह इस दुर्घटना की
शहर नपुंसक है क्या ,कहो शहर ख़ामोश क्यूँ है ...
हर जगह में देखता हूँ दबंगई बदमाशों की
दूषित कर रहे है वातावरण और समाज को
सब देख रहे हैं पर चुप हैं डरते हैं शायद
शहर खो चुका है हौसला ,कहो शहर ख़ामोश क्यूँ है ..
ये शहर पहले ख़ामोश नहीं था करता था प्रतिकार
फिर एक दिन उन प्रतिकारियों की आवाज़ छीनी गई
फिर आवाज़ उठी न्याय और अन्याय की क़ानून मौन था
पुलिस ख़ामोश थी पत्रकार दे रहे थे साथ अन्यायी का
उस दिन शहर ने एक अजीब सी करवट ली बदलने की
न कुछ देखने सुनने की ,दूसरे की पीड़ा में मुस्कुराने की
न शिकायत करने की ,न प्रतिकार करने की
शहर को लग गयी है शायद नज़र ,शहर ख़ामोश क्यूँ है
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आक्रोश
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पड़ोस की बच्ची
कर रही है आक्रोश
हमारी सामाजिक व्यवस्था पर
चीख रही है अपने माँ बाप पर
निर्णय न ले सकने की स्थिति में
पूछ रही है सवाल
अपने जन्म दाताओं से
क्यों नहीं जा सकती वह पढने बाहेर
उत्तीर्ण की है परीक्षा उसने
जो कर न सका था कोई घर में
दादी की बरसों पुरानी आस
बन सके कोई डॉक्टर घर में
साल दर साल
मिंकू भैया ,पप्पू भैया ,जीतू भैया
सभी हो चुके हैं अनुतीर्ण
इस प्रवेश परीक्षा में
जब वह बैठ रही थी परीक्षा में
मखोल किया था सभी ने
आज जब वह सफल हो गयी है
सभी मौन हैं
दे रहे हैं सलाह
उसके माँ बाप को
बाहर पढने ना भेजने की
लड़की है ,क्यों कर रहे हो इतना खर्च
लड़की है ,कैसे रहेगी बाहर अकेली
लड़की है ,क्या उससे करवाओगे नौकरी
लड़की है ,कितनी दिक्कत आएगी उसकी शादी में
ढूँढना पड़ेगा लड़का उसके बराबरी का
पद में, प्रतिष्ठा में ,सन्मान में
विदा हो जाएँगी
बाकी सारी सहेलियां फुर्ती से
बाद में यही लड़की दोष देगी
अपने माँ बाप को
विवाह में हो रही देरी को ले कर
देगी उलाहने कर्त्तव्य न निभा सकने की
छलनी कर देगी उन्हें अपने तीखे प्रश्नों से
भूल जाएगी सब जो किया था उसके पालकों ने
दुनिया से लड़ कर उसके लिए
याद आ रहे हैं उन्हें ऐसे कतिपय उदाहरण
जहाँ खड़े हैं माँ बाप लडकियों के कटघरे में
बंदी बन कर
बच्ची अभी भी कर रही है आक्रोश
ओर माँ बाप अभी भी मौन हैं
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मिनरल वाटर
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दौड़ती ट्रेन में
लगी है प्यास एक बच्चे को
बिलख रहा है वह
जीवनदायी पानी के लिए
यह अपराध है उसका
माँ ले बैठी है उसे
उस आरक्षित डब्बे में
जहाँ मानवता मृत है …
माँ बैठी है फ़र्श पर नीचे
सीने से लगाए उस नन्हे को
देख रही है आशापूर्ण नेत्रों से
बर्थ पर पडी सुसंस्कारित शिक्षित
मानव सभ्यता की ओर
मानवता घृणा से देख रही है
उस जननी को
जो गंवारो सी आ बैठी है
उस सुसंस्कारित कक्ष में
अपने अधनंगे लाल के साथ .
प्यास से गला सूख रहा है उस बच्चे का
वह इशारा कर रहा है माँ को
उस पानी की ओर
जो दर्जनों बोतलों की सूरत में
उपलब्ध है हर बर्थ पर
माँ गुहार लगाती है बर्थ दर बर्थ
पानी के लिए
जवाब में उसे मिलता है
एक नया शब्द
मिनरल वाटर
जो निषिद्ध है
गरीबों के लिए ....
बच्चा अभी भी बिलख रहा है
एक बूंद पानी के लिए
और बर्थ पर पडी
सुसंस्कारित सभ्यता
डूबी है स्वाभिमान के नशे में
मिनरल वाटर के साथ ....
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पत्नी और बेटी - सुधीर ओखदे
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वह भी चाहती थी स्वच्छंद आकाश
जो तुमने दिया है अपनी बेटी को उपलब्ध कर के
वह भी चाहती थी स्वतंत्रता परिधान की
जो तुमने दी है अपनी बेटी को मुस्कुराते हुए
वह भी चाहती थी अपना स्वतंत्र अस्तित्व समाज में
जो तुमने दिया है अपनी बेटी को अपनी मर्ज़ी से
वह भी चाहती थी पद प्रतिष्ठा और सम्मान
जो दिया है तुमने अपनी बेटी को स्वातंत्र दे कर
वह ख़ुश है आज तुम्हारे हर निर्णय पर
भूल चुकी है वह अपने संघर्ष की गाथा
भूल जाना चाहती है वह तुम्हारी उस मानसिकता को
जो “लोग क्या कहेंगे “के इर्द गिर्द घूमती थी उन दिनो
जब वह यौवन में थी और देखती थी सपने
अपने सुखद भविष्य के तुम्हारे बेटी की तरह
देख रही है वह सारे सपने अपनी बेटी के साथ
जिसे तुमने नहीं रोका है समाज की दुहाई दे कर
बेटी के एक एक बढ़ते क़दम देते हैं ख़ुशी उसे
और वह भूल जाती है तुम्हारी ज़्यादतियाँ ....
जो की थीं तुमने उसके साथ उन दिनो
जब वह देखा करती थी सपने पृथक अस्तित्व के
पीढ़ियाँ बदलती रहेंगी विचार बदलते रहेंगे
नहीं बदलेगी माँ की ममता और प्यार संतति को ले कर
वह ढूँढती रहेगी ख़ुशियाँ और अतृप्त इच्छाएँ बेटी में
जो बढ़ रही है आगे बदलते विचारों के साथ .....
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माँ अभिनेत्री नहीं होती ...
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माँ अभिनेत्री नहीं होती
करती है अभिनय बच्चों के लिए
एक कुशल कलाकार की तरह
बदलती है भूमिकाएं समयानुसार
सार्थक हो जाता है उसका अभिनय
जब बच्चा खिलखिलाता है
इसी माँ का बेटा
जब बदलता है अपने किरदार को
किसी ओर के लिए
छलनी हो जाता है
माँ का कलेजा
अपने संस्कारों को बदलते देख कर
सोचती है कहाँ चूक हो गई उससे
मैंने तो दूध ही पिलाया था बेटे को
यह क्यों कर रहा है विष वमन
क्या समय दूध को बदल देता है विष में
पड़ी है वृद्धाश्रम में
अपने बेटे के बचपन को याद करते
जब डर लगता था उसे अँधेरे में
छाती से चिपक कर सोता था उसके
एक अनजाने अनहोने डर के साथ
वह फिराती थी हाथ पक्के आश्वासन का
उसे अकेले न छोड़ने के विश्वास का
दुबक जाता था वह उसकी छाती में निर्भय हो कर
लोरियां सुनाती थकती नहीं थी वह रात भर
करती थी सजीव अभिनय उसके लिए भेस धर धर कर
सो जाता था वह निश्चिंत हो कर माँ के आगोश में
सारी चिंताए ग्रहण करती थी माँ उसके लिए
वह आज भी सो रहा है निश्चिंत अपने घर में
ओर यह पड़ी है वृधाश्रम में उसे आशीष देते
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कुत्ता ओर आदमी -
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अपरिपक्व बच्ची का अर्भक
नाली में पड़ा देख कर
निकल जाते हो तुम बचते हुए
किनारा करते
सुबह की सैर को ....
ज़िक्र भी नहीं करते तुम
उस मृत बच्ची का
सैर में मिलने वाले मित्रों से
बचना चाहते हो
उस ज़िम्मेदारी से
जिसके कारण तुम
जानवरों से अलग
मानव की श्रेणी में आते हो
कुत्ता भी यदि
उस अर्भक को देखता
मुझे विश्वास है
वह भी अपनी विशिष्ठ आवाज़ से
अपने भाई बंधुओं को बुलाता
वह ये सब करता
क्योंकि वह जानवर है
नहीं है समझ उसमें
तुम्हारे जितनी
नहीं है दिमाग उसमें
तुम्हारे जितना
शायद तभी वह
कुत्ता है
ओर तुम आदमी ....
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- टूटते सपने-
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रोज़ देखती है वह सपना अच्छे घर का |
बिसरा देती है उस गर्द खोली के अँधेरे को |
जहाँ बसती है केवल सीलन ओर दुर्गंध |
ओर बसती हैं बीमारियाँ अनेक |
देखती है जहाँ बजता हो अलार्म सुबह का |
जहाँ उठती हो जवानियाँ अंगडाईयों के साथ |
कुनमुनाती सी नर्म बिस्तर पर |
पड़ी हो वह एक राजकन्या की देह में |
माँ खडी हिला रही हो सर्वांग को |
ओर वह पड़ी हो मस्त मदमस्त |
थोडा गुस्सा थोडा प्यार |
मनुहार प्यार और फिर मनुहार |
सुन्दर से बाथरूम में शावर के नीचे |
मनमोहक बौछारों के साथ |
महक रहा हो उसका यौवन |
उस स्वप्निल परिलोक में |
जाती हो पढने वह महाविद्यालय में |
जहाँ मिलता हो राजकुमार उसे सपनों का |
घूमती हो वह हाथों में हाथ डाले दिनभर |
एक अद्भुत स्वर्गीय आनंद के साथ |
वह रूठती हो ,वह मनाता हो |
वह खेलती हो सारे खेल सपनों के उसके साथ |
देखती है वह सपना डोली चढ़ने का |
अपने उसी मनमोहक राजकुमार के साथ |
रोज़ टूटता है उसका यह सपना |
माँ की आर्त आवाज़ के साथ |
बाप की कर्कश ध्वनि के साथ |
बहन की बेबस हिचकियों के साथ |
उस सीलन भरी कोठरी में |
फिर हुई है सुबह रोज़ जैसी |
पता नहीं क्यों उसे आज सूरज |
थका थका सा दीख रहा है |
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-अवसाद -
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कोई थाम रहा है मेरी उंगलियाँ चुपके चुपके
लड़खड़ाते कदमों से ,मैं बढ़ रहा हूँ आगे
लडखडाता हूँ ,थकता हूँ ,चलता हूँ ,फिर लडखडाता हूँ
आँखे बंद कर लेता हूँ ,केवल गिरने के अहसास से
देखता हूँ
कोई थम रहा है मेरी उंगलियाँ चुपके चुपके ...
मुझे याद है स्कूल का वो पहला दिन
बैठा हूँ वाटरबैग ओर टिफिन के साथ
देख रहा हूँ बितर बितर यहाँ वहां
इंतजार है मुझे ,स्कूल छूटने का
अचानक सैलाब सा आ जाता है जैसे स्कूल में
घंटी बजते ही बच्चे
समुद्र की तरह फ़ैल जाते हैं सारे परिसर में
मैं फिर डर जाता हूँ ,अपने आप से
एक अनजाना सा डर,खो जाने का
आँखे बंद कर लेता हूँ ,केवल खोने के अहसास से
देखता हूँ
कोई थाम रहा है मेरी उंगलियाँ चुपके चुपके ...
मुझे याद है मेरी नौकरी का वह पहला दिन
कंपकपाते क़दमों से ,नए शहर की भीड़ में खो जाना
नया शहर, नए लोग, नई बस्ती
अकेलेपन का अहसास ओर फिर अवसाद
डरता हूँ इस घुटन से ,इस अवसाद से
देखता हूँ
कोई थम रहा है मेरी उंगलियाँ चुपके चुपके ...
बरसों बीत गए हैं मेरी जिंदगी को
पत्नी,बच्चे ओर मैं एक सुनहरा सच
खुश हूँ अपनी जिंदगी से
इस तेज रफ़्तार जिंदगी में
भूलने की कोशिश करता हूँ ,उन हथेलियों को
जो थामा करती थी मेरी उँगलियाँ चुपके चुपके
एक बूंद सी आ जाती है मेरी आँखों में
मन भर उठता है अपराधबोध के अहसास से
वह जो दूर बैठी है कहीं गाँव में
उसे खो जाने का डर सताता तो न होगा ?
कहीं घुटन ओर अवसाद उसे घेरते तो न होंगे ?
कैसी होगी वह .......?
जो थामा करती थी मेरी उँगलियाँ चुपके चुपके
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मैं देखता हूँ अपनी खिड़की से ....
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मैं देखता हूँ अपनी खिड़की से उस घर को
जहाँ एक जर्जर बूढा
ऱोज बैठा रहता है बाहर
अपनी पत्नी के साथ
असहाय
दीन
आत्महीनता के बोझ से दबा हुआ
मैं देखता हूँ अपनी खिड़की से उस घर को
जहाँ एक सुदर्शन युवक
अपनी सुन्दर पत्नी के साथ
रोज़ करता दीखता है प्रेमालाप
निडर
प्रफुल्लित
आत्माभिमान से लबालब भरा हुआ
मैं देखता हूँ अपनी खिड़की से उस घर को
जहाँ दो सुन्दर बच्चे
खिलखिलाते रहते हैं घर के अन्दर
ओर बाहर निकलते ही
जैसे मुरझा से जाते हैं
देखते हैं इधर उधर
ओर चुपके से दे जाते हैं
उन बूढी आँखों को रोशनी
दिन भर के लिए
मैं देखता हूँ अपनी खिड़की से उस घर को
जहाँ एक जर्जर बूढा जी उठता है
उन बच्चों को देख कर
जहाँ एक कृषकाय औरत
देखने लगती है सपने
अपने सुखद भविष्य के
इन बच्चों से बड़ी आशाएं हैं
उम्मीदे हैं
न टूटने की
ऐसी ही तो उम्मीदें लगायी थीं
उस सुदर्शन युवक से
इन दोनों ने
जब वह बच्चा था
मैं देखता हूँ अपनी खिड़की से उस घर को
जहाँ एक जर्जर बूढा
आत्मग्लानि से भर उठा है
अपनी पत्नी के साथ
उस सुदर्शन युवक के
बचपन को याद कर .....
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वेदना
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आज देखा है मैंने
आक्रोश करते हुए एक बेटे को
अपने माँ बाप पर !
पूछ रहा है सवाल
अपने जन्मदाताओं से
मांग रहा है हिसाब
अपने लालन पालन का बदतमीजी के साथ !
जन्मदाता चुप हैं
उसकी बदतमीजी पर
डरते हैं शायद अपने बच्चे से
जो दूर कहीं रहता है होस्टल में !
भेजा है उसे वहां अपना पेट काट कर
ताकि उसके पंख मजबूत हों
ओर वह उडान भर सके
स्वच्छंद आकाश में !
वह भर रहा है उडान नित नयी
ख़ुशी है माँ बाप को उसकी उडान पर
पैर जब वह उड़ते उड़ते बीट गिरता है
उनके चेहरे पर
एक प्रश्न सा उठ आता है
उनके अंतर में
क्या इसे ही प्रगति कहते हैं ?
क्या बदल जाते हैं संस्कार
घर से बाहर निकलते ही
कहीं हमसे चूक तो नहीं हो गई
निर्णय लेने में
निराश से बैठे हैं दोनों
एकटक आकाश को निहारते
एक हलकी सी किरण की तलाश में
जो शायद बिगड़ी बना दे ....
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-शर्मिंदा हूँ मैं अपने आप से -
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शर्मिंदा हूँ मैं अपने आप से
शर्मिंदा हूँ समस्त नारी समाज से
शर्मिंदा हूँ उस अबोध बच्ची से
जो शिकार बनी एक दरिंदे की
खेला करती थी जो उन्मुक्त हो कर
दौड़ा करती थी जो उन्मुक्त हो कर
खिलखिलाती थी जो उन्मुक्त हो कर
आज वह भीषण पीड़ा भोग रही है
अम्माँ ने रोका है ,पुरुषों के पास जाने से
राधे भैया ,शामु चाचा ,बिरजु मामा
सभी हो गए हैं पराए
अम्माँ रोती हैं समझाती हैं
पता नहीं क्यूँ
कल ही बवाल मचा था पड़ोस में
अबोली मेरी सहेली को लगी थी चोट
बह रहा था ख़ून और वह रो रही थी जार जार
साथ में रो रही थी उसकी अम्माँ भी ,पता नहीं क्यूँ
वह गंदा अंकल कहते हैं भाग गया है
जिसने नन्ही अबोली को बुलाया था पास में
देने वाला था जो ढेर सारी मिठाई अबोली को
बच गयी थी मैं भाग्य से
जाने वाली थी मैं भी अबोली के साथ में
जब से यह बात अम्माँ को पता चली है
बार बार आ जाते हैं आँसू उनकी आँखो में
चिपका लेती है वह मुझे अपने कलेजे से
जैसे छुपा रही हो मुझे समस्त संसार से
कलेजे से लगा कर मुझे रोती रहती हैं दिन भर
पुरुषों के पास न जाना कहती रहती हैं दिन भर
मैं पाँच वर्ष की नन्ही नहीं समझ पा रही हूँ वजह
बस इतना समझ गयी हूँ कि
पास के भैया अंकल को अब नहीं है
मेरी ज़िंदगी में जगह
क्या अब मैं कभी न खेल पाऊँगी उन्मुक्त हो कर
क्या अब मुझे कभी न मिलेगा राधे भैया का प्यार
क्या अब मैं खो दूँगी अपने शामु चाचा का दुलार
क्या ये ही पुरूष होते हैं ,मना करती है जाने को
जिनके पास माँ!
पता नहीं क्या हो गया है माँ को
कितने प्यारे तो हैं ये सब
कितना प्यार तो करते हैं मुझे सब मिल कर
सब को खो दूँगी मैं उस गंदे अंकल के कारण
गंदा अंकल बिलकुल गंदा
जिसने रुलाया था अबोली को
जिसे कहती है माँ ,पुरूष
क्या पुरूष ऐसे होते है ?
क्या सभी पुरुष ऐसे होते हैं ?
स्तम्भित हूँ इस बच्ची की बातें सुन कर
विचलित हूँ इस बच्ची की संवेदना सुन कर
स्तब्ध हूँ इस बच्ची की भावना सुन कर
शर्मिंदा हूँ इस बच्ची की पीड़ा सुन कर
शर्मिंदा हूँ अपने आप से
शर्मिंदा हूँ समस्त नारी समाज से
शर्मिंदा हूँ उस अबोध बच्ची से
जो शिकार बनी है एक दरिंदे की
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सुधीर ओखदे
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जन्म -21 दिसम्बर 1961 (बीना मध्य प्रदेश)
शिक्षा -रीवा ,शहडोल और छतरपुर मध्य प्रदेश में .....
1-कला स्नातक -(B.A.)
2-पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान स्नातक -(B.Lib.I.sc)बी.लीब .आई एस सी
लेखन -सभी प्रतिष्ठित हिंदी पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य ,आलोचना , कवितायें और संस्मरण प्रकाशित .
प्रकाशित पुस्तकें -(व्यंग्य)
1-बुज़दिल कहीं के ...
2-राजा उदास है
3-सड़क अभी दूर है
4-गणतंत्र सिसक रहा है
विशेष -1-मुंबई विश्वविद्यालय के B.A. (प्रथम वर्ष) में 2013 से 2017 तक “प्रतिभा शोध निकेतन “व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में समाविष्ट
2-अमरावती विश्वविद्यालय के B.Com (प्रथम वर्ष) में 2017 से “खिलती धूप और बढ़ता भाईचारा”व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में शामिल .
सुधीर ओखदे की अनेक रचनाओं का मराठी और गुजराती में उस भाषा के तज्ञ लेखकों द्वारा भाषांतर प्रकाशित
इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी सहित अनेक साहित्य वार्षिकी और महाराष्ट्र में प्रसिद्ध दीपावली अंकों में रचनाओं का प्रकाशन
आकाशवाणी के लिए अनेक हास्य झलकियों का लेखन जो “मनवा उठत हिलोर“और “मुसीबत है “शीर्षक तहत प्रसारित
सम्प्रति -आकाशवाणी जलगाँव में कार्यक्रम अधिकारी
सम्पर्क -33, F/3 वैभवी अपार्टमेंट व्यंकटेश कॉलनी
साने गुरुजी कॉलनी परिसर जलगाँव(महाराष्ट्र)425002
ईमेल -ssokhade@gmail.com
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