छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय गीतकार और लोकगायक लक्ष्मण मस्तुरिया का असमय अवसान एकबारगी लोक बांसुरी की धुन के अकस्मात थम जाने के समान है। मेरा मन कहत...
छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय गीतकार और लोकगायक लक्ष्मण मस्तुरिया का असमय अवसान एकबारगी लोक बांसुरी की धुन के अकस्मात थम जाने के समान है। मेरा मन कहता है - छत्तीसगढ़ महतारी अपने दुलरवा बेटे को बार-बार पुकारेगी कि वह फिर आये और संगी साथियों को, पीछे छूट गए लोगों को फिर मोर संग चलव रे कहकर ह्रदय की गहरायी से पुकारे । एक नयी सुबह, नेह में डूबी नयी शाम की खातिर गुहार लगाए। मेहनतकशों की लोक लड़ाई लड़े। किसान जीवन की पीड़ा को पूरे सरोकार के साथ हुक्मरानों तक पहुंचाए। युवा पीढ़ी को निश्च्छल प्रेम का पाठ पढ़ाए। माटी पुत्रों का भाग जगाए।
दरअसल, आजीवन मिट्टी की महक को हर घर-द्वार तक फैलाने वाली मस्तुरिया जी की मस्त आवाज़ की कमी हमेशा टीस पैदा करेगी । अपने छत्तीसगढ़िया होने का जैसा मीठा और सधा हुआ ऐलान भाई लक्ष्मण जी ने किया वैसा कोई बिरला ही कर पाता है । इतिहास साक्षी है कि लगभग आधी सदी तक चारों दिशाओं में छत्तीसगढ़ी लोक गीत-संगीत की दुनिया लक्ष्मण मस्तुरिया के साथ-साथ झूमती गाती रही है । वे सही अर्थ में छत्तीसगढ़ी सुमत के सरग निसइनी थे । उनकी जगह भर पाना मुश्किल और नामुमकिन भी है । सच तो यह कि लक्ष्मण मस्तूरिया अपने नाम से ही जाने जाते थे । उनका वह नाम अपनी खनकदार आवाज के साथ हमेशा आबाद रहेगा क्योंकि उस आवाज़ ने माटी महतारी की महिमा और माटी पुत्रों के दर्द को वाणी दी है।
नवम्बर 2000 में भारत के मानचित्र में उभरे तीन नए राज्यों में शुमार छत्तीसगढ़ जब अस्तित्व में आया तब लक्ष्मण मस्तुरिया खासे मशहूर हो चुके थे। राज्य की अलग सांस्कृतिक पहचान बनाने वालों में उनकी भूमिका पहले ही जानी पहचानी थी। गौरतलब है कि यहां की माटी में क्रान्तिदर्शी कबीर को जीने वाले, गांधी को आत्मसात करने वाले और गुरु घासीदास की पावन वाणी को सर आँखों पर बिठाकर चलने वाले विशाल जनमानस के सपनों को साकार करने के सांस्कृतिक प्रयासों को प्रदेश के लोक कलाकारों, लोक गायकों, लोक चिंतकों और लोक मनीषियों ने नया उत्साह, नया बल, आकाश और नयी उड़ान भी दी है । लक्ष्मण मस्तुरिया ऐसे ही कलाकाओं में अग्रगण्य थे।
अब तक आकाशवाणी, दूरदर्शन, विभिन्न टीवी चैनल, वृत्त चित्र, नए ज़माने के यूट्यूब, पॉडकास्ट और साथ-साथ एक औसत किसान जीवन को सरस गीत, कर्णप्रिय संगीत और मनोहारी नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करने वाले सर्वप्रिय आयोजन चंदैनी गोंदा से लेकर, भोरमदेव महोत्सव, छत्तीसगढ़ी लोक कला महोत्सव, चक्रधर समारोह, बस्तर महोत्सव, लोक मड़ई, रावत नाचा महोत्सव, माघ मेला, बस्तर का दशहरा जैसे और भी कई प्रसंग हैं जिनसे छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को पूरे जनरंजक तथा मनोरंजक रूपों में लगातार अभिव्यक्त किया जाता रहा है। ठीक है, लेकिन इनमें से शायद ही कोई प्रसंग या महोत्सव होगा जिसमें लक्ष्मण जी के एकल, युगल अथवा कोरस के संग-साथ वाली दिलकश आवाज़ या उनके गीत दीगर गायकों की आवाज़ में सुने न गए हों ।
स्मरणीय है कि युवावस्था में करीब 22 साल के थे तब वे चंदैनी गोंदा के गायक बन चुके थे। इतना ही नहीं चंदैनी गोंदा के कर्णप्रिय और मन मोह लेने वाले कई गीतों के अकेले रचयिता होने का गौरव भी लक्ष्मण मस्तुरिया ने अर्जित कर लिया। साथ-साथ अनेक अन्य लोकप्रिय कवि-गीतकारों ने चंदैनी गोंदा की महक को दूर-दूर तक प्रसारित किया। मंच के संस्थापक स्वनाम धन्य दाऊ रामचंद्र देशमुख जी तथा संगीत निर्देशक सुपरिचित वयोवृद्ध लोक संगीत सम्पोषक श्री खुमानलाल साव के अति विशिष्ट योगदान से यह मंच जन-मन का स्थायी विहार स्थल बन गया।
लक्ष्मण मस्तुरिया ने चंदैनी-गोंदा के लिए लगभग डेढ़ सौ गीत लिखे। मंच पर कोई चार दर्जन गीतों की स्वर लहरियां गूंजती रहीं। वे सचमुच लोक स्वर के पर्याय बन गए थे। इस मंच ने कवि लक्ष्मण मस्तुरिया को छत्तीसगढ़ की आत्मा के अधिक निकट पहुंचा दिया। यहां की माटी उनकी आवाज़ में बोलने लगी। इस माटी के लोग अपनी पूरी वेदना और आशा-आकांक्षा के साथ उनके स्वर में सधने लगे। फिर क्या, वे लोगों के कानों में रस घोलकर उनके दिलों पर राज करने लगे। आकाशवाणी में उनके गीत सुनकर लोग एकबारगी बिनाका गीतमाला की तरफ झूमने लगे। उनके गीतों की फरमाइश बढ़ती गयी। लक्ष्मण पुकार-पुकार कर कहने लगे -
मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी ,
ओ गिरे-थके हपटे मन, अऊ परे-डरे मनखे मन ,
मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी।
अमरैया कस जुड़ छाँव म मोर संग बईठ जुड़ालव ,
पानी पी लव मै सागर अवं, दुःख-पीरा बिसरा लव।
नवा जोत लव, नवा गाँव बर, रस्ता नवां गढ़व रे!
मोर संग चलव रे।
छत्तीसगढ़ की ओझल होती संस्कृति को जब और जहां भी गहरायी में जाकर ढूंढ से निकालने की बात आती, लक्ष्मण जी पूरी हिम्मत और समर्पण के साथ सीना तानकर खड़े हो जाते थे। निरंतर बेचैन रहने वाली उनकी आत्मा शायद यहाँ के माटी पुत्रों के दर्द को आत्मसात कर चुकी थी। माटी के गीतों में, खेतों के गीतों में, मेहनत के गीतों में, स्वर लहरियों की दुखित भावनाओं में भी मस्तुरिया जी की लेखनी संवेदना का अद्भुत इतिहास रचती रही। वे सचमुच छत्तीसगढ़िया और भारत माँ के रतन बेटा बढ़िया थे। इसीलिए तो बार-बार कहते रहे - मंय बंदत हौं दिन-रात वो ,मोर धरती मईया / जय होवय तोर / मोर छईयां - भुइंया जय होवय तोर। उधर मांघ फागुन में उनके मन के डोलने का अंदाज़ भी निराला रहा। वहीं पता दे जा रे, पता ले जा रे का तो कोई जवाब ही नहीं है। ऎसी गहन आत्मीयता सचमुच दुर्लभ है। काश ! भाई लक्ष्मण, आप जाने से पहले अपना पता भी दे जाते !
सही माने में लखमन मस्तुरिया ने साबित कर दिखाया कि - हम करतब कारन मर जाबो रे / हम धरती कारन जुझ जाबो रे / फेर ले लेबो संग्राम रे। दूसरी तरफ बच्चों की तुतलाती जबान भी वहां उनकी लेखनी के ज़रिये उद्घोष करती है - चन्दा बन के जीबो हम / सुरुज बन के जीबो हम / अन्यायी के आगू रे भैया / आगी बरोबर जरबो हम / सुख सुवारथ अउ छोड़ माया ला / पर के सेवा करबो हम।
ऎसी सुर सधी ज़िंदगी और मर्म भरी खनकती आवाज़ को नमन !
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राष्ट्रपति सम्मानित प्राध्यापक
हिंदी विभाग
शासकीय दिग्विजय स्वशासी
स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
राजनांदगाँव ( छत्तीसगढ़ )
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