प्रकृति अपने आप में साकार और विराट है. कला के माध्यम से हम प्रकृति की अनुकृति तो कर सकते हैं, पर साकार प्रकृति को खड़ा नहीं कर सकते. फ़िर भी प...
प्रकृति अपने आप में साकार और विराट है. कला के माध्यम से हम प्रकृति की अनुकृति तो कर सकते हैं, पर साकार प्रकृति को खड़ा नहीं कर सकते. फ़िर भी प्रकृति की अंत-रंगता, उसकी आत्मा से साक्षात्कार और उसमें निहित आनन्द का प्रगटीकरण, कलाओं के माध्यम से ही होता है. कुन्ज-निकुन्जों और वन-विहारों में संगीत की जो निर्झरणी फ़ूटी, वह प्रकृति के आशीर्वाद से ही प्रवाहित हो पायी थी. पुष्पों पर मंडराते भौंरों की गुंजार, चिड़ियों की चहक, मनुष्य़ के कंठ में और वाद्ययंत्रों के सुरों में, इसी प्रकृति का दर्शन होता है. पृथ्वी के सौंदर्य के आगे दुनिया का कोई भी सौंदर्य टिक नहीं सकता. प्रकृति हमें जीने की कला सिखाती है. जो प्रकृति से दूर है उसका नाम विकृति है. विकृति सबके लिए भयावह होती है. यह दुःख देती है. शांति छीन लेती है, जबकि प्रकृति सुख ही पहुँचती है. कहा भी गया है- “पृथ्वी, जल, औषधि, पुरुष आदि सब प्रकृति के महत्वपूर्ण घटक हैं. ये जब तक साथ नहीं देते, जीवन में आनन्द नहीं आ सकता और बिना आनन्द के जीवन रस-हीन होकर रह जाता है. अतः आदमी को चाहिए कि वह प्रकृति से संनिध्य बनाकर चलता रहे. यही मार्ग, श्रेयस्कर मार्ग है.
मैं शुरु से ही प्रकृति का आराधक रहा हूँ. कभी साहित्यिक आयोजन, तो कभी धार्मिक आयोजन के चलते भ्रमण के अवसर अक्सर मुझे मिलते रहे हैं. कहते हैं न ! कि यात्राएँ या तो योग से होती हैं या फ़िर संयोग से. कुछ ऐसे ही योग और संयोग मेरे अपने जीवन में बनते रहे है. अभी हाल ही में मुझे छ्त्त्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित एक व्यंग्य महोत्सव में जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. मेरे सहयात्री थे- प्रो.श्री. राजेश्वर आनदेव, गिरजाशंकर दुबे, देवीप्रसाद चौरसिया. चुंकि व्यंग्य महोत्सव 18 नवम्बर को होना सुनिश्चित हुआ था. अतः कार्यक्रम में सीधे न पहुंचते हुए अन्य स्थानों पर भ्रमण करते हुए कार्यक्रम में पहुँचने का मानस बना. हममें से किसी ने भी छत्तीसगढ़ का मिनि नियाग्रा जलप्रपात नहीं देखा था और न ही माँ दंतेश्वरी देवी जी के दर्शन ही किए थे.
छतीसगढ़ का भू-भाग पुरातत्वीय और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत ही संपन्न है. महानदी, शिवनाथ, इंद्रावती, मांड, रिहंद, ईब, सबरी और हसदो नदी के जल से सिंचित यह अंचल अत्यधिक उर्वर है. साथ ही प्राकृतिक सौंदर्य और खनिज संपदा से परिपूर्ण है. सदाबहार लहलहाते हुए सुरम्य वन तथा जनजातियों का नृत्य-संगीत यहाँ के प्रमुख आकर्षण है. जगदलपुर जिला मुख्यालय से करीब 340 किमी.दूर है, यहाँ का तीरथगढ़ जलप्रपात, कोटमसर की गुफ़ा, कैलाश गुफ़ा, बारसूर, छत्तीसगढ़ का मिनि नियाग्रा कहा जाने वाला “चित्रकोट जलप्रपात एवं शंखनी तथा डंकनी नदी के संगम पर स्थित विश्व-प्रसिद्ध दंतेवश्वरी देवी जी का मन्दिर है. कम से कम समय में इन स्थानों का भ्रमण दो दिन में किया जा सकता था अतः. यह सोचते हुए हमने रायपुर में न रुकते हुए, रात का सफ़र करना उचित समझा और सीधे जगदलपुर जा पहुँचे, ताकि निर्धारित समय-सीमा में भ्रमण किया जा सके.
तीरथगढ़ जलप्रपात
तीरथगढ़ जलप्रपात जगदलपुर की दक्षिण-पश्चिम दिशा में करीब 35 किमी.की दूरी पर अवस्थित है. करीब तीन सौ फ़ीट की उँचाई से गिरता यह जलप्रपात भारत के सबसे उँचे झरनों में से एक है. उँचाई से गिरते पानी का शोर काफ़ी दूर से ही सुना जा सकता है. इस शोर को सुनते ही थकान गायब हो जाती है और पर्यटक इसके आकर्षण को देखने के लिए द्रुतगति से अपने कदम बढ़ाने लगता है. यहाँ आकर पिकनिक का भी आनन्द उठाया जा सकता है. माह अक्टूबर से फ़रवरी तक भ्रमण करने का समय सबसे बेहतर माना गया है.
कोटमसर की गुफ़ा.-
जगदलपुर मुख्यालय से करीब 35 किमी. दूर कांगेरघाटी के राष्ट्रीय उद्यान में कुटुमसर की गुफ़ा स्थित है. भारत में इस गुफ़ा को सबसे गहरी गुफ़ा का दर्जा प्राप्त है. इसकी गहराई 60-120 फ़ीट तक है तथा लम्बाई 4500 फ़ीट है. कुटुमसर गाँव के पास होने के कारण इस गुफ़ा का नाम कोटमसर पड़ा.
गाईड की मदद से ही इस अंधेरी और संकरी गुफ़ा में प्रवेश करना संभव है. हम दो मित्रों ने करीब 45 मीटर तक अन्दर जाने का प्रयास किया लेकिन आक्सीजन की कमी की वजह से दम घुटने लगा था. आगे जाना खतरे से खाली नहीं था. अतः हमें वापिस लौटना पड़ा.
गुफ़ा में चुने का पत्थर होने की वजह से और इसके पानी के संपर्क में आने से चट्टानों की विविध प्रकार की आकृतियाँ बन गई है, जो देखने लायक है. कहते हैं कि गुफ़ा के अन्तिम छोर पर चमकदार शिव-लिंग देखने को मिलता है, जो इसी चुना पत्थर और पानी के संयोग से निर्मित हुआ था.
बारसूर-
मामा-भांजा का मन्दिर .
दंतेवाड़ा जिले में एक छोटा सा गाँव है बारसुर. इसे नागवंशीय राजाओं की राजधानी होने का गौरव प्राप्त है. जगदलपुर-दंतेवाड़ा मार्ग में गीदम से 23 किलो.मीटर दूरी पर यह स्थित है. इस स्थान पर मामा-भांजा के नाम पर एक मन्दिर बना हुआ है. ऐसी जनश्रुति है कि तब इस भूमि पर कभी गंगवंशीय राजा का राज्य था. राजा का भांजा कला प्रेमी था. मामा ने बिना उसे बतलाए उत्कल देश के किसी अन्य शिल्पकार को बुलाकर मन्दिर का निर्माण करने को कहा. भांजे ने इसे अपना अपमान समझा और मामा को मौत के घाट उतार दिया. पश्चाताप में जलते हुए बांजे ने एक रात में विशाल मन्दिर का निर्माण अपने मामा की याद में बना डाला और उसी मन्दिर में मामा की मूर्ति उसके सिर के आकार की बनवाकर स्थापित कर दी. कालान्तर में यह मन्दिर “मामा-भांजा” मन्दिर के नाम से जाना जाता है. वर्तमान में मन्दिर में एक गणेश प्रतिमा देखने को मिलती है. एक रात में बनने वाले मन्दिर को देखकर आश्चर्य होना स्वभाविक है.
जगदलपुर के मित्र/समधी श्री संतोष जी यादव का जिक्र किया जाना यहाँ प्रासंगिक होगा. यदि इनकी चर्चा न की जाए तो यात्रा अधूरी ही रहेगी
जगदलपुर पहुँचते ही मैंने आपको फ़ोन लगाकर सूचित किया कि मैं अपने तीन मित्रों के साथ यहाँ पहुँचा हुआ हूँ और आकाश होटेल में रुका हुआ हूँ. शाम को वे होटेल में पहुंचे और हम लोगों का भावभीना स्वागत किया. तथा दूसरे दिन हम लोगों को दावत भी दी. उन्हें हार्दिक धन्यवाद.
माँ दंतेश्वरी का जगप्रसिद्ध मन्दिर.
बस्तर संभाग मुख्यालय जगदलपुर से 85 किमी. की दूरी पर जगप्रसिद्ध दंतेश्वरी देवी का प्राचीन मन्दिर अवस्थित है. यह मन्दिर शंखनी और डंकनी नामक दो नदियों के संगम पर बना है. गर्भगृह में महिशासुर मर्दिनी माँ दंतेश्वरी की प्रतिमा स्थापित है, जो दंतेश्वरी देवी के नाम से प्रख्यात हैं.
यहां सती के दांत गिरे थे : दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा का प्रमुख आकर्षण है। यह देवी दंतेश्वरी को समर्पित है और यह 52 शक्तिपीठों (देवी के मंदिर) में से एक है। दंतेवाड़ा का नाम इस देवी के नाम पर पड़ा। देवी दंतेश्वरी इस स्थान की पारंपरिक पारिवारिक देवी हैं। कहानियों के अनुसार यह वह स्थान है जहां देवी सती का दांत गिरा था, क्योंकि यह वही समय था जब सत्य युग में सभी शक्ति पीठों का निर्माण हुआ था, अत: इस स्थान की देवी को दंतेश्वरी कहा गया। पौराणिक कथा के अनुसार, जब काकातिया वंश के राजा अन्नम देव यहां आए तब मां दंतेश्वरी ने उन्हें दर्शन दिये. तब अन्नम देव को देवी ने वरदान दिया कि जहां तक भी वह जा सकेगा, वहां तक देवी उनके साथ चलती रहेंगी. परंतु देवी ने राजा के सामने एक शर्त रखी थी कि इस दौरान राजा पीछे मुड़ कर नहीं देखेगा. अत: राजा जहां-जहां भी जाता, देवी उनके पीछे-पीछे चलती रहती, उतनी जमीन पर राजा का राज हो जाएगा। इस तरह से यह क्रम चलता रहा। अन्नम कई दिनों तक चलता रहा। चलते-चलते वह शंखिनी एंव डंकिनी नदियों के पास आ गया। उन नदियों को पार करते समय राजा को देवी की पायल की आवाज नहीं सुनाई पड़ी। उसे लगा कि कहीं देवीजी रूक तो नहीं गई। इसी आशंका के चलते उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, तो देवी नदी पार कर रही थीं। दंतेवाड़ा से कई लोककथाएं जुड़ी हुई हैं. मान्यता है कि दंतेश्वरी माता सोने की अंगूठी के रूप में यहां प्रकट हुई थीं। यहां के राजा कुल देवी के रूप में उनकी पूजा किया करते थे। शांत घने जंगलों के बीच स्थित यह मंदिर आध्यात्मिक शांति प्रदान करता है।
चित्रकोट जलप्रपात
चित्रकोट जलप्रपात -----
रायपुर से 340 किमी.तथा जगदलपुर से 40 किमी. की दूरी पर जगप्रसिद्ध चित्रकोट जलप्रपात स्थित है. यह मिनि नियाग्र जलप्रपात के नाम से भी जाना जाता है. नियाग्रा नाम की नदी के नाम पर इस जलप्रपात का नाम नियग्रा जलप्रपात पड़ा. नियाग्रा नदी करीब 70 फ़ीट की उँचाई से नीचे गिरते हुए इसकी संरचना करती है. करीब इसी तरह इण्द्रावती नदी 95 फ़ीट की उँचाई से नीचे गिरते हुए इसकी संरचना करती है. नियाग्रा जलप्रपात के कगारों की लंबाई 1060 फ़ीट (323 मीटर) है जबकि इसके कगारों की लंबाई मात्र 95 फ़ीट तथा चौड़ाई 980 फ़ीट है. दोनों नदियाँ के किनारे खड़े पहाड़ों की आकृति घोड़े की नाल के सदृष्य दिखाई देते हैं. बारिश के दिनों में चित्रकोट वाटरफ़ाल देखने लायक होता है. भीषण गर्जना के साथ गिरते हुए पानी जब सूर्य की किरणें पड़ती है तो इण्द्रधनुष ( सात रंगों से निर्मित इंद्रधनुष )का निर्माण होता है, जो पर्यटकों का मन मोह लेता है. यहाँ नौका विहार का भी आनन्द उठाया जा सकता है.
लगातार दो दिनों तक हम जगदलपुर में रुके और उपरोक्त सभी दर्शनीय स्थलों में भ्रमण करते हुए आनन्दित हुए. चूंकि 18 तारीख को रायपुर में एक व्यंग्य महोत्सव का आयोजन होना सुनिश्चित था. अतः हम 17 की सुबह रायपुर के लिए रवाना हुए. हम लोगों की ठहरने और भोजन की व्यवस्था रायपुर स्थित विप्रभवन में की गई थी. रात्रि विश्राम कर हम सभी ने सहित्यिक आयोजन में भाग लिया.
(II) ००००-००००
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दिनांक 18-11-2018 को प्रख्यात व्यंग्यकार श्री राजशेखर चौबेजी ने विप्र भवन, समता कालोनी में. श्री शुभाष चन्दर जी (वरि.व्यंग्यकार-समीक्षक ) की अध्यक्षता एवं श्री श्रवणकुमार उर्मलियाजी के मुख्य आतिथ्य में एक विशाल व्यंग्य महोत्सव का आयोजन किया, जिसमें देश के कोने-कोने से व्यंग्यकारों ने अपनी उपस्तिथि दी. कार्यक्रम काफ़ी सफ़ल रहा. व्यंग्य की गहराइयों और तेवर को लेकर अध्यक्ष जी ने विस्तार से प्रकाश डाला. आपने बतलाया कि रचना चाहे वह कविता हो, कहानी हो, लेख-आलेख हो अथवा साहित्यिक की कोई भी विधा हो, व्यंग्य का प्रयोग किया जा सकता है, अब यह रचनाकार पर निर्भर है कि वह उसे कितना धारदार बनाता है. यह लेखक के रचना-कौशल पर निर्भर है. व्यंग्य का प्रयोग करते समय उन्होंने रचनाकारों को चेताया भी कि इसका प्रयोग किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेकर नहीं किया जाना चाहिए बल्कि संकेतों के माध्यम. से तंज किया जाना चाहिए. रचना- विधान को लेकर अब तक कोई भी प्रमाणिक पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई थी. क्यों नहीं हुई ? इसके अनेकानेक कारण हो सकते हैं. लेकिन श्री सुभाष चन्दर जी ने व्यंग्य-विधान को लेकर एक पुस्तक लिखी है. आशा है कि यह विधान नए रचनाकारों का उचित मार्गदर्शन करता रहेगा.
व्यंग्य महोत्सव इन दो सत्रों पर केन्द्रित किया गया था.
(1) लोकार्पण एवं व्यंग्य संगोष्ठी (पूर्वान्ह 10 बजे से), विषय- व्यंग्य के मानक : व्यंग्य परिदृष्य की चौती
(2) सत्र- व्यंग्य पाठ एवं सम्मान समारोह (2.30 से 6.00 सायं)
इस समारोह के विशिष्ठ अतिथि थे- श्री विनोद साव, गिरीश पंकज, डा.महेन्द्र कुमार ठाकुर,श्रवणकुमार उर्मलिया अट्टहास पत्रिका के संपादक/व्यंगकार श्री अनूप श्रीवास्तव( महासचिव). प्रभा शंकर उपाध्याय,, कैलाश मंडलेकर, रामकिशोर उपाध्याय, अरूण अर्णव खरे, एम.एम.चन्द्रा, रजनीकांत वशिष्ठ, राजेन्द्र वर्मा, संजीव ठाकुर, सुशील यादव, डा.संगीता, डा.स्नेहलता पाठक, वीरेन्द्र सरल, उमाशंकर मनमौजी, वीणासिंह, विनोदकुमार विक्की, जितेन्द्र कुमार, के.पी सक्सेना “दूसरे, अनिल श्रीवास्तव, डा.ज्योति मिश्रा, रश्मी श्रीवास्तव, डा.सुधीर शर्मा, रवि श्रीवास्तव, ”गोवर्धन यादव, प्रो.राजेश्वर आनदेव आदि
कार्यक्रम के समापन से पूर्व आप सभी को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया.
डा.संजीव ठाकुर ने सभी साहित्यकारों एवं सभागार में उपस्थित जन समुदाय के प्रति धन्यवाद और आभार व्यक्त किया. इस तरह कार्यक्रम अपने पूरे गौरव एवं शालीनता के संपन्न हुआ.
कार्यक्रम के समापन के ठीक पश्चात प्रख्यात साहित्यकार/ प्रोफ़ेसर श्री सुधीर शर्मा जी ने हम पांचों मित्रों से अपने आवास पर पधारने का अनुरोध किया, जिसे हमने हृदय से स्वीकार किया .....
और आपके आवास पर जा पहुँचे. डा. श्रीमती तृषा शर्मा जी ने हम सभी का भावभीना स्वागत किया. यहाँ हमने सुस्वादु व्यंजनों का लुत्फ़ उठाया. हम सभी आपके इस स्नेहिल स्वागत-सत्कार के सदैव आभारी रहेंगे.
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गोवर्धन यादव
103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001 .
Email- goverdhanyadav44@gmail.com
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