रामलीला मेरे गांव की ---- 01 ----------------------------- अश्विन महीने में भक्ति के , रंग हजार देखती हूँ , हाँ , मैं अपने गांव में , राम...
रामलीला मेरे गांव की ---- 01
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अश्विन महीने में भक्ति के , रंग हजार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में , राम - दरबार देखती हूँ ।
बहू हूँ मैं यहाँ की , सो छिपते - छिपाते जाती हूँ ,
घूंघट नहीं सरकती , मर्यादा भी बचाए जाती हूँ ,
फिर हर्षित हो राम - सीता का श्रृंगार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
बच्चे - बूढ़े सभी में , उत्साह बड़ा भारी है ,
चूल्हे जले हैं जल्दी , रामलीला की तैयारी है ,
एक माह तक , अनोखा त्योहार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
अभिनय करने वाले भी , सभी मेरे अपने हैं ,
ये उत्सव सफल हो , सब ये कामना करते हैं ,
चूड़ी , साड़ी , और धोतियों का ,उपहार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
भेदभाव भूलकर सब , यहाँ दौड़े चले आते हैं ,
देव गण भी निज धाम से ,अविलम्ब चले आते हैं ,
दर्शन को लालायित नयन , हजार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
सुख की वर्षा यहाँ , अनवरत होती रहती है ,
स्वर्ग की चाह कभी , किसी को नहीं रहती है ।
हर हृदय में राम के प्रति , प्रेम अपार देखती हूँ ,
हाँ , मैं अपने गांव में राम - दरबार देखती हूँ ।
आदरणीय जन ... मेरे ससुराल में विगत लगभग 80--90 शालों से रामलीला का आयोजन अनवरत होते आ रहा है । ग्राम की सदभावना , भाईचारा ने मुझे प्रभावित किया । और मैं भगवान श्री राम की कृपा से मेरे अंतःकरण में स्व अनुभूति से इस रचना के बीज अंकुरित हुऐ जो पटल पर प्नस्तुत है ।
(ग्राम -हरला , पत्रालय -- महूआरी, थाना- सोनहन , जिला -- कैमुर , भभुआ प्रांत बिहार की संदर्भित संदर्भ है )
--------- गीता द्विवेदी
खत लिखती हूँ --- 02
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खत लिखती हूँ , इस आस से ,
कि तुमसे सहारा मिल जाए ,
जितने गिले , शिकवे जमा हैं ,
मेरे दिल में , सारे धूल जाएँ ।
पढ़कर जवाब जरूर देना ,
या हो सके तो आ ही जाना ,
मन मेरा एक बार फिर से ,
सुनहरे सपनों में खो जाए ।
देखा था पहली बार तुम्हें जब ,
दुनिया बड़ी खुशरंग लगी थी ,
फिर हुआ अचानक कुछ ऐसा
घिरते ही गए गम के साये ।
कहाँ हो , किस हाल में हो तुम ?
खबर नहीं है मुझे अरसे से ,
मगरूर हवा को क्या पड़ी जो ,
वो तुम्हारा पता बता जाए ।
आती - जाती साँसें अब भी ,
नाम तुम्हारा गुनगुना रही हैं ,
तुम ही बता दो कोई कैसे ,
बढ़ी धड़कनों पे काबू पाए ।
अभी बस इतना ही लिखना है ,
शेष बातें , तुमसे मिलने पर ,
लम्हा - लम्हा तुम्हें याद किया ,
कितना , ये राज न खुल जाए ।
खत लिखती हूँ , इस आस से ,
कि तुमसे सहारा मिल जाए ,
जितने गिले , शिकवे जमा हैं ,
मेरे दिल में सारे धूल जाएँ ।
-------गीता द्विवेदी
रात तो आएगी --- 03
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रात तो आएगी , आके फिर जाएगी ,
जाते - जाते दिल , दर्द में डुबाएगी ।
और कोई बात नहीं , फिक्र इतनी सी है ,
क्या तेरी याद मुझे , उम्र भर रुलाएगी ।
जख्म सी लूँ सारे , तुझे जताए बिना ,
लाली आँखों की , छिपाई नहीं जाएगी ।
गर इजाजत दे दूँ , मौन रह जाएं लब ,
पर मेरी नजरें तुझे , ढूंढने ही जाएंगी ।
दिल यूँ मायूस न हो , कर ले सब्र जरा ,
हसरतें तेरी कभी तो , सँवर जाएंगी ।
रात तो आएगी , आके फिर जाएगी ,
जाते - जाते दिल , दर्द में डुबाएगी ।
-------गीता द्विवेदी
मेरी दादी ---- 04
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अंजली में जल लेकर ,
अर्ध्य देती सूर्यदेव को ,
फिर बैठती आसन पर ,
लेकर तुलसी माला ।
रटती रहती राम नाम ,
साँझ ढ़ले सजा देती ,
तुलसी के चबूतरे पर
जगमगाती दीपमाला ।
हाथों में स्वर्ण कंगन ,
माथे पर रक्त चंदन ,
निर्मल वस्त्र पहनती ,
गले शुभ्र मोती माला ।
उसकी ही तपस्या से ,
खिला है अपना आंगन ,
करता तुम्हें नमन दादी ,
तुम्हारा पोता भोलाभाला।
------------ गीता द्विवेदी
तू मेरा दूल्हा --- 05
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तू मेरा दूल्हा मैं तेरी दूल्हन ,
देर न कर अब आ मोहन ।
बांध पगड़िया झालर वाली ,
पहनूं चूनर मैं गोटे वाली ,
सैर करा गोकुल गलियन का ,
चाहे मुझे ले चल मधुबन ।
यमुना तट पे बंशी बजाना,
मधुर - मधुर राग सुनाना ,
खो जाएं एक दूजे में हम ,
मैं सुगंध और तू चंदन ।
सास , ननद चाहे ताना मारें ,
कैसी आयी बहू घर हमारे ,
चिंता नहीं मुझे अब किसी की ,
मैं सजनी तू है मेरा सजन ।
जन्म - जन्म का साथ है हमारा ,
मैंने पाया तुझमें ही सहारा ,
आ जा देख मुझे तंग न कर ,
बरस पड़ेंगे मेरे नयन ।
तू मेरा दूल्हा मैं तेरी दुल्हन ,
देर न कर अब आ मोहन ।
------- गीता द्विवेदी
बेचारा जहर --- 06
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जहर बेचारा
सीधा - सादा अबोध
गूंगा , बहरा
जहाँ बैठा दो
जहाँ खड़े कर दो
चाहे सुला दो
या जगाए रखो ।
कोई भय नहीं
बेहद शरीफ है
अजी , कहा ना !
चूँ भी नहीं करेगा
सच ! बड़ा भोला है
अपना जहर
प्रेम के काबिल
नफरत करे कोई कैसे ?
बिगाड़ने की नीयत ही नहीं ।
छू लो , डाँटो , चाहे फटकारो
मार भी दो , दो थप्पड़
ओह ! कितना सीधा
चलो , अब जरा लेकर देखो
उसकी टाफी
जरूरी है न , ये परीक्षा भी
नतीजा क्या निकला ?
सीधापन फुर्र .....।
सीधे यमलोक पहुँचाएगा
या हास्पिटल
भ्रम में मत पड़ना
किसी के भोले चेहरे
और अच्छे बर्ताव से
पाला पड़े जब कभी
जहर जैसा असर
वो भी दिखा सकता है
सही कहा ना ।
शेर भूखा है ----07
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सदियों से , सृष्टि के नियम अनुकूल ,
हर काम होते चले गए ,
पर एक शेर भूखा था , आरंभ में ,
आज भी भूखा है ।
सभ्यता के जाल में ,
फँसकर छटपटाता है ,
जाल कोई काटता नहीं ,
संभवतः जाल वाला सभ्य भी नहीं ,
तभी तो शेर भूखा है ।।
मानवता सूंघता है ,
दयालुता चखता है ,
ममता नोचता है ,
सम्वेदना कुरेदता है ,
स्वाद समझ न आता ,
तभी तो शेर भूखा है ।।
गरीबी के मारे लोग ,
प्रकृति से दुत्कारे लोग ,
अपनों से हारे लोग ,
कमजोर , बेसहारे लोग ,
प्रिय तो हैं उसे बहुत ,
पर आधा खाकर उन्हें,
तड़पने को छोड़ देता है ,
तभी तो शेर भूखा है ।।
चलो कुछ प्रयत्न करें ,
पेट भर जाए उसका , जतन करें ,
लोभ , लालच , क्रोध , हिंसा ,
सब उसके आगे रखें ,
अच्छा हो , ये सभी भा जाएं उसे ,
अभी तो इनसे अछूता है ,
तभी तो शेर भूखा है ।।
--------गीता द्विवेदी
हाइकु ---- 08
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* - तितली आयी
फूल न आंगन में
उदास गई
* - रिश्तों के मोती
जुड़ते हैं प्रेम से
धागा अटूट
* - मण्डप मध्य
बैठे हैं वर - वधु
मंगलाचार
* - बैठ गौरेया
मुंडेर पे चहके
गुड़िया हँसी
* - केसर गंध
ले उड़ जा पवन
पिया हैं जहाँ
* - कतारबद्ध
हो जाएँ सारे तारे
राह निराली
* - श्याम की छवि
मन मन में बसी ऐसे
राधा लगूं मैं
* - प्रेम की सीमा
कब किसने जानी
है अंतहीन
* - सीप से मोती
निकला और भूला
अपना घर
* - विरही मन
पाए न चैन कहीं
आओ सजन
----- गीता द्विवेदी
भूमि उर लेटी माँ --09
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भूमि उर लेटी माँ , सगुण रुप धारी है ,
जाग जाओ, जाग माँ , ये विनती हमारी है ।
रावण के पाप से है , धरा अकुला रही ,
बढ़े अत्याचार से , सृष्टि तिलमिला रही ,
फूट जाए घड़ा पाप का जो हुआ भारी है ।
जाग जाओ ......................................।।
डूबे हैं संताप में , संत ऋषि , मुनि, ज्ञानी ,
नाश करे धर्म का , करके वो मनमानी ,
वर लिया शिव से , इसी का मद भारी है ।
जाग जाओ .............................।।
महाराज जनक जी के , भवन पधार लो ,
महारानी सुनैना जी से , स्नेह दुलार लो ,
कहेंगे वो अलौकिक , कन्या अवतारी है ।
जाग जाओ .......................................।।
त्रिशूल , तलवार , मुसल , खेटक नहीं ,
रौद्ररूप नरमुंड , कर में खप्पर नहीं ,
तृण से तपेगा जो कायर दुराचारी है ।
जाग जाओ ......................................।।
बंधन छुड़ाओ माता , जगत के जीवों का ,
दुख , दाह हरो देवी , हम सब देवों का ,
त्राहि - त्राहि कर रहे , बड़ी ही लाचारी है ।
जाग जाओ .................।।
----- गीता द्विवेदी
आधुनिक कविता
दण्डित तो होगा--- 10
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मोमबत्ती की लौ पर
हथेली रख दी हैं मैंने
एक ताप से
मुक्ति पाने के लिये ।
पर दोनों ताप समान हैं,
समान तप रहे हैं-
हथेली और हृदय!
मोमबत्ती गल जायेगी,
हथेली शीतल हो जायेगी
और हृदय ......
वो कैसे शीतल हो ?
विरह गलता नहीं,
इसलिये हृदय को
सारी रात तपना है,
सारा दिन भी
या तब तक
जब तक वो आता नहीं!
वो कब आएगा?
ये प्रश्न अनुत्तरित है अभी,
तो फिर तपे हृदय---
दोषी तो ये भी कम नहीं,
दण्डित तो होगा
निश्चित ही
हाँ ......निश्चित ही !!!
-----गीता द्विवेदी
ऐसे न देखो मुझे ----11
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ऐसे न देखो मुझे ,
कि मैं केवल एक स्त्री हूँ ,
मुझमें माँ , बहन , बेटी ,
और गृह - लक्ष्मी का रूप ,
भी निहार लो।
माथे पर मर्यादा का आँचल ,
आँखों में ममता का सागर ,
हाथों में सेवा का गागर ,
हो सके तो इनसे अपना ,
जीवन सँवार लो ।
आस्था रखती हूँ मानवता में ,
अटूट संबंध है दयालुता से ,
तप ही मेरा सर्वोत्तम गहना ,
इस गहने से तुम भी अपना ,
सहज श्रृंगार लो ।
हृदय भी है धड़कने वाला ,
अच्छा - बुरा समझने वाला ,
अनादर की अधिकारिणी ,
न थी कभी , न हूँ अभी ,
अपनी भूल सुधार लो ।
पिता , पुत्र , और भाई सम ,
जब तुम्हें देख सकती हूँ मैं ,
तब तुम क्यों भ्रमित होते हो ?
करोगे सदा सम्मान मेरा ,
अडिगता का प्रण , स्वीकार लो ।
------ गीता द्विवेदी
मृत्यु आती है ----12
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मृत्यु आती है ,
सदियों से अकेले ही ,
बार - बार , हजार बार
लाखों , करोड़ों , अरबों बार ।
पर अकेले जाती नहीं ,
ले जाती है अपने साथ ,
उन्हें , जिन्हें ले जाना चाहती है ।
एक , दो या हजार
कुछ भयभीत रहते हैं ,
उसके नाम से , उसकी छाया से ,
कुछ आलिंगन करते हैं सहर्ष ,
देश के लिए , धर्म के लिए ।
कुछ आमंत्रित करते हैं ,
ईर्ष्यावश दूसरों के लिए ।
स्वयं डरते हैं ,
जैसे प्रेतनी है ।
कुछ लोगों का कहना है कि ,
निगल लेती है सबको ,
अजगरी सी .......
तब एक प्रश्न निर्मित होता है ,
कभी उसकी क्षुधा शांत हुई या नहीं ?
निःसंदेह नहीं ..... क्योंकि ...
ऐसा कोई दिन , महिना , वर्ष नहीं ,
जब उसकी परछाईं ,
किसी ने भी न देखी हो ...
अब ये भी परम सत्य है ,
वो आती रहेगी , प्रलय तक ,
ले जाएगी सबको पारी-पारी ,
तो उसके आने से पहले ,
क्यों न कुछ ऐसा प्रबंध करें ,
कि उसके साथ जाने का ,
पश्चात न हो ,
मुड़कर देखें भी नहीं ,
हो सके तो कुछ चिन्ह छोड़ दें ,
स्वर्णिम , चिरस्थायी , यश चिन्ह ,
यही श्रेष्ठ होगा ,
सार्थक भी ।
सरगुजिहा गीत ----13
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मोर सरग जइसन गांव
मोर सरग जइसन गांव
परसागुड़ी येकर नांव
मोर सरग जइसन गांव
परसा , महुआ , डहू , इमली ,
फुले फुल अउ उड़े तितली ,
खेत - कियारी मह - मह करे ,
लछमी बइठे येही ठावं ।
मोर - - - - - - - - - - - -।।
निरमल तरिया येला जुड़ाथें ,
गुड़ी दाइ कर चरन धोवाथें ,
संकर कर किरपा हे अब्बड़ ,
मय उनकर जस ला गावं ।
मोर - - - - - - - - - - - -- ।।
गुरतुर बोली लोग बोलथें ,
नान - बड़ जम्मो मिलके रइथें ,
एगो रुख के पतई जइसन ,
बैर ला कहों नी पावं ।
मोर - - - - - - - - - - -।।
---------- गीता द्विवेदी
क्या सोच चले आए सपेरा ---14
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क्या सोंच चले आए सपेरे ?
मेरे घर कोई साँप नहीं ,
पूजा करते हैं , दूध पिलाते ,
हत्या का करते पाप नहीं ।
आ ही गए तो बीन बजाओ ,
शायद कहीं दुबका होगा ,
घर में तो कोई बिल नहीं ,
चूहा देख लपका होगा ।
या किसी जन्म का बैर लिये ,
आया हो , कुछ कह नहीं सकता ,
देख लिया , उसे फन फैलाए ,
सच कहूँ , खड़ा रह नहीं सकता ।
लपकती जीभ , अपलक आँखें ,
देख भ्रमित न हो जाना ,
मानव की भी पहचान ये ,
जो मुझमे भी तुमने जाना
चलो , बता ही दूँ तुमको ,
अपना कान इधर लाओ ,
कुछ ले देकर चलते बनो ,
मेरा मान सुरक्षित कर जाओ ।
ये क्या ! तुम तो हँसने लगे ,
जहर मेरा परखने लगे ,
गठरी , बीन समेट कर कैसे ,
धीरे - धीरे खिसकने लगे ।
चलो , जल्दी ही समझ गए ,
वर्ना नाहक ही पछताते ,
रोजी - रोटी छिनती ही छिनती ,
जान से भी निश्चित जाते ।
----------गीता द्विवेदी
प्रेम की बूँद भी अधिक सुहावे ---15
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मूँद अखियाँ भरमावे सभी को ,
कहता है मेरा ध्यान लगावे ।
कोई संकेत न मेरी तरफ से ,
स्वयं से ही योगी, संत कहावे ।
बन न सका है अभी नर पूरा ,
नारायण की उपाधि पावे ।
नाम लिखा मेरा पाहन पर तो ,
पाहन भी कभी डूब न पावे ।
नाम लिखा एक हनुमत ने मेरा ,
जग में एक वो ही अमर कहावे ।
लिख ले तू भी स्व-हृदय पर ,
दूजा शब्द सिया ही सुहावे ।
ताक न राह अधीर कभी हो ,
दूर कहाँ मैं जो तू बुलावे ।
साहस नहीं जूठे फल खिला दे ,
ये मंत्र तो शबरी को ही भावे ।
ला थोड़ा जल दे प्यास लगी है ,
प्रेम की बूँद भी अधिक सुहावे ।
आऊँगा ले मुरली भी कभी मैं ,
बैठूँ वहीं जहाँ वृंदा लहरावे ।
---- गीता द्विवेदी
सजल ----16
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हमें इस कदर वो सताने लगे हैं ,
बहुत नीचा हमको दिखाने लगे हैं
मचलती नदी तट बड़ा है भयावह ,
दिखा कर हमें वो डराने लगे हैं ।
उन्हें प्रेम था या अभी हो गया है,
बताते न नजरें बचाने लगे हैं ।
सुनाते भ्रमर को तो कुछ बात होती
वो फूलों को दुखड़ा सुनाने लगे हैं ।
भटकते रहे वो गमों की गली में ,
सुखद मोड़ अब रास आने लगे हैं ।
उन्हें भा गई जब हमारी तबस्सुम,
तो पतझार सावन बताने लगे हैं ।
------ गीता द्विवेदी
दहेज बेल सूख जाए ----17
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मेरी गली के एक आंगन में ,
एक गमला मुस्कुराता है ,
उस गमले में एक पौधा ,
सगर्व सिर उठाता है ।
उस पौधे में एक फूल ,
कोई गीत गुनगुनाता है ।
पौधे की मिट्टी भी ,
महक - महक जाती है ,
पास एक चिड़िया ,
चहक - चहक जाती है ।
दोनों को इंतजार है
कि सूरज कब उगे और ,
वे रोशनी से नहाएं ।
ऐसा रोज ही होता है ,
न आंगन बड़ा होता है ,
न गमला ही बढ़ता है ।
पौधा भी सीमित दायरे में ,
तन्हा सा रहता है ।
फूल रोज खिलता ,
रोज मुरझाता है ,
चिड़िया भी चहक कर रोज ,
दूर चली जाती है ।
बढ़ता है उस आंगन में ,
हर रोज सन्नाटा ।
चिंताएं पसरती ,
सूनापन छाता है ।
क्योंकि वहाँ पर ,
कुछ और बढ़ता जाता है ।
जानना चाहते हो क्या ?
वहाँ एक बालिका ,
तेजी से बढ़ती जाती है ,
साथ ही दहेज की एक बेल
भी पसरती चली जाती है ।
सिर पकड़े कभी - कभी
पिता भी नजर आता है ।
चहकती चिड़िया अब ,
दुख बदली बन गई है ।
दुखती नजरों से विवश
कातर तितली बन गई है ।
दहेज की बेल तो ,
बस पसरती जाती है ,
बेबस पिता की आँखों से ,
नींद फिसलती जाती है ।
प्यार करने को माँ ,
जब बाहें फैलाती है ,
बेटी कहीं दूर
दहेज की ही
धूंध में खो जाती है ।
मैं भी देखता हूँ
आते - जाते दहेज बेल को ,
चाहता हूँ , उखाड़ फेंक दूँ ......
पर वश चलता नहीं ,
शायद निर्बल हूँ ।
अब इसी आस में हूँ कि
अबकी सावन न बरसे .......
वो बेल सूख जाए ।
आंगन में रह जाए ,
सिर्फ़ एक गमला ,
गमले में फूल ,
और चहकती चिड़िया ,
हरदम चहकती चिड़िया ।
-------गीता द्विवेदी
चाँद है जरा हटकर ----18
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चाँद ने कहा बच्चों से ,
मुझे ले चलो अपने घर,
उंगली थामकर चलुंगा ,
जिधर कहो मुड़ुं उधर ।
बच्चों ने भी मानी बात ,
उतारने चले हैं आज ,
सीढ़ी कहीं मिली नहीं ,
उछाल दी गेंद कहकर ।
आ गिरा चाँद भूमि पर
झट से उठ खड़ा हुआ ,
उछला, कूदा खूब हँसा ,
बच्चे प्रसन्न उसे पाकर ।
कहा सबने एक साथ ,
चलो अब हमारे घर ,
मिश्री,मेवे,बरफी, पेड़े ,
खिलांएगे जी भरकर।
रेशमी कपड़े पहनना ,
माँ ने बुना वो स्वेटर ,
ये सुन के चाँद ने कहा ,
मैं तो हूँ जरा हटकर ।
ठण्डा - ठण्डा रहता हूँ ,
घटता , बढ़ता रहता हूँ ,
सोउंगा तुम्हारे साथ ही ,
पर कम्बल ओढ़ कर ।
-------- गीता द्विवेदी
अम्बिकापुर ,सरगुजा (छत्तीसगढ़)
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