बातें भी आखिर कितनी की जा सकती है जब कोई मुद्दा न हो। और फिर ऐसी जगह बातें करना तो व्यर्थ ही लगता है जहां सभी को चुप रहने की हिदायत दी गई हो...
बातें भी आखिर कितनी की जा सकती है जब कोई मुद्दा न हो। और फिर ऐसी जगह बातें करना तो व्यर्थ ही लगता है जहां सभी को चुप रहने की हिदायत दी गई हो। हम भी चुप थे और इस इंतजार में थे कि कब ये इंतज़ार खत्म होगा। हरी घास के बीच बैठे हुए हम किसी पशु से कम नहीं लग रहे थे परन्तु मनुष्य होने के अपने स्वार्थी हिंसक भाव को छोड़ नहीं पा रहे थे। कभी हम में से कोई घास को उखाड़ रहा होता तो कभी घास के बीच खिले जंगली फूलों में अपना शिकार बनाता। घास भी काफी बड़ी थी और हम उसमें बैठे थे तो इस तरह कि दूर से किसी को शायद हमारी खोपड़ियाँ ही दिखाई दे। इंतज़ार लम्बा हो रहा था और वक्त गुज़रने के साथ हम शरीर और मन दोनों में आलस्य का अनुभव कर रहे थे।
अचानक खीमाजी ने कहा, वो दिखा...... देखो.....देखो। और हम सभी ने मानों प्राणों का संचार हो गया। हमारी आँखें दूर झाडियों में कहीं उस दुर्लभ पक्षी को खोजने लगी। हमारी आँखें जो बाज़ारी चीज़ों को देखने की आदी हो चुकी थी, भला कैसे किसी पक्षी को देख पाती। खीमाजी ने फिर इशारा किया। उसने दूर घास के बीच एक झाड़ी की ओर अंगुली दिखाते हुए कहा, ‘‘उधर देखो, वहीं है। अभी तो उछला था।’’ हम सभी उधर देखने लगें। हमें कहीं कुछ नज़र नहीं आया। दूर तक घास ही घास दिखाई दे रही थी।
हमारी हालत देख खीमाजी ने सहजता से कहा, ‘‘बाबूजी पक्षी को देखने के लिए पक्षी बनना पड़ता है। अपने आप को भूल जाओ और देखो उस तरफ अभी दिखाई देगा।’’ खीमाजी की बात हमें झकझोर गई। जाहिर सी बात थी हमारे हाव-भाव और यहाँ तक कि हमारी लापरवाही को देखे कोई भी नहीं समझ सकता था कि हम उस दुर्लभ पक्षी को देखने के लिए यहां आए हैं, जिसे देखने के लिए देश भर के लोग आते हैं। खीमाजी का हमें ऐसा कहना मुझे तो बुरा नहीं लगा। खीमाजी ने फिर कहा, ‘‘सुनो, ये जो आवाज़ सुन रहे हैं न .......यह उसी की है।’’
मैंने कहा, ‘‘ये आवाज़। हाँ सुनाई तो दे रही है।’’
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खीमाजी ने कहा, ‘‘यह नहीं...... यह तो गौरेया है। ध्यान से सुनो। बीप की तरह पी पी आवाज़........।’’
इस बार हमें आवाज़ सुनाई दी। मन में ऐसा आभास हुआ कि अपने इतने लम्बे कर्कशता भरे जीवन में पहली बार कोई मधुर आवाज़ सुनी हो।
खीमाजी ने अपनी गर्दन में बांधा दूरबीन निकाला और आंखों पर लगाकर उस दुर्लभ पक्षी को खोज शुरू की। जिधर से पी.पी. की आवाज़ आ रही थी, उधर देख रहा था खीमाजी। दो मिनट ही हुए होंगे कि खीमाजी बोल पड़ा, ‘‘वो रहा, उधर देखो।’’ हम सभी की निगाहें उसकी बताई दिशा की तरफ मुड़ गई। हमें अब भी घास के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। खीमाजी ने अपना दूरबीन दिया। हमने बारी-बारी से आँख पर दूरबीन लगाकर उसे देखने की कोशिश की मग़र कोई सफल नहीं हो सका। खीमाजी को हमारी हालत पर तरस आ रहा था और हमें उस पर ।शायद वह सोच रहा था कि एक पक्षी को देखने में हमें कितना वक्त लग रहा है और हम सोच रहे थे कि ये इतना अनुभवी व्यक्ति एक पक्षी नहीं दिखा पा रहा है। बल्कि इधर-उधर बताकर हमें बेवकूफ अलग साबित कर रहा है।
खीमाजी इस इलाके में तीस साल से है। कभी पास के किसी गांव में रहा करता था पर जब से वन विभाग में नौकरी मिली, यहीं का होकर रह गया। हमने समझा था कि इतने अनुभवी व्यक्ति को साथ रखेंगे तो दुर्लभ पक्षी को देख ही लेंगे, मग़र इधर तो मामला अलग ही दिख रहा था।
हरी घास के बीच में बैठे हम सभी पर आलस हावी होता जा रहा था। रोज हमारे जैसे कितने ही लोगों को आजमाता रहा खीमाजी हमारी इस हालत पर आश्चर्यचकित नहीं था। हमारी ऊब को दूर करने की गरज से उसने बातें शुरू की थी। कहने लगा, ‘‘आप क्या जानते हैं हंस पक्षी के बारे में?’’ यह हमारे लिए अप्रत्याशित प्रश्न था और हममें से कोई भी इस सवाल के लिए तैयार नहीं था। अचकचाते हुए मैंने कहा, ‘‘ज्यादा कुछ नहीं। बस इतना ही कि सैलाना के इस इलाके में दुर्लभ पक्षी आते हैं, और पक्षी को देखने वाले दूर-दूर से पहुंचते हैं।’’
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‘‘यह भी क्या बात हुई?’’ खीमाजी बोला, ‘‘जिसके बारे में कुछ भी नहीं पता हो, उसे देखने से क्या हासिल होगा?’’ खीमाजी का कहना ठीक था। इसे तो हमारी प्रायवेट नौकरी में घुट्टी में पिलाया जाता है कि किसी भी टारगेट को पाने के पहले अपना ‘होम वर्क’ मजबूत करना चाहिए। हम ऐसा करते भी हैं। मग़र यहाँ बिना जानकारी के कैसे आ गए?
खीमाजी फिर बोलने लगा, ‘‘तभी तो मैं कहूं कि आपको खरमोर दिखाई क्यूं नहीं दे रहा है? आप न तो इसके नाम से वाकिफ हैं और न ही इसकी प्रकृति से। तो फिर आप कैसे उस तक पहुँचेंगे भला। ’’
इस बार लगा खीमाजी ने हमें जोरदार तमाचा मारा है। उस गलती के लिए जिसे हमें स्वीकार करना ही होगा। हमें अपनी विद्वता, ज्ञान और शहरी चोंचलों को खीमाजी के सामने नतमस्तक करने में ही भलाई दिखी। अपनी भूल को स्वीकार करते हुए हमने ही खीमाजी के सामने प्रस्ताव रखा कि वह इस पक्षी के बारे में बताए जिसका नाम अभी-अभी उसने ‘खरमोर’ बताया था।
अपनी नज़रों को घासबीड़ में घुमाते हुए खीमाजी कहने लगा, ‘‘तीस साल से देख रहा हूँ बाबू। न जाने कब से यहाँ आ रहे हैं ये खरमोर। आते भी हैं तो अपने परिवार को बढ़ाने के लिए।’’
मैंने आश्चर्यचकित होकर पूछा ‘‘परिवार को बढ़ाने के लिए?’’ हाँ, बाबू। परिवार को बढ़ाने के लिए ही तो आते है यहां। बारिश की शुरूआत होते ही इनका सैलाना में आना शुरू हो जाता है। जानते हैं ,यहां के लोग तो इन्हें समझते ही नहीं थे। कोई इन्हें मोर कहता तो कोई मुर्गा। मग़र एक बार यहां प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ सालीम अली आए। दो माह तक यहीं रहे। जिस जगह आप बैठे हैं न ऐसी ही घास में दिन-दिन बैठे रहते थे। आखिरकार उन्होंने इस पक्षी को देख ही लिया और पहचान भी लिया। उन्होंने ही दुनिया को बताया कि सैलाना में वर्षाकाल में आने वाला यह प्रवासी पक्षी खरमोर है।’’ खीमाजी बोले जा रहा था। हमें लग रहा था कि वह इसी तरह बोलता रहे ताकि हमें खरमोर के बारे में अधिक से अधिक जानकारी मिल जाए। खीमाजी घास की तरफ अपनी निगाहें दौड़ा रहा था।
मैंने पूछा, ‘‘और कुछ बताओ। सालीम अली साहब ने और क्या बताया था खरमोर के बारे में।’’
मेरे ऊँचे स्वर पर खीमाजी नाराज हो गया। बोला, ‘‘बाबू धीरे बोलो। ज़रा सी हलचल पर खरमोर सतर्क हो जाता है। बहुत ही शर्मीला पक्षी है यह। दिन-दिन भर घास से बाहर नहीं आता है।’’
‘‘यानी घास में ही छुपा रहता है?’’
‘‘हाँ। सुबह और शाम को ही दिखाई देता है, वह भी अपनी जगह पर उछलता-कूदता।’’
‘‘ऐसा क्यों? क्या नर और मादा दोनों ही ऐसा करते है?’’
‘‘बाबू, मैंने कहा न। बहुत ही शर्मीला होता है यह। उतना ही सुन्दर भी। आपने अपनी ज़िन्दगी में जितने भी सुन्दर पक्षी देखे हैं उनमें सबसे सुन्दर और जितने भी शर्मीले पक्षी देखे हैं उनमें सबसे अधिक शर्मीला।’’
‘‘तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे तुमने इसे हाथ लगाकर देखा हो।’’
‘‘बिल्कुल बाबू। हमने इन्हीं हाथों में इस पक्षी को उठाया था। तब सरकार का आदेश आया था। सालीम अली साहब ने जब बड़े साहबों को खरमोर के बारे में बताया था तब इनकी गिनती करने का सिलसिला शुरू हुआ था। हमने इन्हीं हाथों में उठाकर खरमोर के पैर में निशान लगाया था।’’
यह कहते हुए खीमाजी के हाथ हमारे सामने फैले थे। आँखों में आंसू बाहर आने को बेताब थे। बात आगे बढ़ाते हुए मैंने कहा, ‘‘अच्छा, तुमने तो इतने करीब से देखा है खरमोर को। कैसे होते हैं, बताओ न। कभी आज न देख पाए तो हम तुमसे सुनकर ही खरमोर को देखने का अहसास का लेंगे।’’ अपनी हथेलियों से नम आंखों को पोंछते हुए खीमाजी कहने लगा, ‘‘ऐसा क्यूं सोचते हैं? उसे आज देखेंगे और आज ही नर को भी देखेंगे और मादा को भी। हाँ, बाबू, उनकी भी एक खासियत होती है। नर काला और सफेद रंग का होता है तो मादा भूरे रंग की। यहां आने के बाद प्रजनन के लिए स्थान का चयन करना और उसकी रक्षा करना नर का दायित्व होता हैं ।मादा को इस दौरान पूरा आराम दिया जाता है।’’
‘‘वाह, क्या समन्वय है।’’ मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘इतनी अंडरस्टेरिंडग तो हमारे बीच भी नहीं होती है। महिलाओं पर रोज जुल्म करने वाले हम जैसों को खरमोर से इतना तो सीखना ही चाहिए।’’
खीमाजी अपनी रौ में कहता ही जा रहा था, ‘‘और, बाबू जब नर अपने लिए उपयुक्त स्थान का चयन कर लेता है तो कूद-कूद कर इसकी सूचना दूसरे साथियों को देता है। जैसे कह रहा है हो, इधर मत आना।’’
‘‘अरे, यहाँ तो हमारी ही तरह हो गया न?’’
‘‘ना, बाबू। ये इसलिए भी कूदता है ताकि मादा को आकर्षित कर सके। इसके लिए यह बीप की आवाज़ भी करता है। ये तो सुन रहे हैं न हम।’’
‘‘लेकिन् ये आते कहां से हैं?’’
‘‘बाबूजी, हमने तो इतने बरसों में यही सुना कि एक सदी पहले तक खरमोर हिमालय की तराई से दक्षिण भारत तक पाये जाते थे, मग़र इंसान की नज़र से भला कब तक बच पाते।’’
‘‘इंसान ने तो अच्छे-अच्छों का खत्म कर दिया है, तो ये तो बेचारे इतने शर्मीले और शांत हैं। ये कैसे बचते?’’
‘‘मग़र नहीं, अब भी खरमोर दक्षिण भारत से यहां सैलाना में आते है हर साल इसी बारिश के मौसम में।’’
मुझ खरमोर के इस स्थान से प्रेम के प्रति जानकर आश्चर्य हुआ। किसी इंसान को ऐसा लगाव किसी स्थान से हो यह तो सुना था मगर किसी पक्षी को इस तरह लगाव हो कि हजारों मील का सफ़र तय कर वह अपने परिवार को बढ़ाने के लिए यहां सैलाना आए। वही सैलाना जो अब तक जिला भी नहीं बन पाया है और रतलाम जिले का ही एक छोटा से भाग हैं।
‘‘इस जगह में ऐसी क्या खास बात है, जो खरमोर इतनी दूर चले आते हैं।’’ मैंने जानना चाहा।
‘‘क्या आपको यहाँ आकर अच्छा नहीं लगा?’’ मेरे सवाल के जवाब में खीमाजी का सवाल मुझे अनुत्तरित कर गया। इतना सुंदर और शांत स्थल किसे पसंद न आएगा भला। दूर तक हरियाली, पहाड़, तालाब । लगता है, यहीं रहा जाए।
‘‘कहां खो गए बाबू?’’ खीमा ने ध्यान भंग किया। ‘‘यहाँ आने वाला हर व्यक्ति यहीं का हो कर रह जाता है। फिर खरमोर भला कैसे भूल सकता है, इस जगह को? हर साल खरमोर दूरी को नज़रअंदाज़ कर सैलाना आते हैं और यहीं प्रजनन कर अपने बच्चों को साथ लेकर उड़ जाते हैं।’’
‘‘क्या प्लानिंग हैं।’’ मेरे मुंह से निकल पड़ा। ‘‘अपने वंश को बढ़ाने के लिए इतना जोखिम उठाने की प्रवृत्ति तो हम इंसानों में नहीं है। हम या तो अपनी परेशानियों से घबराकर या फिर अधिक संपत्ति को खर्च करने के उद्देश्य से ही ऐसे मनोरम स्थान पर जाते है। कभी अपने परिवार के प्रति या बच्चों के प्रति हम इस तरह की प्लानिंग नहीं कर पाते हैं।’’
‘‘इसलिए तो खरमोर, खरमोर है और हम,हम।’’ खीमाजी का यह वाक्य सीधे मेरे दिल में तीर सा घुसा। मैं संभल पाता इससे पहले खीमाजी ने मेरा हाथ जोर से पकड़ा। धीरे से बोला, ‘‘वो देखो बाबू, खरमोर। यहीं हमारे बिल्कुल पास।’’
इस बार हमें बीस कदम की दूरी पर घास के बीच से बाहर आती उसकी कलंगी दिखाई दी। खीमाजी बोला, ‘‘बाबू चुपचाप रहो, अभी यह कूदेगा।’’
कुछ ही पलों में खरमोर अपने ही स्थान पर कूदा। वह बार-बार कूद रहा था। अपने जीवन साथी को बुलाने के लिए बीप की आवाज़ कर रहा था। उछलते-कूदते खरमोर को देख हम सभी विस्मित थे। इतना सुन्दर शर्मीला, नाजुक पक्षी हमने अब तक नहीं देखा था। कुछ ही देर बाद खरमोर ने कूदना बन्द कर दिया।
खीमाजी बोला, ‘‘बाबू, शायद उसे हमारे यहां होने का आभास हो गया है। वह छुप गया है। हम जैसे इंसानों से ही खौफ रह गया है खरमोर को।’’
हम अपलक अब तक उसी दिशा में देख रहे थे, जिधर खरमोर कूद रहा था। उसकी छवि हमारी आँखों में कैद हो चुकी थी। दिलों पर अंकित खरमोर की छुअन बार-बार हमसे कह रही थी एक पल के लिए ही सही, हम भी खरमोर बन कर तो देखें।
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संक्षिप्त परिचय
नाम - आशीष दशोत्तर
जन्म - 05 अक्टूबर 1972
शिक्षा - 1. एम.एस.सी. (भौतिक शास्त्र)
2. एम.ए. (हिन्दी)
3. एल-एल.बी.
4. बी.एड
5. बी.जे.एम.सी.
6. स्नातकोत्तर में हिन्दी पत्रकारिता पर विशेष अध्ययन।
प्रकाशन - 1 मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा काव्य संग्रह-खुशियाँ कैद नहीं होती-का प्रकाशन।
2 ग़ज़ल संग्रह 'लकीरें',
3 भगतसिंह की पत्रकारिता पर केंद्रित पुस्तक-समर में शब्द-प्रकाशित
4 नवसाक्षर लेखन के तहत पांच कहानी पुस्तकें प्रकाशित। आठ वृत्तचित्रों में संवाद लेखन एवं पार्श्व स्वर।
5. कहानी संग्रह 'चे पा और टिहिया' प्रकाशित।
पुरस्कार - 1. साहित्य अकादमी म.प्र. द्वारा युवा लेखन के तहत पुरस्कार।
2. साहित्य अमृत द्वारा युवा व्यंग्य लेखन पुरस्कार।
3. म.प्र. शासन द्वारा आयोजित अस्पृश्यता निवारणार्थ गीत लेखन स्पर्धा में पुरस्कृत।
4. साहित्य गौरव पुरस्कार।
5, किताबघर प्रकाशन के आर्य स्मृति सम्मान के तहत
कहानी, संकलन हेतु चयनित एवं प्रकाशित।
6. साक्षरता मित्र राज्य स्तरीय सम्मान
सम्प्रति - आठ वर्षों तक पत्रकारिता के उपरान्त अब शासकीय सेवा में।
संपर्क - 12@2,कोमल नगर,बरबड़ रोड
रतलाम (म.प्र.) 457001
E-mail- ashish.dashottar@yahoo.com
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