कवि की यथार्थता कोरे कागज पर कुछ लिखा शब्दों की व्यंजना को उकेरा बना कविता का नया चेहरा। एक एक शब्दों को पिरोया माला बनाने के लिए खुद क...
कवि की यथार्थता
कोरे कागज पर कुछ लिखा
शब्दों की व्यंजना को उकेरा
बना कविता का नया चेहरा।
एक एक शब्दों को पिरोया
माला बनाने के लिए खुद को भिगोया
अभिव्यक्ति और विचारों में
चिंतन मंथन के भावों में
कृतज्ञ बने उस ईश्वर के
जिसने शब्दों को समेटना सिखाया।
मर्मव्यथा को लिख डाला कागज पर
दंश और वेदना को लिख डाला कागज पर
प्रचण्ड ना बन पाई ये आवाजें
दब गई कागजों में।
विस्तार ना हुआ इन कविताओं का
विस्तार ना हुआ कवि के भावों का
टूट गया कवि का विश्वास
लिखने के लिए कौन जगाये आस
यूं ही कुछ लिखा कोरे कागज पर
आवाज लगी भरे हुए मन पर
स्वयं ने ही लिखा
स्वयं ने ही पढा।
अच्छा लगा उसका लिखा हुआ
लिखता गया हर मर्तबा
लिखता गया हर मर्तबा...
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बचपन को बुलाये जवानी
गिरके उठ जायेंगे, संभल जायेंगे।
नींद से जाग कर चाय की चुस्कियां भी ले लेंगे।।
नहा कर विद्यालय भी चले जायेंगे।
कल की लड़ाई आज सुलझा भी लेंगे।।
फिर हंसते हंसते ताली बजा भी लेंगे।
गुरुजी की नजर बचाकर कुछ चबा भी लेंगे।।
बीच की छुट्टी में नजर बचाकर,
कही गपशप करके आ भी जायेंगे।।
फिर वापस उस कक्षा में नींद की झपकी भी लेंगे।
रात में फिर सपनों में हंसी ठिठोली कर लेंगे।।
सुबह की मस्ती में फिर झूम लेंगे।
बारिश में नाच गाकर झूम लेंगे ॥
चलती राह में फिर किसी को छेड़ लेंगे।
बचपन के दिन यूं ही गुजर जायेंगे।।
जब आयेगी जवानी तो ये यादें तड़पायेगी।
सोचते रहेंगे हम काश एक दिन और मिल जायें।।
ये परिवार की सोच कुछ बदल जाये।
हम भी जवानी से बचपन में उतर जाये
काश ये संभव हो जाये
झगड़े को मिटाए, दादाजी की डांट खायें।
उस पैदल राह में फिर किसी को छेड़ जाये।
काश! ये टेक्नोलॉजी विज्ञान अपनाये।।
जवानी में चारों और टेंशन घिर आये।
कभी किसी का कॉल तो,
कभी बिजली का बिल भी आयें।।
इसे ना अटेंड करें तो नाराज कोई हो जाये।
बिल को ना संभाले तो घर वाले कहर बरसाये।।
ये जवानी हाय क्या क्या रुप दिखायें।
कभी यहाँ जाना कभी वहाँ,
कॉलेज में दिन बिताये।
कभी शादी,कभी मृत्युभोज,
पिताजी का निर्देश हम हो गये बूढ़े
कही आने जाने का काम बेटे निभायें।।
चारों ओर का झंझट भरी जवानी में आयें।
ना मिल पाते दोस्तों से, ना खेल सकते खेल नये।।
अब वो बचपन याद आयें।
सब जोड़ते थे दोनों हाथ ये बच्चे कब
घर से बाहर जायें।
पर अब जवानी में सोचते हैं
कब बेटा घर आये।।
कितना प्यार होता है बचपन।
कुछ भी कर लो सब कहते हैं भोलापन ॥
गुंडागर्दी जब करते थे बचपन में लोग कहते आवारापन।
जवानी में ये सब, उलट फेर हो जायें।
बचपन की यादें तड़पाये
दोस्त की टोलियों में अब यादें ही बीत जायें॥
पर बचपन ना आ पाये।
हाय-हाय ये जवानी आंसू खून के रुलाये
बङा ही तड़पाये, काश बचपन
फिर आ जायें॥
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ज़िंदगी खिलती है कैसे
ज़िंदगी की बगिया खिलती है कैसे
एक दिन यह पूछा गुजरती हवा से।
मुस्कुरा के वो बोली
प्यार ही प्यार बरसता हैं जहाँ
खिलती है जीवन की बगिया वहाँ
हंसते हंसाते रहते सब जहाँ
सुख दुख में सब संग हो जहाँ
अपना पराया जाने ना कोई
पाले हर चीज जो थी कभी खोई
कौन, क्या, कैसा जाने ना कोई जहाँ
खिलती है जीवन की बगिया वहाँ
आगे भी उसने और कहा-
सुन ऐ मस्तानी
हंसता रहे जहाँ दिल का हर कोना
ना जाने कोई गम में रोना
मिल जाये जो बिना कुछ खोये
सौ जाये जो बिना रोये
हाथ से हाथ छुट जाये
पर मन से मन ना छुट पाये
रिश्तों के बंधन दिलों से बंध जाये
खिलती है जीवन की बगिया वहाँ
ना हो कोई बंदगी
ना हो जहाँ कोई सादगी
चंचलता से महकता आंगन हो
आजादी का हर मौसम हो
रहते घुलमिल के जहाँ
खिलती है जीवन की बगिया वहाँ
खिलती है जीवन की बगिया वहाँ।।
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दीया ने दिया संदेश
दीपकों का उजाला परिवेश है प्यारा
ऐसा लगता है जैसे ताजमहल हो गया हमारा
क्योंकि कुछ जगह पर
यूं ही दीपकों का बना उजाला।
एक कतार में एक समान जैसे स्वर्ग हो यहाँ,
शाम निराली में, छाया यह उजाला।
खुद के पास है अंधेरा,
फिर भी करता उजाला।
हवा के झोंके से लौ की चमक जगमगाती।
सभी घरों की तरफ देखा,
तम का नाम नहीं
सुमन जैसे खिले बागों,
वैसे लगा ये दुःख का नाम नहीं।
दीया ने ये संदेश देता हमको,
ना करो कभी दुःख,
ना करो घमंड, ना मिटाओ फासले
ना रहो मजबूरी में, देखो मुझे भी
मेरे पास नहीं उजाला,
तुमको नहीं देता तम का प्रभाव,
जलाओगे तुम मुझे पाओगे उजाला।
जलने के लिए मुझे चाहिए
तेल और बाती।
क्योंकि ये है मेरे जन्मों के साथी।
तुम भी अकेले नहीं कर सकते कुछ
मिलकर चलो तुम, ना रहोगे गम में ।।
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यह हैं हकीकत
अपनी जिम्मेदारी को बखूबी से निभाया नहीं
भ्रष्टाचार, महिला उत्पीड़न को मिटाया नहीं
गरीब रहा गरीब अमीर ने सर झुकाया नहीं
राजनीति भी गरमा सी गई।
भाई - भतीजावाद को मिटाया नहीं
बेटा ना बदला, भाई - भाई को समझाया नहीं
मिलती है एक बेटी की लाश सुनी झाडियों में
उस माँ के पत्थर दिल को निकाला नहीं
स्वच्छता के नाम से हो रहे घोटाले।
अब इन्हें कौन टाले।।
जाल में जाल बिछा गये कुतरता कोई नहीं।
बदली है देश की हर चीज पर इंसानियत नहीं।।
मनाते हैं आये साल नया स्वतंत्रता दिवस।
बढ़ता मानव हर क्षण, हर मानव है बेबस।।
कहने को तो आजादी को बित गया अरसा।
क्या सचमुच आजाद हैं हम
ऐसा भी हैं जहां आजादी की अभी नहीं बरसा।।
ये समझाया किसी नहीं
हकीकत की आजादी अभी नहीं।।
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परोपकार
परोपकार करो जिसे लोग कहेंगे परहित।
इसे ही कहते हैं दूसरों की भलाई।।
क्या घटता है इसमें हमारा,
इसमें आ ना पाएं कोई मजहब या मत।
परोपकार करो जिसे लोग कहेंगे परहित॥
अगर हैं नहीं तुम्हारे पास धन,
पर हैं पास तन और मन।
इससे कर सकते हो परहित
दुःख हो किसी को अगर,
सच्चे मन से देना सांत्वना, आया तेरा मन काम।
चलता हो कोई कुमार्ग पर,
समझाकर उसे हटाना, आया तेरा तन काम॥
क्या नहीं है ये परोपकार ?
देखा या सुना होगा ऐ मानव!
तुमने राम के बारे में,
ऋषि मुनियों के तप में जो डालता विघन
करते उनका सहांर,
यहीं नहीं उनका और भी है परोपकार ॥
ईसा मसीह के बारे में भी है सुना,
करते वो लोगों का उत्थान।
नाम सुना होगा अशोक का
खुदवाए थे उसने तालाब,
वृक्ष लगाकर किया उसने परोपकार॥
क्यों तुम अपने कदम हटाते हो पीछे
देखते नहीं तुम प्रकृति को
कैसे करती हैं वो उपकार॥
वृक्ष जो खाते नहीं फल खुद,
देते वो तुम्हें उपहार,
फेंको चाहें तुम पत्थर हजार,
फिर भी करते हैं परोपकार ॥
नदी जो नहीं पीती अपना पानी खुद,
पीते तुम जिसे मानकर अमृत,
यहीं हैं उसका उपकार॥
जाना होगा तुमने इतना,
मन, वाणी और कर्म से करो उपकार।
इसे ही कहते हैं परहित, परोपकार ॥
परहित धर्म से बनता मनुष्य जीवन सफल।
हे मानव! करो तुम परहित, परोपकार॥
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जिदंगी जीने का तजुर्बा सीखना चाहते थे हम।
हार के फिर जीतना चाहते थे हम।
कदम तो लड़खड़ा रहे थे
लेकिन फिर भी चल पड़े हम।
सामने जो आया
हंस के सहते गये हम।
कभी घबराये जो
थोड़ा पीछे हट गए हम।
रुके कुछ देर
फिर चल पड़े हम।
मुकाम की चाहत में
रास्ता बदलने लगे हम।
ठोकर खाकर भी उसी
राह पर चलते गये हम।
आंखें मूंद कर आगे
निकल गये हम।
मन में थे जो ख्वाब
सब भूल बैठे हम।
ना सुनी दिल की बात
दिमाग लड़ा बैठे हम।
आत्मविश्वास, मान-सम्मान
सब भुला बैठे हम।
चाहते थे अब संभलना
लेकिन रास्ता भटक गये हम।
उम्र भर खाते गयें
अपनों से धोखा।
पराये से कहाँ उम्मीद लगाते हम।
जिसकी उम्मीद थी वो ना पा सके
उम्मीद को ही ले गये
खाई की सीढियों में हम
आज आ गये खाई के
अंतिम छोर पर हम।
खुदा का था साथ
पर वो भी साया बनकर डराता हैं
क्या पता उसमें भी ना खा जाये
धोखा हम।
सिवाय आँसुओं के कुछ
नहीं है हमारा
वो रहते हैं साथ भी
और साथ छोड़ भी देते हैं
दोष किसको दे हम
शायद गलतियों के लिए बने थे हम
ज़िंदगी को समझने के लिए
गुस्ताखियां करते गये हम
लेकिन बगैर ख्वाबों के
अब जीना सीख गयें हम।
बस ऐसे ही जीवन जीने का तर्जुबा
सीख गये हम।।
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माँ
माँ जननी है मेरी,
माँ ही मेरी देवता।
माँ लेखनी, माँ ही कविता।
माँ आज्ञा, माँ भक्ति।
माँ विश्वास, माँ ही शक्ति।
माँ मन्दिर हैं, माँ ही मेरी पूजा।
माँ सुबह है, माँ ढलती शाम भी।
माँ आँखें है, स्वप्न भी।
माँ आशा, माँ कामना,
माँ हैं मेरी भाषा।
माँ सोच, माँ दया,
माँ ही मेरी भावना।
माँ अनुशासन, माँ कर्तव्य,
माँ हैं जागृति।
माँ श्रद्धा, माँ सच्चाई,
माँ हैं मेरी क्रांति।
माँ सखा, माँ आवाज,
माँ बुलंदी हैं मेरी।
माँ सहायता, माँ संस्कार,
माँ हैं मेरा विचार।
माँ स्वाभिमान,
माँ ही मेरा धैर्य।
माँ भूख, माँ प्यास,
माँ ही मेरी आस।
माँ राम, माँ श्याम,
माँ है आत्मविश्वास।
माँ जन्नत, माँ ही मेरी मन्नत।
हिम्मत है तो जान,
उस माँ को पहचान।
सब कुछ हैं वो माँ,
जिसने तुम्हें दिखाया जहान।
कष्ट सहकर तुमको
सुलाया उस रात में।
तू भी तो था कितना नटखट
जगाया माँ को उन रातों में।
पहचान के सारे रुप,
शीश झुकाओ उसके चरणों में,
सच ही कहा हैं किसी ने
"माँ से बड़ा ना कोई जग में "।।
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