"छोड़ दे माय! अब छठ व्रत तुमसे नहीं हो पाएगा। हम लोग चाहकर भी आ नहीं पा रहे हैं और कब तक डाला चंगेरा उठाने के लिए दूसरों से खेखनिया करत...
"छोड़ दे माय! अब छठ व्रत तुमसे नहीं हो पाएगा। हम लोग चाहकर भी आ नहीं पा रहे हैं और कब तक डाला चंगेरा उठाने के लिए दूसरों से खेखनिया करती रहोगी" जतिन ने मां से कहा। सरसती आज नवरात्रि के बाद हमेशा की तरह गांव जा रही थी।
" न बबुआ! जबतक डेग चल रहा है न,आ देह में ताकत है तबतक छठी मईया का पूजा तो नहिए छोड़ेंगे। तुम लोग आओ न आओ! पूजा तो हो ही जाता है बस प्रसादी खाने बखत रुलाई आ जाता है कि नेना भुटका लोग रहता तो परसादी खिलाकर संतोष हो जाता।"
सरसती कहां मानने वाली थी ! वो तो जाएगी ही।
जतिन को याद आया कि एक बार किस तरह मैया कि बुखार से हालत खराब ह़ो गयी थी पर वो दवा खाने को तैयार नहीं हुई। सारी रात सभी लोग बकरी के दूध में कपड़ा भिगा भिगाकर पट्टी देते रहे और राम राम करते रहे कि किसी तरह रात कटे। वो अस्पताल में भर्ती होने को तैयार न थी। अंत में छठी मैया की ही कृपा से भोरवा अरग भी सरसती ने पानी में उतर कर दिया था। पूजा के साथ साथ बुखार भी खत्म हुआ। सब कह रहे थे कि छठी मैया सत्त की परीक्षा ले रहे थे। सत्त की परीक्षा में सरसती पास हो गई थी।
" तुम तो जिद्दी हो! मानोगी थोड़े न! हमको छुट्टी मिलती नहीं है तो यहीं पर पूजा कर लिया करो! यहाँ भी तो अब बहुत लोग पूजा करने लगे हैं।" जतिन ने अंतिम अस्त्र फेंका जिससे मैया जाने की जिद छोड़ दे। पर सरसती कहाँ मानने वाली थी । उसके पास तो जैसे हरेक सवाल का जवाब था।
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" अरे! यहाँ कहां उतने नेम निष्ठा से पूजा होता है। बड़ा कठिन व्रत है और उतने ही साफ सफाई भी। थोड़ा भी चूक हुआ तो तुरंते दंड भी मिल जाता है। जो चीज सब चाहिए सब यहां नहीं मिल पाएगा । न यहां नहीं करेंगे। हमेशा मन में खुटका लगा रहेगा कि पता नहीं क्या गलत हो जाए! मैं तो जा रही हूँ।"
सरसती हरेक साल की तरह चली गई।
जतिन हमेशा की तरह छठ पूजा तक तड़पता रहता है। यही तो एक पूजा है जिसमें वो हरेक साल जाता था पर पिछले तीन साल से चाहकर भी नहीं जा पा रहा है।
हूक तो उठती है पर बयां किससे करें। कमबख्त नौकरी है ही ऐसी कि छठ पूजा के समय काम भी बढ़ जाता है। छुट्टी मांगो तो भवें तन जाती हैं।
"दीवाली में चार दिन छुट्टी मनाके आये हो फिर चाहिए?" कौन कहे की सरकार!
दीवाली में यहीं बैठा लो पर छठ में छुट्टियाँ दे दो! पर कौन पसीजता है। "इसबार भी नहीं गये का गांव!
आज छठ है न!" जब भी कोई पूछता है तो मन अंदर से भहरा जाता है । कितना भी समेटे बिखरते जाता है। " अब तो लगता है सपना हो गया! चाहकर भी नहीं जा पाते हैं। ये भी कह सकते हैं कि इच्छा शक्ति की कमी है। काम का भूत चढा रहता है।
" आप तो जोर देते ही नहीं ! दो दिन की छुट्टी नहीं मिल सकती, जाने कौन पहाड़ तोड़ते रहते हैं"! पत्नी ताने मारती रहती है। मैं मुस्किया के रह जाता हूँ पर अंदर क्या बीतती है वो मैं ही जानता हूँ।
सरसती एक महीना पहिले से ही कहना शुरू कर देती है" क्या होगा, दो दिन के लिए चले आओगे तो! कई साल हो गये हैं, छठ में गांव आये।"! जतिन हंस के टाल देता !" "अभी तो बहुत समय है, देखो न ,हमरा तो अंतिम दिन में प्रोग्राम बन जाता है!" पर पिछले तीन साल से वो प्रोग्राम बन नहीं पाया। छठ का पर्व है तो गांव का कार्यक्रम बन भी जाता है वरना कई प्रवासी तो गांव जा ही नहीं पायेंगे। यह मौका है जब आदमी समय निकाल कर गांव आता है, सभी भूले बिसरे यादों को संजोता है और उसे पंडोरा बाक्स में भरकर अपने साथ ले आता है। एक एक जगह बचपन और बिताये गये पलों का साक्षी है थो आवाज दे देकर पुकारता है ,अपने पास खींचता है।
" तुम नहीं आते हो तो घाट तक ढकिया भी भैया को ले जाना पड़ता है। पिछले साल तो वो भी नहीं आया था। इंतज़ार करती रही कि कोई आकर ढकिया, कुड़वार ले जाएगा। घर में कोई नहीं रहता है तो हाथी भी भसाने के लिए किसी गुहार लगाना पड़ता है"! बोलते बोलते सरसती की आंखें छलछला जाती है। बच्चों से भरापूरा घर देखकर उसकी उमर पांच साल कम हो जाती है। ओसारा पर पटिया बिछाकर लेटे रहती है और बहू लोग काम करती रहती है। उसे पता है कि ये चार दिन की चांदनी है, परना होते ही सब का टिकट कटा हुआ है। आने से पहले सबसे पूछती है " कब जाओगे"! यदि किसी ने परना का नाम कह दिया तो आसमान सर पर उठा लेती है। " ई सब का घर थोड़े ना है, पाहुन बनके आता है, आने से पहले जाने का टिकट बुक कराके आता है। भैया कहते " टिकट बुक न कराके आयें तो फिर टिकट कहां मिल पाएगा। और अगले दिन तो भदवा लगा जाता है, उसमें कैसे जायेंगे"!
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बाबूजी भी समझाते !" अरे! नौकरी है तो जाएगा ही न!यही क्या कम है कि छठ में आ गया।!" पहले तो बहुत गुस्साती थी, अब धीरे धीरे समझने लगी है कि इनकी भी मजबूरी है।
जतिन के जैसे गांवबदर हो गये परदेशियों के लिए "छठ पूजा" एक एलमुनी मीटिंग के समान है जिसमें आस्था, भावना, एवं धार्मिक सम्मिलन के साथ साथ गांव के छूटे छपाटे काम करना, बिछड़े चेहरों को देख दिखाकर रिफ्रेश करना गांव में अपनी पहचान बनाये रखने का सर्वोत्तम अवसर के रूप में देखा जाता है। जतिन को लगता था कि कई सालों के बाद यदि कहीं अचानक गांव पहुंचे तो इतने अनजान चेहरे दिखाई पड़ेंगे जिनको न तो वो पहचानता होगा और न वे उसको।
अभी पिछले साल उसके आफिस में शरद ने ज्वाइन किया था पर उसके बारे में उसे पता तक नहीं था कि वो भी उसी के गांव का है और रिश्ते में भतीजा लगेगा क्योंकि शरद कभी भी बिरजू भैया के साथ गांव नहीं गया और जतीन ने उसे कभी देखा भी नहीं था। यदि उस दिन आफिस के बाहर उससे मिलने आये बिरजु भैया से मुलाकात न होती तो वो ये जान भी नहीं पाता। कितना अजीब है कि इतने करीब के रिश्तों के शक्ल अनजान हो जाते हैं क्योंकि हम अपने जड़ो से कट जाते हैं।
सरसती अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहती है। छठ पूजा, होली दीवाली और शादी ब्याह तो बस एक बहाना है। सबसे मिलने का और रिश्तों की गर्मजोशी बनाये रखने का!
जतिन हरेक बार ना करता रहता है पर दीवाली के अगले दिन बच्चों और पत्नी को गांव भेज ही देता है। सरसती भी मन ही मन जानती है कि जब तक हम जिंदा हैं तभी तक ये लोग हमारे बहाने गांव आयेंगे और अपनी जड़ों से नहीं कटेंगे।
" माय! बच्चा सबके भेज दिए हैं! अकेले कैसे कर पाओगी!
" तू हो एक्को दिन के लिए चले आओ! संझिया अरग के दिन आकर अगले दिन परना के परसादी खाके चले जाना।"
" एकदम्मे फुरसत न है माय!
मां का दिल कहाँ मानता है। अंतिम समय तक आस लगी रहती है शायद बेटा आ जाय! डाला उठाने के समय तक दरवाजे पर आंखें टंगी रहती है। शायद सरप्राइज मिल जाये।
" क्या करे माय! बहुत दूर हैं! उड़ भी तो नहीं सकते न!
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