गाँधी, गुरुदेव और हिंदी (डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री स्थायी पता : पी/138, एम आई जी, पल्लवपुरम-2, मेरठ 250 110 वर्तमान पता : 68 ,टैलबट रोड, माउं...
गाँधी, गुरुदेव और हिंदी
(डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
स्थायी पता : पी/138, एम आई जी, पल्लवपुरम-2, मेरठ 250 110
वर्तमान पता : 68 ,टैलबट रोड, माउंट वेवरले, विक्टोरिया , 3149 , आस्ट्रेलिया )
पिछली शताब्दी में हिंदी प्रचार के लिए समर्पित लोगों की अगर सूची बनाई जाए तो निश्चित रूप से सबसे पहला नाम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का होगा । प्रसिद्ध है कि उनके पास आकर जब कोई व्यक्ति यह कहता था कि मैं देशसेवा करना चाहता हूँ, मुझे काम बताइए ; तो उनका पहला प्रश्न होता था, आपको हिंदी आती है ? जिनका उत्तर नकारात्मक होता था, उनसे गांधी जी कहते थे कि हिंदी सीखिए । यह देशसेवा का सबसे पहला काम है । उन्होंने तत्कालीन अनेक ऐसे लोगों को हिंदी सीखने और उसका व्यवहार करने के लिए प्रेरित किया जो हिंदी के प्रति उदासीन थे ।
ऐसा ही एक नाम है गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर । शुरू में गुरुदेव न तो “राष्ट्रभाषा हिंदी” के समर्थक थे, और न स्वतन्त्रता आंदोलन के । सन् 1911 में जब उन्हें ब्रह्मसमाज का नेता चुना गया, तब उनकी अध्यक्षता में यह निश्चय किया गया कि ब्रह्मसमाज का कोई सदस्य न तो इस आंदोलन में भाग ले और न आंदोलनकारियों से कोई संबंध रखे । ऐसा व्यक्ति गाँधी जी का प्रशंसक कैसे होता ? कम लोगों को पता है कि शुरू में तो उन्होंने गांधी जी से मिलना तक उचित नहीं समझा । वस्तुतः हुआ यह कि जब गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से भारत आने का निश्चय किया, तो पहले अपने आश्रम के विद्यार्थियों को भारत भेजा और भारत में अपने सहयोगी सी एफ एंड्रयूज़ को इन विद्यार्थियों के रहने की ऐसी व्यवस्था करने का दायित्व सौंपा जहाँ इनका अध्ययन भी चलता रहे । श्री एंड्रयूज़ ने इन्हें पहले आर्यसमाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद के गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में और फिर लगभग एक वर्ष बाद गुरुदेव टैगोर के शान्ति निकेतन में रखा । श्री एंड्रयूज़ के तो इन दोनों महापुरुषों से अच्छे संबंध थे, पर गांधी जी का स्वामी श्रद्धानंद जी से ही पत्रव्यवहार के माध्यम से परिचय था, (स्वामी जी ने गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका में किए जा रहे आंदोलन के लिए अपनी संस्था की ओर से डेढ़ हजार रु. की सहायता राशि भी भेजी थी), पर नोबल पुरस्कार प्राप्त टैगोर से उनका कोई सम्पर्क नहीं था ।
जनवरी 1915 में जब गांधी जी भारत आए, तब ये विद्यार्थी शांतिनिकेतन में थे । अतः गांधी जी सूचना देकर 17 फरवरी 1915 को वहां गए, पर गुरुदेव उनसे मिलने के बजाय और किसी को कुछ बताए बिना चुपचाप कलकत्ता चले गए (One wonders why RT was not present when Gandhi arrived. There was no compelling reason to stay in Calcutta at this time……….. Probably for his own complex reasons, RT deliberately avoided welcoming Gandhi to Shantiniketan on first arrival ( Dutta & Robinson : Rabindranath Tagore; University of Cambridge; P. 196-197) । बाद में जब 6 मार्च 1915 को गाँधी जी पुनः पूर्व –सूचना देकर शांतिनिकेतन गए, तब गुरुदेव मानों बेमन से गांधी जी से मिले क्योंकि परिसर में गांधी जी के पहुँच जाने की सूचना मिल जाने के बाद भी वे अपने कक्ष में सोफे पर ही बैठे रहे । इस अवसर पर उनकी जिन विषयों पर चर्चा हुई, उसमें भी सहमति कम, असहमति अधिक व्यक्त हुई ।
यह सोचकर हैरानी होती है कि शुरू में ऐसे रूखे व्यवहार वाले गुरुदेव बाद में गांधी जी के प्रति इतने आकर्षित कैसे हो गए कि उन्हें “महात्मा “ भी कहने लगे (सबसे पहली बार “महात्मा “ स्वामी श्रद्धानंद ने कहा था जिसे गुरुकुल कांगड़ी के विद्यार्थियों ने तभी अपने अभिनन्दन पत्र में स्थायित्व भी प्रदान कर दिया), और उनके अनुरोध पर गुजराती साहित्य परिषद, भावनगर, काठियावाड के छठे अधिवेशन का सभापति बनने एवं हिंदी में भाषण देने को भी तैयार हो गए । गांधी जी की विशेषता देखिए कि “ गुजराती ” साहित्य परिषद का सभापति “ बांग्ला ” के कवि गुरुदेव को बनवाया और उनसे सभापति का भाषण “ हिंदी “ में दिलवाया । भारत के भिन्न भाषा-भाषी जब मिलें तब उनके सम्पर्क की भाषा हिंदी हो – यही तो राष्ट्रभाषा की संकल्पना है ! मेरी जानकारी में यह गुरुदेव का हिंदी में पहला भाषण था जो 06 अप्रैल 1920 को दिया गया । ऐतिहासिक महत्व का वह भाषण प्रस्तुत है :
“ आपकी सेवा में खड़े होकर विदेशीय भाषा में बोलूँ, यह हम चाहते नहीं । पर जिस प्रान्त में मेरा घर है, वहां सभा में कहने लायक हिंदी का व्यवहार है नहीं ।
महात्मा गांधी महाराज की भी आज्ञा है हिंदी में कहने के लिए । यदि हम समर्थ होता तब इससे बड़ा आनंद और कुछ होता नहीं । असमर्थ होने पर भी आपकी सेवा में दो-चार बात हिंदी में बोलूंगा ।
सारी राह में आप सभों का समादर का स्वाद पाते-पाते हम आए हैं । हरेक स्टेशन पर बाल-वृद्ध–बनिता हमको सत्कार किए हैं । मेरा घट तो पूर्ण होने को चला है, पर पूर्ण घट से आवाज तो निकलने चाहती नहीं । तो भी नि:शब्द याने खामोश रहकर आपकी प्रीति का अर्घ्य ग्रहण करूं, ऐसी असभ्यता भी सह सकूँ किस तरह से ।
जो सभ सुवक्ता लोकसभा के चबूतरा पर चढ़कर अपनी भाषा के प्रवाह से सर्वसाधारण के चित्त अनायास से बहा ले जा सकते हैं, इतना दिन उन सभों पर मेरी ईर्ष्या याने हसद न थी, आज चाहते हैं कि यदि उन्हीं की ऐसी वाक्शक्ति हमारी भी होती, ईश्वर मुझे दिए होते, तब बस यहीं से फ़ौरन मैं नगद आपका कर्जा चुका देने की चेष्टा करते ।
लेकिन मैं सिर्फ कवि हूँ । वाक्य तो मेरा कंठ में है नहीं, है दिल में । मेरी वाणी ऐसा जलसा में बाहर होने तो चाहती नहीं, वह रहती है छंद का अंदर – महल में । उसी वाणी की साधना में सारी जिंदगी-भर मैंने निर्जन-वास को स्वीकार कर लिया है, मैं तो पौर-सभा के योग्य नहीं हो सका हूँ । प्रकृति जिस निभृत जगह में अपने फूलों को विकसित करती है, वहीं मैं गान के लिए प्रभु का आदेश पाया हूँ । वहां से अगर मुझे जमायत में कोई खींचे ले आवे, तब मैं गूंगा बन जाता हूँ । दिल भर जाने से भी मुख तो खुलने चाहता नहीं । यही तो मेरी मुश्किल है । जब तक हम लोकालय याने इंसान के वतन से दूर में रहता हूँ, तब तक मेरा सुर वहां पहुँच सकता है । सभों के सामने अगर मुझे खींचा जाए, तो मैं बिलकुल गूंगा बन जाता हूँ ।
मैं गीत गाने-वाल चिड़िया – ऐसा हूँ । पत्तों के परदे में मेरा गीत है – तभी मेरा गीत घरों में सब आदमियों के पास पहुंचता है । पर आज आप सभों ने समादर करके मुझे सभा के मंच में चढ़ा दिया है । आप कवि के पास उम्मीद करते हैं वक्तृता, याने बाँसुरी को चाहते हैं लगाने लाठी के काम में । इसलिए यदि वह काम अच्छी तरह से न बने, तब विधाता की निंदा कीजिए वह मुझे शक्ति बांटने के समय में कृपणता किया है । अगर विधाता मुझे कुछ दिया हो, तो दिया है कवित्व, बोलने की शक्ति नहीं ।
विधाता की यह कृपणता से मुझमें भी दीनता आ पहुंची है । सभा में खड़ा होकर के आप लोगों को अपार आनंद दूँ या उपदेश दूँ या काम लायक बातें कहूँ, ऐसा दाक्षिण्य दिखने का सौभाग्य मुझे हुआ नहीं, दाक्षिण्य केवल आप लोगों के तरफ से प्रकाश हुआ, मुझे हार मानना पड़ा ।
विनय के साथ हार मानने को तैयार हूँ, पर सिर्फ वचन के हार, हृदय में हार हम मानते हैं नहीं । आप लोगों के साथ जो प्रीति का संबंध हुआ है, उस संबंध में मेरा दिल से कुछ भी कमी रह गई, यह हम मानते नहीं ।
आप लोगों से जो प्रीति, जो समादर लाभ कर रहा हूँ, उसको हम ईश्वर के तरफ से अप्रार्थित दान समझ करके ले रहा हूँ । ईश्वर की दया आदमियों की योग्यता का हिसाब करती नहीं । उनकी दया के योग्य होने की साधना करना ही मेरा कृत्य है । अंतर्यामी जानता है कि वह साधना मेरा दिल में है – वही मेरी कवि की साधना ।
पर कवि की साधना है क्या चीज ? वह और कुछ नहीं, बस आनंद के तीर्थ में, रसलोक में, विश्वदेवता के मंदिर के आँगन में सर्व -मानव का मिलन गान से विश्वदेवता की अर्चा करना । पृथ्वी के सब मनुष्यों को हम कहाँ पाऊं, शक्ति की क्षेत्र जहाँ लड़ाई दिन-रात चल रही है, उस जगह में, या बाजार में, जहाँ खरीद और बेच का शोर और कोलाहल से कान बहरा हो गया है – मनुष्य का मिलन होना है किस जगह में, शक्ति की राह में या लाभ की राह में ? सब राहों की चौमुहानी पर कवि की बाँसुरी टेर से यह सुनाने के लिए है कि जिस प्रेम की राह में मुझको ईश्वर बुला रहे हैं, वहां जाने का सम्बल है दु:ख को स्वीकार करना, अपने को भरपूर दान करना, और उस राह का परम लोक और मेरा परम आनंद । भगवान के वह चरण पद्म में सारा भारत का चित्त एक हो जाए । यही एक भाव सारी दुनिया के ऐक्य की राह दिखलावेगा ।
यह पृथ्वी सुन्दर है, यह नील आकाश उदार है, यह सूर्यालोक पवित्र है । मनुष्य जो जन्म लिया है, सो मार-काट के मरण के लिए नहीं । यह सुन्दर जगत में चिर सुन्दर के स्पर्श लाभ करने के लिए, यह पवित्र आलोक में चिर पावन के आशीर्वाद को लाभ करने के लिए । यह भारत अपनी तपोवन छाया में एक समय यह घोषणा सारा विश्व को दिया है । यह घोषणा जब से उसके कण्ठ में मलिन हो गयी, तभी से उसका दारिद्रय और अपमान । फिर भारत को वही तपस्या लेना है । सारा दुनिया के लिए तपश्चर्या करना है, क्योंकि दुर्दिन आज आ पड़ा है । विश्व वसुंधरा तापिस है, श्यामल वसुधा शोणित से पंकिल और पाप से मलिन है । आज भारत के चिर-दिन की साधना का शून्य आसन फिर ग्रहण करना है । ब्रह्मालोक की वार्ता सर्वत्र पहुंचाना है :
एष सेतुर्विधरण असम्मेदाय लोकानाम
नैनम सेतुरहोरात्रे तरत: न शोको न जरा
न मृत्यु: एतम सेतुम तीर्त्वा अन्य: सन अनन्य
भवति विद्ध:सन् अविद्धो भवति
उपतापीसन् अनुपतापी भवति,
सकृद्विभातो हमेदेष ब्रह्मलोक .
यह सेतु सर्वलोकों को धारण करने के लिए है, सम्भेद को दूर करने के लिए है, अहोरात्रि यह सेतु को लंघन कर सकता नहीं, शोक जरा मृत्यु इसको लंघन कर सकता नहीं, इसको पार हो करके अन्य अनन्य हो जाते हैं, शोकार्त विगत शोक हो जाते हैं, यह ब्रह्मलोक उदय मात्र और अवसान को प्राप्त होता नहीं ।
(शांतिनिकेतन पत्रिका वर्ष 4, संख्या 12, 1331 बंग संवत से उद् धृत)
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