प्रविष्टि क्रमांक - 18 (लघुकथा) बेटों से रिश्ता - अंकुश्री ‘‘या अल्ला ! बड़का को पुलिस ने पकड़ लिया.’’ ‘‘क्या बोलती हो ?’’ ‘‘हां, देखिये न !...
प्रविष्टि क्रमांक - 18
(लघुकथा)
बेटों से रिश्ता
- अंकुश्री
‘‘या अल्ला ! बड़का को पुलिस ने पकड़ लिया.’’
‘‘क्या बोलती हो ?’’
‘‘हां, देखिये न ! पुलिस उसे पकड़ कर लिये जा रही है.’’
‘‘वाकई ! यह तो बड़का ही है.’’ उसके अब्बा ने टी0 भी0 पर उसे पहचानते हुए कहा, ‘‘अब तो पुलिस यहां भी पूछताछ करने आयेगी.’’
‘‘पुलिस आयेगी तो छोटका को भी खोजेगी. उसका भी तो एक महीने से कोई अता-पता नहीं है.’’
‘‘बड़का का जो दोस्त यहां रहता था, उसी के साथ छोटका गया है. न छोटका आया है और न बड़का के दोस्त का ही कुछ पता है.’’ छोटका की अम्मी ने फिक्र ज़ाहिर किया.
‘‘देखो, हम लोग जानते हैं कि बड़का आतंकवादियों से मिला हुआ है.’’ उसके अब्बा ने कहा, ‘‘लेकिन छोटका ?’’
‘‘कुछ नहीं, बड़का या छोटका मेरे बेटे नहीं हैं.’’ अम्मी ने कहा, ‘‘कोई आये तो उससे साफ कह दीजिये, हम उन दोनों को नहीं जानते.’’
‘‘कहने से क्या होगा ? वे हैं तो हमारे बेटे ही ? याद करो, वह कभी भी खाली हाथ नहीं आता था.’’ अब्बा ने कहा, ‘‘मुहल्ले वाले को भी पता है कि वह भारी-भरकम से आता था. यहां के कई लोगों पर उसका एहसान है.’’ कुछ रुक कर अब्बा ने कहा, ‘‘हम लोग पुलिस से कहेंगे कि जो आतंकवादी है, उसे हम बेटा नहीं मानते. तुम मुहल्ले में कहना शुरू कर दो कि देशद्रोही मेरे बेटे नहीं हो सकते.’’
‘‘समझ गयी.’’ वह कम होशियार नहीं थी, आखिर बड़का और छोटका की अम्मी जो थी, ‘‘मैं अभी से एलान कर देती हॅू कि बड़का और छोटका को मैं अपना बेटा नहीं मानती. दोनों बेटों से मेरा कोई रिश्ता नहीं है.’’
घर के सभी लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि दोशद्रोहियों से उनका कोई रिश्ता नहीं है.
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प्रविष्टि क्रमांक - 19
(लघुकथा)
भगवान् की मर्जी
- अंकुश्री
‘‘नरेन्द्र बाबू के मरे हुए दो महीने से अधिक हो गया है. लेकिन अभी तक उनका चिकित्सा-प्रतिपूर्ति का आवेदन नहीं आया ?’’ सचिवालय सहायक मदन बाबू ने मुन्ना से पूछा.
मुन्ना मुफ्फसील का चतुर्थवर्गीय कर्मी था और प्रतिनियुक्ति पर सचिवालय में कार्यरत था. नरेन्द्र बाबू उसी के मूल कार्यालय दक्षिणी अंचल में पदस्थापित थे. कैन्सर से पीड़ित थे. परिवार वालों ने बहुत प्रयास किया. तीन वर्षों से मुम्बई अस्पताल में जाना-आना लगा हुआ था. उनकी बीमारी में परिवार काफी परेशान हो गया था और रुपये तो खर्च हुए ही थे. लेकिन होनी की कौन कहे ! बेचारे नरेन्द्र बाबू परिवार को बिलखते छोड़ कर चले गये.
राज्य से बाहर करायी गयी चिकित्सा में हुए खर्च की प्रतिपूर्ति सरकार की स्वीकृति के बाद ही संभव थी. नरेन्द्र बाबू की पत्नी उनके कार्यालय के माध्यम से सरकार यानी सचिवालय के बाबू के यहां आवेदन भेजवाती तो उसे चार से आठ महीने में प्रतिपूर्ति का स्वीकृत्यादेश मिल जाता. मदन बाबू ने इसी उम्मीद में मुन्ना से जिज्ञासा की थी.
‘‘क्या हुआ ?’’ शाम को मदन बाबू घर गये तो पत्नी ने टोका, ‘‘चिकित्सा- प्रतिपूर्ति हेतु आवेदन आया या नहीं ?’’
‘‘नहीं, अभी तक उन लोगों ने आवेदन नहीं दिया है.’’ मदन बाबू ने कहा, ‘‘पांच-छह लाख रुपये से कम का विपत्र नहीं होगा. पता नहीं, परिवार के लोग क्यों नहीं रुचि ले रहे हैं. आज मैंने मुन्ना को भी याद कराया है. शायद वह नरेन्द्र बाबू के परिवार को आवेदन देने के लिये कहे.’’
‘‘आप पश्चिमी अंचल वाले किसी हृदय रोगी की बात कर रहे थे ? पिछले विपत्र का भुगतान होने पर दस हजार मिलने वाला था ? क्या हुआ ?’’
‘‘सत्येन्द्र बाबू के बारे में बोल रही हो ?’’ मदन बाबू ने पत्नी को समझाते हुए कहा, ‘‘उनके बेटा के हृदय में छेद है. बेटा को लेकर वे फिर दिल्ली गये हैं. आयेंगे तभी आवेदन वगैरह दे सकते हैं.
‘‘दिल्ली गये हैं ? आप तो कह रहे थे कि भेलौर में इलाज चल रहा है ?’’
‘‘भेलौर में ? वहां तो ललित बाबू का इलाज चल रहा है.’’ मदन बाबू ने पत्नी को आश्वस्त किया, ‘‘ललित बाबू के दोनों किडनी खराब हो गये है. अभी तक सात-आठ लाख खर्च हो चुका है. लेकिन वे भी वहां से आयेंगे और प्रतिपूर्ति हेतु आवेदन समर्पित करेंगे तभी तो कुछ होगा !’’
‘‘हमलोगों के पिछले लाइन में जो वर्मा जी रहते हैं, उनका बेटा भी तो किडनी खराब होने से ही मरा है ?’’ पत्नी ने प्रश्न किया.
मदन बाबू ने पत्नी को बताया, ‘‘वर्मा जी वाले विपत्र का काम सुरेन्द्र बाबू के टेबुल से होगा, मेरे टेबुल से नहीं.’’
‘‘लगता है, इस महीना भी आप कार नहीं ले पायेंगे ?’’
‘‘इस महीने भले नहीं ले पाऊं, मगर अगले महीने तो काम हो ही जायेगा.’’ मदन बाबू ने पत्नी को पुचकारते हुए आश्वस्त किया.
‘‘देखें ! भगवान् की क्या मर्जी है ?’’
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प्रविष्टि क्रमांक - 20
(लघुकथा)
झाड़ूधारी मंत्री जी
- अंकुश्री
मंत्री जी का शहर में आगमन था. प्रशासनिक बैठक में पदाधिकारियों से बात करनी थी. कुछ कर्मचारी भी ताक-झांक करते ही. उन्हें जनता को भी संबोधित करना था. लेकिन जनता के बीच जाने की उन्हें कोई ज्वलंत समस्या नहीं दिख रही थी. बहुत माथा-पच्ची के बाद स्वच्छता अभियान का कार्यक्रम तय किया गया. लेकिन कार्यक्रम के लिये स्थल का चयन नहीं हो पा रहा था.
पूरा नगर घर-आंगन की तरह साफ-सुथरा दिख रहा था. विद्यालयों में दूर-दूर तक गंदगी नहीं दिखाई दे रही थी. स्टेशन तो जैसे चाय वाले बच्चे की तरह आगे बढ़ने के लिये लालायित होकर चमकने लगा था. नगर के कई सार्वजनिक स्थलों को देखा गया. उद्यानों की ओर मुखातिब होने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ. गंदगी का कहीं नामोनिशान नहीं था. नगर विकास विभाग, जिला प्रशासन, नगरपालिका, पार्टी मुख्यालय सभी परेशान थे. जब गंदगी ही नहीं थी तो स्वच्छता अभियान क्या ?
जिलाधिकारी को परेशान देख कर उनके अनुभवी बड़ा बाबू ने सुझाव दिया, ‘‘स्सर ! मंत्री जी के आने में अभी दो दिन बाकी है. किसी सार्वजनिक स्थल का चयन कर वहां दो दिनों तक सफाई पर रोक लगा दी जाये. बल्कि आसपास की गंदगी भी कार्यस्थल पर ही फैलवा दी जाये तो मंत्री जी का स्वच्छता अभियान सफल हो जायेगा.’’
बड़ा बाबू की बात जिलाधिकारी को जंच गयी. दर्जनों झाड़ू पहले ही क्रय किया जा चुका था. मीडिया वालों को बता कर मंत्री जी के स्वच्छता अभियान कार्यक्रम को सार्वजनिक कर दिया गया. सरकारी प्रेस विज्ञप्ति भी जारी हो गयी.
कार्यक्रम के दिन मंत्री जी गंदगी देख कर बहुत खुश हुए. दर्जनों लोगों के हाथ में झाड़ू था. कैमरा मैनों को तैयार देख कर मंत्री जी ने भी हाथ में झाड़ू उठा लिया. मीडिया वाले झाड़ू से सुसज्जित मंत्री जी की तस्वीर खींचने में व्यस्त हो गये. दूसरे दिन मंत्री जी के झाड़ूधारी रूप की तस्वीर प्रथम पृष्ठ पर छाप कर अखवार वाले भी बहुत खुश थे.
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प्रविष्टि क्रमांक - 21
(लघुकथा)
हड़बड़ी
- अंकुश्री
जब वह हड़बड़ाए हुए स्टेशन पहुंता तो रेलगाड़ी प्लेटफार्म पर आ चुकी थी. ऑटो को पैसा देकर सीढ़ियां पार कर प्लेटफार्म पर उतर ही रहा था कि रेल ने सीटी दे दी और डब्बा तक पहुंचते-पहुंचते वह चल पड़ी. हड़बड़ाए हुए जब तक वह आगे बढ़ा, रेलगाड़ी की गति तेज हो गयी. फिर भी दौड़ कर उसने रेल पकड़ ली. इस हड़बड़ी में वह गिरते-गिरते बचा और भगवान् का लाख-लाख शुक्र मनाया कि दुर्घटना टल गयी.
डब्बा के अंदर सभी सीटें भरी हुई थीं. उसने अगल-बगल झांक कर देखा, कहीं बैठने की गुंजाईश नहीं थी. जो लोग बैठे थे, वे इत्मीनान से सफर का आनन्द ले रहे थे. वह खिड़की से सट कर एक तरफ खड़ा हो गया. हड़बड़ाहट में गाड़ी पकड़ने से उसकी हृदय गति बहुत तेज हो गयी थी. खड़ा होने पर वह लंबी-लंबी सांसे लेने लगा.
अभी वह स्थिर भी नहीं हो पाया था कि टिकट चेकर आ गया, ‘‘टिकट !’’ उसके सामने टिकट चेकर ने हाथ पसार दिया.
ऑटो से उतर कर सह सीधे रेल में चढ़ गया था, हड़बड़ी में टिकट नहीं ले पाया था. बिना टिकट पकड़े जाने पर जेल से बचने के लिये उसे जुर्माना देकर बचना पड़ा. इससे उसे काफी बेइज्जती महसूस हुई.
वह मन ही मन सोचने लगा कि यदि आधा घंटा पहले चला होता तो टेम्पो मिलने में जो देर हुई, वह नहीं होती. उसने प्रतिज्ञा की कि अब कभी वह हड़बड़ी में घर से नहीं निकलेगा. उसके बाद उसने कभी बिना टिकट यात्रा नहीं की और न उसे गाड़ी पकड़ने के लिये कभी हड़बड़ाना पड़ा.
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अंकुश्री
8, प्रेस कॉलोनी, सिदरौल,
नामकुम, रांची (झारखण्ड)-834 010
E-mail : ankushreehindiwriter@gmail.com
विनम्र निवेदन है कि लघुकथा क्रमांक 180 जिसका शीर्षक राशि रत्न है, http://www.rachanakar.org/2019/01/2019-180.html पर भी अपने बहुमूल्य सुझाव प्रेषित करने की कृपा कीजिए। कहते हैं कि कोई भी रचनाकार नहीं बल्कि रचना बड़ी होती है, अतएव सर्वश्रेष्ठ साहित्य दुनिया को पढ़ने को मिले, इसलिए आपके विचार/सुझाव/टिप्पणी जरूरी हैं। विश्वास है आपका मार्गदर्शन प्रस्तुत रचना को अवश्य भी प्राप्त होगा। अग्रिम धन्यवाद
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