परिचय नाम : दिलीप कुमार अर्श जन्म तिथि : 05 फरवरी, 1975 शिक्षा : स्नातक, प्रतिष्ठा (इतिहास) मूल निवास : बलिया, प्रखंड - रूपौली, जिला - प...
परिचय
नाम : दिलीप कुमार अर्श
जन्म तिथि : 05 फरवरी, 1975
शिक्षा : स्नातक, प्रतिष्ठा (इतिहास)
मूल निवास : बलिया, प्रखंड - रूपौली, जिला - पूर्णिया, बिहार.
वर्तमान पता : भारतीय स्टेट बैंक, पणजी सचिवालय शाखा, फैजेंडा बिल्डिंग, पणजी, गोवा - 403001
लेखनः कविता, कहानी, आलोचना के क्षेत्र में मौलिक एवं समर्पित लेखन.
सम्प्रति : भारतीय स्टेट बैंक में कार्यरत.
ई मेल : kumardilip2339@gmail-com
... लेकिन बिंदे सा पिछले पाँच बरसों से अब कहीं कोई दूकान नहीं लगाता। यहां तक कि अपने गाँव के जन्माष्टमी मेले में भी नहीं। मेले-ठेले से उसे अब सख्त नफरत है। मेले ने ही उसकी जिंदगी तबाह कर दी। अच्छा-खासा और चलता-फिरता इंसान एकाएक घर बैठ गया।
जान बच गयी थी बस... राधेकृष्ण की कृपा ही थी कि गोलियां दनदनाती हुई उसकी कनपट्टठ्ठी के ठीक बगल से गुजरीं... सांय-सांय करती हुईं लेकिन उसे छू तक नहीं पाईं। आखिर बिंदे सा की घरवाली, अपनी दुकान की पहली जलेबी भगवान कृष्ण के थान में रोज किस दिन के लिए चढ़ाती थी?
इस थान की चमत्कारिक शक्ति के बारे में एक किंवदंती अक्सर सुनने को मिलती थी। कहते हैं, सालों पहले एक बार जन्माष्टमी के ठीक दूसरे दिन, विजय कोसी के बेकाबू जल- विस्तार ने गांव को तीन तरफ से घेर लिया था और कोसी तब तक वापस नहीं लौटी जब तक वह थान की चौखट तक नहीं आई... जैसे भादो में उमड़ती जमुना बालक कृष्ण के पैर छूकर ही शांत हुई थी। गोलीबारी और भगदड़ ने उस घटना से बच निकलने की बिंदे सा की आपबीती ने तो सुनी-सुनाई पर जैसे सच की मुहर ही लगा दी। इसके बाद तो कृष्ण-कन्हैया की भक्ति उसके दैनिक जीवन का अटूट हिस्सा बन गई। अब तो बस बैठे-बैठे डकार या जम्हाई भी आती तो मुंह से अनायास निकल जाता... जय राधेकृष्ण! अब ले चलो प्रभो!
यूं तो उसका पूरा और असली नाम बिंदेश्वरी साह था, गांव-इलाके में सभी उसे बिंदे सा के नाम से ही जानते या पुकारते थे। बिंदे सा यानी इलाके में कड़क और गरम जिलेबी का एकमात्र बारहमासी विक्रेता।
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एक समय था, वह अपनी दूकान दूर-दूराज तक ले जाता, लगाता था। साल की शुरुआत विजय-घाट के चैती दुर्गा -मेला से होती, फिर एक-एककर अपने गांव का जन्माष्टमी मेला, कांप का दशहरा मेला... और अंत में सपाहा का काली मेला। इन्हीं मेलों के माध्यम से उसकी जिलेबी की महिमा इलाके में दूर-दूर फैलती गई थी। मेले का सीजन खतम होता तो शादी, मुंडन, श्राद्ध या कोई भी अन्य सामाजिक भोज-भात के लिए आर्डर या साटा के अनुसार काम में व्यस्त हो जाता। अपनी पुरानी-मैली गुटिकाकार कवर फटी डायरी में, नन्हें-नन्हें अक्षर-अंकों में न सिर्फ आर्डर नोट करके रखता, बल्कि नयी-पुरानी उधारियों या लेनदारियों का विस्तृत हिसाब भी दर्ज करना उसकी आदत में था।
जिलेबी हो या भोज-भात का काम, उधार में खाकर या काम कराकर यहां लोग भूल ही जाते हैं। नकदी या उट्ठा कारोबार बहुत कम होता है। उधारी पर नहीं देंगे या काम नहीं करेंगे तो कारोबार बढ़ेगा ही नहीं और वसूली सही से नहीं होगी तो कारोबार बुड़-नठ भी जाएगा। जो कारोबारी इनमें संतुलन बनाए नहीं रखेगा, बाजार में उसका टिकना असंभव है। यही कारण है बिंदे सा की देखा-देखी गांव के कुछ नौसिखिओं ने किराना-दुकान, खाद-बीज, या रेडीमेड कपड़े आदि के कारोबार बड़े जोर-शोर से शुरू किये थे, डेढ-दो साल भी हुए नहीं कि उधारी में सब डूब गया। बिंदे सा ने पहले ही दिन उन लोगों से कहा था, "उधार पर माल उठाकर उधार में बेचना आसान है लेकिन समय से वसूली न होने पाए तो माल के थोक व्यापारी का आदमी तगादा के लिए कुरसेला से आकर फरार खुदरा व्यापारियों को इलाके भर में यमदूत की तरह ढूंढ़ता है। फिर भागते रहो दिल्ली, पंजाब, मुंबई या दुबई।"
क्रोनिक उधारखोरों के खिलाफ थोड़ी-बहुत सुनवाई सरपंच के दरबार में पहले होती भी थी। अब तो वो भी नहीं। नये सरपंच तो खुद ही अपनी बेटी के ब्याह में भोज-भात का काम कराकर दो साल से खर्चा दबाए बैठे हैं। कुरते का कपड़ा और दो पल्ला धोती लेकर गलती की थी। सही कहा है बिजनिस में दोस्ती-मुहब्बत आई तो बिजनिस डूबा समझो। अब तो इसीलिए मांगने में भी शरम आती है। जाने दो, गांव की ही बेटी का ब्याह था न? कभी कभी संतोष भी करना पड़ता है... बिंदे सा को मालूम नहीं, ऐसे ही संतोष का वित्तीय अनुवाद है राइट ऑफ।
उधारी-वसूली के मामले में बिंदे सा बहुत व्यवस्थित, सतर्क और नियमित रहते थे। फसल की कटनी-दौनी के बाद, उसे जब भी खाली या फुर्सत के दिन मिलते, साथ में दो-तीन खाली जूट की बोरियां लेकर, कमर में कुछ खुल्ले पैसे के साथ-साथ पनबट्टठ्ठी का थैला बांधते और नाटी घोड़ी पर बैठ मिशन ‘वसूली’ पर गांव-इलाके की ओर सुबह-सुबह निकल जाते। उधर ही खाना-पीना और सबसे भेंट-मुलाकात और सुख-दुख की बातें होतीं। कारोबार में व्यक्तिगत और सामाजिक संबंध का निर्वाह भी बहुत जरूरी है, हालांकि यह कारोबार का हिस्सा नहीं है, उसे बढ़ाने में सहायक जरूर होता है, बिंदे सा को यह भली-भांति मालूम था... अर्थात् रिलेशनशिप बेस्ड बिजनेस। जहाँ नकद वसूली नहीं होती, वहां धान की भूसी और मकई की भुटरी बोरी भर-भरके ले लेते. इस कैशलेस व्यवहार में, भूसी के रूप में, घोड़ी के महीने-भर का खाना और सूखी भुटरी के रूप में, जलेबी के चूल्हे के लिए एक सीजन का जलावन सुनिश्चित हो जाता और जलेबी का दाम भी वसूल।
जिलेबी बनाने का गुर बिंदे सा को खानदानी रूप से मिला था। कहते हैं, उसके परदादा को ही गांव के मरड़ ने सड़क के किनारे एक कट्ठा अपनी जमीन देकर उस जमाने में बसाया था जब गांव-समाज, वहां के एकमात्र हलवाई के निस्संतान ही गुजर जाने से, कुछ सालों के लिए हलवाई-विहीन हो गया था। भोज-भात या भंडारा में मर-मिठाई के लिए दूसरे गांव से हलवाई बुलाना पड़ता था जो गांव-समाज की इज्जत-प्रतिष्ठा पर किसी आंच से कम नहीं होता था।
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पुराने लोग बताते हैं कि जब तत्कालीन मरड़ परमेसर बाबू की माता जी का देहांत हुआ था, उसकी अर्थी-यात्रा में उस जमाने में करीब हजार लोग गंगाजी के कुरसेला घाट पर पहुंचे थे। दाह-संस्कार और अस्थि-विसर्जन के बाद जब सभी कठियारी गंगा में नहाकर किनारे आए तो गरम जिलेबी का भंडारा शुरू हुआ। छोटी-छोटी जिलेबी कम पड़ गई तो हलवाई ने बड़ा-बड़ा जिलेबा छांकना शुरू किया। लोगों ने अघाकर खाया। कुछ लोगों ने इतना जिलेबा तोड़ा कि गांव पहुंचते ही लोटा लेकर बंसबाड़ी दौड़ते-अगोरते जान आधी हो गई।
बिंदे सा के परदादा के खिलाफ बाकायदा शिकायत पहुंची थी मरड़ के दरबार में कि जलेबा में कुछ तो मिलाया था हलवाई ने। मरड़ ने उन लोगों को डांट कर दफा किया था, "अपनी जीभ का सम्हार तो है नहीं हलवाई और जलेबा को बदनाम करते हो, खाकर खोट निकालना... राड़ सूद्दरवाला
धरमपुरिया संस्कार कभी जाएगा नहीं तुम लोगों का। भागो नहीं तो कभी किसी मरनी में कौल भी नहीं होगा।" मरड़ का कड़ा रुख देखकर लोगों की सिट्टठ्ठी-पिट्टठ्ठी गुम हो गई थी। और तभी से वह हलवाई भी इलाके में जिलेबा के लिए मशहूर हो गया था।
बिंदे सा ने आज तक सिर्फ जलेबी बनाई-बेची ही नहीं है, इसके बहाने उसने पूरे इलाके की धड़कती नब्ज को भी खूब टटोला है और उसकी प्रत्येक धड़कन में लगातार समय के उतार-चढ़ाव को स्वयं महसूस भी किया है ।
चालीस-पैंतालीस साल पहले इस इलाके में भात भी सिर्फ पर्व-त्योहार में ही बनता था। धान के नाम पर भदैया धान लगाते थे लेकिन वह भी कोशी की बाढ में दह-भंस जाता था। कुछ जीवट-जिद्दी और मजबूर किसान नाव लेकर धान के सड़ते सीस पानी से छांककर बोरा में भर-भरकर लाते थे। कोई देखता भी नहीं था कि सीस अपने खेत का है या पड़ोस का। कभी-कभी भात से भी बाढ़ में सड़ते धान की बास आती थी। बाढ़ की वापसी के बाद गीले खेत में ही उड़द के काले बीज छींटते थे, और खेत भर-भरके उड़द की फसलें लहलहा उठती थीं।
मक्के की रोटी और उड़द की दाल का चिकना संयोग भूख और भोजन के रुखड़े संबंध के बीच स्नेहक की तरह काम कर स्वाद को जीवन में बचाए रखता था। इसी उड़द के बेसन की जिलेबी या बूंदी लोगों की जीभ पर यदा-कदा संजीवनी मिठास की लार घोलती रहती थी। गांव में कई ऐसे लोग या घर-परिवार थे जिन्हें सिर्फ मरनी, श्राद्ध या विवाह के अवसर पर ही भात या मिठाई नसीब होती थी। ऐसे महंगे खाद्य पदार्थ को खरीदकर खाना गिने-चुनों के ही भाग्य में था। इसलिए बहुजन को ऐसे अवसर की किंचित् प्रतीक्षा भी रहती थी, ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण या अनुचित नहीं होता होगा।
अब तो लोगों के पास पैसे हैं, घर-घर कोई न कोई नौकरी या बिजनेस है। पुलिस-थाने और ब्लॉक की दलाली कर या बाहर परदेस कमा कमाकर, कैसे भी पैसे कमाओ, कौन देखता है! पैसा तो पैसा ही है, उसकी क्रयशक्ति वही रहती है लेकिन बिंदे सा को यह बात अभी भी हजम नहीं होती। साधन और साध्य की पवित्रता का उन्हें बहुत ख्याल रहता था। आज तक कभी पासंग नहीं मारा। एक-दो जिलेबी या मिठाई चढ़ाकर ही बेची। बेसन में कभी मकई का आटा नहीं फेंटा। फिर भी भगवान ने यह सजा क्यों दी, शायद और अच्छे दिन...?
...परन्तु, भादो की वह घोर काली रात उसकी स्मृति से कभी नहीं जाती। गाँव में जन्माष्टमी का मेला था। उसकी दूकान मेले के ठीक बीच में थी। बारह बजे के आसपास का समय। श्रद्धालुओं और मेला-दर्शकों की उमड़ती ठसमठस भीड़, लोग पर लोग। कुछ ही क्षणों में कृष्ण जी के जन्म की घोषणा होगी। मंदिर के अंदर पूजा-पाठ, सामने बाहर पंडाल में नाम-संकीर्तन, और एक तरफ परिसर के बाहर बबुजन मोची की बैंड टीम की ढोल-पोपी, वातावरण को भक्तिमय कर रहा था... एकाएक भक्ति की उठती लहरी, बम-पटाखे के निर्मम शोर में खो गयी। सभी चिल्ला रहे थे... बोल दे कृष्ण भगवान् की जय! कृष्णावतार की धमाकेदार सार्वजनिक घोषणा हो चुकी थी ।
मेले से बाहर खुले-ऊंचे खेत में एक मंच के सामने लोग इकट्ठे होने लगे थे। जमीन पर बिछी पुआल पर वे अपनी-अपनी मंडली के साथ जगह ले रहे थे। मंच के पीछे से घोषणा हो रही है... आज की रात... महान सामाजिक अभिनय...भाइयों- बहनों, माताओं-पिता... देखना न भूलें ...कुछ ही देर बाद... मेले की भीड़ आधी से भी कम रह गई। श्रद्धालु अपने-अपने घर गए और नाच-गान प्रेमी की उमड़ती भीड़ नाटड्ढ-मंच की ओर सरकने लगी। मेले में सारी दुकानों के आगे उजले-नीले प्लास्टिक के पर्दे टंग गए थे। सिर्फ ऊँघते दुकानदार दिख रहे थे। अब सिर्फ चाय और पान-गुटखा की दुकानों पर कुछ लोग हैं। आपस में बातें कर रहे हैं, "इस बार का मेला, लग रहा है मेला है।" कोई बोला, "आज तो शुरुआत है, कल देखना धमसौआ भीड़, जब सांझ को कुश्ती और रात को डरामा होगा।" पूरा मेला-प्रांगण अब खाली हो गया है... जेनरेटर की झकास रोशनी में जमीन पर जहां-तहां थूकी गई पान-गुटखा की पीक अब स्पष्ट दिखाई पड़ रही है ।
नाटक-नौटंकी का प्रेमी बिंदे सा भी साढ़े ग्यारह बजे से ही वह अपनी दुकान बढ़ाकर कुर्सी पर बैठा, भर मुंह पान लिए, ऊंघ रहा था। आखिर उसके कान में नाटक शुरू होने के ठीक पहले प्रार्थना-गीत के बोल पड़े तो कच्ची नींद खुली। वाह रे आवाज! राम सुंदर शर्मा की आवाज! वह बचपन से ही सुनता आया था। अभी-भी वही टान और खनक... मिठास में उसकी जिलेबी से कम रत्ती भर भी नहीं। प्रार्थना के गंभीर क्षणों से बोझिल दर्शक-मन को हल्का करने, गुदगुदाने आया रसिकलाल जोकर। फिर प्रकट हुए नाटक के निर्देशक महोदय, नाटक की पृष्ठभूमि पर दो शब्द कहने। सामने सबसे दूर से आवाज आई... भाषण बंद करो, एक बज रहा है, सीन तो शुरू करो."बिंदे सा को ऐसे लोगों से बहुत चिढ़ होती है जो भीड़ में छुपकर किसी को बोलने से रोकते हैं वो भी जब अलादीन बाबू जैसे नाटक नौटंकी के बड़े जानकार और मंजे हुए विद्वान् माइक पर हों।
वह कुर्सी फर खड़ा हो गया... पर्दा उठ गया... पहला अंक... पहला दृश्य...
नाटक के पहले अंक के चारों दृश्यों ने दर्शकों का मन जीत लिया और दूसरे अंक के लिए मन में उत्कट उत्सुकता भी जगा दी। उजड़ते गांव-समाज और बिखरते परिवार पर
आधारित यह नाटक गांव के ही एक होनहार युवा लेखक ने लिखा था। कितनी तकलीफें उठाकर, संघर्ष करके गरीब मां-बाप ने बेटे को पढ़ा-लिखाकर लायक बनाया। मां ने, सोने के नाम पर जो एकमात्र बाली रखी था अपने सूने कान के लिए, कैसे बेच दिया! बाबूजी ने भी चपहरी हाट चढ़ाकर प्यारा गोला बाछा जिसके लिए छोटी बिटिया अर्थात नाटक के हीरो की एकमात्र बहन उसकी पूंछ पीछे की तरफ खींचती हुई कितना रोई थी। कुछ महिलाएं दर्शक-दीर्घा में बैठी आंचल से अपनी-अपनी आंखें पोंछ रही हैं। अब बेटा बड़ा आदमी बन गया है। दूर शहर में किसी बड़ी कंपनी का आला अफसर... अब देखना है बेटा करता क्या है, अपने परिवार और गांव-समाज... के लिए या थोड़े दिन फर्ज निभाकर सबको भूल... दूसरा अंक... थोड़ी देर में नाच गाने के बाद। अभी जोगेंदरा डांसर उतरेगा।
...अपने-अपने जीवन के संघर्ष, सपने और उम्मीदों की कहानी मंच पर जीवंत होते देख दर्शकों में जो तल्लीनता-जनित शांति छायी थी, धीरे-धीरे नाच-गान की मौसमी फूहड़ता में गायब हो गयी।
सुबह के चार बज गए होंगे। धड़ाम से जोर की आवाज हुई। लोग आकाश की ओर देखने लग गए लेकिन कुछ दिखा ही नहीं। लगातार तेज रोशनी में देखते-देखते एकाएक ऊपर या दूर देखने पर कुछ नहीं दिखता। तब तक फिर चार-पांच बार
धड़ाम धांय धांय हुए। बारिश की आशंका जाती रही और चारों तरफ आतंक मिश्रित भय व्याप्त हो गया। हवा जैसे रुक गयी। भगदड़ मचने लगी। भाग रे भाग गोली... जातीय गैंगवार।
विरोधी जाति के बदमाश को पता चला है कि उसका दुश्मन ढोढ़वा मंडल नाटक देखने आया है। डेढ़-दो हजार लोग... एक-दूसरे को कुचलते... भागते... सुरक्षित ठिकानों की तलाश में, दुकानदार भी अपनी-अपनी दुकानें छोड़ भागे... चोर-उचक्कों की मिन्नतें सफल हुईं। जिसको जहां जो मिले लेकर भागो... जेनरेटर की लाइट गुम। चारों तरफ अंधेरा...
बिंदे सा गांव की ओर एकाएक हुए अंधेरे में दौड़ते-दौड़ते सड़क के किनारे पानी-भरे ग्यक्के में गिर पड़े। उस ग्यक्के में बीस-पच्चीस लोग एक-दो मिनट पहले ही गिरे ऊब-डूब कर रहे थे, एक के ऊपर दूसरे। सुबह में सिर्फ दो लोगों को जीवित निकाला गया। एक बिंदे सा और दूसरा चूड़ी-कंघी-नकमुन्नी बेचनेवाला पहलू मियां। कहते हैं, पहलू मियां की माँ ने भी दूसरे दिन ही अपने समाज से नजर बचाकर कृष्णजी के थान में मिठाई चढाई थी।
बिंदे सा को गैंगरीन की वजह से पैर कटवाना पड़ा था। ग्यक्के में पड़े ट्रैक्टर की फाड़ी पर गिरने से उसका दाहिना घुटना गंभीर रूप से चोटिल हुआ था, जिसे उसने हल्के में लिया। बाद में घाव जब महीनों तक भरा नहीं तब पटना जाकर बड़े डाक्टर को दिखाया।
पूरा इलाका सन्न् तब रह गया जब दूसरे दिन शाम को उस नाटक के लेखक की लाश भी उसी ग्यक्के से बरामद हुई थी। तभी मुखिया जी ने पंचवर्षीय शोक घोषित करते हुए कहा था- अगले पाँच साल तक कोई नाटक-नौटंकी नहीं। सिर्फ मेला लगेगा, और वह युवक मरा नहीं है, गांव-समाज के लिए शहीद हुआ है, इसलिए थान के बाहर सामने चबूतरे पर विकास-फंड से उसका भव्य स्मारक बनेगा।" मुखिया जी की बात को कौन काटता? और यह निर्णय तो वाजिब ही था और सार्वजनिक घोषणा भी जरूरी।
कुछ पढे-लिखे कह रहे थे, "युवक अगर जिंदा रहता और वह इस तरह लिखता रहता तो दिल्ली से गांव-समाज के लिए साहित्य का कोई बड़ा इनाम या मेडल कभी-न-कभी जरूर लेकर आता." गांव में भी अब कुछ-कुछ लोगों को साहित्य वगैरह औलंपिक का कोई खेल-सा दिखता है।
...तभी से बिंदे सा शोकव्रती मनोदशा में जी रहा है। जिलेबी उसे काटने दौड़ती, और मेला उसे डराने। वैसे पिछले पांच सालों में उसने बहुत कुछ खोया है तो कुछ पाया भी है।
धर्मपत्नी चली गई। कुछ जिगरी संगी-साथी भी नहीं रहे। पिछले साल दोनों बेटे भी बहुएं-बच्चे लेकर चले गए। पहले जब पोते-पोतियां बहुत छोटे थे, दोनों बहुएं भी यहीं रहती थीं। बैठे-बैठे भी दिन कैसे कट रहे थे, पता नहीं चल रहा था।
अब तो दोनों बेटे दिल्ली में ही बस गए हैं। वहां उनका लेबर कांट्रैक्टर का साझा कारोबार है। पैसे वे खूब भेजते हैं। बाबूजी को भी वे लोग अपने पास ही रखना चाहते हैं। कई बार इसके लिए उसे दिल्ली से दोनों बेटों का फोन भी आया। वे एक बार बाबूजी को वहां ले भी गए। एक महीने के बाद मुंह-कान चिकनाकर गांव लौटे थे तो कुछ हमउम्र ने चुटकी भी ली थी , "बहू ने बहुत खिलाया लगता है।"
लेकिन शहर उसे जेल लगता है। गांव में जो आजादी है वह कहीं नहीं। वैसे भी सत्तरवर्षीय बिंदे सा अब घर में अकेला नहीं है। आठ-दस बच्चे उसकी सेवा में हाजिर रहते हैं। गांव में कहीं जाना होता है तो मुखिया जी की दया से एक तीनपहिया “वीलचेयर साइकिल मिली हुई है, उसे धकेलते सभी बच्चे गंतव्य तक हंसते-खेलते पहुंचा देते हैं। स्थायी सेवा के लिए एक जवान नातिन घर में रहती है।
बिंदे सा इन बच्चों के लिए बिंदु गुरू जी हैं। ये बच्चे गाँव के उन मां-बाप के हैं जिन्हें मुफ्त या सस्ती शिक्षा की जरूरत तो है और उससे भी ज्यादा आशा, आत्म-विश्वास और साहस की।
अभी एक बच्चा उसे बता रहा है, "गुरू जी, रात से ही रिहल-सिहल शुरू हुआ है स्कूल में।" गुरुजी को याद आ गया। आखें भर आईं।
इस साल उस शहीद युवा लेखक की पुण्यतिथि, जन्माष्टमी के ठीक दूसरे दिन पड़ रही है।
...आज वो दिन आ ही गया जन्माष्टमी का। अभी बेटे का भी फोन आया है । बाबूजी थोड़ा भावुक हैं, नहीं बेटा, मैं इस बार वहां आ पाऊंगा या नहीं, अभी नहीं बता सकता। वैसे भी आज जन्माष्टमी है और कल सांझ को कुश्ती और रात को नाटक। मुझे अपनी बची-खुची पीढ़ी के साथ कल इसका दूसरा अंक देखना है। बेटे ने थोड़ी उदासीनता की आवाज में कहा, "क्या बाबूजी, अब कौन देखता है नाटक!" बिंदे सा ने उदास होकर कहा था, " बेटा, इस दूसरे अंक का इंतजार मैं ही नहीं, पूरा गांव-समाज इलाका और यहां की पूरी पीढ़ी कर रही है और आज से नहीं, पूरे पांच साल से। हो सके तो हवाई जहाज से तू भी आ जा... तेरी पसंदीदा मिठाई जिलेबी ले आऊंगा और तुम्हें वापस गोद में बिठाकर खिलाऊंगा... और सुन, वहां आने के बारे में भी सोचूंगा, लेकिन नाटक का दूसरा अंक देखने के बाद।"
गुरुजी के मुंह से गोद और जलेबी की मीठी बातें सुनकर जो बच्चे हंस रहे थे, खुश हो रहे थे, दूसरा अंक और वहाँ जाने की बातें सुनकर असमंजस में डूब गए। वे अब समझ नहीं पा रहे थे कि वे खुश हों या उदास ।
बेटे हों या वे छोटे-छोटे बच्चे, सभी की उत्सुकता अब नाटक के उस दूसरे अंक में थी।
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सम्पर्क : भारतीय स्टेट बैंक,
पणजी सचिवालय शाखा,
फैजेंडा बिल्डिंग, पणजी, गोवा-403001
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