जय मालव महाकाव्य में वर्षा वर्णन -1 -------------------------------------- स्थान - वाहीक (प्रा0 पंजाब) समय - ईसापूर्व 325, वर्षा ऋतु। सन्दर्...
जय मालव महाकाव्य में वर्षा वर्णन -1
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स्थान - वाहीक (प्रा0 पंजाब)
समय - ईसापूर्व 325, वर्षा ऋतु।
सन्दर्भ - जय मालव महाकाव्य में वर्षा वर्णन
प्रसंग - तक्षशिला से शिक्षा पूरी कर वापिस वाहीक देश में जय का आना
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(जय वापिस वाहीक प्रान्त की सीमाओं में पहुंचा)
ठीक तीसरे मास जहाँ हरियाली लगी दमकने फिर से
कुंज कली सब चहक उठीं, चिडियों की आहट बसने से
प्राचीर-पुरी की एक वनैली धारा कलकल साथ हुई
वाहीक देश की सीमाओं की द्योतक वो बरसात हुई।
वाहीक प्रान्त उठ खड़ा हुआ, स्वागत में नयन पसारे ज्यों
इतने बरसों की अनदेखी प्यास नयन बरसाते ज्यों।
XXX
साँझ सवेरों की झिलमिल बरसाती बूंदें, आर्द्र शिखर
ऐसे में टिक गया कहीं भी छाँव मिली या औघड़ टप्पर
कहीं ग्राम के बीच पहुंचकर रुका, तभी बरसात हुई
कभी विजन में वट की छाया पसरी थी, बरसात हुई।
XXX
कसमसाती हवाओं के सार्थ बाधित दृष्टि करते
बादलों से पटे नभ में, खिलखिलाकर वृष्टि करते।
और यह बरसात वाली, बादलों की सुबह थी जब
नदी तट के प्रांत में ये, हवायें आक्रांत करतीं।
खेतियों में कीच पलती, रास्तों बिछलन पड़ी
इस अंधेरे मास में किसको सफर की थी पड़ी।
इरावती के निकट ग्राम में मद्धम गति बरसात लगी
बूँदाबाँदी में सिमटी धरती थी जैसे अभी जगी।
निकट कुटी में झुककर देखा, नाविक का मुख बुझा बुझा
दोपाये पर बैठ, न जाने क्या करता था झुका झुका।
वामांगी वामा बैठी थी, भोजन-भांड उफनता था
"आता हूँ, जा बैठो तब तक" कहकर सहसा उचक पड़ा।
जीर्ण वस्त्र कांधों पर डाले, हाथ लिए चौपाट पुराना
घर से निकला, भीतर से आवाज़ हुई- "जल्दी आ जाना।"
XXX
कुछ ही पल में नौकायन आरम्भ हुआ, लहरें कटतीं
गरज गरज नभ की आहट से गूँज परस्पर खटती-बंटती
इस भीम-भयंकर महाराशि में, गहराई की थाह नहीं
मटमैला जल, जहां धरातल, किधर, कहाँ, कुछ राह नहीं
झिलमिल झरती कुसुमराशि सी वर्षा होती, गगन गरजता
पानी पर बूंदों का तांडव, महासिंधु अठखेली करता!
ये वर्षा का मास, बादलों की गर्जन में राग छिपा
जीवन का उत्साह कहीं, घर-भर में जैसे चुप, बैठा।
जीर्ण पड़े जीवन में जैसे, सहसा लगता पूर्ण विराम
कहीं त्रस्त कर देती जन को, कहीं कहाती है, अभिराम
वस्त्र सूखते कहीं कुटी में, कहीं भीगते बाहर ही
जनजीवन को जो न थका दे, वह भी क्या वर्षा! क्या नाम!
सभी दिशाओं से घिर-घिरकर मेघ अजब अठखेली करते
पट-अम्बर से घिर मेलों में, नटवर स्वांग दिखाते जैसे।
ऐसे ही उन मेघ-पटों ने, घेर लिया सब ओर गगन को
और बिजलियों को चमकाकर, दिनभर स्वांग रचाता कोई।
XXX
नदिया तट से दूर खड़े, एकांत वनों में वर्षा पड़ती
पत्तों पर वर्षा की आहट से धुँधलाहट जग पड़ती
नावक के मुखपर फैली थी, एक अभीप्सा, अभिलाषा
दूर दूसरे तटपर उसका देस, जहाँ उसकी प्रत्याशा -
खड़ी हुई होगी वो ही मनचली राह में नयन बिछाए
भोजन की थाली में अपने, मन का मधुरिम प्रेम सजाए।
कुछ बरसी, कुछ थमी, गगन की गगरी लकदक भरी हुई
जय ने नावक को देखा, उसके मुख सुस्ताहट भरी हुई
मन ही मन अविराम सोचता, कैसे अप्रतिम जुटा कर्म में !
उसकी आशा उसे रिझाती, उसके इस गृहस्थ धर्म मे
साँझ पड़े जब ले जाएगा, अपनी नौका, अपने घर मे
हाथों में कुछ मुद्राएं, औ' आंखों में होंगे सपने।
सबकुछ मिलता यहीं, स्वर्ग या नरक इसी को जानो
धर्म-कर्म को जान स्वयम् अपनी गरिमा पहचानो।
XXX
इस संशय में नाव लग गई, दूजे तट, सब उतर पड़े
मूल्य दिया सबने, सब अपने निश्चित पथपर निकल पड़े।
फिर किंचित संतोष छा गया, मुखपर उसके लौट चला
उस ठिठुराते पल पर नाविक के मुख स्वतः ही गीत पला।
नाविक बीच नदी में पहुँचा था, झिलमिल वह दमक उठा
और उधर की एक कुटी का धुआँ उसे रोशनी देता।
वर्षा अब कुछ थमी हुई थी, बूंदों का स्वर शांत हुआ
काले-श्वेत बादलों में से, नीला नभ कुछ कांत हुआ।
जय मालव महाकाव्य में वर्षा-वर्णन - 2
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स्थान - रावी नदी की उपत्यका
समय - ईसापूर्व 325, वर्षा ऋतु।
सन्दर्भ - जय मालव महाकाव्य में वर्षा वर्णन
प्रसंग - वर्षा के समय मालव गणराज्य का जनजीवन
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पिछले पर्वत ऊँचे वन वे अँधियाले से भर बैठे
मेघ-खण्ड आ ठहरा उनपर, धरती की पृष्ठा को घेरे।
काला रंग अधर का ऐसे जता रहा, वर्षा होने को
अपनी चादर में वह पर्वत सिमटा, चुप हो, लगा ऊँघने।
वर्षा की छिड़बिड़ हुई, पात वर्षा को उमसे तृप्त हुए
बूंदें पड़नेे की हलचल से सांझ सवेरे एक हुए।
XXX
मालव की बाटों में यह जनजीवन लगा सिमटने फिर से
अकड़ा हुआ कलेवर जैसे, अँगड़ाया सोने को फिर से।
उधर क्षितिज पर कड़क रही थी, जमा हुई घनघोर घटाएं
हवा दौड़ने लगी, कड़कती, अँधियाती सब छोर, दिशाएँ।
XXX
यह जीवन- अंधेर गुहा में, चपला से शावक ज्यों जागे
उसकी आँखों का निश्छल औत्सुक्य द्वार तक ले आये
वर्षा की पड़ती हुई फुहारों से उत्फुल्ल हुआ, कुछ खेले
और तंग हो वापस माँ की, गर्म ओट में सो जाये।
यह जीवन- कोटर में भीगे, पंखों को खोले, झिड़काये
शाखाओं पर बैठ रखे, आँगन में, घर में, सुस्ताये।
यह जीवन- बागों में खेले, तंग गली-बाटों में खेले
कंकड़ियों को भरे हाथ में, आँगन में पल-पल खिजियाए।
यह जीवन- भीगे कपड़ों से, आँगन में कीच जमा होने से
लिए हाथ मे झाडू, कपड़े, मौसम पर जमकर बरसाए।
यह जीवन खीजे, मिट्टी के लौंदे जहाँ चाक पर चढ़ते
कल के बने हुए बर्तन भी, अब तक सूखे नहीं सुखाए।
यह जीवन हँस पड़े जहाँ, सुखी धरती हो तृप्त, छके
पिंडुलि तक कीचड़ में डूबे, हल-बैल जहाँ चलते जाएं।
यह जीवन सम्भ्रांत कुटी की, खामोशी में उकताए
चैन पड़े वर्षा होने पर, अब जाए भी तो क्या जाए?
प्रणयातुर कोने में जलते दीये की लौ बुझ जाती
अंधकार में गाढालिंगन, रोम खिले, कण-कण मुस्काये
यह जीवन सन्ध्या में जागा, ऊँचे शिखरों पर धूप खिली
कुछ पल को उमसे गात उड़े, नभ पर पंखों को फैलाये।
यह जीवन मन्दिर में जागा, जहाँ दिया था एक दमकता
खपरैलों पर धुआं उमड़ता, जहाँ ग्राम को महकाये।
यह जीवन बाटों में जागा, गुहा, खेत, घाटों में जागा
पर्वत, राहों में अँधियाया, मधुकर-भँवरों में मुस्काया।
क्रमशः
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जय मालव
@मिहिर
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टिप्पणियाँ
यहाँ वर्षा पड़ने से पहले, वर्षा पड़ते समय, और वर्षा पड़ने के बाद का क्रमशः वर्णन है। पहले दो प्रसंग वर्षा की आहट आने के हैं। तीसरे प्रसंग में क्रमशः वन की किसी गुफा में सोए शावक के अचानक जागने, घर आँगन में चिड़ियों के जमा होने, गलियों में बालकों के उदास खड़े होने, गृहणियों का मौसम से चिढ़ने, कुम्हार की नाराज़गी, किसान की खुशी, किसी एकाकी सम्भ्रांत व्यक्ति की निराशा, और प्रणयातुर दम्पति की खुशी आदि सबको समेटता चलता है।
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