स्वा धीनता की लडाई में बांग्ला के मनीषियों का योगदान अविस्मरणीय हैं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने आधुनिक बांग्ला भाषा तथा उसके व्याकरण की नींव ...
स्वाधीनता की लडाई में बांग्ला के मनीषियों का योगदान अविस्मरणीय हैं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने आधुनिक बांग्ला भाषा तथा उसके व्याकरण की नींव रखी थी जो कि आज भी अनुसरणीय हैं. जिसका पठन-मनन आज भी होता हैं. उनका समय 1812 से 1859 का है. तत्पश्चात माइकेल मधुसुदन दत्त का आगमन साहित्य के रचनात्मक क्षेत्र में होता है. उनका समय 1824 से 1873 का है. दीनबंधु मित्र का आगमन 1830 से 1873 में होने के साथ-साथ जनता में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना भड़क उठती जिसका आधार उनके द्वारा लिखे गए नाटक "नील दर्पण" आदि है. बांग्ला भाषा एवं साहित्य के उत्कर्ष-साधन तथा बंग्वासियों के जातीय चरित्र के गठन-नियंत्रण में "वन्देमातरम" मंत्र के उदघोषक ऋषि, साहित्य सम्राट बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का अपरिसीम योगदान है. बंकिम की रचनाओं में भारतीय संस्कृति, राष्ट्र प्रेम मिलता है. उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में वीर वीरांगनाओं का समावेश मिलता है. उनकी मृत्यु के बारह वर्ष के मध्य ही देश में स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ हुआ. इस राष्ट्रीय आन्दोलन के मूल में निश्चित रूप से बंकिमचन्द्र की प्रेरणा रही. उनके "आनन्द मठ" और इसके बाद "वन्देमातरम" संगीत के संबंध में देश और विदेश में जितनी चर्चाएँ हुई उनकी और किसी रचना की नहीं हुई. परवर्तीकाल में बंगाल और फिर समूचे भारतवर्ष में स्वदेशी आन्दोलन जिस वन्य से साधारण जनता को बेचैन और शासन सम्प्रदाय को अस्तव्यस्त कर दिया था, सरकारी और गैर सरकारी सभी आलोचकों ने सन्यासी विद्रोह का योगसूत्र ढून्ढ निकाला था. उन्होंने पौराणिक ग्रंथों का गहन अध्ययन करके "कृष्ण चरित्र" नामक विशाल निबंध की रचना की जिसमें कृष्ण के अल्हड रूप का खण्डन करके उनको श्रेष्ठ पुरूष के रूप में स्थापित किया तथा उनकी विशिष्टता को स्थापित करके हमारे पौराणिक धरोहर को महत्ता प्रदान की . उनका समय 1838 से 1894 का है.
विश्व में शायद ही ऐसा कोई कवि हो जिनकी दो रचनाएँ दो स्वाधीन राष्ट्रों, पड़ोसी राष्ट्रों के राष्ट्रगान बने हों. इधर भारत का राष्ट्रगान "जन गन मन अधिनायक जय है" और उधर बांग्लादेश का राष्ट्र गान "आमार सोनार बांग्ला आमी तोमाय भालोबासी" हैं. कहा जाता है कि श्रीलंका का राष्ट्रगीत भी उनके द्वारा बनाए गए सूर तथा शब्दों द्वारा रचित है. न जाने कैसी राष्ट्रीय चेतना उद्दबुद्ध होने पर किसी कवि के लिए ऐसी दो रचनाएं संभव हैं जिन्हें दो स्वाधीन राष्ट्र अपने राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार करें. "अमारा सोनार बांग्ला आमी तोमाय भालोबासी" के मध्य से हमें मातृभूमि के प्रति रवीन्द्रनाथ ठाकुर की श्रद्धा का पता चलता है. वे एक बंग भाषी कवि थे, बांग्ला भाषा में रचना करते थे परन्तु रवीन्द्रनाथ केवल मात्र एक बंगाली कवि ही नहीं थे उन्होंने एक अखण्ड भारत के वृत्त में भी अपने को अवतरित करने की चेष्टा की है. इसका फल उनकी विख्यात कविता है "--हे मोर चित्त पूर्ण तीर्थ जागरे धीरे एई भारतेर महामानबेर सागर तीरे." इस दीर्घ कविता में हम किस प्रकार "शक हुए दल पठान मोगल एक देहे होलो लीन!" का बार-बार स्मरण करते हैं.
परन्तु इतने में ही रवीन्द्रनाथ की राष्ट्रीयता की इतिश्री नहीं हो जाती है, वह एक अन्य बृहत्तर वृत्त में चली जाती है. वह है उनका विश्वबोध. अर्थात पूरा विश्व भारतवर्ष में समा गया है. उन्होंने विश्वभारती की कल्पना इसलिए की है - जहाँ विश्व तथा भारत एकाकार हो जाएँगे - यत्रविश्वं भवत्येक नीडम" - अतएव यहीं पर उनकी राष्ट्रीयता बोध की चेतना विश्व राष्ट्रीयता में रूपांतरित हो जाती है. इसके पीछे रवीन्द्रनाथ का एक विराट दर्शन था जिसे "मानवधर्म" कहते हैं. उनके अनुसार अखण्ड भारतीयता को प्रतिष्ठित करने के लिए साहित्य, कला तथा संस्कृति में किस प्रकार परस्पर संपर्क किया जा सकता है इसके प्रति हमें प्रयत्नशील होना है. उनका समय 1861 से 1941 तक का हैं.
स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय दर्शन शास्त्र की शिक्षा पूरे विश्व को दी. उन्होंने मुख्यतः युवाशक्ति को जागृत होने का आवाहन किया हैं. उनसे बड़ा देशप्रेमी विरल है. भारतीय संस्कृति को सरल बनाकर जन-जन तक पहुँचाया है. राष्ट्र की अस्मिता को अक्षुण्ण रखने की प्रबल भावना से ओत-प्रोत उनके साहित्य विश्व साहित्य की धरोहर है. उन्होंने शिक्षा और ज्ञान के माध्यम से आत्मशक्ति को सशक्त बनाने का संकल्प किया. जिससे मानव "सतमानव" बनता है और सच्चाई के पथ पर अग्रसर होता है. वर्तमान समय में इन नैतिक गुणों का होना वांछनीय है. आज इस Moral degradation के ज़माने में, ऐसे समय में इन महापुरुषों की वाणी की ही सबसे अधिक आवश्यकता है. इनका समय 1863 से 1903 है.
अतुल प्रसाद सेन के देशात्मबोधक गीत राष्ट्रीय चेतना से मन को भर देते हैं. भारतीय संस्कृति का ज्वलंत उदाहरण उनके गीतों में मिलता है. "मोदेर गरब मोदेर आशा, आमारी बांग्ला भाषा" उनका समय 1871 से 1934 है. इनके साथ हम शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय जैसे महान कथा शिल्पी को भी नमन करते हैं. इनकी राष्ट्रीय अस्मिता से भरी कृतियाँ जगप्रसिद्ध है. उनका विश्व प्रसिद्ध उपन्यास "श्रीकान्त" उनकी ही आत्मकथा है ऐसा माना है जिसमें उनका समय, समाज, समाज व्यवस्था, संस्कार, संस्कृति के साथ-साथ उनके संघर्ष की कथा भी है. वे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अनुरागी थे. उन्होंने विप्लवी भाव से भरा एक उपन्यास "पथेरदावी" लिखा. जिसका नायक सव्यसाची नेताजी सुभाष बोस जैसा ही देशप्रेम से उत्प्रेरित होकर घर छोड़कर दुश्मनों से भीड़ जाता है. उनका समय 1876 से 1938 का है.
विप्लवी कवि काजी नजरूल इस्लाम ने अपनी रचनाओं द्वारा लोगों के रग रग में आग भर दी थी. "दुर्गम गीरि..लंघीते हवे रात्री निशीते जात्रिरा हुशीयार", "दुलीते छे तरी फुलितेछे जल कोडारी (नेता) तुमी हुशीयार." अंग्रेजों को संबोधित करके लिखा गया काव्य आज भी प्रसिद्ध है. देशवासियों को सावधान करते हैं. जोश और राष्ट्रप्रेम से भरे उनके गीत आज भी गाए जाते हैं. समय की मांग को मद्देनजर रखते हुए उनके जैसे देशप्रेम की रचनाओं की आज भी जरूरत है. "हओ धरमेते धीर, हओ करमे ते वीर, हओ उन्नत शीर, नाहीं भय. भूली भेदा भेद ज्ञान, हओ सबे आगुआन, साथे आछे भगवान हवे जय."
हमारे आलोच्य लेखक द्विजेन्द्रलाल राय ने 1863 में कृष्णनगर में जन्म ग्रहण किया. उनके पिता कार्तिकेयचंद्न राय एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे. 1884 में प्रेसिडेन्सी कॉलेज से एम.ए. की परीक्षा के पश्चात् वे देवघर प्रस्थान करते हैं. उस समय लिखा उनका "शमशान संगीत" परवर्तीकाल में "त्रिवेणी" ग्रन्थ में प्रख्यात है. फिर वे विलायत गमन करते हैं जहाँ से वे कृषिविद्या में शिक्षा ग्रहण करते हैं. इन दिनों विदेशगमन करने वालों को सामाजिक निर्यातन का सामना करना पड़ता था. अतः उनको भी यह दंड भोगना पड़ा जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनकी रचनाओं में दिखाई पड़ता है. 1889 में उनका विवाह सूरबाला के साथ हुआ परन्तु शीघ्र ही पत्नी-वियोग का दुःख भोगना पड़ा.
साहित्यिक जीवन के आरम्भ में ही तत्कालीन श्रेष्ठ बांग्ला साहित्यकारों के साथ उनका मिलना हुआ. इसी समय रवीन्द्रनाथ ने उनकी शक्ति को पहचाना और उनके साहित्य की प्रशंसा की. उनकी "आर्यगाथा", "आसाढे" तथा "मन्द्र" काव्य के गुणों की व्याख्या करते हुए एक निबंध की रचना करते हैं. उनके अनुसार - "इसमें कोई संदेह नहीं है कि "आर्यगाथा" की रचनाएँ अकृत्रिम गीति-माधुर्य से भरी हुई है." "आर्यगाथा" द्विजेन्द्रलाल की प्रतिभा की एक मौलिक सूत्र है. "आलेख्य" और "त्रिवेणी" इससे भिन्न स्वाद की रचनाएँ हैं. "आसाढ़" काव्य में द्विजेन्द्रलाल की द्वितीय प्रतिभा का ज्ञात होता है. इसमें व्यंग्य रस प्रधान है. पहले में व्यक्तिमन का दूसरे में सामजिक मन का. अधिकांशतः इन दोनों गुणों को ही व्यक्ति में नहीं देखा जाता है. परन्तु द्विजेन्द्रलाल में ये दोनों गुण स्वाभाविक रूप में थे. गीतिमाधुर्य और व्यंग्य रस उनकी प्रतिभा के मौलिक गुण थे. जिसका भरपूर प्रयोग उन्होंने अपनी रचनाओं में किया."
द्विजेन्द्रलाल के पौराणिक, ऐतिहासिक तथा सामाजिक नाटकों को देखने पर यह प्रमाणित होता है कि उनके ऐतिहासिक नाटकों ने तत्कालीन समाज में हलचल मचा दी थी. नाटकों की रचना करते हुए उन्होंने देखा कि दर्शक ऐतिहासिक नाटकों को ही पसंद करते हैं. उनके समसामयिक नाटककार गिरीशचन्द्र से भी वे अत्यधिक प्रभावित थे. गिरीशचन्द्र के नाटकों में तत्कालीन हिंदूधर्म का पुनरुत्थान भाव तथा परमहंस देव की प्रधानता रहती है.
द्विजेन्द्रलाल के पौराणिक नाटकों में "सीता" श्रेष्ठ है. इसे उन्होंने नाट्यकाव्य का नाम दिया है. इसकी रचना 1908 है. इस नाटक में सीता के चरित्र के माध्यम से भारतीय संस्कृति के जन-जन तक पहुँचाना ही उनका मूल उद्देश्य था. उन्होंने सीता के चरित्र को इतना महान बनाया है कि वह पूजनीय बन जाती है. उनके राम के चरित्र में भवभूति का प्रभाव होने पर भी व्यक्तिसत्ता तथा समाजसत्ता के विचित्र द्वन्द्व को यहाँ प्रकाशित किया गया है.
सोहराब रुस्तम नाटक 1908 में ही लिखा गया. यह एक ऐतिहासिक नाटक है. इसे अपर भी कहा जा सकता है. सोहराब का संस्कारों के प्रति प्रेम, पितृभक्ति तथा देशप्रेम - इन तीनों वृत्तों में सामंजस्य रखकर नाटक को लिखा गया है. यह नाटक उनके ऐतिहासिक नाटकों के गौरवमय अध्याय के युग में लिखा गया है. इसलिए आफ्रिद के चरित्र के माध्यम से देशप्रेम का एक ज्वलंत रूप दृष्टिगत होता है.
नूरजहान नाटक का रचनाकाल 1908 है. रचनाकाल तथा प्रकाशनकाल की दृष्टि से "नूरजहाँ", "मेवार पतन" के कुछ एक माह की पूर्ववर्ती रचना है. परन्तु ये दोनों ही स्वतंत्र श्रेणी के नाटक है. "प्रतापसिंह" "दुर्गादास" तथा "मेवारपतन" - इन नाट्यत्रयी में राजस्थान के गौरदिप्त इतिहास को आधार बनाकर नाटककार ने अपना देश प्रेम, समाजनीति, धर्मनीति तथा विश्वमैत्री के स्वप्न को साकार किया है. परन्तु "नूरजहान" और "शाहजहान" ऐतिहासिक नाटक होने पर भी मूलतः चरित्र प्रधान नाटक है. नूरजहान चरित्र के माध्यम से सत्ता की रक्षा करने की क्षमता आदि तेजस्वी चरित्र को दर्शाया है. "चन्द्रगुप्त" नाटक का रचनाकाल 1911 है. यह द्विजेन्द्रलाल का मुसलमान युग सम्पर्कित अंतिम नाटक है. इसके बाद हिन्दू युग को आधार बनाकर दो ऐतिहासिक नाटकों की रचना की है - "चन्द्रगुप्त" तथा "सिंहल-विजय". चन्द्रगुप्त नाटक (1911) द्वारा चन्द्रगुप्त की निर्भीकता, वीरोचित आचरण तथा एक दक्ष शासक की छबी को उभारा है. चाणक्य, द्विजेन्द्रलाल राय की एक अपूर्व श्रृष्टि है. विद्वान विचक्षण, कुशाग्रबुद्धिशाली ब्राह्मण तथा उसका दुर्भाग्यपूर्ण पारिवारिक जीवन को प्रस्तुत करने में राष्ट्रीयोत्थान का सहारा लिया है. स्वदेशी आन्दोलन के उन्मादनो के दिनों में ऐसी एक नाट्यधारा की आवश्यकता रही जिसे द्विजेन्द्रलाल पूर्ण करने में सफल रहे.
"सिंहल विजय - (1915)" द्विजेन्द्रलाल राय की मृत्यु के पश्चात प्रकाशित हुई. यह एक ऐतिहासिक नाटक है. इसमें अन्य सभी तत्वों के साथ आदर्श देशप्रेम की प्राधानता है. नायक विजयसिंह जल स्थल तथा द्विप में भ्रमण करते हैं. परन्तु स्वदेश को कभी भूल नहीं पाते हैं.
इसके साथ ही "परपारे" (1912) तथा "बंगनारी" (1916) नामक दो सामाजिक नाटकों की भी रचना की है.
द्विजेन्द्रलाल ने अपनी नाट्यरचना में शेक्सपीयर की नाट्यरचना रीति तथा पद्धति का अनुसरण किया है. इनके नाटकों की एक विशेषता यह भी रही है कि रंगमंच पर नट उन बातों को बड़ी सरलता से कह जाता था जिसे साधारण सभा में या लोक समक्ष व्यक्त करना संभव नहीं होता था. अतः लोगों में देशप्रेम की भावना का सन्देश देने, राष्ट्र के प्रति जागरूक होने का सन्देश आदि संलापों के माध्यम से बड़ी सरलता से दिया जाता था. "मेवार पतन" में सत्यवती तथा चारणदलों का देशभक्तिमूलक गीत इनका स्पष्ट उदाहरण है. यह अत्योक्ति नहीं है कि द्विजेन्द्रलाल की अन्य अनेक देशप्रेम संगीत तथा नाटकों की तरह इसमें भी सामाजिक उद्देश्य नीहित है.
द्विजेन्द्रलाल ने कुछेक प्रहसनों की भी रचना की है. "त्राहस्पर्श" या "सुखी परिवार" (1900) "आनंद विदाय" (1912) आदि प्रहसनों के माध्यम से सामाजिक कुरीतियाँ, असामाजिक तत्वों को प्रकाश में लाएं हैं.
बचपन से ही द्विजेन्द्रलाल के मन में देशप्रेम की भावना ने जन्म लिया. "आर्यगाथा" की कविताएँ देशप्रेम से संबंधित कवितायेँ हैं. परवर्तीकाल में यह और भी पुष्ट हुई. 1905 में बंगभंग आन्दोलन को केन्द्र में रखने पर उनकी देशभक्ति और भी द्विप्त हो उठी थी.
द्विजेन्द्रलाल के प्रथम काव्य ग्रन्थ से ही उनके मन के दो भावों की छाया स्पष्ट हो उठती है. पहला है उनकी बहिर्मुखी गीतिधर्म कविचित्त तथा दूसरा है उनका सामाजिक मन - जो मन देश के अधःपतन को देखकर वेदनातुर है, जो मन जातीय जीवन के जड़तत्व को पंचजन्य ध्वनि में उदबोधित करना चाहता है. "मन्द्र" द्विजेन्द्रलाल - प्रतिभा का विशिष्ट शक्ति काव्य है. "मन्द्र" काव्य के कवि उच्चकंठ, विचारप्रवण तथा संसयवादी है. इस युग में वे दो और काव्यग्रंथ प्रकाशित करते हैं - "आलेख" (1907) तथा "त्रिवेणी" (1912). इन दो काव्य ग्रन्थों को द्विजेन्द्र - काव्य प्रवाह के "परिणत पर्व" का काव्य कहा जा सकता है. त्रिवेणी उनका अंतिम काव्यग्रंथ है.
सूरकार, कवि तथा नाटककार के रूप में द्विजेन्द्रलाल का बांग्ला साहित्य में विशिष्ट स्थान है. परन्तु कविता, गीत तथा नाटक के सिवाय उन्होंने पत्रसहित्य, लघु-गुरू साहित्य से संबंधित प्रबंधावलि में एक विशिष्ट दृष्टिकोण का परिचय दिया है. विशेषतः उनका "कालिदास तथा भवभूति" ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं. इनमें उनके विलायत यात्रा की कथा "विलातप्रवासी" नाम से "पत्रिका" नामक साप्ताहिक पत्रिका में धारावाहिक रूप से निकलती रही. इसके साथ ही "अंग्रेजी तथा बांग्ला पोशाक" "मानभिक्षा" "जातिभेद" "नेतार नेतृत्व" "बांग्लार रंगभूमि", रवीन्द्रनाथ रचित "गोरा" उपन्यास के प्रकाशित होने पर उन्होंने "गोरा" पर एक समालोचना लिखी जो कि "गोरा" उपन्यास पर एक प्रशंसनीय आलोचना है. इसके साथ ही उन्होंने The lyric of Ind. नामक एक अंग्रेजी काव्य प्रकाशित किया (1886) में.
द्विजेन्द्र-साहित्य का पूर्वांगअध्ययन करने के लिए द्विजेन्द्रसंगीत की आलोचना अपरिहार्य है. कारण यह है कि उनके काव्य या नाटक जिसकी भी आलोचना की जय संगीत-प्रसंग के बिना वह अपूर्ण है. द्विजेन्द्रलाल रचित अनेक संगीत परवर्तीकाल में उनके नाटक में सम्मिलित हुए हैं. देशप्रेम मूलक ऐतिहासिक नाटक रचना के साथ उन्होंने स्वदेशप्रेम से संबंधित गीतों की भी रचना की है. उनके देशप्रेम के गीत जनता में हलचल फैला देते थे. स्वदेशी आन्दोलन के समय रवीन्द्रनाथ के साथ-साथ अनेक छोटे-मोटे कवियों ने भी स्वदेशी गीतों की रचना की. परन्तु देश को आधार बनाकर उच्च स्तरीय भावलोक के श्रष्टि करना रवीन्द्रनाथ और द्विजेन्द्रलाल के सिवाय किसी कवि की रचनाओं में उस प्रकार से प्रस्फूट नहीं हुआ है. इसलिए उद्दीपक नहीं है केवल चित्त आलोदंकारी उल्लास नहीं - उद्दाम भावावेग से गंभीर भावसत्य की एक अविचल उपलब्धि है -
जननी, तुम्हारे ह्रदय में शांति, कंठे में अभय उक्ती
हस्त में तुम्हारे वितर अन्न, चरण में तुम्हारी वितर मुक्ति,
जननी, तुम्हारे सन्तान के लिए कितनी वेदना कितना हर्ष,
जगतपालिनी! जगत्तारिणी ! जगतजननी ! भारतवर्ष!"
यहाँ जननी केवल मात्र "पंचसिंधु यमुना, गंगा" - परिवेष्टिता एक भौगोलिक चित्र नहीं है - कवि की भावनाओं में जगतजननी की एक आशीर्वादीय मूर्ति है जो केवल देशप्रेम की उन्मादना तथा सामयिक भावोच्छास के मध्य ही दृष्टिगत होता है. गया प्रवास के समय जगदीशचन्द्र बोस (1959 - 1937) के अनुरोध करने पर द्विजेन्द्रलाल ने "बंग आमार, जननी आमार धात्री आमार, आमार देश" संगीत की रचना की थी. संगीत को उन्होंने मुक्ति मंत्र से दीक्षित किया था. कव्यसंगीत केवल कंठवादन मात्र ही नहीं है, उसके साथ काव्य सौन्दर्य तथा कथारस श्रुष्टि का लावण्य भी समाहित है. "नील आकशेर असीम छेये छोडिए गेघे चंदिर आलो" "जे दिन सुनील जलधी होते" "एई महासिन्धुर उपार होते की संगीत आज भेसे आसे" संगीत में उनके असाधारण भाव तथा सूरबिवहारलीला का परिचय मिलता है.
द्विजेन्द्रलाल के स्वदेशप्रेम मूलक संगीत उनकी संगीतिक प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ दान है. जातीय संगीत रचना में द्विजेन्द्रलाल आज तक अप्रतिद्वन्दी हैं. उनके द्वारा रचित गीत -
"धन धान्ये पुष्पे भरा, आमादेरी वसुन्धरा,
ताहर माझे आछे देश एक सकल देशेर सेरा
सेजे स्वप्न दिए तोईरी सेजे सृति दिए घेरा
एमन देशटी कोथओ खुजे पाबे ना को तुमी
सकल देशेर रानी सेजे आमार जन्मभूमि!"
को (1971) के समय इसे बांग्ला देश जातीय संगीत के लिए चयन किया गया था. परन्तु बाद में रवीन्द्रनाथ रचित "आमार सोनार बांग्ला आमी तोमाय भालोवासी" का चयन हुआ. राष्ट्रीय गीत के लिए इसका चयन होना भी बड़े गर्व की बात है.
द्विजेन्द्रलाल का रण-संगीत "धाओ धाओ समरक्षेत्रे", "सेय गियाछें तिनी समरे आनिते" आदि प्रसिद्ध गीत है. उच्छासित आवेग तथा बलिष्ट उद्दिपना इस संगीत की विशेषता है. "धाओ धाओ समर क्षेत्रे" जातीय बांग्ला गीत के इतिहास में अद्वितीय संगीत है. इस जातीय गीत में ओजस्विता तथा पौरुषदिप्त भंगीमा की प्रधानता है. कवि ने क्रमशः अपने जीवन के अन्तिम भाग में स्वदेशीयता को अंगीकार कर लिया था. दिप्तबलिष्ठ प्रकाश-भंगीमा, मर्मस्पर्शी आवेग ही द्विजेन्द्रलाल के स्वदेश प्रेम गीतों को जन चित्त ग्राह्य कर देते थे. "आमार देश", "भारत आमार, भारत आमार", "मेवार पाहाड़" गीतों में ऐतिहासिकता जीवंत हो उठती है.
मेरा यह लेख उनके जन्म के 150 वर्ष के पावन उपलक्ष्य पर श्रद्धांजली है. आज भी जब मन्ना डे, एम.एस. शुभलक्ष्मी, दीलिप कुमार राय (उनके पुत्र) द्वारा गाए उनके देशभक्ति मूलक गीतों को सुनती हूँ तो मन जोश से भर उठता है. वो पुराने युद्ध के दिन याद आते हैं जब रेडियो में देशप्रेम की भावना को जगाने के लिए उनके गीत बजाए जाते थे.
"भारतवर्ष की सूचना" नामक प्रबंध में उनका एक मन्तव्य विशेष उल्लेखनीय है, "हमारे शाशकों को अगर बंग साहित्य के प्रति आदर होता तो वो, विद्यासागर बंकिमचन्द्र तथा माइकेल मधुसुदन को Peerage से भूषित करते तथा रवीन्द्रनाथ को Knight उपाधि अवश्य प्रदान करते." इससे उनके उदार तथा विराट मन का परिचय मिलता है.
इति शुभम्
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परिचय – पत्र
नाम - डॉ. रानू मुखर्जी
जन्म - कलकता
मातृभाषा - बंगला
शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय शिक्षा परिषद, यु.पी.)
लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण आनुवाद कार्य में संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।
प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में आनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद 2017), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शिघ्र प्रकाश्य)।
उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रिय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमि गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।
अन्य उपलब्धियाँ - आकशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) को वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों क परिचय कराना।
संपर्क -
डॉ. रानू मुखर्जी
17, जे.एम.के. अपार्टमेन्ट
एच. टी. रोड, सुभानपुरा,
बड़ौदा - 390 003
Email ranumukharji@yahoo.co.in
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