तेरे मुख की करुणाकृति! (Weep Not My Child) तेरे मुख की करुणाकृति ! दो बूँद गिराती वे आँखें जैसे बरबस ही मन के घनघोर धरातल में झाँके। म...
तेरे मुख की करुणाकृति!
(Weep Not My Child)
तेरे मुख की करुणाकृति ! दो बूँद गिराती वे आँखें
जैसे बरबस ही मन के घनघोर धरातल में झाँके।
मैं हूँ तेरा ऋणी कि मुझको, यह अनुपम वरदान मिला
मेरी गोदी में मस्तक धर , मुझको मुझसे मिला दिया।
कहाँ समझ पाता जीवन में, ऋणी हुआ में किस किसका
यदि तेरी किलकारी ने, आँगन-भर न भरा होता
तेरी आँखों की बहती इन स्वेद-धारियों में मेरा
तन-मन-धन, अस्तित्व, एक लय होता जाता।
जैसे कोई जीव, जगत के, एक छोर पर पड़ा हुआ
जाग, युगों की साध लिए, जैसे सहसा आ पहुँचा हो।
कितने युग का द्रव्य तरण करने, बन्धन से मुक्ति के लिए
यहाँ जगत की दीर्घा पर कितने ही ऐसे पड़े हुए।
मिलता किसको यहां, देह की चादर ओढ़े भीतर आना
भौतिकता के परे, सहज मूल्यों को धता बताना।
मैं तेरा हूँ ऋणी कि तूने, यूँ तो जीवन धरा यहाँ
किन्तु स्नेह के भरे नेह से, मुझे देह से मुक्त किया।
यह माया, यह मोह हृदय का, कितना रम्य!तृषावर कितना!!
भर भर कर रस पिया, न लेकिन, तृप्त एक पल हुआ कभी।
दैहिकता का पर्व एक यह, देव भला वे क्या जानें
जिन्हें जन्म ही नहीं, मरण भी नहीं, न कोई भार मिला।
फिर भी वे यों आस लगाए, युगों-युगों तक मर्त्य-लोक की
सदा तरसते रहते हैं, देह भार यों पाने की
मेरा क्या अस्तित्व भला मैं, काल-युगों की बात करूं
बस तेरे सान्निध्य में कहीं, मुझे मोक्ष-सा मिलता है।
क्या ये ही आनन्द जिसे वे, मोक्ष-गुहाओं में तकते-
फिरा यहाँ करते चिरजीवी लोग; देवता हम कहते ?
तेरा रोना, रोना भी क्या, मुक्त हृदय की मौलिकता
इनमें हठ के आँसू हैं या और कोई, क्या कह सकता?
जो भी हो, मैं इस क्रंदन में, बचपन अपना देख रहा
ढलते आँसू, गलत है मन, मेरा पल-पल यहाँ वहाँ।
अब तो थम जा यार, बहुत बेजार हुआ, अब रोक इन्हें
तेरे रोने में मेरा संसार धधकने लगता है।
XXX
पल में ही मुस्काना तेरा, ज्यों बरखा के बाद कहीं
क्षण में ही धूप उतरती है,आँगन के ओसारे में।
सरल नाट्य यह, सरल रीझना, पल में बात मनाने को
एक पर्व यह जीवन का हँसने को, गले लगाने को।
इस धूप-छांव के नटखट पल में, तेरे मन का भोलापन
तेरी मृदु मुस्कान में कहीं, छिपा हुआ है मेरा धन।
सच ही है संसार, भला क्यों उसे नकारें अज्ञानी
इसमें भी साकार विश्व के, एक अंश का उद्दीपन।
पकड़ हास्य की डोर पुत्र तू, खेल ही सही यह जीवन
और कुछ नहीं, रम जाने में ही है सीधा, सच्चापन।
कभी दैव ने छीनी थी क्या, मेरी वह मुस्कान मुझीसे
जो तेरे हाथों की इस, मृदुल हथेली में रख दी ?
रचनाकार - मिहिर
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#मेरे #पाथेय #से काव्य संग्रह का एक अंश
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तुम महुए की लपत!
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पकी हुई फसलों के खेतों
से लहराती हुई हवा-सी
मृदु-मादक-माधुर्य तुम्हारा
सौंधे परिमल से भर देती
श्वास-वास को
प्राण-घ्राण को।
तुम महुए की लपत -
मलय की चपत,
बहुत ही हल्के से छू जाती हो।
तुम बारिश की छुअन
पूष की अगन, बहुत ही भीनी सी
अपने कमल-कुमुद-कौतुक में
बिना बात लड़ देती हो।
©® #मिहिर
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ऊषा का गीत !
(नायक की अनुपस्थिति में उसके एकतरफा प्रेम तथा विरह से दग्ध नायिका का गीत)
#जयमालव #ऐतिहासिक #महाकाव्य से
स्थान - हर्षकोट, मालव गणराज्य
समय - ईसापूर्व 325, शरद ऋतु।
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प्रसंग - एक समारोह में लोगों के आग्रह पर ऊषा का गीत गाना और गाते गाते भावुक हो जाना
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ऊषा यों उठ खड़ी हुई पर्वत-अंचल का गीत सुनाकर
जिसने भी वह सुना, रहा जड़वत, कुछ पल को, सुधि बिसराकर।
क्या आकंठ वेदना! जैसे सबके अंतर पैठ गयी हो
जैसे पीड़ा स्वयम युगों को लाँघ, वहीं आ बैठी हो।
जैसे परदेसी कोयल हो, अपनी मीठी तान सुनाकर
आते जाते राहगीरों को, घर की याद दिलाती हो।
जैसे हो आलाप उठा, सागर लहरों में बूंदों का
या ताम्र-कलश पर हल्की सी अनुगूँज हुई हो।
जैसे हो वासंती धरती, ग्रीष्म-ज्येष्ठ के पहले वाली
अपने पीले हाथ उठाकर, धीमे से कुछ गाती हो।
जैसे ऊँचे चरागाहों, पर वंशी की कूक उठी हो
वह गोचारिण, अपने रूठे प्रियतम को हो पास बुलाती।
जैसे बिसरी गाथाओं की, एक पुरानी प्रेम-कहानी
युगों-युगों से चुप बैठी हो, आज बरसकर गीत बनी।
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गीत खत्म होने के बाद ऊषा चुपके से खिसक गई।
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दूजे पल ही मौन भंग हो गया, शब्द की कलियाँ फूटीं
"साधु!साधु!"का स्वर उभरा तब, चेतन घट की जड़ता छूटी।
और प्रशंसा के स्वर तब तक उन्मुक्त गूँजते रहे वहाँ
चुपचाप उठी, कब ना जाने, वह दबे पाँव चल पड़ी कहाँ?
दीपशिखा ने देख लिया, अविकल उस मुख की पूर्ण उदासी
वह गीतों में मुखर हो उठी, और भला किस ठौर छुपाती?
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ऊषा की वो हालत देख दीपशिखा भी उसके पीछे आ गयी।
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ऊषा ऊपर 'स्वांग-कुटी' तक जाकर जड़वत खड़ी हो गई
दीपा आई, मुस्काई, पर अगले पल मुस्कान खो गई।
वहाँ सामने का वह गहरा तल, मन्दिर की राह जहाँ
वहीं देखती, जड़ित हो रखी थी वह, जाने कौन वहाँ?
तनिक स्पर्श से चौंकी वह, मुस्काई, लेकिन स्वांग गया
दीपशिखा के नयनों का चातुर्य सभी कुछ भाँप गया।
नयन झुकाकर ऊषा ने कुछ कहने का अभिप्राय किया
किन्तु हाथ से उसे रोककर, दीपा ने प्रतिवाद किया।
आंखों तक हो आया था वह, अंतर-घट का पहला मोती
दीपा ने वह चुरा लिया, जैसे मादकता, कलियाँ धोतीं।
औ' आंखों ही आंखों में फिर, बरबस मोती ढलक पड़े
कहीं दूर पर्वत-शिखरों पर, वर्षा-कण ज्यों बिखर पड़े।
अगले क्षण क्या कहे, क्या नहीं, थककर ऊषा लिपटगई -
संग सखी के, छितराई-सी, लतिका मारुत से बिखर गई।
क्रमशः
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जय मालव (ऐतिहासिक महाकाव्य)
©®#मिहिर
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