दिल्ली की शादियां यानी शाही शादियां। लालाओं की शादियां और सेठों की। अफसरों और कप्तानों की। नेताओं और अभिनेताओं की। कामगारों और मजदूरों की। ...
दिल्ली की शादियां यानी शाही शादियां। लालाओं की शादियां और सेठों की। अफसरों और कप्तानों की। नेताओं और अभिनेताओं की। कामगारों और मजदूरों की। चाहे होटल में हो या शाही शामियाने में। चाहे जहां जाओ मूल्यों में फर्क होगा लेकिन अंदाज एक। संस्कृति एक। लालाओं की शादी की बारात नहीं निकलती जुलूस निकलता है। शहनाई, बैंड बाजे, हाथी-घोड़े, ढोल-तम्बूरों से सारा इलाका गूंज उठता है। शहनाई का गाना अलग, ढोल वाले का अलग, बैंड बाजे का अलग और महिलाओं के गीत अलग। आपको यहीं से योगाभ्यास की जरूरत महसूस होती है। एक साथ कई गानों में किसी एक गाने को बारीकी से सुनने के लिये मन केंद्रित करना पड़ता है। बेचारे बैंडबाजे वाले पैसों की खातिर एक साथ लेफ्ट-राईट मार्च करते हुए अनुशासन बनाये रखते हैं। वरना बाराती होते तो एक कहीं, दूसरा कहीं!
शादी कहीं हो, आपको आपकी क्षमतानुसार अच्छा परिधान ओढ़ना ही पड़ता है। फिर दिल्ली तो दिल्ली है। यहां तो एक से एक फैशन परस्त। बारातियों से लेकर परातियों तक दावतों को मैंने आजमाया। शामियाने की चकाचौंध रोशनी में दुल्हा-दुल्हन बाद में दिखायी देते हैं, पहले दिखाई देते है स्वेच्छिक भोज के बर्तन। जो सफेद कपड़ा ओडे कई टेबुलों पर किसी किले की दीवारों पर गुंवज के रूप में दिखते हैं। ही हो। टिमटिमाती मोमबत्ती की लौ में हर तरह का खाना गर्म हो रहा है। कभी-कभी लगता है बेयरा न होता तो दिल्ली कुंवारों की ही रहती।
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मैं क्या करूँ, पीछे देख कर आगे बढ़ता हूँ। इसलिये पिछला याद करता हूँ। अपने बाल्यकाल से लेकर युवावस्था तक अनेकों शादियाँ देखी, लेकिन खंडवा जिले की शादियां और बारातें अब तक याद हैं। तीस-पैंतीस साल पहले गांवों में इतनी बिजली और चकाचौंध रोशनी कहां थी। सड़कें और मोटरें कहां थी, छोटे शहरों और गांवों में। बीस-बीस बैलगाड़ियों से दुल्हे की बारात एक गांव से दूसरे गांव जाती। जैसे बैलगाडियों से दुल्हे की बारात एक गांव से दूसरे गांव जाती। जैसे बैलगाडियाँ की रेल हो। बैलों के गलों की घुंघरूओं की झंकार चार-चार मील पहले ही बता देती कि फलां गांव से बारात आ रही है। अमराई के रास्तों की धूल न हो शादी का गुलाल हो जैसे। बीच-बीच में पड़ाव। किसी का बैल आनाकानी करता। किसी का बैल चलते-चलते बैठता, तो उठता ही नहीं। किसी के पहिये से पट्टा ही उतर जाता। फिर बीच-बीच में बैलगाड़ियों की होड! बीती पन्नों पर सुनहरी यादें। आजकल गांव की बरातें-ट्रेक्टरों पर सवार होती है। रईस स्पेशल बस लेकर चलते हैं। विधि विधान और संस्कृतिजन्य विवाह-समारोह तो खैर दिल्ली में है ही नहीं। नाचना जरूर दिल्ली ने सिखाया है। बिना ढोल के तो दिल्ली की शादी की रस्म पूरी होती ही नहीं।
चमकीली पन्नियों में बासी फूलों की वरमाला। चकाचौंध रोशनी में दो चार नजदीकी रिश्तेदारों के बीच वरमाला कब गले में पड़ती है, पता ही नहीं चलता। वरना हमने तो यही देखा कि जिस विधि विधान से शादियां होती थी। मंगलगान गाये जाते। एक गजब का मंगलमय अनुशासन। पहले पूरे विधिविधान से शादी और सबके आशीर्वाद। बाद में भोज।
आमंत्रित मेहमान भूखा लौटता है या खा-पीकर किसी को सरोकार नहीं। खूबसूरत और मंहगे शादी कार्ड लेकर यानि जैसे पासपोर्ट लेकर विदेश जाने की अनुमति। बहुत बार ब्याह समारोह में अनजान बने रहने का दुर्भाग्य सहना पड़ा। इसलिये शामियाने के बाहर निकलने तक शादी कार्ड सम्भाल कर रखना पड़ा। जैसे ड्राईविंग लाईसेंस हो। जान-पहचान न हो तो आर्केस्ट्रा का नाचगाना, ढोलबाजों के साथ नाचना और सधे बावर्चियों का खाना, सब बेकार। वैसे दावती, अक्सर पंडाल के गेट पर महंगे सूटबूट और माथे पर साफा लपेटे दिखाई देते हैं। भीतर जाते समय आप हाथ जोड़ते हैं, बाहर निकलते समय वे। इस बीच घंटे भर में आपने भीतर क्या किया, क्या नहीं किया, दावती जिम्मेदार नहीं।
अभी भी मुझे पंक्तिबद्ध पंगत वाला सद्भोज अच्छा लगता है। पत्तल या केले के पत्तों पर परोसे खाने की संगत का मजा ही कुछ और। एक-एक के हाल पूछना। एक-एक से खाने का आग्रह करना। रूठना-मनाना। चंदन का टीका लगाना। यहीं नहीं, हर मेहमान के पत्तल को रंगोली की सजावट देना। हर एक पत्तल के पास अगरबत्ती जलना। कितना अपनापन। यहीं नहीं इसी बीच संस्कृत, मराठी और हिन्दी के शुभदायक चार-चार गीत-श्लोक, पंक्तियों सुनाना। फिर मेजबान का हाथ-जोड़ कर कमियों और खामियों पर विनम्र भाव से क्षमा याचना करना। गजब की संस्कृति। एक पारिवारिक सम्मेलन और मेहमानों का सत्कार। फिर भाई-भाभी, चाचा-चाची, मामा-मामी, साले-जीजा की नोंक-झोंक और रूठना-मनाना भी खाये पीये को पचान में सहायक होता था।
दिल्ली में, किसी शादी में जल्दी आ गये तो मुसीबत, देर से पहुंचे तो और मुसीबत। ढोल सैंकडों बार सुन चुके है। ढोल पर नाचने वाले को हजार बार देख चुके हैं, रही आर्केस्ट्रा की बात तो हेमा, रेखा, जया और श्रीदेवी को बटन दबाकर नचवा लेते और बोर होने पर बंद कर देते। बारातियों को छोड़िये, तमाम मेहमानों की नजर खाने पीने की चीजों से गुजरती है। इस बीच खुराना मिल गये, तो खुराना साहब से मुलाकात। रवि मिल गया तो रवि बाबू मिल गये। जैन मिल गया तो जैन साहब। वरना केम्पाकोला से नजर दौड़ती हुई, गोलगप्पों से छलांग लगाती तो पापडी और दही भल्ले से फुदकती हुई, फ्रूट चाट को फांदकर सीधे गुलाब जामुन और रसगुल्ले तक पहुंचती है। दाल चावल, साग रोटी, मटर-गोभी और सलाद वलाद को फटाफट पीछे छोड़ते हुई सीधे आइसक्रीम पर टिकती है। मेहमान की लार फटाफट सर्टीफिकेट दे देती है कि दावत पूरी दिलेरी से दी जा रही है।
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अगर आप शादी ब्याह में केवल खुद को ही जानते हो तो बहुत हिम्मत की बात होगी। आपको कई बार भूखे ही लौटना पड़ता है। चाहे स्वैच्छिक भोजन हो या बुफे। जब तक खाने की घोषणा नहीं होती आप दो-चार छैनामुर्गी और तोलू-लूलू सी अन्डेनुमा पकौडियों के सहारे ही काम चलाते रहिये।
जमाव बढ़ता जाता है। ढोल कानों को रौंदने लगते है। धीरज का बांघ तब टूटता है जब बुफे की ओर मुड़ने का संकेत मिलता है। मुक्तिवाहिनी की तरह मेहमान प्लेट और चम्मच ले जैसे ढाल और तलवार लिये खाने पर टूट पड़ते है। पेट भर खाने के लिये शायद भीख मांगनेवाले को भी इतनी मेहनत और सावधानी की जरूरत न पड़ती हो। बड़ा धीरज का दान देना पड़ता है। दुबले पतले खुराना को चारबार गुलाब-जामुन और चारबार मुंग का हलुआ खाते देख कर हमारे मन में अकारण ही तिरस्कार भाव पैदा होता। आज तक जिसे शुगर की बीमारी थी, ऐन शादी के वक्त बीमारी गायब हो गयी। कइयों को खिलाते वक्त शुगर और हाईब्लडप्रैशर की बीमारीदेखी, लेकिन दावत में पंडाल के पीछे की सूरा का धीमा सुर भी उन्हें खींच लेता है।
अनजानों में खाते वक्त आपको मिठाई की लालसा को बहुत दबाना पड़ता है। इसलिये दिखावे के लिये मिष्ठान की चाहवाला दाल-चावल की गलियों से सीधे गुलाब जामुन के चौराहे की भीड़ में खो जाता है।
अब आइसक्रीम यानि दावत का अंतिम संस्कार या पूर्णाहूति। पिछले पांच दस वर्षों में आइसक्रीम एक अनिवार्य पकवान बन गया है। दांत-वाले बिना दांत वाले, बात वाले बिना बात वाले, घात वाले बिना घात वाले, छोटे बड़े, लड़के लड़कियों को चाकू से आइसक्रीम काटने वाला मजदूर बेयरा है। वरना मेजबान होता तो चाकू लिये न जाने क्या-क्या भाव पैदा करता। कोई-कोई तो मैदान छोड़कर ही भाग जाता। अक्सर रात नौ दस बजे दिल्ली की कालोनियों की सड़कों पर आइसक्रीम के खोखे नजर आते है। कई बालगोपालों को आइसक्रीम के दोषों को सुनाते देखा जाता है। शायद वे भी इसलिए क्योंकि वहां खोखे वाले को आइसक्रीम के दाम देने पड़ते हैं, लेकिन यह है शादी की आइसक्रीम। यहां तीन-तीन बार आइसक्रीम खाकर उसके दोषों की पुनः-पुनः परीक्षा करते हैं। नामी ब्राण्ड की आइसक्रीम ना होने पर भी। ब्राण्ड को बदनाम करते-करते दो-चार बार खाते-परखते हैं। कुछ हित-चिंतक और शुभ चिंतक आपके फीके चेहरे को देख आइसक्रीम खुद के लिये भी लाते है आपके लिये भी। दरअसल यह एक शक्ति परीक्षण है। एक अजीब भीड़ और हबड़ा-धबड़ी जैसा वातावरण होता है। सजे संवरे और तरीके से पहने कपड़ों को बिना हानि पहुंचाये आप शादी की आइसक्रीम ले सकते हैं तो अमिताभ बच्चन की नई फिल्म का टिकिट भी। एक शादी में हमारे चिरपरिचित गलियारे नेता और समाजिया पंडित चौबे जी पधारे। हमेशा की तरह कुर्ता पाजामे में। खाने पीने के बाद वे कुर्सी पर बैठे। जब एक देश और संस्कृति के श्रोता नहीं मिले वे अपनी गर्दन टेबुल फैन की तरह घुमाते रहे।
हमने पूछा, ‘‘खाना खा लिया’’
‘‘हा’’
‘‘और कुछ पेश करें?’’
‘‘जी नहीं’’
हमारे हाथ में गुलाबी आइसक्रीम किसी गुलदस्ते की तरह थी। खुराना लम्बे कद के बावजूद आइसक्रीम खाते और भीड़ में लुप्त हो जाते। थोड़ी देर में लोटकर आये और बहुत खुशी के साथ लम्बे हाथ उठाकर नमस्ते मार दी। पूछा, ‘‘आइसक्रीम खा ली?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘लो अभी लाता हूं।’’ यह कहते वे भीड़ को चीरते हुए पहुंचे और एक अधिकारी की तरह लपके। दोनों हाथों में आइसक्रीम ली। दृश्य ऐसा था मानो हनुमानजी संजीवनी पर्वत दोनों हाथों में उठा हमारी तरफ लपक रहे हो। हनुमानजी ने तो फिर भी ठोस पर्वत एक हाथ उठा लाये थे। आइसक्रीम की मुलायम तासिर तो आप जानते हो। आइसक्रीम पिघलने से पहले पहुंचने की शर्त निहित होती है।
शादियों में कुर्ता पाजामे वालों की फजीहत होती है। आइसक्रीम की भीड़ में घुसता हूँ तो चप्पल टूटने का डर, यही छोड़ कर जाता हूं तो तो चप्पल चुराने का। आइसक्रीम न खाता तो पराजय का भाव सहता हूं। अब आप ही हमारी मदद कीजिये। हमसे रहा नहीं गया। ‘‘चौबे ने कई बार एक हाथ में कागज की प्लेट ली दूसरे हाथ में लकड़ी का चम्मच। पीछे से धक्का, दाएं से धक्का, बाएं से। आगे आइसक्रीम और चाकूवालों की डर भी और आइसक्रीम की लालच भी। थोड़ी सी ठण्डक के लिये बहुत सारा पसीना और बेशर्मी सहनी पड़ी। दुबारा, मैं तो नहीं जा सकता। मैं तो पहले ही भीड़ भय ग्रस्त हूं। इधर-उधर नजर दौड़ाई कि मेजर शर्मा से आंखें मिली। उन्होंने लम्बी मूछों का अंगूठे और तर्जनी से नुकीला स्पर्श दिया। अभूतपूर्व मिलन मन ही मन से गुदगुदाने लगे। उन्होंने चौबे जी की दीन स्थिति को पहचाना और गोली की तरह भीड़ को फाड़ा और आइसक्रीम की पांच सात प्लेटे उठा लाये। बिना झिझके कइयों को बाँट दी। शेष शर्मा जी, चौबे जी और मैंने भी एक प्लेट ली। डबल-डोज वाली आइसक्रीम हम तीनों पूरी तरह खा नहीं सके। शादी की आइसक्रीम प्लेट के हवाले ही की। प्लेट को इस तरह फेंका कि कोई यह देख न पाये कि आधी-आधी प्लेट आइसक्रीम फैंकी जा रही है। वरना खरीदी हुई आइसक्रीम इस तरह कूड़ेदान में फेंकी जाती तो घर में तीन बार महाभारत होता और पड़ोसी भी मौके-मौके पर गीतासार सुनाते। बाकी आइसक्रीम की प्लेटें किसी सुन्दर चेहरे पर फेंकने की बीमारी अभी तक फिल्मों में ही है। वह भी आ जायेगी। क्योंकि घर-घर में गुलाल की संस्कृति पर आइसक्रीम छाई हुई है।
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