आलेख शिक्षक दिवस (5 सितम्बर)पर विशेष प्रकाश-स्तम्भ की भांति हैं शिक्षक आकांक्षा यादव कॉलेज में प्रवक्ता के बाद साहित्य लेखन. नारी विमर्श, बा...
आलेख
शिक्षक दिवस (5 सितम्बर)पर विशेष
प्रकाश-स्तम्भ की भांति हैं शिक्षक
आकांक्षा यादव
कॉलेज में प्रवक्ता के बाद साहित्य लेखन. नारी विमर्श, बाल विमर्श और सामाजिक मुद्दों से सम्बंधित विषयों पर प्रमुखता से लेखन। अब तक 2 पुस्तकें प्रकाशित- ‘चाँद पर पानी’ (बाल-गीत संग्रह-2012) एवं ‘क्रांति-यज्ञ’ (1857-1947 की गाथा) संपादित, 2007
उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा ‘अवध सम्मान’. 50 से ज्यादा सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त।
भारतीय संस्कृति का एक सूत्र वाक्य है-‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने की इस प्रक्रिया में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान है। भारतीय परम्परा में शिक्षा को शरीर, मन और आत्मा के विकास द्वारा मुक्ति का साधन माना गया है। शिक्षा मानव को उस सोपान पर ले जाती है, जहाँ वह अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। भारतीय संस्कृति में गुरु का आंरभ से ही उच्च स्थान रहा है। प्राचीन काल से ही आचार्य देवो भवः का बोध-वाक्य प्रचलित है। भारत में गुरु-शिष्य की लम्बी परंपरा रही है। बहुत सारे कवियों, गद्यकारों ने कितने ही पन्ने गुरु की महिमा में रंग डाले हैं।
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय.
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।
कबीरदास द्वारा लिखी गई उक्त पंक्तियाँ जीवन में गुरु के महत्त्व को वर्णित करने के लिए काफी हैं। गुरुओं की महिमा का वृत्तांत तमाम ग्रंथों में भी मिलता है। जीवन में माता-पिता का स्थान कभी कोई नहीं ले सकता, क्योंकि वे ही हमें इस खूबसूरत दुनिया में लाते हैं। उनका ऋण हम किसी भी रूप में उतार नहीं सकते, लेकिन जिस समाज में रहना है, उसके योग्य हमें शिक्षक ही बनाते हैं। यद्यपि परिवार को बच्चे के प्रारंभिक विद्यालय का दर्जा दिया जाता है, लेकिन जीने का असली सलीका उसे शिक्षक ही सिखाता है। समाज के शिल्पकार कहे जाने वाले शिक्षकों का महत्त्व यहीं समाप्त नहीं होता, क्योंकि वह न सिर्फ विद्यार्थी को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं, बल्कि उसके सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के हाथों द्वारा रखी जाती है।
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गुरु-शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम् और पवित्र हिस्सा है, जिसके कई स्वर्णिम उदाहरण इतिहास में दर्ज हैं। कई ऋषि-मुनियों ने अपने गुरुओं से तपस्या की शिक्षा को पाकर जीवन को सार्थक बनाया। प्राचीन काल में राजकुमार भी गुरुकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरु की सेवा भी करते थे। राम-विश्वामित्र, कृष्ण-संदीपनी, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरुदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य ने उससे उसके हाथ का अंगूठा ही माँग लिया था। श्रीराम और लक्ष्मण ने महर्षि विश्वामित्र, तो श्री कृष्ण ने गुरु संदीपनी के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण की और उसी की बदौलत समाज को आततायियों से मुक्त भी किया। गुरुवर द्रोणाचार्य ने पांडव-पुत्रों विशेषकर अर्जुन को जो शिक्षा दी, उसी की बदौलत महाभारत में पांडव विजयी हुए। द्रोणाचार्य स्वयं कौरवों की तरफ से लड़े पर कौरवों को विजय नहीं दिला सके, क्योंकि उन्होंने जो शिक्षा पांडवों को दी थी, वह उन पर भारी साबित हुई। गुरु के आश्रम से आरम्भ हुई कृष्ण-सुदामा की मित्रता उन मूल्यों की ही देन थी, जिसने उन्हें अमीरी-गरीबी की खाई मिटाकर एक ऐसे धरातल पर खड़ा किया जिसकी नजीर आज भी दी जाती है। विश्व-विजेता सिकंदर के गुरु अरस्तू को भला कौन भुला सकता है। अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने तो अपने पुत्र की शिक्षिका को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि उसकी शिक्षा में उनका पद आड़े नहीं आना चाहिए। उन्होंने शिक्षिका से अपने पुत्र को सभी शिक्षाएं देने का अनुरोध किया जो उसे एक अच्छा व्यक्ति बनाने में सहायता करती हों।
वस्तुतः शिक्षक उस प्रकाश-स्तम्भ की भांति है, जो न सिर्फ लोगों को शिक्षा देता है; बल्कि समाज में चरित्र और मूल्यों की भी स्थापना करता है। शिक्षा का रूप चाहे जो भी हो पर उसके सम्यक अनुपालन के लिए शिक्षक का होना निहायत जरूरी है। शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं बल्कि चरित्र विकास, अनुशासन, संयम और तमाम सद्गुणों के साथ अपने को अप-टू-डेट रखने का माध्यम भी है। शिक्षा मानव जीवन को परिष्कृत करने का सशक्त माध्यम है। कहते हैं बच्चे की प्रथम शिक्षक माँ होती है, पर औपचारिक शिक्षा उसे शिक्षक के माध्यम से ही मिलती है। प्रदत शिक्षा का स्तर ही व्यक्ति को समाज में तदनुरूप स्थान और सम्मान दिलाता है। शिक्षा सिर्फ अक्षर-ज्ञान या डिग्रियों का पर्याय नहीं हो सकती; बल्कि एक अच्छा शिक्षक अपने विद्यार्थियों का हृदय निर्मल और मस्तिष्क चुस्त-दुरुस्त बनाकर उसे वृहद आयाम देता है। शिक्षक का उद्देश्य पूरे समाज को शिक्षित करना है। शिक्षा एकांगी नहीं होती; बल्कि व्यापक आयामों को समेटे होती है।
आजादी के बाद इस गुरु-शिष्य की दीर्घ परम्परा में तमाम परिवर्तन आये। 1962 में जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनके जन्मदिन को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाने की इच्छा जाहिर की। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा कि- "मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के निश्चय से मैं अपने को काफी गौरवान्वित महसूस करूँगा।" तब से लेकर हर 5 सितम्बर को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने शिक्षकीय आदर्श को न सिर्फ भारत में अपितु वैश्विक स्तर पर स्थापित किया। उन्होंने न सिर्फ शिक्षकीय पद की गरिमा बढ़ायी, बल्कि उपराष्ट्रपति एवं राष्ट्रपति के रूप में भी भारत को अपना नेतृत्व प्रदान किया। अपने ज्ञान को दूसरों में बाँटने की अद्भुत प्रतिभा उनमें निहित थी तथा इसी उत्कृष्ट कला के कारण वे एक आदर्श शिक्षक के रूप में विख्यात हुए। डॉ. राधाकृष्णन एक महान शिक्षाविद थे। वे वर्ष 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। उन्होंने शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् विश्व के महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्थानों में व्याख्यान दिया। वे दर्शनशास्त्र के प्रख्यात विद्वान थे। उन्होंने अपने लेखों और भाषणों के द्वारा विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। पश्चिम देशों में एक आदर्श दार्शनिक के रूप में उन्हें ख्याति प्राप्त थी। वे 1931 से 1936 तक वाल्टेयर विश्वविद्यालय आंध्रप्रदेश के वाइस चांसलर रहे। 1936 से 1952 तक वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रहे। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले जार्ज पंचम कॉलेज में भी सेवाएं दीं। डॉ. राधाकृष्णन बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे। वर्ष 1940 में वे प्रथम भारतीय के रूप में ब्रिटिश अकादमी में चुने गए तथा 1948 में उन्होंने यूनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। उन्हें भारत में संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। अपनी बहुमुखी प्रतिभा के कारण गैर राजनीतिज्ञ होते हुए देश की स्वतंत्रता के पश्चात् 1952 में वे भारत के पहले उपराष्ट्रपति बनाए गए। 1957 में वे दूसरी बार उप राष्ट्रपति चुने गए। उन्होंने अपने जीवनकाल में 150 से अधिक रचनाएं की। वे देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित हुए।
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निश्चिततः डॉ. राधाकृष्णन बहुआयामी प्रतिभा के धनी, सादगीपूर्ण जीवन शैली निर्वहनकर्ता तथा देश की संस्कृति का सम्मान करने वाले व्यक्ति थे। एक उत्कृष्ट शिक्षक, दार्शनिक, देशभक्त और निष्पक्ष एवं कुशल राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने राष्ट्र को अपनी महत्वपूर्ण सेवाएं दीं। वे उच्च पदों पर रहते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहे।
डॉ. राधाकृष्णन ने शिक्षा को एक मिशन माना था और उनके मत में शिक्षक होने का हकदार वही है, जो लोगों से अधिक बुद्धिमान व विनम्र हो। अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता; बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है। वे शिक्षा को सामाजिक बुराइयों के अंत करने का एक महत्वपूर्ण जरिया मानते थे। डॉ. राधाकृष्णन का मानना था कि व्यक्ति निर्माण एवं चरित्र निर्माण में शिक्षा का विशेष योगदान है। वैश्विक शान्ति, वैश्विक समृद्धि एवं वैश्विक सौहार्द्र में शिक्षा का महत्व अति विशेष है। उनका मानना था कि शिक्षक वह नहीं जो छात्र के दिमाग में तथ्यों को जबरन ठूंसे, बल्कि वास्तविक शिक्षक तो वह है जो उसे आने वाले कल की चुनौतियों के लिए तैयार करे। उनके यह शब्द समाज में शिक्षकों की सही भूमिका को दिखाते हैं- "शिक्षक का काम सिर्फ किताबी ज्ञान देना ही नहीं; बल्कि सामाजिक परिस्थितियों से छात्र को परिचित कराना भी होता है।"
शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डॉ. राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केंद्र, संस्कृति के तीर्थ एवं स्वतंत्रता के संवाहक मानते थे। यह उनका बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे।
वास्तव में देखा जाये तो शिक्षक उस माली के समान है, जो एक बगीचे को भिन्न-भिन्न रूप-रंग के फूलों से सजाता है। जो छात्रों को काँटों पर भी मुस्कुराकर चलने को प्रोत्साहित करता है। उन्हें जीने की वजह समझाता है। शिक्षक के लिए सभी छात्र समान होते हैं और वह सभी का कल्याण चाहता है। शिक्षक ही वह धुरी होता है, जो विद्यार्थी को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए बच्चों की अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। बच्चे तो कच्चे घड़े की भांति होते हैं, ऐसे में उन्हें जिस रूप में ढालो, वे ढल जाते हैं। वे स्कूल में जो सीखते हैं या जैसा उन्हें सिखाया जाता है, वे परिवार और समाज में वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही बन जाती है, जैसा वह अपने आस-पास होता देखते हैं। ऐसे में शिक्षक प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उनकी नींव को मजबूत करता है तथा उसके सवरंगीण विकास के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करता है। किताबी ज्ञान के साथ नैतिक मूल्यों व संस्कार रूपी शिक्षा के माध्यम से एक आदर्श शिक्षक ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करता है। तभी तो कहा गया है कि-
गुरुब्रह्म गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूः साक्षात परब्रह्म, तस्मैं श्री गुरूवे नमः।।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो गुरु-शिष्य की स्वस्थ परंपरा कहीं न कहीं कलंकित हो रही है। शिक्षा दो तरह की होती है। एक चेतना से और दूसरे ढर्रे से। ढर्रे से व्यक्ति डिग्री ग्रहण करता है और चेतना से व्यक्ति चितंक, विचारक, समाज सुधारक, सामाजिक कार्यकर्ता बनता है। अब चेतना आधारित शिक्षा में गिरावट आ रही है। पहले शिक्षक छात्रों के अंतस को जगाते थे। अब छात्रों से वैसा रिश्ता जुड़ाव कहाँ रहा। इसे दुरुस्त करने की जरूरत है। गुरु व शिष्य का संबंध समाप्त हो गया है। आज गुणवता (क्वालिटी) की नहीं मात्र (क्वांटिटी) की बात होती है। अपने अनैतिक कारनामों और लालची स्वभाव के कारण तमाम शिक्षक इस परंपरा पर गहरा आघात कर रहे हैं। व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। स्कूली कक्षाओं के बजाय शिक्षक कोचिंग देने में अपना ध्यान लगाने में लगे हैं अर्थात अपने लालच को शांत करने के लिए आज तमाम शिक्षक अपने ज्ञान की बोली लगाने लगे हैं। आज कितने शिक्षक पढ़ाने से पहले खुद तैयारी करके आते हैं, खुद पढ़ते हैं। शायद अंगुलियाँ पर भी गिनने भर को नहीं होंगे। इस संस्कृति को सुधारने की जरूरत है।
इतना ही नहीं वर्तमान हालात तो इससे भी बद्तर हो गए हैं, क्योंकि शिक्षा की आड़ में कई शिक्षक अपने शिष्यों का शारीरिक और मानसिक शोषण करने जैसा दुष्कृत्य कर रहे हैं। आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुर्व्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। ग्रामीण स्तर पर देश के तमाम भागों में प्राइमरी स्तर के स्कूलों में जातिगत भेदभाव आम बात है। आज न तो गुरु-शिष्य की वह स्वस्थ परंपरा रही और न ही वे गुरु और शिष्य रहे। ऐसे में जरूरत है कि गुरु और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें; ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके।
आज शिक्षा को हर घर तक पहुँचाने के लिए तमाम सरकारी प्रयास किए जा रहे हैं, पर इसी के साथ शिक्षकों की मनःस्थिति के बारे में भी सोचने की जरूरत है। शिक्षक की सोच, उनके पढ़ाने के तरीके का बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले, इसके लिए शिक्षक का सर्वज्ञानी होना आवश्यक है। नौकरी मिलने के बाद वह बच्चों को तो पढ़ाते हैं, परंतु खुद नहीं पढ़ते। इससे सामाजिक व शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे बदलाव से वह परिचित नहीं हो पाते। इसका विपरीत प्रभाव बच्चों के ऊपर पड़ता है। उन्हें सिर्फ किताबी ज्ञान ही मिल पाता है। इससे उनका शैक्षिक स्तर नहीं उठ पाता। शिक्षक, शिक्षा (ज्ञान) और विद्यार्थी के बीच एक सेतु का कार्य करता है और यदि यह सेतु ही कमजोर रहा तो समाज को खोखला होने में देरी नहीं लगेगी। शिक्षा में सबसे अहम् भूमिका शिक्षकों की होती है, जिन पर देश का भविष्य कहे जाने वाले विद्यर्थियों की जिम्मेदारी होती है। अगर शिक्षक ही योग्य, परिश्रमी, समर्पित और गुणवत्तायुक्त से युक्त न हों तो विद्यार्थी और देश का हश्र समझा जा सकता है। इस गंभीरता को समझते हुए हमें श्रेष्ठ शिक्षक तैयार करने होंगे।
एक अन्य समस्या है उच्च कोटि की पाठ्य सामग्री की। इसमें ई लर्निंग मैटीरियल, ई लाइब्रेरी और ई कोर्सेस की योजना द्वारा और भी प्रभावी बनाया जा सकता है।
विभिन्न स्कूलों कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में अध्यापकों-प्राध्यापकों की भारी कमी है, हजारों की तादाद में रिक्तियाँ सालों से लंबित हैं। शिक्षण कार्य जैसे-तैसे घसीटा जा रहा है। राज्यों में स्थिति और भी बदतर है। शिक्षा के अधिकार (आरटीई) कानून में कहा गया है कि देश के सभी शिक्षकों को साल 2015 तक प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, वहीं हकीकत यह है कि भारत में 6.6 लाख अप्रशिक्षित शिक्षक हैं और साढ़े पाँच लाख पद रिक्त हैं। देश का शायद ही ऐसा कोई प्रांत हो, जहाँ विद्यार्थियों के अनुपात में अध्यापकों की नियुक्ति हो, फिर शिक्षा व्यवस्था कैसे सुधरे? नयी कक्षाओं का निर्माण किया गया है लेकिन स्कूलों में पढ़ने वाले 59.67 प्रतिशत बच्चों के समक्ष छात्र-शिक्षक अनुपात की समस्या है। अभी भी देश में छात्र शिक्षक अनुपात 32 : 1 है, जबकि 324 ऐसे जिले हैं जिनमें छात्र-शिक्षक अनुपात 3 : 1 से कम है। देश में नौ फीसदी स्कूल ऐसे हैं जिनमें केवल एक शिक्षक हैं तो 21 फीसदी ऐसे शिक्षक हैं जिनके पास पेशेवर डिग्री तक नहीं है। इन रिक्तियों को भरने की आवश्यकता के साथ-साथ नवीनतम ज्ञान शोध और तकनीक आदि से शिक्षकों के सतत् आधुनिकीकरण के लिए कारगर नीति बनाने जाने की भी जरूरत है। मतगणना-जनगणना से लेकर अन्य तमाम कार्यों में शिक्षकों की ड्यूटी भी उन्हें मूल शिक्षण कार्य से विरत रखती है। ऐसे में जब शिक्षा की नींव ही कमजोर होगी, तो विद्यार्थियों का उन्नयन कैसे होगा, यह एक गंभीर समस्या है।
तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने शिक्षक दिवस का भी व्यवसायीकरण कर दिया है। इस दिन के नाम पर ग्रीटिंग कार्डस्, गुलाब के फूल और तमाम गिफ्ट आकर्षक पैकेजिंग में बेचे जा रहे हैं। विद्यार्थियों में भी होड़ लगी हुई है कि कौन अपने शिक्षक को कितना मँहगा गिफ्ट दे सकता है। पर शिक्षक दिवस का यह मतलब तो कतई नहीं होता। यदि शिक्षक दिवस को सही मायने में समझना है तो शिक्षक-विद्यार्थी के संबंधों में सम्मान और स्नेह लाना होगा। अपने विद्यार्थी की सफलता से जो सुख शिक्षक को मिलता है, उसका कोई मोल नहीं। आज भी बहुत से शिक्षक शिक्षकीय आदशरें पर चलकर एक आदर्श मानव समाज की स्थापना में अपनी महती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। तमाम शिक्षकों ने अपने शिष्यों के जीवन की दिशा बदल दी या फिर उन्हें जीवन जीने का सही ढंग सिखाया। वस्तुतः ‘शिक्षक दिवस’ शिक्षकों को अपने जीवन में उच्च जीवन मूल्यों को स्थापित कर आदर्श शिक्षक बनने की प्रेरणा देता है। इसी के साथ यह एक ऐसा अवसर प्रदान करता है जब हम समग्र रूप में शिक्षकों की भूमिका व कर्तव्यों पर पुनर्विचार करें और बदलते प्रतिमानों के साथ उनकी भूमिका को और भी सशक्त रूप दे सकें।
सम्पर्क : टाईप 5, क्वार्टर नंबर-15
पी एण्ड टी ऑफिसर्स संचार कॉलोनी,
अलीगंज, लखनऊ-226024
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