दिलीप कुमार अर्श की कवितायें अब नहीं सुनी जाएगी अब नहीं सुनी जाएगी कोई प्रार्थना कल ही हुई है घोषणा आकाश में कुपित सूरज लाल दिन भर कह...
दिलीप कुमार अर्श की कवितायें
अब नहीं सुनी जाएगी
अब नहीं सुनी जाएगी कोई प्रार्थना
कल ही हुई है घोषणा
आकाश में
कुपित सूरज लाल दिन भर कहता रहा
जागकर तारे भी
भाग-भागकर चांद सारी रात...
अब नहीं सुनी जाएगी प्रार्थना
क्यों न हो गीली कितनी भी
शब्द भी हों मुखर कितने ही या
लिए हों बूंद-बूंद भाव
करुण-आर्द्र प्रवाह
कितना भी
हो उसमें हाहाकार अंतस का
या सांस को बेधती कोई लंबी कराह
क्यों न हो
बड़ा सा दैन्य या शून्य आँखों में
मौन भी हो क्यों न गहरा या प्रगाढ़
प्रार्थनाओं में या हो आँसुओं की बाढ़
कोई फर्क नहीं
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अब रहेगा नीला आकाश सूखा ही सदा
क्योंकि सुनी नहीं जाएगी प्रार्थना
कल यही घोषणा हुई है।
इसलिए अब आज से होगी
इसी पृथ्वी को संबोधित प्रार्थना हर एक
होकर नतमस्तक या दंडवत...
रहेंगे सब मौन या चुपचाप
और स्वीकार हो जाएगी हरेक प्रार्थना
जिसे आज तक उठना या उड़ाना पड़ता था
हमेशा ऊपर ऊंचा
बादलों के पार
ऊपर खींचती जाती थी सारी डोर
टकटकी लगाए सभी देखते थे ऊपर की ओर
बिछौने पर चित-लेटा हाथ-पैर फेंकता
एक नन्हा शिशु भी जैसे छत की ओर...
सबके पैरों या जड़ों के नीचे
धरती के भीतर
क्योंकि सदा एक स्त्री बैठी है चिरकाल से
मातृशक्ति सहस्रभुजा सहस्रपयोधरी
कल्याणी, परमसंभवा, कारुण्य-रत्नाकरी
लटकाए अपने बाल से
अनगिन रहस्य अज्ञेय सत्ता के...
कह रही- ‘मत देखो ऊपर हमेशा,
देखो! जरा पैरों के नीचे भी...’
कैसे कर रही महसूस, सह रही वह
अपने बच्चों के तलवों से
अपने सिर पर झड़ते-चढ़ते ताप या संताप...
क्योंकि मां को सब मालूम है
इसलिए स्वीकार हो जाएगी हरेक प्रार्थना
और सुननेवाले कान
ऊपर हों या नीचे
फिक्र या सवाल ये नहीं है
बस सुन ली जाए
है यह महत्वपूर्ण और जरूरी
वरना सब भूल ही जाएंगे प्रार्थना
और हो जाएंगे कैद
मोटी चहारदीवारी में
अहंकार की अंधेरी खुमारी में
तब कैसे दिखेगी रूप-रेखा कल की?
क्षमा- याचना
शोक-सभा नहीं
पीढ़ी की विराट सभा है ये
उच्च महामार्ग के नीचे दोनों ओर
असंख्य लोग घुटनों के बल खड़े,
जोड़े हाथ,
दाँतों में दबाए क्षमा-याचना...
क्षमा करना, पुरखो!
हम तुम्हारे वंशज तो हैं
गर्व है हमें हमारे कल पर
जब थे तुम कभी विश्वगुरू
और यहाँ हर घर के मस्तूल पर
उड़-उड़ आती थी सोने की चिड़िया
विश्व के कोने-कोने से
आ सभी ढूंढ़ते थे तुम्हारे श्रीचरण
सिर झुका धन्य होते थे कभी
मगर क्षमा करना, पुरखो!
हमारे गर्व-गुब्बारे में आज
रह-रहकर चुभ जाती है एक पतली सुई
हजार नोकों वाली आत्मग्लानि की...
हम नहीं इस लायक कि चल सकें उस पर
और इसलिए खाली पड़ा है ...खाली...
यह उच्च महामार्ग
चलकर बना गए जो तुम
निराहार-निर्भय
दृढ़ संकल्प हे परम पुरखो!
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बरसों वन-प्रांतर-गुहा में बैठ
निकले थे तुम बार-बार
उस बृहत्तर-महत्तर जीवन की ओर
एक लघुयान से
अनंत अन्तर्यात्रा पर
और स्वपात्र भर-भर लाए थे तुम
वहां से झरते अमृत
और दृष्टि-शून्य में उतर आया था
इन्द्रधनुषी ज्योति उस विराट सत्य की
जिसकी अनाहत ध्वनि-गूंज में
झंकृत हुए थे तार सारे
इसी महामार्ग से लौट आए थे तुम हरेक बार
नीचे किनारे खड़ी पीढ़ी दिशाहीन
घनान्धकार दिग-दिगन्त
परस्पर टकराते प्राणी असंख्य
टटोलते हाथ एक दूसरे का
लौट आए थे उसी महामार्ग से
कहा जाता रहा जिसे मार्ग पलायन का
परम स्वार्थ या आत्म-निर्वासन का...
अब क्षमा करना, पुरखो!
अब रह गये हैं हम सिर्फ इस लायक
कि बना सकें तुम्हारी मूर्तियां
कर सकें स्थापित चौक-चौराहे पर
महामार्ग के बीच कहीं-कहीं
और बगल में गाड़ सकें मील के सफेद पत्थर
कर सकें नामकरण अलग-अलग इस मार्ग का
क्षमा करना, पात्रता इतनी नहीं
कि चढ़ तुम्हारे इस महायान पर हम कर सकें पार
एक भी मील-पत्थर
सिर्फ जीर्णोद्धार कर इसका
रख सकें फिर वही महामार्ग के बीचोंबीच ...
क्षमा करना, हे पुरखो!
बिखरे तुम्हारे अंग-प्रत्यंग, अस्थि-पंजर
बांटे गये थे बार-बार विरासत में
लड़ रहे हैं आज भी हम धर्म-युद्ध
क्रांतियां भी की हैं अनेक
खून बहाना बदस्तूर जारी है
धोये हैं सभी ने बार-बार
अपने हिस्से के अंग और अस्थियां
अब हम सिर्फ रह गये हैं इस लायक
कि तुम्हारी समाधि के ऊपर
जलाकर दीप चले जायें
चुपचाप अपने-अपने घर!
सम्पर्क : मुख्य प्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक,
पणजी सेक्रेटारियट शाखा,
फाजेंदा बिल्डिंग, पणजी, गोवा।
ज्योति स्पर्श की कविताएं
1. मैरून मोहर
शीरीं स्वाद
जुबान का तुम्हारी
घुलता रहता है
आहिस्ता से सरगोशियों में,
हौले से वो ‘जी’ कहना
आज भी मेरे होंठ के बाएं किनारे पर उगा
देता है ट्यूलिप,
अब आरामकुर्सी
मेरी कभी तन्हा नहीं होती
जब से मेरी हमनफस
तुमने गुजारी है इक शाम
मेरी लाइब्रेरी में
किताबों के पहले पन्ने के साथ
जो तुमने लगाई है
मेरे सीने
मेरी घड़ी
मेरी सोच पर
नमकीन स्वाद मौजूद है
तुम्हारी उस
मैरून लिप्स्टिक की मुहर का।
2. गुजरे हुए दोस्त
सोच रही हूँ...
तेरे साथ चले रस्तों पर
रुकते हुए, चलते हुए
...सोच रही हूँ
लोग मर के किधर जाते हैं...
बीतते नहीं हैं
लोग फकत गुजर जाते हैं,
मेरे गुजरे हुए दोस्त...
जब होती है बारिश
बरसती है मुहब्बत
गुजरती है दिल्ली
दिन तुमसे झगड़ने के
बहुत याद आते हैं.
डॉ. सम्राट् सुध की कविताएं
1. तुझ-सी विराट ना मिली
धागे
टटोले दूर तक
कोई गाँठ ना मिली...
हथेली से
हथेली मिलायी
रेखाएं सब थीं अलग
मिलना-मिलाना युक्ति कहाँ
मिलाना चाहता जिन्हें रब
कहनी- सुननी समेटी
कोई बात ना मिली...
व्याकुलता
मन विवशता भर है
शेष पाना क्या है
पोथी उठाये-उठाये
जलती चिता देखी
सोचा
जाना है क्या
गुजरी
ढूंढ़ी बहुत
कोई साँस ना मिली...
साधनाएं
जो भी हैं
तेरे-मेरे प्रेम से छोटी हैं सब
तृप्ति एक गोद तेरी
शेष तृष्णाएँ हैं सब
सत्ताएं सब देखीं
तुझ-सी विराट ना मिली...
धागे टटोले दूर तक
कोई गाँठ ना मिली !!
2. प्यास देखता हूँ.
मछवे को मीन दिखी जल में
और मैं प्यास देखता हूँ...
नीर ना देख
आया कहाँ से बहता
वो बीज देख
ओस की नन्हीं बूँद
पथिक है कहाँ से कहां तक
अभ्यास देखता हूँ...
घटनाएं घटित हैं
और घट घटने लगे हैं
सागर की चाहतों के घन
फिर घुमड़- घुमड़
जल भरने लगे हैं
रीते मन का लगन से
अडिग विश्वास देखता हूँ...
यूँ तो कटी, कट ही जाती
तुम हो तो जेठ दोपहरी
पूरा चाँद महका-महका खिला
अक्षत-रोली-दीप-घृत
कुछ भी नहीं है
कितनी बार आये तुम संग
वो श्वास देखता हूँ...
मछवे को मीन दिखी जल में
और मैं प्यास देखता हूँ !!
3. मन की मुनिया
चलते-चलते थकन कहीं खो जाती है...
साँझ कोई मुरली की धुन पर गाता है
अनुभूति होती, नजर नहीं आता है
कोई बंजारा-सा बंजर धरती पर
पूर्व मेरे ही गीत-पौध धर जाता है
फल का दाता वृक्ष हमें दिखता है पर
परम पिता की ममता फल हो जाती है...
नेह-भाव-सम्मान सभी पहले-सा है
तू ही सोच तू एक पहेली क्यों है बना
जी सकता था मुसकाता जीवन फिर भी
खिसियाया-सा एक सवाली क्यों है बना
जनम-जनम का आवें से बचना तेरा
जनम-जनम सहमी कथा हो जाती है...
तू है-मैं हूँ और हमारा नेह है यह
युग-युग से निश्छलता का देय यह
आखर-आखर एक कथा तेरी-मेरी
प्रेम प्रेय नहीं, अन्ततः श्रेय है यह
श्रान्त कभी होता है तेरे पथ का पथिक
मन की मुनिया गोद तेरी सो जाती है ...
चलते-चलते थकन कहीं खो जाती है !!
सम्पर्क : 94-पूर्वावली, गणेशपुर,
रुड़की( उत्तराखंड)
नीरज त्यागी की कविताएं
दीवारों की दरारों से लोग हालात भांपने लगे
आँखों में दिखती लाली से लोग जज्बात मापने लगे
खुल कर मुस्कुराया जब कोई,
तब लोग उसकी मुस्कुराहट के
पीछे के राज ताकने लगे,
हर बार लोग तेरा इम्तिहान लेते हैं.
किसी के जीने-मरने से किसी को कोई मतलब नहीं
एक बार तू जीवन से छूटकर तो देख
तुझे पता चलेगा कि तेरी बुराई करने वाले भी,
तेरी तारीफ एक दूसरे से छांट रहे हैं.
एक पल भी जिसने तेरा हाथ न पकड़ा,
अपने कन्धों पर तुझे बारी बारी बांट रहे हैं
होड़ लग जायेगी तुझ से मिलने वालों की,
वो जो बहुत व्यस्त थे अपने काम काज में,
देख खेल किस्मत का, तेरे मरने के बाद
वो भी तेरे लिए सूखी लकड़ी छाँट रहे हैं.
लोगों का प्यार तुझे ऐसे ही पाना होगा,
सब मिलेगा तुझे,
बस तुझे दुनिया से जाना होगा.
2. मर रही इंसानियत आजकल
खाली पड़ा है मय का प्याला आजकल
ऐसा लगता है इसका भी मय से नाता टूट गया है
आसमाँ में उजाले की कुछ कमी सी है आजकल
ऐसा लगता है कुछ सितारों का
अपनों से साथ छूट गया है आजकल
आँखे देखियेगा हँसने वालों की गौर से,
वो भी लाल हैं आजकल।
ऐसा लगता है जैसे उनकी आँखों से
आँसुओं का साथ छूट गया है आजकल
मंदिर में लोगों की भीड़ बहुत बढ़ गयी है
इंसान का इंसान से विश्वास छूट गया है.
माँ कहने वाले कहीं गायब हैं आजकल।
अब माँ की रूह का शरीर से साथ छूट गया है
चंद रुपयों की नुमाइश करते हैं सफेदपोश लोग
इंसान से अब इंसानियत का साथ छूट गया है
बहुत मगरूर हो गए हैं कुछ शरीफ लोग
गिरगिट जैसे रंग बदल रहे हैं लोग आजकल।
पिता का नाम - श्री आनंद कुमार त्यागी
माता का नाम - स्व.श्रीमती राज बाला त्यागी
गाजियाबाद (उ. प्र)
पुखराज सोलंकी की दो कविताएं
सभागार
कभी गूंजती है मुझ में
सैकड़ों हाथों से बजती
तालियों की गड़गड़ाहट
कभी थिरकते हैं मुझ में नन्हें
मासूम पंख से कोमल पाँव
घुंघरू की छन-छन के साथ
कभी फूलों सा महकता हूँ
जब सजाया गया होता हूँ
एकाध खास मौकों पर
कभी गूंज उठता हूं मैं
वीर रस कविता सुन
कवि के मुखारविंद से
कभी गम्भीर सभाएं
कभी सांस्कृतिक कार्य
तो कभी शोक सभाएं
कभी बांटता हूं शोहरत,
पुरस्कार, आपके हुनर को
देता हूँ मौका, मंच, आकार
बदले में कुछ नहीं लेता
बस वक्त के सिवाए
चाहे कोई भी आए जाए ,
संपन्न होते ही कार्यक्रम,
मेरे रोशनदानों में लौटते हैं
मेरे प्रिय कपोत मित्र
वह भी देते हैं मुझे वक्त
करते है गुटरगूं मिलकर
मुझे बहलाने की खातिर
मैं सभागार हूँ आखिर...!!
सम्भाले बैठे हैं
इस कदर तेरी यादों के
दस्तावेज सम्भाले बैठे हैं
इक बेतरतीब अफसाने के
पेज सम्भाले बैठे हैं
जहां तन्हाई में लिखते थे
कभी खत तुम्हारे नाम
वही कागज कलम कुर्सी
और मेज सम्भाले बैठे हैं
रात ख्वाब में उठ कर
जहां से चल दिये थे तुम
ख्यालों की वहीं आज भी
हम सेज सम्भाले बैठे हैं
तुम लाए अपने बंगले से
मेरी चौखट जो अमानत
आज भी इस रैन बसेरे में
वो दहेज सम्भाले बैठे हैं
हर रंग फीका लगता है
तन्हाइयों की धूप में
अहसासों में रंग भरने को
रंगरेज सम्भाले बैठे हैं
किया दावा इक फकीर ने
मेरी मौत का पुखराज
तब से हम तेरी यादों से
परहेज सम्भाले बैठे हैं
संपर्क : हनुमान मंदिर के पीछे, किसमीदेसर,
पोस्ट-भीनासर, बीकानेर-334403 (राजस्थान)
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