डॉ आरती कुमारी 1.खामोशी ----------------- रिक्तता से भरा ये जीवन पुलकित हो उठा था तुम्हारे आने की आहट मात्र से ही ख्वाहिशें.. धड़कनों क...
डॉ आरती कुमारी
1.खामोशी
-----------------
रिक्तता से भरा ये जीवन
पुलकित हो उठा था
तुम्हारे आने की
आहट मात्र से ही
ख्वाहिशें.. धड़कनों के हिंडोले पर
मारने लगी थी पेंग
उमंगें ...
मचलने लगी थी
ले लेकर अंगड़ाइयाँ
और
सपनों के रोशनदान से झांकती
तुम्हारे प्यार के उष्मा की नरम किरणें
जगाने लगी थी
सोये हुए अरमानों को मेरे
पर
बढ़ती उम्र ने
लगा दिए है सांकल
दिल के दरवाजे पर
और ठिठका दिया है
तुम्हारी यादों को
कहीं दूर
बंद कर दिये है तजुर्बे ने
चाहत की वो सारी खिड़कियाँ
जिससे तैरकर
उतरने लगी थी मेरे भीतर
तुम्हारी खुशबू
और समझदारी ने
कर दिया है
उदासी और घुटन के
घुप्प अंधेरे में जीने के लिए विवश
एक लंबी खामोशी के साथ.
@डॉ आरती कुमारी
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2.बचा लेना होगा खुद को मरने से
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आज नहीं मर रहा है केवल एक इंसान
न ही मर रहे हैं सिर्फ बूढ़े लाचार शरीर
पर आज..
मर रही हैं उम्मीद के झिलमिलाते दीप लिये
चौखट पे जमी मां की आंखें
जो अपने बेटे के इंतेज़ार में पथरा सी गईं हैं
आज मर रही है माँ की ममता
मर रही है उसकी थपकी देतीं लोरियां,
सूख रहा है उसके आँचल का दूध
जब उसके बच्चे दूर परदेस जाकर
उसकी आवाज़ तक को सुनने से
कर देते हैं इनकार
और झटक देते हैं एक सिरे से
उसके कंपकंपाते हाथों को
जो तलाशते रहते हैं
अपने बच्चों में अपने बुढ़ापे की लाठियां..
आज मर रहा है एक पिता का धैर्य
और उसका त्याग
मर रहा है उसका आत्मविश्वास
जब उसके ही पुत्र लगा देते हैं
उसके पूरे वजूद पर एक सवालिया निशान
और देते हैं एक करारा तमाचा
उसके द्वारा दी गई परवरिश को...
आज का युवा कर रहा है प्रतिनिधित्व
उस पाश्चात्य संस्कृति का
जिसमें हमारे घर में बुजुर्गों के लिए
कोई एक कोना भी मयस्सर नहीं है
जिस महानगरीय व्यवस्था और
मशीनी ज़िन्दगी में बोझ समझ
छोड़ दिया जाता है बेबस मां बाप को
ओल्ड ऐज होम में
घुट घुट के अंतिम सांसें लेने को
आज मानवीय संवेदनाओं को मार
चमकता खनखनाता कलयुगी सिक्का
कर रहा है
उन सारे मूल्यों और संस्कारों पर राज
जो हमारे भरत वंश की परंपरा रही है
जिस संस्कृति में
ययाति, श्रवण और राम सरीखे पुत्र हुए
जिस संस्कृति में
बुजुर्गों की सेवा करना
हमारा सिर्फ कर्तव्य ही नहीं
बल्कि जिनके चरण
देवी देवताओं के चारों धाम तुल्य माने गए
आज मर रही है ..बेमौत.. वही संस्कृति
आज अपनी ही लाश ढो रही है हमारी सभ्यता
अब भी वक़्त है ..बचा लेना होगा हमें
इन मरती आत्माओं को
इन लहूलुहान होते पारिवारिक संबंधों को
बचा लेना होगा इन टूटते मानवीय रिश्तों को
बचा लेना होगा अपनी खत्म होती भारतीय संस्कृति को
और बचा लेना होगा गर्त में जाते अपने खुद के भविष्य को.. !!
@डॉ आरती कुमारी
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जीवन परिचय
1- रचनाकार पूरा नाम- डॉ आरती कुमारी
2- पिता का नाम- श्री अलख निरंजन प्रसाद सिन्हा
3- माता का नाम- स्वर्गीय श्रीमती रीता सिन्हा
4- पति का नाम- श्री माधवेन्द्र प्रसाद
5- वर्तमान/स्थायी पता- शशि भवन
आज़ाद कॉलोनी, रोड 3
माड़ीपुर, मुज़फ़्फ़रपुर बिहार-842001
6- फोन नं/वाट्स एप नं-8084505505
ई-मेंल- artikumari707@gmail.com
7- जन्म / जन्म स्थान- 25/03/1977, गया
8- शिक्षा - M.A(english),Ph.D(english), M.Ed., doing Ph.D in education
9. सम्प्रति- राजकीय उच्च विद्यालय ब्रह्मपुरा , मुज़फ़्फ़रपुर में सहायक शिक्षिका और प्राथमिक शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय, पोखरैरा में अतिथि व्याख्याता के पद पर कार्यरत
10. प्रकाशन- कैसे कह दूं सब ठीक है(काव्य संग्रह)
11.पंजाबी , नेपाली एवं गुजराती में रचनाएँ अनुदित
12.देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं तथा ई पत्रिकाओं में कविताएँ और ग़ज़लें प्रकाशित
13.मेंघला साहित्यिक पत्रिका में सह संपादन का कार्य
14.समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल ऐप में ग़ज़लें संग्रहित
15.आकाशवाणी, दूरदर्शन से कविताओं और ग़ज़लों का प्रसारण विभिन्न सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्यक्रमों में मंच संचालन
16. सम्मान- बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा " उर्मिला कौल साहित्य साधना सम्मान'2018, हिंदी - सेवी सम्मान 2018, निराला स्मृति संस्थान, डलमऊ द्वारा ' सरोज स्मृति सम्मान 2018 , एवं अन्य सम्मान
0000000000000000000000
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
रावण सबसे पूछ रहा है'
बचपन से देखा है हर साल रावण को जलाते हुये,
सभी को बुराई पर अच्छाई की जीत बताते हुये।
उस लंकेश को तो मर्यादा पुरुषोत्तम ने मारा था,
प्रभु श्रीराम ने उसकी अच्छाईयों को भी जाना था।
सभी इकट्ठे होते हैं रावण को जलाने के लिए,
दुनिया से पूरी तरह बुराइयों को मिटाने के लिए।
आज रावण खुद पूरी भीड़ से यह कह रहा है,
तुम में से कौन श्रीराम जैसा है यह पूछ रहा है?
क्या तुम अपने अन्दर की बुराइयों को मिटा पाये हो ?
क्या तुम सब तनिक भी खुद को श्रीराम सा बना पाये हो?
यदि उत्तर नहीं है तो क्यों मुझे बुरा मानकर आते हो?
तुम खुद भी हो बुरे तो क्यों मुझे हर साल जलाते हो ?
--
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लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल
सिंह सा गर्जन और हृदय में कोमल भाव रखते थे,
वल्लभभाई पटेल जी से तो सारे दुश्मन डरते थे।
बारदौली सत्याग्रह का सफल नेतृत्व आपने किया,
'सरदार' की उपाधि वहाँ की जनता ने आपको दिया।
एकता को वास्तविक स्वरूप भी आपने ही दे डाला,
रियासतों का एकीकरण भी पल भर में कर डाला।
प्रयास से आपने सारी समस्याओं को हल कर दिया,
सबने आपको भारत का 'लौह पुरुष' था मान लिया।
देश का मानचित्र विश्व पटल पर बदल कर रख दिया,
लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने कमाल कर दिया।
31अक्टूबर को हम सब भारतवासी 'राष्ट्रीय एकता दिवस' मनाते हैं,
आपकी याद में हम 'स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी' पर श्रद्धा सुमन चढ़ाते हैं।'
---.
घुमक्कड़ हुनरबाज
"रद्दी को भी लाइब्रेरी बना लेते हैं,
मेहनत से किस्मत चमका लेते हैं।
फेंके हुये कागज़ के टुकड़ों पर,
हम अपना हुनर आजमा लेते हैं।
कोई नहीं सिखाता है सबक पर,
जिन्दगी से ही हम सीख लेते हैं।
किताबों में है सब अच्छी बात पर,
वजूद इसका जमाने में देख लेते हैं।
हमारी बस्तियों में कोई नहीं आता पर,
हम घुमक्कड़ सारा जमाना देख लेते हैं।"
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
उत्तर प्रदेश,भारत
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शाइर जसराज जोशी “लतीफ़ नागौरी”
ग़ज़ल
ए नौजवाने वतन,
तू वतन की आन है, शान है !
तू वतन की ज़िंदगी
तू ही वतन की बंदगी
ए नौजवाने वतन.....
तू वतन की सरहदों का है प्रहरी
तुझसे है हिफ़ाज़त है गहरी
ए नौजवाने वतन....
तेज़ गर्मी सर्दी सहता है तू
अपनों की यादों में आहें भरता है तू
तेरी हिम्मती ताकत पे फ़ख्र है लतीफ़
मुल्क के वास्ते जवान शरीफ़ है तू
ए नौजवाने वतन....
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श्रीमती गीता द्विवेदी
ऐसा भी संयम
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सड़क के किनारे,
पेड़ के नीचे,
घर नहीं झोपड़ी थी ।
झोपड़ी में परिवार नहीं,
एक महिला बूढ़ी थी ।
कुछ अपनी उम्र से ,
कुछ अपनों बुढ़ी थी ।
जुटाती रहती पेड़ के पत्तों को,
सुखी टहनियों को ।
सहलाती रहती ,
दुखती कोहनियों को ।
मिट्टी का छोटा चुल्हा ,
जलता भी था बुझता भी।
यूं ही हांफते-खांसते ,
मन हंसता भी था, रोता भी।
पेड़ अब नहीं है
झोपड़ी भी नहीं है ,
टूटे किवाड़ की जंग लगी ,
खड़खड़ाती कुंड़ी भी नहीं है ।
नहीं पर कुछ तो है ,
अपनों से बिछड़ने का गम तो है ।
उन गम को खुशियों में
बदलने का संयम तो है ।
कुछ तो है ।
-----------000-----------
श्रीमती गीता द्विवेदी
ग्राम - सिंगचौरा,
पत्रालय - गोपालपुर
थाना - राजपुर
जिला - बलरामपुर
(छत्तीसगढ़)
geetadwivedi@gmail.com
00000000000000000000000
सुरेंद्र अग्निहोत्री
सिलेबट पीली हो गई नीला है आकाश,
गम की तो आग में जला मेरा विश्वास।
नारंगी सा डोलता मन का तो एहसास,
एक बात से दूर है एक बात से खास।
खाली सिक्के बर्तन नहीं हमारे पास,
तिनका तिनका जोड़ कर रचा इतिहास।
फूल खिले हर उपवन में हो यह प्रयास,
भावी पीढ़ी को हो जाये यह अहसास।
सुरेंद्र अग्निहोत्री
ए-305 ,ओसीआर बिल्डिंग
विधान सभा मार्ग ,लखनऊ
000000000000000000000
सुशील शर्मा
मैं रावण
अहंकारी, व्यभिचारी।
लोक कंटक, दुराचारी।
त्रैलोक्य स्वामी।
पतित पथ अनुगामी
प्रसन्न हूँ ।
तुम्हारे युग में
अभ्युत्थित, आसन्न हूँ।
हर एक मुझ जैसा ही
बन जाना चाहता है।
मेरे अवगुणों को
खुद में बसाना चाहता है।
मेरा चरित्र ,
अब राम से ऊपर जा चुका है।
तुम्हारे युग में,
मुझे आदर्श बनाया जा चुका है।
हर तरफ मेरे जैसा शक्तिशाली ,
बलशाली ,कूटनीतिज्ञ
कामिनी ,कंचन प्रेमी
लालची ,राजनीतिज्ञ।
बनने की होड़ है।
राम जैसा चरित्र
अब तुम्हारे युग में
वैसे ही धक्के खाता है।
जैसे उनकी प्रतिमा,
कपड़े के टेंट में।
अपने ही जन्म स्थान से ,
निर्वासित युगों से।
एक छोटी सी जगह भी,
उस चरित्र को नहीं ,
तुम्हारे देश में।
मेरे पुतले जला कर
फिर बन जाते हो मेरे जैसे।
बहुत गजब के दोहरे चरित्र
निभाते हो।
राम की ऐतिहासिक थाती लिए
मेरे गुणों को आजमाते हो।
राम बनना
तुम्हारे बस में है भी नहीं।
राम प्रज्ज्वलित शलाका है।
रावण गहन तम की शाखा है।
राम सहस्त्र कोटि सूर्य हैं।
रावण मानस हृदय का अधैर्य है।
राम में त्याग है ,तपस्चर्य है।
रावण अलघ्य पापचर्य है।
सुनो राम के साधकों।
रावण को न अपने मन में जगह दो।
राम भारत वर्ष के ,
अक्षुण्ण पुण्य साध्य है।
राम ,रावण के आराध्य
के भी आराध्य हैं।
चुनाव
(चुनाव प्रक्रिया पर कविता )
सुशील शर्मा
सुनो सभी प्यारे अधिकारी।
है चुनाव एक जिम्मेदारी।
लोकतंत्र का यज्ञ है पावन।
आहुति दो लगा के तनमन।
प्रथम प्रशिक्षण का आदेश।
आया है बन कर सन्देश।
हम पर आई जिम्मेदारी।
कर लो अब पूरी तैयारी।
सभी प्रशिक्षण बहुत जरुरी।
मत बनाओ तुम इनसे दूरी।
मास्टर ट्रेनर की सब बातें।
ई वी एम से वो मुलाकातें।
ध्यान से सुन लो कान लगा कर।
नियम जान लो ध्यान लगा कर।
दो दिन पहले तैयारी करलो।
सामान संग साहस भी धर लो।
मन निष्पक्ष और दृढ़ होगा।
नहीं कोई कंटक फिर होगा।
एक दिन पहले सामान मिलेगा ।
समय सुनिश्चित नहीं टलेगा।
समय पर अपने दल से मिलना।
एक एक है सामान को गिनना।
कंट्रोल ,बैलेट, व्ही व्ही पेट।
पूरा मिलेगा तुमको सेट।
निविदत्त ,डायरी और प्रपत्र।
मतलेखा और सूचना पत्र।
सभी लिफाफे गिनकर लेना।
कम न हों निश्चित करलेना।
पूरे दल का हो सहयोग।
अहंकार का लगे न रोग।
निर्धारित वाहन में जाना।
सादा ही भोजन तुम खाना।
कार्य बहुत है समय है कम।
तान के लम्बी मत सोना तुम।
बी एल ओ को पास बुलाओ।
उसको सब बातें समझाओ।
सौ मीटर का लगा निशान।
संकेतक बांधों श्रीमान।
एजेंटों को पास बुलाओ।
सारे नियम उन्हें समझाओ।
कोटवार को गांव भिजाओ।
गांव में डुंडी पिटवाओ।
रात में कर सारी तैयारी।
अब जल्दी सोने की बारी।
सुबह पांच पर तुम जग जाओ।
जल्दी से काम पर लग जाओ।
अभ्यर्थियों की सूची चिपकाओ।
ब्लैकबोर्ड पर नियम लगाओ।
शुरू कर दो दिखावटी मतदान।
एजेंटों को बाँटो सब ज्ञान।
वोटें गिन कर उन्हें बताओ।
मॉक पोल प्रपत्र भरवाओ।
सी आर सी का रख्खो ध्यान।
अब सीलिंग शुरू करो श्रीमान।
हरी पर्ण मुद्रा चिपकाओ।
क्लोज़ में स्पेशल टैग लगाओ।
बाहर एड्रेस टैग लगाओ।
फिर स्ट्रिप सील घुमाओ।
6.50 पर कर सारी तैयारी।
अब असली मतदान की बारी।
चुस्त रहें सारे अधिकारी।
मुश्किल हल होतीं हैं सारी।
नंबर एक है नाम पुकारे।
मार्क करे मतदाता सारे।
नंबर दो वोटर रजिस्टर भरता।
अमिट स्याही चिन्ह है सरता ।
नंबर तीन है मशीन प्रभारी।
उसके हाथ में किस्मत सारी।
जब वो बैलेट बटन दबाये।
तभी वोट हम सब दे पाए।
दिन भर कठिन परिश्रम भाई।
याद करें हम हर पल माई।
रहें सदा हम सब निष्पक्ष।
साधें न हम पक्ष विपक्ष।
अंतिम निर्णय पीठासीन।
ज्ञानी हो और बहुत जहीन।
पूरे चुनाव का वो रक्षक।
सारे दल का वो संरक्षक।
पांच बजे हो दरबाजा बंद
रोशनी देखो पड़ गई मंद।
बल्ब और लाइट जलवा दो।
अंदर सब पर्ची बटवा दो।
अंतिम वोट डलेगी ज्यों ही।
क्लोज़ बटन दबेगी त्यों ही।
सबको केरिंग बॉक्स में रख दो।
अब सारे प्रपत्र तुम भर दो।
पहले भरोगे तुम मतलेखा।
फिर डायरी का करो अभिलेखा।
सील करो चिन्हित प्रति मूल ।
लेखा रजिस्टर न जाओ भूल।
हर प्रपत्र को भरकर विधिवत।
कार्य करो तुम सब विधि सम्मत।
हँसी ख़ुशी तुम रात में आकर।
घर जाओ तुम सामान जमा कर।
यह चुनाव है यज्ञ समान।
पूर्ण सहयोग सबका हो श्रीमान।
कवि सुशील सब का आभारी
जिसने कविता सुनी हमारी।
----.
हे बापू तुम फिर आ जाते
सुशील शर्मा
हे बापू तुम फिर आ जाते
कुछ कह जाते कुछ सुन जाते
साबरमती आज उदास है।
तेरा चरखा किस के पास है?
झूठ यहाँ सिरमौर बना है।
सत्य यहाँ आरक्त सना है।
राजनीति की कुटिल कुचालें।
जीवन को दूभर कर डालें।
अंदर पीड़ा बहुत गहन है।
मन को आकर तुम सहलाते।
हे बापू तुम फिर आ जाते।
कुछ कह जाते कुछ सुन जाते।
सर्वधर्म समभाव मिट रहा।
समरसता का भाव घट रहा।
दलितों का उद्धार कहाँ है।
जीवन का विस्तार कहाँ है।
जो सपने देखे थे तुमने।
उनको पल में तोड़ा सबने।
युवाओं से भरे देश में
बेकारी कुछ कम कर जाते।
हे बापू तुम फिर आ जाते।
कुछ कह जाते कुछ सुन जाते।
स्वप्न तुम्हारे टूटे ऐसे।
बिखरे मोती लड़ियों जैसे।
सहमा सिसका आज सबेरा।
मानस में है गहन अँधेरा।
भेदभाव की गहरी खाई।
जान का दुश्मन बना है भाई।
तिमिर घोर की अर्ध निशा में।
अन्धकार में ज्योति जगाते।
हे बापू तुम फिर आ जाते।
कुछ कह जाते कुछ सुन जाते।
स्वतंत्रता तुमने दिलवाई।
अंग्रेजों से लड़ी लड़ाई।
लेकिन अब अंग्रेजी के बेटे।
संसद की सीटों पर लेटे।
इनसे हमको कौन बचाये।
रस्ता हमको कौन सुझाये।
जीवन के इस कठिन मोड़ पर।
पीड़ा को कुछ कम कर जाते।
हे बापू तुम फिर आ जाते।
कुछ कह जाते कुछ सुन जाते।
कमरों में है बंद अहिंसा।
धर्म के नाम पर छिड़ी है हिंसा।
त्याग आस्था सड़क पड़े हैं।
ईमानों में पैबंद जड़े हैं।
वोटों पर आरक्षण भारी।
गुंडों को संरक्षण जारी।
देख देश की रोनी सूरत।
दो आंसू तुम भी ढलकाते।
हे बापू तुम फिर आ जाते।
कुछ कह जाते कुछ सुन जाते।
सुशील शर्मा
00000000000000000000
अर्पित सिंह
नियुक्ति की तड़प...
ख़ुशी हैं शिक्षकों के दामन में,
पर हंसी के लिये हक नहीं.
हर नज़र है वाट्सएप पर,
पर नियुक्ति की ख़बर नहीं.
आंखों में है नींद भरी,
पर सोने का चैन नहीं.
हर चयनित है दुख से भरा,
पर सुनने को कोई है नहीं.
सारे नाम मोबाइल में है,
पर बात के लिये मन नहीं.
गैरों की क्या बात करे,
अपनों के लिये ही शब्द नहीं.
तू ही बता ए ज़िन्दगी ,
इस ज़िन्दगी का क्या होगा.
कि हर पल रिट वालों को,
जीने के लिये चैन नहीं...
- अर्पित सिंह, चयनित शिक्षक
जैसलमेर, राजस्थान,
000000000000000000000
डॉ राजीव पाण्डेय
पाया हिन्दी ने विस्तार
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अरुणोदय से अस्ताचल तक,झंकृत हैं वीणा के तार।
पाया हिंदी ने विस्तार।
साखी सबद रमैनी सीखी,
सूरदास के पद गाये।
जिव्हा पर मानस चौपाई,
मीरा के भजन सुनाये।
कामायनी के अमर प्रणेता,आँखों में आँसू की धार।
पाया हिन्दी ने विस्तार।
रासो गाये चंदवर दायी,
नहीं चूकना तुम चौहान।
थाल सजा कर चला पूजने,
श्यामनारायण का आव्हान।
खूब लड़ी मर्दानीवाली, लक्ष्मीबाई की तलवार।
पाया हिन्दी ने विस्तार।
नीर भरी दुख की बदली में,
नीहार नीरजा बातें।
तेज अलौकिक दिनकर से,
महकी उर्वशी की रातें।
जौहर के हित खड़ी हुई है, देखो पद्मावती तैयार।
पाया हिंदी ने विस्तार।
राम की शक्ति कहें निराला,
इब्राहीम रसखान हुआ।
सतसई है गागर में सागर,
डुबकी मार सुजान हुआ।
देख दशा करुणाकर रोये, सुनी सुदामा करुण पुकार।
पाया हिंदी ने विस्तार।
मृग नयनी के नयन लजीले,
नगर वधू वैशाली से।
प्रिय प्रवास से राधा नाची,
दिए उलाहने आली से।
फ़टी पुरानी धोती में भी, धनिया के सोलह श्रृंगार।
पाया हिन्दी ने विस्तार।
© डॉ राजीव पाण्डेय
1323/भूतल, सेक्टर 2
वेबसिटी,गाजियाबाद
ईमेंल-dr.rajeevpandey@yahoo.com
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प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
स्वच्छता
ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर
स्वच्छता आरोग्य का आधार है कई रोगों का सहज उपचार है
अपनी नासमझी से लेकिन आदमी करता आया गलत व्यवहार है
सारा सुंदर स्वच्छ यदि परिवेश हो तो मिले खुशियॉ सभी को हर समय
डर न हो बीमारियों का किसी को सबका जीवन हो सुखद और निरामय
उमंगें उत्साह की उपजे स्वतः सबका अपने परिश्रम में मन लगे
मन निडर हो सुहाना संसार हो क्योंकि सच्चा स्वास्थ्य शुभ श्रृंगार है
नदी पर्वत प्रकृति सब है शुद्ध नित स्वच्छता का करते सब सम्मान है
लोग जो अनजान है उनकी उचित समझे वे कि क्या स्वास्थ्य का विज्ञान है
गंदगी से ही पनपते रोग सब किसी को सुख शांति मिल पानी नहीं
स्वच्छता रखना है सचमुच बडा गुण आदमी का एक सुखद संस्कार है
स्वच्छता की जहां भी होती कमी बढती है वहा कई बीमारियां
हो चली दुनिया पुरानी अब नई बदल गई पिछली बुरी परिपाटियॉ
स्वच्छता के प्रति बढी सबकी ललक हर तरह सुविधायें भी उपलब्ध है
सफाई देती हरेक मन को खुशी हरेक को इससे सहज स्वीकार है
स्थान तन मन की निरंतर स्वच्छता से ही सजता है सदा परिवेश हर
स्वच्छता श्रम और सदभाव से ही संवरता है बढ़ता देश हर
हमें भी सहयोग करना चाहिये स्वच्छता पूजा है पावन शुद्धि की
सबों को खुशहाल और निरोग रखने लगातार प्रयासरत सरकार है
सभी के मन की भी होती कामना शांति सुख लक्ष्मी की हो पावन कृपा
किंतु लक्ष्मी की तभी होती कृपा जहां होती स्वच्छता और पवित्रता
स्वच्छता की शुभ जरूरत सभी को हर समय होती ही है हर काम में
वही पर होती है सब संपन्नता साफ सुथरा जहां हर घर द्वार है
प्रो. सी.बी. श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
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अविनाश ब्यौहार
नवगीत
प्यास के पखेरू हैं
छत पर सकोरे!
फुदक फुदक
आती है
छत पर गौरैया!
द्वारे पे
खड़ हो
रम्हाती है गैया!!
समुद्र लगे झील से
ताल हैं कटोरे!
आँगन ने
छेड़ा तो
रो पड़ी घिनौची!
लबरी बातें
ही लगतीं
हैं पोची!!
वंचना पंडित हैं
हमी रहे कोरे!
----.
व्यंगिका
गुजरात का माब लिंचिंग
का होना यह सबूत है!
कि लोगों पर सवार
हत्या का भूत है!!
यानी कानून से विश्वास
उठने लगा है!
ऐसी अनहोनी से
देश का दम
घुटने लगा है!!
लोकतंत्र रसातल में
जा रहा है!
चुनांचे अवाम खौफ
खा रहा है!!
---
नवगीत
बदनसीबी लगा गई
खुशियों पे महसूल!
आवाजाही गम की
बेखटके है!
चाल चलन रस्ते
से भटके है!!
पैताने सियार के शायद
बैठा है शार्दूल!
कैसा बसंत है
कैसा सावन है!
ढोती कलुष भावना
पावन है!!
करें फूल से ज़ोरा ज़ोरी
बदनिगाह बबूल!
----.
नवगीत
खूं के आँसू
मौसम रोया है!
पानी बरसा
फसलें जल गईं!
हरियाली लपटों
में ढल गई!!
मेंघों ने अंगारा
ढोया है!
पुरवा पछुआ
धुंध में डूबी!
दंशित पर्यावरण
की खूबी!!
अब बेखबर सा
शहर सोया है!
---.
हर सू इस शहर
में क्रन्दन है!
आब हवा
बदली बदली है!
सभ्यता दूषित
गंदली है!!
भाईचारा होने में
भी निबन्धन है!
निराशाओं के अब्र
घने हैं!
सपने सारे
धूल सने हैं!!
तपन दिखाता
मलयागिरी चन्दन है!
---.
उठती है
गंधों की डोली
अब तारों
की छाँव में!
फूलों पर रंगत
और आ गया हिजाब!
कलरव करें पंछी सा
आँखों में ख्वाब!!
खेत, मेंड़,
खलिहान, बगीचे
मनोहारी हैं
गाँव में!
बागों में होती
अलियों की
गुनगुन है!
आती दूर कहीं से
रबाब की धुन है!!
है मिले सुकूं
भटकी हवाओं को
पीपल की ठाँव में!!
---.
देना सिर ओखली में, मूसल से भयभीत।
विपदा से जीवट डरे, यही जगत की रीत।।
भौंरे गुन गुन कर रहे, जैसे बजे रबाब।
गुल का निखरा रूप है, बस क्यारी की आब।।
अविनाश ब्यौहार
[03/10, 4:49 p.m.] Avinash Beohar: दोहे
पानी में रह कर करे, मगरमच्छ से बैर!
ऐसे दंदी तत्व की, कभी न होगी खैर!!
गीदड़ शासन कर रहा, गर्दभ छेड़ें राग!
श्वान यहाँ मंत्री बना, पूंछ दबा सिंह भाग!!
दोहा, रोला, सोरठा, यही बताता राज!
बिखरा हुआ समाज है, क्या सुर साधे साज!!
---.
भ्रष्टाचार खदेड़ता, उलझन में ईमान।
प्रजातंत्र है देश में, अठखेली महमान।।
मन विच्छिन्न न हो कभी, चित्त न चढ़े प्रमाद।
प्रकाशित बुद्धि, विवेक हों, सुन सितार का नाद।।
सूरज किरणें फेंकता, धरणी करे श्रंगार।
गुल गुलशन स्वागत करें, मधुऋतु का आभार।।
जुगनू देता रात में, अंधियारे को मात।
भरें पेड़ अंगड़ाई, नन्हा लगे प्रभात।।
माघ, फाल्गुन, चैत हुआ, ऋतुपति का है काल।
मई, जून, जुलाई में, सूरज करे बवाल।।
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दग़ल फसल है देश में, जज होते हैं खाम।
ऐसा भी अंधेर है, फले आक में आम।।
पतझर में भी कर रहे, नौबहार की आस।
आये थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास।।
जंगल में फैले हुए, झाड़ी, झुरमुट, पेड़।
आबहवा बदली हुई, हिंसा से मुठभेड़।।
सत्ता लगती सुन्दरी, होते लुब्ध प्रधान।
नेता लट्टू हो गये, कुर्सी हो गई जान।।
कांटों को पहचान मिली, हैं गुमनाम प्रसून।
किरणें चिन्गारी हुईं, मास लगा है जून।।
---.
अविनाश ब्यौहार
रायल एस्टेट कटंगी रोड
जबलपुर
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महेन्द्र देवांगन माटी
बरखा रानी
( सार छंद )
झूम रहे सब पौधे देखो , आई बरखा रानी ।
मौसम लगते बड़े सुहाने , गिरे झमाझम पानी ।।1।।
हरी भरी धरती को देखो , हरियाली है छाई ।
बाग बगीचे दिखते सुंदर, मस्ती सब में आई ।।2।।
कलकल करती नदियाँ बहती , झरने शोर मचाये ।
मोर नाचते वन में देखो , कोयल गाना गाये ।।3।।
बादल गरजे बिजली चमके , घटा घोर है छाई ।
सौंधी सौंधी माटी महके , बूंद पड़े जब भाई ।।4।।
खेत खार में झूम झूम कर , फसलें सब लहराये ।
हैं किसान को खुशी यहाँ पर , "माटी" गीत सुनाये ।।5।।
महेन्द्र देवांगन माटी (शिक्षक)
पंडरिया ( कवर्धा)
छत्तीसगढ़
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राज नारायण द्विवेदी
सत्य अहिंसा के पुजारी- गांधी जी
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बापू सत्य अहिंसा के पुजारी थे ।
राष्ट्र धर्म जनसेवा के रखवारी थे ।
अल्लाह ईश्वर तेरो नाम मंत्र था ।
इसीलिए अंग्रेजों पर भी भारी थे ।
सत्य का आग्रह भी सत्यता करते थे ।
धर्म निष्ठा का भाव लेकर चलते थे।
छल कपट का भाव नहीं था मन में
वह मानव नहीं अवतारी लगते थे ।
सच्चा साधू और पुजारी लगते थे।
समदर्शी और समभावी लगते थे ।
पद पाने की आस नहीं मन में ,
लोग उन्हें महात्मा गांधी कहते थे ।
छुआ छूत नहीं था उनके मन में
सिर्फ एक ही वस्त्र था उनके तन में ।
भारतवर्ष को आजाद कराने का और
राष्ट्रहित का संकल्प भरा था मन में ।
राज नारायण द्विवेदी , अम्बिकापुर सरगुजा छत्तीसगढ़
000000000000000000000
विकास सर्राफ
अ लेटरबॉक्स
आज सुबह ठंड काफी ज्यादा थी,
मुझे लग नहीं रहा था कि आज वो आयेगी,
हालांकि मैं इन सैकड़ों की भीड़ में
सिर्फ उस एक चेहरे को ही ढूंढ़ रहा था,
जिसका मुझे बेसब्री से इंतजार था
समय तो हो ही चला था
लेकिन आज पता नहीं क्यों वो लेट थी,
सामने टी स्टॉल पर लोग ठंड से ठिठुर रहे थे
ठंड के मारे उनके होंठ भी नहीं हिल रहे थे..
और जिनके हिल रहे थे, उनके होंठों के बीच से तो भाप ही निकल रहा था..
वैसे ठंड तो मुझे भी काफी लग रही थी...
लेकिन उस खूबसूरत लड़की का इंतजार तो मानो मेरे लिए अब खुदा की इबादत बन गया हो...
मैं तो उसे बस करीब से, और करीब से देखना चाहता था..
मेरी नजरें हर गुजरने वाले में बस एक ही चेहरा ढूंढती रहती थी..
आज तो उसे कुछ ज्यादा ही लेट हो गया था..
और मेरी उम्मीद भी अब बस टूट ही रही थी..
शायद इस ठंड की वजह से मुझे एक हफ्ते का और इंतजार करना पड़े..
वो हर शुक्रवार को ही घर से निकल पाती थी...
न जाने ऐसी क्या बात थी...
मैं निराश हो ही चला था कि सामने से उसके पैरों के पायल की आवाज ने मुझे जैसे नींद से जगा दिया..
आखिरकार वो खूबसूरत बला आ ही गयी थी..
उसके कानों की बड़ी – बड़ी बाली,
उसके वो गुलाबी सुर्ख होंठ,
चमकते लहराते बाल, और मस्तानी आखें ये सब मेरे होश उड़ाये जा रहे थे..
जैसे – जैसे वो मेरे नजदीक आ रही थी मेरी सांसें थमती जा रही थी...
मेरा दिल जैसे... अब धड़कना ही बंद कर देगा...
मैं मदहोश हुआ जा रहा था..
और वो इधर - उधर देखती हुई..घबराते हुए, जल्दी - जल्दी, मेरी ही ओर बढ़ी आ रही थी..
उसके पास भी शायद समय कुछ कम था..
वो आयी और मेरे ठीक सामने खड़ी हो गयी..
वो कुछ पल के लिए ठहरी और इधर – उधर देखने के बाद
उसने सीधे मेरी ओर देखा...
मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था..
न दिल धड़क रहा था...न जुबान हिल रही थी...
और मेरी निगाहें तो उसके चेहरे से इतर कुछ और देख ही नहीं पा रही थी...
वो इधर – उधर देखते हुए मेरे थोड़ा और करीब आयी..
जल्दी से उसने अपने पर्स में से एक कागज निकाला और मेरे मुंह में ठूंस दिया...और मुड़ कर वापस जाने लगी..
अब शायद आप ये जानना चाहते होंगे कि मैं हूं कौन.. मेरा नाम क्या है...
तो सुनिये जनाब..
मैं हूं - आज स्मार्टफोन्स और इमेल्स की दुनिया में भुला दिया गया,
एक लेटरबाक्स ।
राइटर
विकास सर्राफ
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कुमार अखिलेश
“स्वेद नहीं हम शोणित देंगे, भारत के श्रृंगारों को”
स्वेद नहीं हम शोणित देंगे, भारत के श्रृंगारों को
लिख देंगे इतिहास नया हम, कलम बना तलवारों को
राष्ट्रवाद का स्वप्न सजा, जो भारत पर कुर्बान हुए
जर्रा जर्रा नमन करेगा, देश के उन किरदारों को
स्वेद नहीं हम शोणित देंगे, भारत के श्रृंगारों को
तोड़ गुलामी की जंजीरें, नव भारत हम को सौंप गए
जो जिस देश के वासी थे, वो उसी देश को लौट गए
आजादी का युद्ध लड़ें जो, नमन सभी कर्णधारों को
स्वेद नहीं हम शोणित देंगे, भारत के श्रृंगारों को
जब रणभूमि में लक्ष्मीबाई को, क्रूर फिरंगी घेरे थे
तब पृष्ठ भाग पर पुत्र बांधकर, दिए तलवारों से पहरे थे
वो परम वीरता की सीमा तक, लाँघ चली दीवारों को
स्वेद नहीं हम शोणित देंगे, भारत के श्रृंगारों को
रघुकुल की ये रीत रही वचनों को प्राणों से बढ़कर मान दिया
वो सात वचन फिर कहाँ गए, जब राम ने सीता त्याग किया
ये प्रश्न सदा प्रहार करेगा, रघुकुल के आधारों को
स्वेद नहीं हम शोणित देंगे, भारत के श्रृंगारों को
नारी तेरे अपमानों ने, कैसा ये परिणाम दिया
गीता का उपदेश दिया और महाभारत संग्राम दिया
धोकर केश रक्त से जिसने, मान दिया प्रतिकारों को
स्वेद नहीं हम शोणित देंगे, भारत के श्रृंगारों को
कुरुक्षेत्र के युद्ध प्रांगण में जो बना सारथी वो कोई अवतारी था
प्रभु कृष्ण सुदर्शन तेरा, सारी सेना पर भारी था
फिर भी तूने शस्त्र त्यागकर, प्रत्यक्ष किया किरदारों को
स्वेद नहीं हम शोणित देंगे, भारत के श्रृंगारों को
रामायण हो महाभारत हो या कलयुग की कोई गाथा हो
नारी को माने देवी सा, यहीं मान यहीं मर्यादा हो
ऐसा भारत निर्माण करें, जो जिन्दा रखे संस्कारों को
स्वेद नहीं हम शोणित देंगे, भारत के श्रृंगारों को
कुमार अखिलेश
जिला देहरादून (उत्तराखण्ड)
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सत्यवान सत्य
जीते रहे हैं जिंदगी खुद से यूं हार के।
मारे हुए हैं हम भी किसी एतिबार के।
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मैं तो तुम्हारी बज़्म में आऊँगा बार-बार
चर्चे भले ही रोज़ हों इस ख़ाकसार के।
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हमको जहां से अब नहीं कोई भी आरजू
हम तो फकीर हो गए तेरे दयार के।
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यारों के संग बैठ के पी ली कहीं पे भी
आदी कभी न हम रहे ठेके या बार के।
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मायूस हो न देख के तू ये गमों के पल
आते हैं सब की जिंदगी में जीत हार के।
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--: सत्यवान सत्य :--
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अनुपमा ठाकुर
लंगोट धारी बापू
लंगोट धारी ने भी क्या कमाल कर दिया दो सौ वर्षों से टिके हुए गोरों को निकाल बाहर कर दिया
जर्जर शरीर लाठी के सहारे चलता था
पर इंग्लैंड में बैठा अंग्रेज भी इन से डरता था ।
कभी न हाथ में बंदूक उठाई
कभी न कोई गोली चलाई
बस अहिंसा की उंगली थाम कर
गोरों से यह धरती खाली करवाई ।
असहयोग का आह्वान कर
सत्य की मशाल जलाई
देश भर में लोगों ने
विदेशी चीजों की होली जलाई।
निर्बल तन में कैसे इतना ओजस्वी स्वर था
करो या मरो के आह्वान पर
पूरा भारत मरने को तत्पर था।
स्तब्ध खड़ा था अंग्रेज
देख लंगोट धारी की यह अद्भुत शक्ति
बिना किसी सेना के ही उसने
की अंग्रेजों की दुर्गति।
मान गए वे भी अब
यह है कोई अवतरित दैवीय शक्ति
कोई विकल्प नहीं बचा था अब
दे दी उन्होंने भारत को मुक्ति ।
जन -जन में जल्लोष हुआ
राष्ट्रपिता का उद्घोष हुआ
सत्य, अहिंसा का संदेश देकर
लंगोट धारी अंत में विलीन हुआ ।नतमस्तक है यह धरती
बापू आपके चरणों में
भारत मां का भक्त आप जैसा कोई
हुआ ना होगा, आने वाले वर्षों में।
अनुपमा ठाकुर
विश्वास
हर रिश्ते की बुनियाद है विश्वास
तनिक सा संदेह भी ना भटकने पाए आसपास,
मर जाते हैं रिश्ते खत्म हो जाता है उल्लास,
वर्षों लग जाते हैं उनमें भरने श्वास,
हर रिश्ते की बुनियाद है विश्वास।।
अगर ना हो भक्त का भगवान में विश्वास तो हर मूर्ति से होगा केवल पत्थर का आभास,
भक्त के विश्वास से ही तो पाषाण में भी होता है दिव्यता का एहसास,
हर रिश्ते की बुनियाद है विश्वास ।।
पति -पत्नी में हो अगर विरोधाभास
हर पल संदेह, हर पल अविश्वास,
हर पल झगड़ा, हर पल कलह,
हर पल होगा रिश्तों का सर्वनाश,
हर रिश्ते की बुनियाद है विश्वास।।
दिन-ब-दिन हम सबका मानवता पर से उठ रहा है विश्वास,
हैवानियत तांडव करती दिखती है आस- पास
नकारात्मक प्रवृत्तियों का बढ़ रहा अभ्यास,
करना चाहते हो अगर तीव्र गति से विकास
तो छोड़ो यह संदेह, शंका और अविश्वास, बढ़ाओ अपनी आस्था, श्रद्धा और विश्वास,
ऊँचा करो अपना भी आत्मविश्वास
छोटा सा यह जीवन है, जियो इसे बिंदास।।
अनुपमा ठाकुर
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अशोक कुमार ढोरिया
1.
बने आफत
बढ़ती जनसंख्या
बड़ी बीमारी
2.
ऊँचा होता है
कामयाबी का पुल
मेहनत से
3.
टूट जाते हैं
गलतफहमी से
गहरे रिश्ते
4.
हारी जिंदगी
बिगड़े माहौल से
दरिंदगी से
5.
होते सफल
समय की दौड़ में
हुनरबाज
6.
न जाने कैसे
अब खुदगर्जी से
अटके रिश्ते
7.
दरिंदगी से
दुःख दर्द बढ़ता
जिंदगानी में
8.
नेता आकर
मरहम लगाते
झूठे वादों पे
9.
होनी चाहिए
सहयोग भावना
हर दिल में
10.
टूटती नहीं
वहम की दीवार
मैले मन की
परिचय:-
अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा
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निशेश अशोक वर्द्धन
सतयुग से कलियुग तक
16,16 सममात्रिक
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सतयुग का सूरज अस्त हुआ,
तब धर्म-प्रकाश घटा जग में।
त्रेता-द्वापर में साँझ ढली,
कलियुग है आन पड़ा मग में।
अब धर्म-ध्वजा है ध्वस्त हुई,
नित सघन हुई है स्वार्थ-निशा।
हिंसा का रौरव दहक रहा,
नित-नित बढ़ती है विषय-तृषा।
भूल चुका जग स्वप्न मानकर,
हरिश्चंद्र की त्याग- कहानी।
टले नहीं थे जो सत्पथ से,
वसुधा के अतिप्रसिद्ध दानी।
यह जग भूल चुका राघव की,
शुभ प्रण-पालन की तत्परता।
निष्काम कर्ममय जीवन के,
गीतोपदेश की पावनता।
मुरझा चले हैं जग-उपवन में,
सदाचार के पुष्प मनोहर।
मिटी जा रही विश्व-हृदय से,
नरता की नर-सुलभ- धरोहर।
मुक्त हृदय से शुचि अभिनंदन,
नहीं किसी का अब होता है।
धारण कर संदेह गरल को,
विषधर कटुता का सोता है।
हर्षित कभी न होता है जग,
उपवन के निर्गंध कुसुम से।
स्नेह प्राप्त करना दुर्लभ है,
द्वेष-व्याधि से जीर्ण हृदय से।
भावभूमि जिसकी बंजर है,
जिसमें करुणा है सुप्त पड़ी,
जिसका है पत्थर बना हृदय,
वह कर सकता क्या प्रीति बड़ी?
जग में हैं ऐसे दयाहीन,
जिनसे मानवता डरती है।
जिनके बहु क्रूर कुकर्मों से,
कंपित होती यह धरती है।
जो बंधन स्वयं बनाते हैं,
वे ही हैं बंधनहींन यहाँ।
जो हैं जग के कर्तव्यवाह,
वे नित विलास में लीन यहाँ।
मैं खोज रहा जग-कानन में,
कुसुम नेह के कहाँ खिले हैं।
कहाँ प्रेम का सुखद सरोवर,
कहाँ त्याग-निर्झर निकले हैं।
वह सुराज्य कैसा होता है?
मानवता जिसमें हँसती है।
भ्रातृप्रेम में उमंग भुजाएँ,
आलिंगन सबका करती हैं।
जहाँ स्नेहमधु-सिंचित वाणी,
सबके मन को हरषाती है।
जहाँ प्रीति-वाटिका निराली,
हिय को सुरभित कर जाती है।
जहाँ शान्ति की अविरल धारा,
सबको छू-छूकर बहती है।
सद्भावों से हरित हृदय है,
सुख की कलियाँ नित खिलती हैं।
खोज रहा मैं जग के भीतर,
मधुमय वसंत का मृदु उपवन।
पुष्प खिले हैं जहाँ शान्ति के,
जहाँ सरस हो जाता जीवन।
पा सकते कुछ दुर्लभ मोती,
प्रेम-सिन्धु यदि लहराएगा,
कलियुग में सतयुग की छाया,
निश्चित ही जग पा जाएगा।
----------.
मैं प्रेम -डगर पर आता हूं।
दृग में दर्शन की प्यास लिए,
मन में असीम विश्वास लिए,
उर में नवजागृत आस लिए,
श्रद्धापूरित जीवन-रस का,
साँसों में घुलित मिठास लिए,
बस,गीत स्नेह का गाता हू,
मैं प्रेम डगर पर आता हू।
राहें सूनी हैं इस जग की,
बस,स्वार्थ-लोभ की छाया है।
झूठे रिश्तों के साये में,
बस,हानि-लाभ की माया है।
ज्यों मृत्युपाश से मुक्त जीव,
निज किस्मत पर इतराता है।
कुछ वैसे ही इतराता हूं,
मैं प्रेम-डगर पर आता हूं।
ये मेरी है,ये तेरी है,
जग की यह रीत पुरानी है।
परनिंदा में ही रत रहना,
दुनिया की अमिट कहानी है।
इसको लूटो, उसको लूटो,
है लूट मची तूफानी है।
सबने मन में यह ठानी है,
हिंसा के रूधिर-पनाले से,
संग्रह की प्यास बुझानी है।
बिलख-बिलख रोती दुनिया का,
साहस-धैर्य बँधाता हू।
द्वेष-ताप से दग्ध जगत पर,
प्रेम-नीर बरसाता हूं।
खंडित समाज के घावों पर,
नित स्नेह का लेप लगाता हूं।
बस,गीत स्नेह का गाता हूं,
मैं प्रेम-डगर पर आता हूं।
मानवता का ताज गिरा,
हिल रहा शांति का सिंहासन,
स्वार्थ-दैत्य मुंह खोल खड़ा है,
बन रहा न्याय उसका प्राशन।
है क्षुब्ध धरा उसका आँचल,
शोणित से सींचा जाता है।
आतंकवाद का घृणित चित्र,
उसके उज्ज्वल वक्षस्थल पर,
कालिख से खींचा जाता है।
वसुधा का दाग मिटाने को,
बन शांतिदूत मैं आता हूं,
बस,गीत स्नेह का गाता हूं।
मैं प्रेम-डगर पर आता हूं।
बहुत मिलेंगे कहने वाले,
बस ,कहते ही रहते हैं।
तुमसे अटूट यह नाता है,
कह स्वार्थ-शृंखला रचते हैं।
दुःख-गरल अकेले पीना है,
कोई साथ न आता है,
जबतक निज झोली भरी रहे,
हर कोई साथ निभाता है।
लाभ-हानि के दुःखद विपिन में,
मृदुभावों का महल सजाता हूं।
शुष्क हृदय के मरु-प्रदेश में,
हरियाली फैलाता हूं।
बस,गीत स्नेह का गाता हूं,
मैं प्रेम-डगर पर आता हूं।
अब रिश्तों का धार नहीं,
अमृत-सरिता बन बहता है।
अब भावों का सुमनवृंद,
न उर उपवन में खिलता है।
स्नेह-अश्रु के मुकुल बिंदु,
नयनों में नित मुरझाते हैं।
झूठे रिश्तों के पतझड़ में,
बन स्नेह-पत्र झड़ जाते हैं।
सम्मान-भावना सिसक रही,
संस्कारहीन मैदानों में,
सेवा-तरु है तड़प रहा,
स्वारथ के मरु-उद्यानों में।
अशिष्टता के दामन में,
अब उद्दंडता का काँटा है।
सहानुभूति के दरवाजे पर,
बस,गहरा सन्नाटा है।
व्यवसायिक रिश्तों की ज्वाला में,
प्रीति जलानी पड़ती है।
कपट वेदिका पर ईमान की,
बलि चढ़ानी पड़ती है।
मानवता के मृत शरीर को,
संजीवनी पिलाता हूं।
बस,गीत स्नेह का गाता हूं।
मैं प्रेम-डगर पर आता हूं।
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हृदयेश्वर! हिय के सूर्यरूप!
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हृदयेश्वर!हिय के सूर्यरूप!
तुम आ जाओ अंतरतम में।
खिल जाए मेरा उर -शतदल,
भर दो प्रकाश मेरे मन में।
हैं दीपशिखाएँ बुझी हुई,
मेरे इस जीर्ण हृदय-तल पर।
कर दो प्रदीप्त बहु स्वप्न-दीप,
तममय जीवन को जगमग कर।
नित माँग रहा है शुष्क गात,
तुमसे शुचि अंगराग निर्मल।
मूर्छित अधरों का कर चुंबन,
कर देते हरित हृदय-अंचल।
अगणित दिवसों से शोकतप्त,
अघमय मलीन मेंरा तन है।
इस नाट्यमंच पर जीवन के,
नित चिरविषाद का नर्तन है।
आकर देखो निस्तेज नयन,
अविचल जैसे पाषाण-युगल,
जग के बिंबों में निरासक्त,
नित साध रहे वैराग्य विमल।
ज्योतिर्मय!कर दो ज्योतिदान,
नयनों में ज्योति असीम भरो।
जग की विषादमय छाया को,
पावन सत्ता में लीन करो।
गर्जित है जीवन-सिंधु गहन,
उठता विपत्ति का चक्रवात।
कर कालरात्रि का वेग मंद,
भर दो क्रंदन में हास तात!
उठ रही जयध्वनि मंगलमय,
गुंजार हुआ देवालय है।
इसमें विलीन पदचाप मंद,
तेरे सुवास का संचय है।
इस चिरवियोग के पावस में,
बह गये स्वप्न बन अश्रुधार।
मम चक्षुमेघ से सकल पुष्प,
छलके खंडित कर हृदय-हार।
मेरे स्वप्नों को नवगति दो,
झंकृत हों इनमें मिलन-गीत।
वापस कर दो वो चित्रलोक,
जिसमें संचित है अमर प्रीत।
श्रुतियाँ छलकातीं राग-कलश,
पीता हूँ हृदय-पात्र भरकर।
पुलकित हो जाता रोम-रोम,
मिटता है मनःताप नश्वर।
सर्वेश्वर -दिव्य- पुराणपुरुष!
जग के कण-कण में व्याप्त नाथ!
सब कलुष मिटे इस जीवन के,
भवभीति हरो,हे जगन्नाथ!
जगदीश्वर!जग के सृजनहार!
हे,अखिल सृष्टि के सत्य-सार!
छलके करुणा का सुधाकलश,
दो, वरदानों के अलंकार।
कर अब प्रशस्त मम पुण्यपंथ
मैं चलूँ सकल जग हर्षित हो।
नित सबके आँसू पोंछ सकूँ
यह तन सेवा में अर्पित हो।
----.
शरदागम
छन्द-दुर्मिल सवैया(शिल्प-8×सगण)
••••••••••••••••••••••
कहुँ मालति-पुष्प खिलें वन में,
कहुँ वायु सुगंध भरे घटिका।
धरती तृण से मनहारि लगे,
सिर ओस बढ़ावत सुंदरता।
धवला धरती सुख में विहँसे,
चहुँओर सुगंध -सुशीतलता।
दिन घोर तपे,निशि में पसरे,
शरदेन्दु- सुधा की विभास -लता।
नभमंडल में रजताभ घटा,
कबहूँ गिरिराज समान चले।
गहिके मकरंद-सुवास हवा,
निज को मधुपूर्ण किये निकले।
अलिवृंद प्रसून गहे कर में,
रस-पीवन हेतु सदा मचले।
शरदातप व्याधिविनाशक ते,
वसुधातल की विषबेलि जले।
हिय में भर मोद बहे सरिता,
पय-धार धरे मन लास भरे।
तरुपात हिले मधुराग बजे,
मृदुसौरभ आत्मविभोर करे।
बहु पद्म सरोवर में खिलते,
खगरोर प्रभात मिठास भरे ।
अस होत प्रतीति समस्त धरा,
शरदामृत-सिन्धु-विहार करे।
रचनाकार-- निशेश अशोक वर्द्धन
पता-- ग्राम--देवकुली
डाकघर--देवकुली
थाना--ब्रह्मपुर
जिला--बक्सर(बिहार)
पिन कोड--८०२११२
दूरभाष संख्या--8084440519
शिक्षा--इंटरमीडिएट(विज्ञान,गणित)ए०एन० काँलेज,पटना
जन्मतिथि--23•03•1989
पेशा---बिहार पुलिस(सिपाही पद पर पदस्थापित,पदस्थापन-पुलिस केन्द्र,हाजीपुर वैशाली,बिहार)
0000000000000000000
गीता द्विवेदी
तिरंगा ही अब शान हो
*********************
फुट जाएं आतंक की आंखें ,
माथा भी लहूलुहान हो ,
टूट कर गिरें बाजुएँ ,
पैरों में तनिक न जान हो ।
मसल दें चींटी की तरह ,
रौंद कर बढ़ जाएं हम ,
इतने टुकड़े कर दें इसके ,
टुकड़े भी खुद पर हैरान हो ।
नाम बदल -बदल आतंक ,
घूमें घर - घर ,गली -- गली ,
इसकी रक्षा करने वालों का ,
अंत अब सरेआम हो ।
आँसू उबले , लहू दहाड़े ,
भारत माता हमको पुकारे ,
आततायी इस तरह नष्ट हों,
कि भय का सुबह न शाम हो ।
प्रश्न उगलती शहीदी नजरें ,
अब भी पास - पास हैं
इनकी शहादत व्यर्थ न जाए ,
आतंक का काम तमाम हो ।
आँखों से खरा पानी नहीं ,
गंगाजल प्रवाहमान हो ।
हर घर के हर शख्स का ,
तिरंगा ही अब शान हो ।
:::::::::::::0000::::::::::::::::::::
गीता द्विवेदी (कवियत्री)
ग्राम - सिंगचौरा, ब्लाक - राजपुर
जिला - बलरामपुर (छत्तीसगढ़)
00000000000000000
मदन मोहन शर्मा 'सजल'
*सच में, बच्चे समझदार हो गए है*
★★★★★★★★★★★
बुढ़ापे की कराहटें
अब उन्हें नहीं सुनाई देती,
आंख मूंद लेते हैं
जिम्मेदारियों से,
टल कर निकल जाते हैं
बिना पदचाप किए,
तमाम रिश्ते जार-जार हो गये है,
*सच में, बच्चे समझदार हो गए है।*
नजर में जिनको बसाया
नजर चुराने लगे हैं,
एक जाना पहचाना डर
खाये जाता है
उनके अंतर्मन को,
कहीं दवाइयों की
प्रिसक्रिप्शन लिस्ट न थमा दे
यह पूछते ही -
पापा कैसी तबीयत है ?
बिना आहट के गुजर जाते हैं,
नीची गर्दन किए अपने कमरे में,
बदले-बदले से व्यवहार हो गए है,
*सच में, बच्चे समझदार हो गए है।*
कमरों से फुसफुसाने की
आवाजें आती है
जो भंग कर देती है मेरी तंद्रा को,
कभी स्पष्ट तो कभी अस्पष्ट
सुनाई देती है उनकी पत्नियों,
बच्चों की फरमाइशें,
पूरी होने पर खिलखिलाहटें,
मुस्कुराते चेहरे नजर आते हैं
आंगन में कई दिनों तक,
और पिता का फटा कुर्ता
मां की पैबंद लगी साड़ी
अनमने से बतियाते महसूस होते हैं
दीवार की खूंटी पर,
सारे सुहाने सपने तार-तार हो गए है,
*सच में, बच्चे समझदार हो गए है।*
खाने की टेबल पर अब
अक्सर सन्नाटा रहता है,
जहां कभी हंसी के
फव्वारे चलते थे,
जरूरतों की बातें होती थी,
घर को घर कैसे बनाना है,
बच्चों की फीस,
आवश्यकता के सामान,
नए रिश्तों की बुनियाद,
सेहत से संबंधित हिदायतें
बच्चे इन सबको
अपने-अपने कमरों में ले गए है
एक-एक करके, खामोशियां
तन्हाईयां पहरेदार हो गए है,
*सच में, बच्चे समझदार हो गए है।*
खूसट, बुढ़ऊ, सठिया गए हैं,
काम के न धाम के, सेर भर अनाज के
आदि-आदि उपनाम,मुहावरे
संबोधन के पर्याय हो गए हैं
भौतिक चकाचौंध ने
मर्यादाओं को नंगा कर दिया है
संस्कार निर्लज्जता की
अंधेरी वादियों में खो गए हैं
प्रेम में नफरत के कांटे असरदार हो गए है
*सच में, बच्चे समझदार हो गए है।*
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
*मदन मोहन शर्मा 'सजल'*
*कोटा, (राज0)*
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सुमिता
ढलती हुई शाम कुछ कहती हैं सुनो !
परिन्दे घर की ओर चल पड़े हैं देखो !
इन्तज़ार खत्म होने को है, नन्हें परिन्दों का भी,
ढलती हुई शाम कुछ कहती हैं सुनो !
हल्की - हल्की किरणें सूरज की
पड़ रही है ,जो मेरे घर की ओर
चल पड़े कदम मेरे डूबते सूरज की ओर,
जाती हुई शाम की ओर
ढलती हुई शाम कुछ कहती हैं सुनो !
चहल- पहल बढ़ रही हैं,
देखने को डूबते हुए सूरज को,
तो एक ओर
देखने को जाती हुई एक और शाम को
ढलती हुई शाम कुछ कहती हैं सुनो !
दिन भर की थकान दूर होने को हैं ,
दिन की चिलचिलाती धूप जा चुकी ।
गरम हवाएँ भी घर की ओर जा चुकी ।
ठण्डी -ठण्डी हवाएँ शाम की अब आ चुकी ।
ढलती हुई शाम कुछ कहती हैं सुनो !
सुबह के बाद इक ऐसा वक्त हैं अब,
जब तुम भी मैं भी
सूरज से आँख मिला सके,
उसे अब अलविदा कह सके,
और फिर कल मिलने को कह सके।
ढलती हुई शाम कुछ कहती हैं, सुनो॥
नाम :- सुमिता
पता :- चिराणा , जिला - झुंझुनूं, राज्य - राजस्थान
पिन कोड :- 333303
00000000000000000
प्रिया देवांगन "प्रियू"
नवरात्रि
*************
माँ दुर्गा के चरणों में मैं ,
अपना शीश झुकाती हूँ ।
करती हूँ मैं रोज सेवा ,
चरणों मैं शीश नवाती हूँ ।।
माँ दुर्गा के चरणों में मैं ,
अपना शीश झुकाती हूँ ।
करती हूँ मैं रोज सेवा ,
चरणों मैं शीश नवाती हूँ ।।
आशीर्वाद दे दो माता ,
मैं छोटी सी बालिका ।
रक्षा करो माँ मेरी तुम ,
बनकर के तुम कालिका।।
तुम ही दुर्गा तुम ही काली ,
तुम ही हो गौरी माता ।
मैं अज्ञानी बाला हूँ,
पूजा पाठ न मुझे आता ।
खड़े हुए हैं हाथ जोड़कर,
भक्त तुम्हारे दरबार में ।
आशीर्वाद दे दो माता ,
आये हैं तेरे द्वार में ।।
---.
तितली रानी
तितली रानी बड़ी सयानी , दिनभर घूमा करती हो ।
फूलों का रस चूस चूस कर , पेट अपना तुम भरती हो।
आसमान की सैर करके , कितनी मस्ती करती हो ।
रहती हो सब मिल जुलकर , आपस में कभी ना लड़ती हो ।
इधर उधर तुम घूमा करती , पास कभी न आती हो ।
रंग बिरंगे फूल देखकर , पास उसी के जाती हो ।
प्रिया देवांगन "प्रियू"
पंडरिया
जिला -कबीरधाम (छत्तीसगढ़)
priyadewangan1997@gmail.Com
000000000000000000000
डाँ. संतोष आडे
शिक्षक
*बेटा ! मत पूछ कि शिक्षक कौन है?*
*तेरे प्रश्न का सटीक उत्तर*
*तो मेरा मौन है।*
शिक्षक न पद है, न पेशा है,
न व्यवसाय है ।
ना ही गृहस्थी चलाने वाली
कोई आय हैं।।
शिक्षक सभी धर्मों से ऊंचा धर्म है।
गीता में उपदेशित
"मा फलेषु "वाला कर्म है ।।
शिक्षक एक प्रवाह है ।
मंज़िल नहीं राह है ।।
शिक्षक पवित्र है।
महक फैलाने वाला इत्र है
शिक्षक स्वयं जिज्ञासा है ।
खुद कुआं है पर प्यासा है ।।
वह डालता है चांद सितारों ,
तक को तुम्हारी झोली में।
वह बोलता है बिल्कुल,
तुम्हारी बोली में।।
वह कभी मित्र,
कभी मां तो ,
कभी पिता का हाथ है ।
साथ ना रहते हुए भी,
ताउम्र का तेरे साथ है।।
वह नायक ,महानायक ,
तो कभी विदूषक बन जाता है ।
तुम्हारे लिए न जाने,
कितने मुखौटे लगाता है।।
इतने मुखौटों के बाद भी,
वह समभाव है ।
क्योंकि यही तो उसका,
सहज स्वभाव है ।।
शिक्षक, कबीर के गोविंद से,
बहुत ऊंचा है ।
कहो भला कौन,
उस तक पहुंचा है ।।
वह न वृक्ष है ,
न पत्तियां है,
न फल है।
वह केवल खाद है।
वह खाद बनकर,
हजारों को पनपाता है।
और खुद मिट कर,
उन सब में लहलहाता है।।
शिक्षक एक विचार है।
दर्पण है , संस्कार है ।।
शिक्षक न दीपक है,
न बाती है,
न रोशनी है।
वह स्निग्ध तेल है।
क्योंकि उसी पर,
दीपक का सारा खेल है।।
शिक्षक तुम हो, तुम्हारे भीतर की
प्रत्येक अभिव्यक्ति है।
कैसे कह सकते हो,
कि वह केवल एक व्यक्ति है।।
शिक्षक चाणक्य, सांदीपनी ,
तो कभी विश्वामित्र है ।
गुरु और शिष्य की
प्रवाही परंपरा का चित्र है।।
शिक्षक भाषा का मर्म है ।
अपने शिष्यों के लिए धर्म है ।।
साक्षी और तुम्हारा पक्ष है ।
चिर अन्वेषित उसका लक्ष्य है ।।
शिक्षक अनुभूत सत्य है।
स्वयं एक अटल तथ्य है।।
शिक्षक ऊसर को
उर्वरा करने की हिम्मत है।
स्व की आहुतियों के द्वारा ,
पर के विकास की कीमत है।।
वह इंद्रधनुष है ,
जिसमें सभी रंग है।
कभी सागर है,
कभी तरंग है।।
वह रोज़ छोटे - छोटे
सपनों से मिलता है ।
मानो उनके बहाने
स्वयं में खिलता है ।।
वह राष्ट्रपति होकर भी,
पहले शिक्षक होने का गौरव है।
वह पुष्प का बाह्य सौंदर्य नहीं ,
कभी न मिटने वाली सौरभ है।।
वह भोजन पकवाता है,
झाड़ू भी लगवाता है ,
दूध और फल लाता है ।
बावजूद इसके अपनी मुख्य
भूमिका को भी बखूबी से निभाता है।।
बदलते परिवेश की आंधियों में ,
अपनी उड़ान को
जिंदा रखने वाली पतंग है।
अनगढ़ और बिखरे
विचारों के दौर में,
मात्राओं के दायरे में बद्ध,
भावों को अभिव्यक्त
करने वाला छंद है। ।
हां अगर ढूंढोगे ,तो उसमें
सैकड़ों कमियां नजर आएंगी।
तुम्हारे आसपास जैसी ही
कोई सूरत नजर आएगी ।।
लेकिन यकीन मानो जब वह,
अपनी भूमिका में होता है।
तब जमीन का होकर भी,
वह आसमान सा होता है।।
अगर चाहते हो उसे जानना ।
ठीक - ठीक पहचानना ।।
तो सारे पूर्वाग्रहों को ,
मिट्टी में गाड़ दो।
अपनी आस्तीन पे लगी ,
अहम् की रेत झाड़ दो।।
फाड़ दो वे पन्ने जिन में,
बेतुकी शिकायतें हैं।
उखाड़ दो वे जड़े ,
जिनमें छुपे निजी फायदे हैं।।
फिर वह धीरे-धीरे स्वतः
समझ आने लगेगा ।
अपने सत्य स्वरूप के साथ,
तुम में समाने लगेगा।।
और क्या कहूँ वह वह आशा, जिज्ञासा है।
सबके सफल जीवन की
परम् अभिलाषा है।।
संकलन
डाँ. संतोष आडे
घनसावंगी, जालना
0000000000000000000000
सेवक सिंह कातिल
बेनाम कीड़े
न जाने कितनी ही चीखें
जो आँसुओं से हो लथपथ
अखबारों की सुर्खियाँ बन गईं
कोई क्या जाने
कोई क्या समझे
बेहाल बना है तमाशा भोली भाली सूरतों का
बीच चौराहों पर
खूनी रिश्तों का क्या वजूद
लगने लगा है जैसे कहने की ही बातें हैं
जैसे प्यार शब्द रह गया हो सिर्फ
किताबों की शोभा बढ़ाने वाला कोई अलंकार
वास्तव में रह गया
जिस्मानी भूख मिटाने का साधन
कितनी ही बालिगों ना-बालिगों के पेट में
रख देते हैं अपनी निशानी
बेनाम कीड़ों के बेनाम बाप
इन बेनाम कीड़ों का भार बढ़ रहा है दिनों दिन
अब उठाना मुश्किल ही नहीं ना-मुमकिन हो गया है
पेट में पल रहे कीड़ों का भार कम करने की खातिर
लगा लेती हैं फंदे कई लड़कियाँ
बली दे देती हैं आग में कई लड़कियाँ
कूद जाती हैं नहरों-कुंओं में
खा लेती हैं जहर कई लड़कियाँ
या फिर
देखा होगा आपने भी खून
सड़कों और रेल की पटरियों पर
इस तरह पीड़ा में मर जाते हैं बेनाम कीड़ों के नाना-नानी भी।
✍ सेवक सिंह कातिल
00000000000000000000
सुरेन्द्र कल्याण
सुबह का समय
सुबह का वक़्त था
इधर-उधर चहचहाती,
मिटटी-मधुर आवाज़ें,
जिनसे मिला हूँ –
मैं पहले भी शायद ।
गाँव में फसल काट –
का चला है दौर ।
एक ओर झांझ बाजे –
दूजी ओर मोर ।
ऐसी मतवाली बाहर थी ।
जिसमें धूप भी छायादार थी ।
आज कोऔं की काओं – काओं
भी मधुर लग रही है ।
यही वो ग्रीष्म की सुबह है
जिसमें मन हुआ शुद्ध है ।
- सुरेन्द्र कल्याण
0000000000000000000000
रामानुज श्रीवास्तव
हे खग ऐसी तान सुना,
हो ओठ मधुर हों नयन मधुर,
हो नित्य जागरण शयन मधुर,
हो जाए ह्रदय का मधुर मिलन,
उर प्रीति सरस हो सहस गुना।
रे खग ऐसी तान सुना।
बढ़ जाए भोर का अरुण अयन,
खिल उठें बाग़ अधखिले सुमन,
भू भूतल नभ तल महक जाए,
हर ओर छोर हो हिना हिना।
हे खग ऐसी तान सुना।
रंग रंग के पंख खोलकर,
लोक लाज की मान छोड़कर,
सरस कंठ में शब्द घोलकर,
बोल सुहृद तक धिना धिना।
हे खग ऐसी तान सुना।
दे जला ज्योति हो मन प्रकाश,
कर नित्य मिलन का मधुर मास,
अधखिली कुमुदनी नारि बने
हो प्रकृति पुरुष सा जलज जना।
हे खग ऐसी तान सुना।
कोष कोष हो रस प्रवाह,
मिट जाए प्राण की अमिट चाह,
बस जाए नयन में स्वप्न अमर,
छंट जाए धुंध का जाल बुना।
हे खग ऐसी तान सुना।
............................................
000000000000000000000
डॉ उदय प्रताप सिंह "अर्णव"
ज़ख़्म
कुछ ज़ख्म हैं ऐसे की छुपाया नहीं जाता
दुनियाँ को दिखाऊँ तो दिखाया नहीं जाता ।।१.।।
आँखों ने ऐसी शर्म पहन ली अज़ीब सी
अब बात इशारों में बताया नहीं जाता ।।२.।।
दिल में हज़ार दर्द मिटाए हैं वक़्त ने
कुछ दर्द हैं ऐसे की मिटाया नहीं जाता ।।३.।।
हम भूलना तो चाहते बातें तमाम हैं
कुछ बात हैं ऐसी कि भुलाया नहीं जाता ।।४.।।
कहने को तो ज़ेहन में रेंगती हैं बहुत सी
हर बात को यूं होठों पे लाया नहीं जाता ।।५.।।
ख्वाबों में तुमने छोड़ दिये थे वो जो जुगनू
अब रात बिना ख्वाब बिताया नहीं जाता ।।६.।।
अब तो कोई भी चाँद छले या कोई सूरज
दिल से तुम्हारी याद का साया नहीं जाता ।।७.।।
ग़ज़लों में ही आवाज़ पहुंच जाए दूर तक
अब गीत 'उदय' तुझसे है गाया नहीं जाता ।।८.।।
---
Pen Name : "अर्णव"
Real Name : डॉ उदय प्रताप सिंह
0000000000000000000000000
डां नन्द लाल भारती
मां बाप की दुआ
खून जब बेगाना हो जाता है,
रूठा रूठा जमाना हो जाता है
नन्हा जब किलकारी भरता था,
अम्मा उसकी बावली हो जाती थी......
अनमन होता नन्हा,लेती बलैया
नजर उतार मिर्च सुलगाती थी
नहीं उठती झार जब,होती उदास
बबुआ को लगी थी नजर गहरी
अंचरा में छिपा मोती बहाती थी.....
खुद गीले बबुआ को मखमल जैसे
बिस्तर पर सुलाती थी
भले बेचारी हो भूख से लथपथ
राजा बाबू को छाती चुसाती थी
जान बबुआ में बसती उसकी
तनिक ना हो तकलीफ बावली
बबुआ की साया बनी रहती थी
अम्मा हर बला से दूर रखती थी.......
बाप की सुन लो तनिक कहानी
सूली का जीवन, पल पल परेशानी
लालन पालन में नहीं कोतहायी
खुद को गिरवी रख -रख कर
ऊंची ऊंची तालीम दिलवाई
खुद के पांव खड़ा हुआ क्या
बबुआ ने ऐसी दुलत्ती लगाई
अम्मा गिरी निढाल बाप ने
होश गवाई............
आंखों का तारा उगलने लगा अंगारा
अम्मा पर आरोपों की बौछार
घर उजाड़ने की साजिश
कहता अम्मा बाबू करते ऐश
बबुआ की परिवार विरोधी तैश
बाप पर सौतेलेपन का आरोप
टूट गई कुनबे की कमर,
सुन बबुआ का आरोप.......
बहुरूपिये की बेटी बहुरिया
आते ही कैकेयी का रुप धर लिया था
बबुआ की सासू मंथरा हुई
ससुरा ने लालघर का स्वर तेज किया .....
बबुआ गरजे ऐसे बरसे बारुद जैसे
दोषी निरापद अम्मा बाबू हारे
बहुरिया कैकेयी विहसी,
हुए निराश्रित अम्मा बाबू बेचारे......
बूढी बूढे थाम हाथ बोले
बबुआ तुमने फेंक दिया बीच राह
पूरी हुई बहुरिया कैकेयी की चाह
तेरी खुशी के लिए मंजूर हमें वनवास
बबुआ तू छुये तरक्की के आसमान
अपना सपना यही,यही आस विश्वास
दुनिया की हर खुशी मिले तुझे बबुआ
तूने जो अपने मांबाप संग किया जैसा
तेरे संग न हो वैसा
ये भी लेते जा दुआ............
डां नन्द लाल भारती
0000000000000000000000
शशांक मिश्र भारती
शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक बिना विचारे का फल से
मेंढक ने कैसे प्राण गंवाये
गांव के किनारे पेड़ के नीचे
एक मोटा सा चूहा रहता था
उसी के निकट तालाब में रहता
मेंढक दोस्त उसे कहता था
चूहा बिल्कुल सीधा-सादा
काम से ही मतलब रखता
दोस्त-दुश्मन एक सा समझे
कभी न किसी को था ठगता
पर मेंढक स्वार्थी और झूठा था
अवसर की ताक में रहता था
दोस्त को भी क्षण भर में
मरवाकर घूमता-फिरता था
मेंढक जब पानी में होता
चूहा किनारे था आ जाता
आपस में खूब बातें होतीं
साथ न कोई किसी का खोता
एक दिन खेल की इच्छा से
मेंढक ने पांव चूहे का बांध दिया
घूमें दोनों जाकर मैदान में
बंधे होने का आनन्द लिया
तालाब से निकल बाहर घूमना
चूहे का था मन जीत लिया
खाया-पिया बड़ी मौज की
हैरानी का था काम किया
भोजन कर मेंढक ने घसीट
चूहे को तालाब में गिरा दिया
स्वयं टर्र-टर्र कर लगा तैरने
चूहे को संकट में डाल दिया
डूबने से प्राण गए कुछ पल में
दोस्त मोटे चूहे के समझो भाई
चूहा मरकर के ऊपर उतराया
पांव भी मेंढक का न छूटा भाई
उसके भी प्राण फंसे संकट में
ऊपर से चील ने नजर लगाई
चूहा खाने का पंजों में दबोचा
साथ में मेंढक भी पहुंचा जाई
देखा - बच्चों हंसी खेल में
मेंढक ने कैसे प्राण गंवाये
चूहे को परेशान करना भर था
पर दोनों चील के काम आये
vधिक मजाक का फल सदैव
बच्चों कड़वा ही होता है
मेंढक-चूहे के प्राण गये जैसे
सदैव वैसा ही हो होता है।
शशांक मिश्र भारती संपादक देवसुधा हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर 242401 उ0प्र0
ईमेंल :- shashank.misra73@rediffmail.com
0000000000000000000000
विनोद सिल्ला
एक नई मुलाकात
मैं जब भी
फरोलता हूँ
अलमारी में रखे
अपने जरूरी कागजात
तो सामने आ ही जाती है
एक चिट्ठी
जो भेजी थी
वर्षों पहले
मेरे दिल के
महरम ने
भले ही उससे
मुलाकात हुए
हो गए वर्षों
पर चिट्ठी
करा देती है अहसास
एक नई मुलाकात का
---.
बैंक मूर्छित हैं
सरकार संग
आती थी
हर रोज
उनकी फोटो
संचार के माध्यम से
बैंक हिम्मत न
जुटा पाया
कर्ज देने से
इंकार करने की
आज सभी बैंक
मूर्छित हैं
उनके विदेश गमन से
थोड़ी-थोड़ी संजीवनी
चोरी-छुपे
ली जा रही है
आम-जन के
खातों से
ताकि होश में
लाए जा सकें बैंक
---.
हुनरमंद है वो
वो
भिगो लेता है शब्दों को
स्वार्थ की चाशनी में
रंग जाता है अक्सर
अवसरवादिता के रंग में
वो धार लेता है
मौकापरस्ती के आभूषण
ओढ़ लेता है आवरण
आडम्बरों का
नहीं होता विचलित
रोज नया रंग बदलने में
आगे बढ़ने के लिए
रख सकता है पाँव
अपने से अगले के गले पर
सहयोगी उसके साथी नहीं
संसाधन मात्र हैं
उपयोग के बाद
जो किसी काम के नहीं
बड़ा हुनरमंद है वो
-विनोद सिल्ला©
गीता कॉलोनी, नजदीक धर्मशाला
डांगरा रोड़, टोहाना
जिला फतेहाबाद (हरियाणा)
पिन कोड-125120
संपर्क-097
000000000000000000
सचिन राणा हीरो
" यार बदल जाते हैं "
गुजरा बचपन, ढ़लती जवानी, विचार बदल जाते हैं,
जैसे जैसे आयु बढ़ती, यार बदल जाते हैं,
जिनके संग बचपन था बिताया, गुड्डे गुड्डियां का ब्याह था रचाया,
जिनके संग मिट्टी में खेले, देखे मेले झूले हिंडोले,
जिनसे खेली रंगों की होली, गिल्ली डंडा, आंख मिचौली,
उन सब यार दुलारों के संसार बदल जाते हैं,
जैसे जैसे आयु बढ़ती, यार बदल जाते हैं,
अल्हड़ पन जब आया था, यार दीवाने लाया था,
कोई शौकीन था खेलों का, कोई जुल्फों को लहराता था,
कोई हुस्न का दीवाना प्रेम गीतों को गाता था,
उस यौवन की कश्ती के सब पतवार बदल जाते हैं,
जैसे जैसे आयु बढ़ती, यार बदल जाते हैं,
फिर आती है जिम्मेदारी, मिलती हमको नई नई यारी,
कुछ मतलब से प्यारे होते, कुछ मीठे कुछ खाऱे होते,
जीवन पथ पर चल चलकर, आपाधापी में थककर,
उन अलबेले यारों के, घर बार बदल जाते हैं,
जैसे जैसे आयु बढ़ती, यार बदल जाते हैं,
फिर आता है रोग बुढ़ापा, जिसमें खोते हैं सब आपा,
उस दौर में एक ही साथी, वो है प्यारा जीवन साथी,
रिश्ते नाते दूर से देखें, अपनापन जैसे दूर से फेंके,
सुख दुख की तब बातें होती, तन्हां दिन लंबी रातें होती,
बेरंग जीवन के तब " राणा " व्यवहार बदल जाते हैं,
जैसे जैसे आयु बढ़ती, यार बदल जाते हैं ।
सचिन राणा हीरो
कवि एवं गीतकार
हरिद्वार ।
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देवेन्द्र सिंह
बाजे ना मुरलिया,
रूठे सांवरिया....
कैसी है ये प्रीत तेरी,
प्रीत में, तेरी,
सुध-बुध खोई...
हो गई मैं तो बांवरिया.
बाजे ना....
कैसे तुझको मनाऊ,
कै....से रिझाऊ...
प्रीत छुप ना सके,
कैसे....छुपाऊं..
कैसे तुझको..
मोह ना जाने...मोहना..
मोह ना जाने...मोहना..
निर्मोही है तू तो पिया..
बाजे ना मुरलिया.....
मारे ताने बिहारी,
सखिया....हमारी..,
बोल कुछ ना सकूं,
मैं लाज की मारी..
मारे ताने....
दर्द ना जाने....सांवरा,
दर्द ना जाने....सांवरा,
गिरधारी तू ..है छलिया..
बाजे ना मुरलिया..
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पूनम दुबे
मां तेरे चरणों में
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मां तेरे चरणों में मुझको
जगह जो मिल जाएं
हो जाये नैया पार
कृपा तेरी हो जायें
तेरे चरणों.........
बड़ी दुर से आई हूं मां
मुझको तुम अपना लें
तू तो मेरी मां है गलती
मेरी भुला दें
तेरे चरणों......
क्या लाऊं क्या ना लाऊं
सब तेरा ही दिया हैं
तन भी तेरा धन भी
सब तेरी ही कृपा है
भक्ति भाव और जन
सेवा का लगन मुझे लगा दे
हो जाये..........
तेरे चरणों........
ऊंचे पर्वत पर तू रहती
रूप छटा है निराली
तेरी महिमा गाये सब
ओ मेरी माता रानी
कर दे कृपा तू सब के उपर
ओ पहाड़ों वाली
हाथ जोड़ "पूनम ""खड़ी
कर दो कृपा भवानी
हो जायें .......
तेरे चरणों में.......
---.
जहां तिरंगा लहराता है
***************
जहां तिरंगा लहराता है
वह भारत देश हमारा है
भेदभाव नहीं जहां पर
खुशियों अमन का नारा है
वह भारत.. .....
रामकृष्ण गौतम की भूमि
बापू की अमृतवाणी है
सत्य अहिंसा का ये नारा
पहचाने ये देश सारा
वह भारत.........
उत्तर में जहां हिमालय
दक्षिण सागर लहराएं
हरिद्वार और ऋषिकेश में
मां गंगा की धारा है
वह भारत.............
प्रेम भाव से रहते हैं जहां
सारी जाती के लोग यहां
संस्कृति और वेदों की
सम्मान और पूजा होती है
वह भारत........
रंग बिरंगे फूलों जैसे
हमारे देश के लोग जहां
एक माला के मोती "पूनम"
जय जयकार होती जहां पर
वह भारत...... ....
जहां तिरंगा लहराता है
वह भारत देश हमारा है
स्वरचित श्रीमती पूनम दुबे
अम्बिकापुर छत्तीसगढ़
0000000000000000000
नवीन बिलैया
मांग मेरे बंदे वो सबकुछ जो तेरी चाहत हो।
बस याद रख कि तेरी दुआ से न कोई आहत हो।।
और हो सके तो कर कोशिश तू ये भी मेरे बंदे
कबूल हुई तेरी दुआ से पूरे शहर को भी राहत हो।।
एड. नवीन बिलैया(निक्की भैया)
सामाजिक एवं लोकतांत्रिक लेखक
0000000000000000
शिव कुमार ‘दीपक’
हिंदी दिवस पर दोहे -
हिंदी तन भागीरथी , मन है सिंधु विशाल ।
गले लगाए गैर के , गले पड़े जो लाल ।।-1
हिंदी के उत्थान का , पीट रहे जो ढोल ।
इंग्लिश हस्ताक्षर भला, खोलें सारी पोल ।।-2
दूर न रहते फूल से , ‘दीपक’ कभी मिलिंद ।
यूँ हिंदी में मन बसा , सांस - सांस में हिंद ।।-3
हिंदी सागर,मंदाकिनी,तुलसी, सूर, कबीर ।
मां की बिंदी, है कहीं , झांसी की शमशीर ।।-4
जन मानस के बोल हैं, शब्द - शब्द फौलाद ।
हिंदी के बल पर हुई ,भारत माँ आजाद ।।-5
हिंदी में तन-मन बसा, बोली से पहचान ।
हिंदी लिखना, बोलना, भारत का सम्मान ।।-6
तुर्की ,उर्दू ,फारसी , इंग्लिश शब्द सुबोध ।
हिंदी हाथों उर लगे , कर लेना तुम शोध ।।-7
कमल सुशोभित हो रहे , भरे सरोवर नीर ।
हिंदी के आंगन खिले ,तुलसी, सूर, कबीर ।।-8
हिंदी को खतरा नहीं , सुनिए इंग्लिश मित्र ।
जन मानस का देश में , हिंदी भाव चरित्र ।।-9
गुरुद्वारे में गूंजती , मस्जिद पढ़े अजान ।
मंदिर - मंदिर आरती , हिंदी की पहचान ।।-10
सरकारी दफ्तर रहे , हिंदी दिवस मनाय ।
दीप जलाते वर्ष में , ‘दीपक’ रोज जलाय।।-11
हिंदी मीठी रस भरी , स्वाद भरा भरपूर ।
भर-भर प्याला पी गए, तुलसी, मीरा,सूर ।।-12
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देवी अहिल्याबाई की आरती
जय अहिल्याबाई ! मैया जय अहिल्याबाई !!
दया धर्म की मूरत , शिव की अनुयायी !!
जन्म मानको के घर , चौड़ी में पाया ।
ससुर मल्हार होल्कर ,पति खंडे राया ।।-1जय----
सहे निजी जीवन में ,तुमने दुख भारी ।
बनी लोक माता तुम , जन-जन दुखहारी ।। -2 जय---
तीस वर्ष मालव पर, तुमने राज किया ।
हर प्राणी संरक्षित ,सुख के साथ जिया ।।-3 जय----
तुमने राघोबा के , दर्प हरे सारे ।
समर भूमि में तुमसे ,चंद्रावत हारे ।।-4 जय---
हत्या लूट जहां थी , पेशे गत जारी ।
वश में किये शक्ति से , तुमने पिंडारी ।।-5 जय--
मुख पर दिव्य अलौकिक ,शोभा कल्याणी ।
धनगर वंश शिरोमणि , जनप्रिय महारानी ।।-6 जय--
यश प्रताप परहित का ,जब जग में छाया ।
महा विरुद जीते जी ,’पुण्यश्लोक’ पाया ।।-7 जय-
ग्रंथकार करते हैं , शब्दों से पूजा ।
प्रजा परायण तुम-सा ,हुआ नहीं दूजा ।।-8 जय
शासक लोक सुधारक ,तुम समाज सेवी ।
पृथ्वी की आभूषण , भारत की देवी ।।-9 जय--
तुम - सा शासक कोई ,फिर भारत पावे ।
रोजी - रोटी छत हो ,मन का डर जावे ।।-10 जय--
माता की यश गाथा ,खुश हो जन गाएं ।
कलयुग की देवी को , हम शीश झुकाएं ।।-11 जय--
✍ शिव कुमार ‘दीपक’
बहरदोई , सादाबाद
(हाथरस )
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मंशू भाई
यादें जज्बातें जीवित बातों की
मत बेचो मुझको ऐ मेरे मम्मी-डैडी
मत बेचो मुझको ऐ मेरे नात-रिश्तेदारों
मैं हूँ फरिश्ता अकेला उड़ने को हूँ बेचैन
सपनों के अरमानों को सच तो हो जाने दो
कलियों को मुस्कुराने दो फूलों को खिल जाने दो
पंख तो आ जाने दो मैं भंवरा उड़ने को बेचैन ।।
मत बेचो मुझको ऐ मेरे मम्मी-डैडी
मत बेचो मुझको ऐ मेरे नात-रिश्तेदारो
मैं हूँ बालक अज्ञान मेरे कर्तव्य हैं महान
ख्वाबों के खयालों को सच तो हो जाने दो
चांद को आ जाने दो सितारों को चमचमाने दो
पुष्पक विमान तो बन जाने दो मैं बंदा बिकने को बेचैन
मत बेचो मुझको ऐ मेरे मम्मी-डैडी
मत बेचो मुझको ऐ मेरे नात-रिश्तेदारों
लोग कहे तो कहने दो मैं हूँ पागल-अन्जान
दिल के आवाजों को अमर तो हो जाने दो
हौसलों को खिल-खिलाने दो कुर्बानियत को निभाने दो
गगनचुम्बी तो बन जाने दो मैं परिंदा हंसिनी बिन बेचैन
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चंदन कुमार पटेल
ऐ कबड्डी तू जान है मेरी
तुझी से तो पहचान है मेरी
कबड्डी तुझे सम्मान ना मिला
क्रिकेट जितना पहचान ना मिला
तू ख्वाबों की वो रानी है
अपने देश की कहानी है
तू सभ्यताओं की मेंल है
तू सांस्कृतिक वो इस खेल है
इस खेल के खिलाड़ी
खिलेगा तेरा चेहरा भी
तुझे भी सम्मान मिलेगा
क्रिकेट जितना पहचान मिलेगा
कबड्डी हमारी शान है
कबड्डी हमारी जान है
यह खेल नहीं है बच्चों का
इसमें दम निकल जाता है अच्छे अच्छों का
कवि चंदन कुमार पटेल
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आनन्द किरण
नासूर -----
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नासूर बना जातिवाद,
हैं विष की धारा।
कचूमर बना पंड़ितवाद,
हैं पाप की माला।।
रोग बना सामंतवाद,
हैं अधर्म का पाला।
दूषित बना मतवाद,
हैं पाखंड का डेरा।।
अवरुद्ध बना पंथवाद,
हैं शैतानों का कारवां।
अस्पृश्य बना मानववाद।
हैं कलंक की छाया।।
इस धर्म ध्वज से नहीं है,
ईश्वर का रिश्ता।
पत्थर से नहीं,
इंसान दिल से ईश्वर का वास्ता।
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@ कविराज श्री आनन्द किरण@ 04.04.2017
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दुर्गा प्रसाद पाठक
ग्रामीण जीवन
अहा ग्राम्यजीवन भी कैसा
क्यों न इसे सबका मन चाहे
थोड़े में निर्वाह यहाँ है
ऐसी सुविधा और कहाँ है।
जिस पर गिर कर उदर धरणी से हमने जन्म लिया है।
जिसका खाकर अन्न सुधा सम नीर समीर पिया है।
जिस पर खड़े हुए खेले घर बना बसा सुख पाये।
जिसके रूप सरूप सा बचपन मेरे मन को भाये है।।
मुड़ कर देखूँ इतर शहर से अपनी माटी पुकारे है
अपनी धरती अपनी खेती लहर लहर लहरावे है।
चरण छू ममता मयी माँ का रोम रोम पुलकित होवे
हर लाल धरती माँ के आँचल की छैंयाँ में सोवे।।
श्री दुर्गा प्रसाद पाठक
जबलपुर
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सचिन राणा हीरो
घर छोड़ आया हूं "
जिम्मेदारी की गठरी ले, मैं दौड़ आया हूं,,
ऐ नौकरी मैं घर छोड़ आया हूं,,
बचपन के वो खेल खिलौने, रेत से बनते घर के घरौंदे,,
वो बारिश़ का पानी जो काग़ज की कश्ती डुबो दे,,
उन सारी यादों से मैं मुंह मोड आया हूं,,
ऐ नौकरी मैं घर छोड़ आया हूं,,
वो गांव की गलियां, वो यारों की टोली,,
वो अल्हड़पन की मस्ती, वो भाभी संग हंसी ठिठोली,,
उन किस्सों को ,उन हिस्सों को पीछे छोड़ आया हूं,,
ऐ नौकरी मैं घर छोड़ आया हूं,
वो मां के हाथ की रोटी, वो पिता के कांधे का झूला,,
वो भाई से तकरारें, बहना के नख़रों को भूला,
वो कुटुंब, कबीला सब सारा मैं छोड़ आया हूं,
ऐ नौकरी मैं घर छोड़ आया हूं,
वो किसी की आँखों पे मरना, वो किसी की यादों में रमना,,
वो किसी के इश्क़ की खुशबू से स्वयं को आनन्दित करना,,
उन कसमों को उन वादों को मैं तोड़ आया हूं,,
ऐ नौकरी मैं घर छोड़ आया हूं ।
सचिन राणा हीरो
कवि एवं गीतकार
हरिद्वार, उत्तराखंड।
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संजय कर्णवाल
ऐसे हम सब काम करे,जग में अपना नाम करे।
चलते जाये नेक राह पर,नेक सारे काम तमाम करे।।
शुभ शुभ बोले जीवन में, शब्दों से मिश्री घोले जीवन में।
शांति और संतोष मिले जिससे सबके तन मन में।।
मांगे कोई कुछ बस दे डालो, मन में कभी ना भरम तुम पालो।
मिलजुल कर तुम रहना सीखो, नेक राह का मार्ग निकालो।।
2 एक एक मिलकर बन जाये अनेक।
और बने हम सब जहाँ में नेक।।
एकता में शक्ति होती हैं,
यही कहते हैं बुद्धिमान लोग।
बिखरे हुए जो रहते हैं
वो कहलाते अंजान लोग।।
जो कमी है हमारी
उन कमियों को दूर करे हम।
जुड़ जाये सबसे नाता,जीवन में नये रंग भरे हम।। ,,,,
।।।3।। रुकना कैसा जिंदगी में अब,चलना है मंजिल तक।
जो है नैया बीच भंवर ले जायेंगे उसे साहिल तक।।
लोग जमाने में डर जाते हैं।
राह नहीं अपनी वो पाते हैं।
हमको तो रुकना नहीं है।
इनके आगे झुकना नहीं है।।
लाखों तूफ़ां उठते हैं सागर में।
हौसला फिर भी रहता जिगर में।
विश्वास कभी ना कम हो अपना।
बढ़ता ही जाय केवल दम अपना।।,,,,,
।।।।4।।।फूलों की मुस्कान से मन प्रसन्न हो जाता है।
जिनमें ही परमेश्वर का प्रेम नज़र आता है।।
उसने ही तो की है ,रचना सारी।
उसने दुनिया की हर चीज सँवारी।।
वो ही तो सारा गुलशन महकाता है।।
संसार का सारा प्यार इन्हीं में दिखता है।
कोई कितना हो सुन्दर ,संग इनके और भी सुंदर लगता है।
इनका साथ हमेशा और खूबसूरत बनाता है।
।।।।,,,5।। सपने हमको एक सुख दे जाते हैं।
कुछ पल के लिए दुःख ले जाते हैं।।
सबकी आँखों में एक सपना होता है।
इस दुनिया में सबका प्यारा अपना होता है।।
लाखों लोग ज़माने में सबसे जुदा होते हैं।
कितने यहाँ हँसते हैं, कितने यहाँ रोते हैं।।
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करुणा,मैत्री, प्रेम,अहिंसा का पाठ सिखा गये।
सबके लिये अनोखा मुक्ति का मार्ग दिखा गये।।
मधुर वाणी से प्रेम का संचार प्राणियों में बढ़े
विश्व प्रेम बंधुत्व की भावना में जगे।।
मानव का मानव से प्रेम का नाता बना रहे।।
प्रेम की धारा जन जन में सदा ही बहे।।
कर गये नाम ऐसे उत्तम जहाँ में।
सदा ही रहें नाम गौतम जहाँ में।।
भू आते रहे लेकर उजाला।।
मुस्कुराते रहे करके रूप निराला।।
सदा जग में शांति बनी रहे।
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राज नारायण द्विवेदी
पथिक और वृक्ष
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एक पथिक ने ,
वृक्ष से पूछा !
तुम कहां जा रहे हो ,
बड़ी धूप है , थोड़ा आराम कर लो
विश्राम कर लो, आपस में कुछ बात कर लो ।
पर पथिक थोड़ा शरमाता है,
और मन ही मन घबराता है ,
अपने किये पर पछताता है ।
जिसे मैं काट कर आया है,
उसी का भाई मुझे बुलाता है ।
आदर देता , हालचाल पूछता ,
और कड़ी धूप से बचाता है ।
शीतल निर्मल वायु देता ,
और उसे ही मैं काट कर आया है ।
पथिक ने वृक्ष की बात मानकर,
उसके छांव में जा बैठा ,
वृक्ष ने कहा ...........
तुम इतना क्यों न निर्दयी हो ,
मुझे काटते हो , उखाड़ते हो ,
जलाते हो, मुझे अपंग भी बनाते हो ।!
अरे ! मुझे तुम कांटों -बांटो ,
अपना काम बनाओं ,
घर छाओं , टेबल , फर्नीचर बनवाओ ।
दरवाजा -खिड़की सब लगवाओ ,
सोफ़ा -पलंग , डायनिंग से ,
घर को खूब सजाओ ।
हे भाई पथिक ! जरा सोचो ....
समय से पहले जब पिता स्वर्ग सिधार जायें,
बेटा जवानी में मर जाएं ,
या लकवा -पोलियो हो जायें
कोई विकलांग या अपंग हो जायें ।
हे भाई ! पथिक वैसे ही तुम मुझको भी देखो ।
मुझे काटो - छांटो , फर्क नहीं पड़ता
जब मेरे किसी अंग को ,
लकवा लग जायें ,
काट कर घर ले आओ ,
जब मैं बूढ़ा हो जाऊं , सूख जाऊं ,
तुम मेरा मनमर्जी से अंतिम क्रिया कर देना ।
मुझे कष्ट नहीं होगा ।
तुम्हारी कुल्हाड़ी का भी परवाह नहीं होगा ।
राज नारायण द्विवेदी
अम्बिकापुर सरगुजा
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मुकेश कुमावत
मैं अवरुद्ध हो गया हूं विकारों से बेकार हो गया हूं
खुद से मजबूर हो गया हूं अपनों से दूर हो गया हूं
ख्वाहिश है उम्मीद है आशा है
जीने की, पर मरने के लिए बेताब हो गया हूं
इन सांसों का गुलाम हो गया हूं
चलते सपनों में जाग जाता हूं
किसी की यादों से भाग जाता हूं
डरता हूँ ये समय मुझे पीछे छोड़ देगा
कोई हाथ भी पकड़ लेगा तो बीच में छोड़ देगा
सफर तो करना है पूरा किसी की तलाश क्यों करुं
कोई नहीं पूछता है जेब खाली है मेरी
अब मैं क्यों किसी से बात करुं।।
एक साथ विविध रंग रूपों की कविताओं का रसास्वादन अपने आप में आनंद दायक तो है ही कई तरह से उपादेय भी
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