ए क लाख पच्चीस हजार क्युसेक पानी कितना होता है भाई? इतना तो इस बार कोसी से रोज बह जा रहा था। जबकि हर साल सितंबर में ही केवल पाँच लाख क्युसेक...
एक लाख पच्चीस हजार क्युसेक पानी कितना होता है भाई? इतना तो इस बार कोसी से रोज बह जा रहा था। जबकि हर साल सितंबर में ही केवल पाँच लाख क्युसेक पानी इसमें से होकर गुजर जाता था। बहुत बेशी हो तो अक्तूबर में नौ लाख तक... आखिर...
कारी कोसी के दोनों कछार पर पानी का छह छहाना बंद! उसकी शाखा नदियॉँ पनार, लोहन्द्रा, महानदी और बकरा का पानी भी गेरू से मटमैला होने लगा है। जैसे हिरन को निगल कर काला अजगर धीरे-धीरे सुस्त हो जाता है, उसी तरह कोसी भी अब शांत हो गई है। पानी घटने लगा है।
हैरीसनगंज के प्लेटफार्म पर भीड़ कुछ घट सी गई है। कुछ लोग अपने घर लौट गये हैं। बाकी जो बचे खुचे हैं उनका घर या तो रह नहीं गया या उनके मुहल्ले टोले में कीचड़ और सड़ांध इतनी है कि वहाँ पहुंचना दुश्वार है। वैसे कुछ लोग घर में बाप मतारी बाल बच्चों को छोड़ कर फिर से प्लेटफार्म पर लौट रहे हैं। खेती की जमीन पर कोसी ने इतना बालू फैला दिया है कि वहाँ क्या बोयें? या कहीं मेहनत मजदूरी नहीं मिली तो चल रहे हैं गुजरात और पंजाब की ओर- यह क्षेत्र भी वजीरे रेल का कुरुक्षेत्र है। सो उन्होंने कह दिया है सहरसा, अररिआ, कटिहार, सुपौल, पूर्णिया और मधेपुरा लाइन से जानेवालों को रेल टिकस नहीं लगेगा! किराया भाड़ा फिरी! तो, हैरीसनगंज की रेलवे लाइन में जो पटरी उखड़ गई थी, बिठा दी गयी है। फिर से ट्रेन चलने लगी है.
और साथ ही ट्रेन के अंदर और बाहर छत पर लद कर आदमी-आदमी और आदमी.
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बिरोजा एक बीड़ी सुलगा कर सूखे हैंडपम्प के सामने बैठा था। आज दो दिन बाद दोपहर तक शायद भात दाल बंटे। किस्मत बुलन्द हो तो साथ में प्याज का टुकड़ा भी। इसी बात का पता लगाने वह तब से यहाँ चक्कर काट रहा है। अब जनकदुलारी को भी बुला लाना पड़ेगा। यहाँ इस समय उसके दो बेटे प्लेटफार्म के किनारे खेल रहे हैं। उसकी मलकिन छोटू को गोद में लेकर मैया और बिटिया जनकदुलारी के संग नहर पर और लोगों के साथ डेरा जमाये बैठी है। सुपौल के बलुआबाजार से खगड़िआ के बेलडोर तक जो सौ कि.मी. लंबी नहर बनी है वही इस समय इन लोगों का आशियाना बना है। एक जमाने में कोसी जिस सुरसर नदी के रास्ते बहती थी, उसे छोड़ कर जब पच्छिम में आ गयी तो सुरसर की वह धारा भी सूख गयी। अब अठ्ठारह अगस्त की रात जब कुसहा के नजदीक तटबंधा टूट गया, तो वह फिर से पश्चिम से पूरब की ओर बहने लगी। और उसमें बसे बलुआबाजार से लेकर मधेपुरा के अरारघाट और सहरसा जिले के सैकड़ों गाँव का निशाना मिट गया। बस, बदहवास लोगों को यहाँ आकर डेरा जमाना पड़ा।
मगर सरकारी राहत शिविरों में इस जगह का नाम नहीं है। इसलिए सरकार की तरफ से जब भोजन बंटता है तो नहर तक कोई नहीं आता। टेशन पर ही बांट कर चलता बनते हैं। किसान सभावाले, कुछ आश्रमवाले और कुछ एन. जी. ओ के बाबू लोगों ने इन बाढ़ग्रस्तों को क्षुधाग्रस्त होने से बचा रक्खा है।
अमूमन यही होता है कि जिस दिन टेशन में सत्तू चिउड़ा का महाभोज बंटता है, उस दिन नहर पर फांकाकशी होती है। और जब वहां लालझंडावाले या सेवाश्रमवाले खिचड़ी लेकर ‘राजा सलेहस की जनार (धार्मिक भोज)’ देने पहुंचते हैं, तो इधर के लोगों को ‘सिंगल’ की ओर देखते देखते इसी आस से वक्त गुजारना पड़ता है कि लाल ‘सिंगल’ कभी तो ‘डउनाएगा’! ‘हरियाली’ जल उठेगी!
इसलिए बिरोजा खुशकिस्मत है कि उसका आधा परिवार वहां है और आधा यहां-वहां भी बंट जाये तो इन्हें एकदम से भूखे नहीं रहना पड़ता। कुछ न कुछ मिल ही जाता है। और जब वहां सांय-सांय हवा हाय-हाय करती हुई नहर पर से बहती रहती है, तो ये लोग कुछ न कुछ लेकर वहां पहुंच जाते हैं।
जब छप छप करता हुआ गांव तक पानी घुस आया तो सभी को लेकर औरों के साथ बिरोजा भी पहले नहर पर ही पहुंच गया था। वहां आसमां की छत के नीचे ही सबको रहना है। दूसरे दिन जब पता चला टेशन में पैकिट बंट रहे हैं, तो मुरली और माधो दोनों बेटे और बेटी जनकदुलारी को लेकर उधर दौड़ा। इनका नाम रजिस्टर में लिखा गया।
‘‘हे इस्सर! महादेव!’’ बिरोजा के मुंह से अनायास निकल पड़ा। आगे क्या होगा? पानी घटने में तो अभी कई दिन लगेंगे। फिर?
तभी किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा, ‘‘सोच का रहा है बिरोजा? हमने जैसा बोला वैसा कर डाल-’’
बिरोजा बिल्कुल चौंक उठा। बीड़ी के अंगार से उंगली जल गयी।
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‘‘अब मकई के भाव ही देख लिओ। पर साल छह सात सौ तक गेल रहे। मगर इस बार? सब खेतों में खड़ी-खड़ी सड़ रही हैं। प्लेटफार्म तक जो बोरे में भर कर आ भी गयीं, उन्हें ले जानेवाला कोई नहीं। बाल बच्चों को की खिलैबे? खुद का खायेगा? जरा सोचो। एक मुश्त चार हजार दिला रहे हैं। कुछ कम नहीं है।’’
निर्वाक् बिरोजा उसकी ओर देखता रहता है। एक शब्द भी न कह सका...
‘‘अच्छा चलो, और पांच सौ सही! बस, हमार कुछ भी नहीं बचेगा। तुम अपने देस गांव के हो, तो ई नुकसान भी सह लेंगे। बोलो, का कहते हो?’’ उसने इशारे से दिखाया कि रुपया कमर में ही बँधा रक्खा है। बस, हामी भरने की देरी है। यकीन दिलाने के लिए उसने निर्जीव बिरोजा की उंगली पकड़ कर अपनी कमर पर छुआयी। निष्प्राण शरीर में मानो जान आ गयी। बिरोजा हल्का सा चीख उठा- उसकी यही उंगली अभी अभी जली थी।
वह आदमी अपनी खिचड़ी दाढ़ी को खजुआता रहा। अपनी शर्ट की गन्दी कालर को पीछे खिसका कर इधर-उधर देखता रहा। फिर जेब से खैनी चूना निकाल कर हथेली पर मलने लगा। तैयार हो गई तो फूंकते हुए बोला, ‘‘लो, थामो। पता नै कब एतै महापरसाद बंटेगा! तुम लोग समझते क्यों नहीं यह तो हर साल का ‘जून लूट’ है। बराज टूटेगा नहीं तो बनेगा कैसे? बनेगा नहीं तो सिंचाई मंत्री के साले को ठेका मिलेगा कैसे? बस, मरना है हम गरीबों को। क्यों? क्या बाल बच्चों को खिलाओगे? कैसे उनका शादी बिया करोगे? तभी तो कह रहा हूं जो मिल रहा है ले लो। जिम्मेदारी भी कुछ घट जायेगी।’’
बिरोजा को जैसे सांप सूंघ गया है। कोसी के पानी में बह कर जानेवाले मरे हुए बछारु की आंखें जैसे आकाश को देखती रहती हैं- वही सूनापन उसकी दृष्टि में पसरा हुआ है।
‘‘देखो, आज शाम तक ट्रेन छूटनेवाली है। एक बार मौका हाथ से निकल जाये तो फिर नहीं आता। तुम तैयार रहना। तो सौदा पक्का?’’ वह चला गया।
कई स्टेशनों को छूते हुए कटिहार से दो ट्रेनें यहां तक आ पाती हैं। थोड़ी देर में दिल्लीवाली गाड़ी आ गयी। बगल में गठरी, या सिर पर पोटली या टीन का कनस्तर लेकर सभी यहां से चले जा रहे हैं। शायद और कहीं जीने का ठिकाना मिल जाये। अधिकतर नौजवान या अधेड़ उम्र के लोग ही है। बस, किसी किसी के साथ उनका परिवार भी। डूबें या तैरें- एकसाथ ही किस्मत से पंजा लड़ायेंगे! राम का बनवास लिखने के लिए वाल्मीकि थे, पांडवों के बनवास और अज्ञातवास को लिखने के लिए वेदव्यास ने कलम उठायी। मगर इन अभागों के निर्वासन का लेखा-जोखा कौन लिखेगा? किसकी कलम में इतने अंगारे और आंसू एक साथ धरे हैं?
‘‘ए बाबू, चलो न दिदिया को लिवा आयें -’’ मुरली बाप की पीठ पर मुंह रगड़ने लगा।
‘‘इ टरेन भी छूट जायेगी। पता नहीं उ लोग कब पहुंचेंगे?’’ माधो को भूख भी लगी थी।
‘‘अरे उ लोग तो टरक और मोटर से न आयेंगे।’’ मुरली ने भाई को समझाया।
बिरोजा धीरे-धीरे उठ खड़ा हुआ। तीनों नहर की ओर चल पड़े। जो इस समय हर दस में से नौ आदमियों का बसेरा बना हुआ है।
जनक दुलारी अपने भाई को काजल लगा रही थी। इन्हें देखा तो दौड़ कर पास आ गयी। धीरे से पूछा -‘‘बाबू, आज वहां बंटेगा न?’’
‘‘जभी तो आये हैं। चल, जल्दी कर।’’ मुरली और माधो बच्चे हैं तो क्या हुआ उनको मालूम है. टेशन में खिचड़ी बंटने की भनक भी किसी को न पड़े। वरना नुकसान इन्हीं का है। आते आते रास्ते भर बिरोजा ने हिदायत दी थी- ‘‘चुप रहना।’’ उनकी आंखों से खुशी उछल रही थी। मगर होंठ सिले हुए थे।
जल्दी से मां की गोद में छोटू को रख कर जनक दुलारी चल पड़ी। चारों जब स्टेशन पहुंचे, तो वहां सरकारी राहत सामग्री लेकर ट्रक आ चुका था। सभी भीड़ में लग गये। आपाधापी, छीनाझपटी, मारामारी, गालीगलौज- भूख और मजबूरी के आगे इनसानियत का कद काफी छोटा हो गया था।
चारों अपनी अपनी थाली पर टूट पड़े। मुरली बोला,‘‘चलो, मैया, दद्दा और दादी के लिए ले चलते हैं।’’
‘‘हां!’’ बिरोजा उठने ही वाला था कि फिर से उसका कंधा पकड़ कर किसी ने उसको बुलाया। वही आदमी पीछे खड़ा था। उसने इशारे से बुलाया। बिरोजा अपनी थाली माधो को थमाकर उसके पीछे पीछे एक किनारे आ गया।
‘‘वो देख, कोसी सतलज छूटनेवाली है। ये रुपये रख। पूरे साढ़े चार हजार हैं। घबड़ाना मत। बाद में कभी जी चाहे तो उससे भेंट कर लेना।’’
‘‘नहीं। तू ई की कहै छी? क्या कह रहा है?’’ बिरोजा की आवाज में मानो वह ताकत नहीं थी। इतने सारे रुपये एक साथ! मगर- इस रुपये के लिए वह- हे इस्सर -!
‘‘अरे रख ले इसे। जरा सोच- इससे बाकी परिवार को तू कितने दिन भरपेट खाना खिला सकेगा?’’
बिरोजा की मुठ्ठी में साढ़े चार हजार रुपये थे। और हर नोट पर- गांधीजी का मुस्कुराता चेहरा और अशोक स्तंभ- जिसके नीचे लिखा है- सत्यमेव जयते!
‘‘चल चल, ओकरा के बुला। ट्रेन छूटनेवाली छै।’’
उधर माधो अपनी दीदी से कह रहा था, ‘‘ई आदमी रोज रोज बप्पा से का बात करता है?’’
मुरली की भौंहें तन गईं, ‘‘परसों मैया इसी को न गारी दे रही थी?’’
इधर ट्रेन ने सीटी दी। वह आदमी दौड़ता हुआ इनके पास आया और जनकदुलारी का हाथ पकड़ कर घसीटने लगा।
जनकदुलारी रोने लगी-‘‘बाबू, बाबू! ई हमरा के केतै ले जाय छै?’’
‘‘अरे हमार साथ चल। रानी बन के रहबी। भर पेट खाय ले मिलतौं! तोर बाप हमरा से रुपया भी लिया है।’’ देखते-देखते उसके दो साथी जाने कहां से आकर ऐसे खड़े हो गये कि किसी की नजर इन पर न पड़े।
जनक दुलारी उसका हाथ छुड़ा कर अपने बप्पा से लिपट जाना चाहती थी.
दो एक पुलिसवाले जो प्लेटफार्म पर खड़े थे, पता नहीं कहां गायब हो चुके थे। शोरगुल में जनक दुलारी की आवाज मानो किसी ने न सुनी। ट्रेन चलने लगी... वह आदमी उसको घसीटते हुए बोगी में चढ़ गया।
मुरली और माधो दोनों आकर बिरोजा को झकझोरने लगे- ‘‘बाबू, दिदिआ को वह ले जा रहा है-’’
ट्रेन चल रही थी..
बिरोजा ने दौड़ कर उस कमरे में चढ़ जाना चाहा, मगर वह आदमी दरवाजे पर खड़ा था। उसने जोर से उसे धक्का मारा.
‘‘जनकिआ ह-! लौट आ -’’ बिरोजा चलती ट्रेन से नीचे गिर गया.
‘‘बाबू! दिदिया !’’ मुरली और माधो रोते हुए दौड़ने लगे.
कोसी सतलज एक्सप्रेस तेज रफ्तार से आगे बढ़ती गयी.
संपर्क : सी, 26/35 - 40, ए, रामकटोरा,
वाराणसी-221001
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