आजादी के लिये वह भी अपना जीवन देश के लिये सौंप देना चाहा और इसी चाह से वह चला गया सेना में भर्ती होने. राकेश अभी अपनी जिन्दगी का दूसरा दशक भ...
आजादी के लिये वह भी अपना जीवन देश के लिये सौंप देना चाहा और इसी चाह से वह चला गया सेना में भर्ती होने. राकेश अभी अपनी जिन्दगी का दूसरा दशक भी पूरा नहीं कर सका था, दो-तीन साल बाकी ही थे. गोल-गुलाबी गाल, गले से सटी ठुड्ढ़ी. नाक नुकीली, मगर ज्यादा लंबी नहीं, भौंहें तनी हुई. वह चेहरे पर मुस्कान बिखेरे रहता था. काले केश के करिश्मा के क्या कहने ? गोरे ललाट पर जब काले-काले केश गिरते थे तो लगता था कि सुन्दर फूलों की पंखुड़ी पर भौंरे मण्डरा रहे हों. अपनी इस अनुपम सुंदरता को उसने अपनी धरती मां के लिये न्योछावर कर दिया था. अपनी जन्म देने वाली मां को, जिसने कितने कष्टों से पाल-पोस कर उसे बड़ा किया था और अपना विधवा जीवन अपने बेटा की खुशियों के लिये समर्पित कर दिया था, को छोड़ कर वह चला गया था.
रूपा को भी राकेश छोड़ कर चला गया था. रूपा, जिसे उसने जिन्दगी भर साथ रहने का वचन दिया था. राकेश की झोंपड़ी के बगल में ही वह अपने तीन मंजिले मकान में रहती थी. उसकी भी अब सिर्फ मां ही बची थी. उसका राकेश के घर में आना-जाना लगा रहता था.
राकेश को रूपा के घर जाने का प्रथम अनुभव तब हुआ, जब वह उसे बुला कर ले गयी थी. अपनी पढ़ायी के सिलसिले में उसे राकेश से कुछ पूछना था. तब बचपन का जीवन था. आना-जाना लगा रहा. दोनों में बहुत प्रेम था. हो भी क्यों नहीं ? रूपा को भाई नहीं था और राकेश को बहन नहीं थी.
एक बार जोरों की बाढ़ आयी थी. पूरा इलाका तबाह हो गया था. राकेश की झोंपड़ी भी उस बाढ़ के पानी में बह गयी. ऐसी स्थिति में राकेश और उसकी मां को रूपा अपने घर ले आयी थी. प्रकृति की वह बाढ़ औरों के लिये पानी की तबाही लेकर आयी थी, लेकिन रूपा के लिये खुशियों की बाढ़ बन गयी थी. उसके घर राकेश जो आ गया था.
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राकेश के होश संभालने के बाद उसके जीवन में पहले उसकी मां आयी थी और तब रूपा. मां और रूपा के सिवा दुनिया में उसका और कोई नहीं था. लेकिन नहीं, कुछ लोगों से उसे मालूम हुआ था कि देश को अपनी आजादी की जरूरत है. तब उसे देश के प्रति प्रेम जगा और वह सेना में भरती हो गया.
बरसों गुजर गये, राकेश को गये हुए. अपनी मां और रूपा को भुला कर वह मात्र अपने देश के प्रति अपने प्रेम को समर्पित कर दिया था. जवानों की लगन और मेहनत से देश आजाद हो गया. देश के व्यक्ति-व्यक्ति ने खुशियां मनायी. इतना गुलाल-अबीर उड़ा कि बेमौसम होली का माहौल बन गया. देश की आजादी की खबर सुन कर रूपा नाच उठी थी. वह खुश थी कि उसका राकेश अब शीघ्र आ जायेगा.
देश की आजादी के बाद राकेश को रूपा की याद सताने लगी. इतने दिनों से उसने कभी रूपा को याद नहीं किया था, क्योंकि उसका एक ही उद्देश्य था देश की आजादी. उधर रूपा भी इसी सोच में रहती थी कि लगता है, राकेश उसे भूल गया है. फिर उसका मन कहता कि नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. उसे विश्वास था कि राकेश उसे कभी भूल नहीं सकता. वह आयेगा और जल्द आयेगा. रूपा घर में बैठी यही सोच रही थी कि दरवाजे पर किसी ने आवाज दी. जाकर देखी, डाकिया था. उसके हाथ में एक पत्र था. बाहर जोरों की बारिश हो रही थी. डाकिया बरसात के पानी से बिलकुल भीग गया था, बिलकुल रूपा की तरह, जो अपने राकेश की याद में भीगी हुई थी.
‘‘पत्र है, कुमारी रूपा के नाम’’ कहते हुए डाकिये ने रूपा के हाथ में पत्र थमा दिया. राकेश का ही पत्र था. भगवान को शुक्रिया देते हुए वह लिफाफा खोली और पत्र पढ़ने लगी,
‘‘प्रिय रूपा, . . . मैं दो सप्ताह बाद रविवार को आ रहा हॅू.’’
पत्र पढ़ कर रूपा खुशी से झूम उठी. उसके जीवन में इससे बढ़ कर खुशी कब हुई थी, उसे याद नहीं आ रहा था. वह पलंग पर जा कर लेट गयी. उसके मन में रंग-बिरंगी भावनाएं आने लगीं. उसका राकेश आयेगा तो वह शादी का प्रस्ताव रख देगी. यह बात घर में सबों को मंजूर थी. उसके हाथों में मेंहदी लगेगी. वह दुल्हन बनेगी. गहनों से सजी हुई वह कितनी सुंदर लगेगी ? मगर वह तो डोली पर चढ़ेगी ही नहीं. डोली पर चढ़ कर जाना ही कहां है ? उसके घर से चल कर उसी के घर बरात आयेगी ......’’
वह अभी क्या-क्या और कब तक सोचती रहती कि घर में किसी आहट से उसकी दन्द्रा टूट गयी. राकेश की मां के साथ उसकी मां खड़ी थी, न जाने कब से ?
रविवार को राकेश को आना था. उस दिन सुबह से ही रूपा अपने घर में सप्ताह भर से सजे सामानों को झाड़-पोंछ कर फिर से सजाने लगी थी. काम करते-करते वह खिड़की से बाहर दूर तक झांक लेती थी. उसके बाद फिर अपने कामों में लग जाती थी. अपने सभी कामों को कर लेने के बाद वह खिड़की पर बैठ कर सामने सड़क की ओर देखने लगी. वह अपनी दृष्टि लगातार सड़क पर दूर तक टिकाये हुई थी. मगर कोई आता दिखाई नहीं दिया. रास्ते से कुछ लोग आये भी, लेकिन उसे राकेश नहीं दिख रहा था.
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धीरे-धीरे सन्ध्या हो गयी. मगर रूपा का राकेश नहीं आया. जब रात्रि का अंधकार सड़क पर फैल गया तो सड़क से निगाह हटा कर रूपा भी वहां से हट गयी. रात्रि भर उसे नींद नहीं आयी. जब कभी झपकी आती तो लगता कि उसे कोई जगा रहा है. मगर वह उठने पर कहीं कोई दिखायी नहीं देता. दूसरे दिन सुबह-सुबह ही वह खिड़की पर बैठ कर सड़क की ओर ताकने लगी. बैठे-बैठे उसकी आंखें पथरा-सी गयीं, मगर राकेश आता हुआ नहीं दिखा.
सूर्य चलकर अब आकाश के बीचों-बीच आ गया था. तभी उसे कोई आता दिखायी दिया. वह राकेश ही होगा - रूपा को यही उम्मीद थी. जब आने वाला नज़दीक आ गया तो रूपा देखी कि डाकिया है. वह सोची कि गांव में किसी की चिट्ठी लेकर आ रहा होगा.
यह क्या ? डाकिया तो उसी के घर की ओर बढ़ा आ रहा था. वह एक लिफाफा देकर चला गया. राकेश और रूपा की मां भी वहीं खड़ी थी. रूपा लिफाफा खोल कर पढ़ने लगी. उसमें लिखा था कि सीमा पर गोली-बारी शुरू हो जाने के कारण उसकी छुट्टी रद्द हो गयी है. वह सीमा पर शत्रुओं को परास्त करने जा रहा है. पत्र छह दिन पूर्व का लिखा हुआ था. परिवार के सभी लोग दरवाजे पर ही खड़े थे कि सामने से एक ट्रक आता दिखायी दिया. कुछ नज़दीक आने पर पता चला कि ट्रक सेना का है. सेना का ट्रक उसके दरवाजे पर आकर रुक गया. ट्रक से एक ताबूत उतारा गया, जिस पर लिखा था - वीर शहीद राकेश. ट्रक से उतर कर सेना के एक पदाधिकारी दरवाजे की ओर बढ़े आ रहे थे. पूरा परिवार बिना किसी के कुछ बताये सब कुछ समझ गया था.
राकेश की मां समाचार सुनते बेहोश हो गयी. रूपा की मां उसे संभालने में लग गयी. रूपा हतप्रभ थी. उसके सारे सपने शक्कर की डली की भांति गल चुके थे. लेकिन उसने अपने चेहरे पर थोड़ी भी मलिनता नहीं आने दिया. उसने अपने मन को समझाया. वह देश को आजादी दिलाने वाले और देश की रक्षा के लिये हुए शहीद की विधवा है, अविवाहित विधवा. यह सोच कर उसका सीना फूल गया. उसके चेहरे पर आजादी के दीवाने शहीद की विधवा और आजाद पत्नी होने का गर्व व्याप्त था.
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अंकुश्री (Ankushri)
प्रेस कॉलोनी, सिदरौल,
नामकुम, रांची (झारखण्ड)-834 010
E-mail : ankushreehindiwriter@gmail.com
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