हास्य - व्यंग्य - कहानी // हम भी पक्या के साथ हैं // सुरेश खांडवेकर

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रात के बारह बज रहे थे। कल्याण से कसारा जाने वाली आखिरी लोकल का इंतजार कुछ यात्री कर रहे थे। रेल्वे स्टेशन लगभग खाली था। जो यात्री किसी ना क...

सुरेश खांडवेकर


रात के बारह बज रहे थे। कल्याण से कसारा जाने वाली आखिरी लोकल का इंतजार कुछ यात्री कर रहे थे। रेल्वे स्टेशन लगभग खाली था। जो यात्री किसी ना किसी कारणवश पिछली गाड़ी चुक गए थे, धीरे-धीरे यहां इकट्ठे होने लगे। उनकी चाल में हताशा और थकान थी। उनके दोनों हाथ कुछ झोले और सामानों से लदे थे। समानता यह थी किसी ने हाथ में तो किसी ने अपने बगल में, छोटे-छोटे बैगनुमा गल पट्टे वाले झोले लटकाये थे। उनकी आपसी बातचीत से पता चला कि यह शिक्षक समूह हैं।

संयोग से और भी दो पुरुष दिखाई दिये। विंचणकर ने एक को पहचाना तो पूछ लिया, ‘प्रकाशराव इतनी रात?’

क्या करूं कुछ ना कुछ काम याद आता गया। देखो बारह बज गये भागाभागा आ रहा हूं। अगर ये लोकल चूक जाती तो रात-भर यहीं रूकना पड़ता। मेरे साथ ये बेड़ेकर सर हैं पटेल सीनियर स्कूल के प्रिंसिपल।’

‘अच्छा-अच्छा नमस्कार, भई वाह। इस बार तो पटेल सीनियर स्कूल ने तो खूब नाम कमाया। दस वर्षों से मेरिट लिस्ट में बच्चे आ रहे हैं। बेड़ेकर साहब बधाई आपको। आपके निर्देशन में बच्चे अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं।’

‘धन्यवाद’ बेडेकर ने कहा।

इसी बीच सुधारकर पेडणेकर दिखाई दिये, तो बेडेकर ने उसे आवाज लगाई, ‘ओहो पेडणेकर यहां कहां? इतनी रात?’

पेडणेकर जेकेट कुर्ता पाजामा में थे। दौड़ते आये बोले, ‘चलो समय पर आ गये वर्ना यह आखिरी लोकल भी निकल जाती। आधे रास्ते तक का साथ हो जायेगा। अच्छा हुआ मिल गये।’ वे एक-दूसरे को देखने लगे तो बेडेकर ने पूछा, ‘आपने इन्हें नहीं पहचाना?’

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‘न, न, क्षमा चाहता हूं।’

बेडेकर ने उसका परिचय दिया, ‘अरे ये खर्ड़ी के यशवंत स्कूल के प्रकाशराव। इन्हीं के स्कूल के और दो-तीन शिक्षक बहुत लोकप्रिय है। अपने शिवराज पाटिल, नाथ सर, दीक्षित जी सब यशवंत स्कूल, खर्ड़ी के बड़े लोकप्रिय शिक्षक हैं।’

पेडणेकर ने सिर हिलाया। तो बेडेकर आगे बोलने लगे, ‘प्रांत में इस बार भी यह स्कूल रिजल्ट में अव्वल आया। सभी जगह शिक्षा, खेल, संगीत, नाटक। वाह क्या बात है?’

प्रकाशराव बोले, ‘हमारे स्कूल का बरसों से यही रिकॉर्ड है।’ सब टीचर स्टाफ इसे मेंटेन करने में जी-जान लगाते हैं। इसी वजह से जहां हमारे स्टूडेंट्स को स्कॉलरशीप्स और ईनाम मिलता रहता है। वहां शिक्षकों को भी अनेकों पुरस्कार मिलते रहते हैं।’

इस बीच ये विंचणकर ने कहा, ‘प्रकाशराव क्यों भीतर ही भीतर मुस्कुरा रहे हो। इस बार तो आपको भी आदर्श शिक्षक का पुरस्कार मिलने वाला है।’

प्रकाशराव चुप रहे। उन्हें बाकी शिक्षकों ने बधाई दी। प्रकाशराव बोले, ‘ये तो संयोग की बात है। पिछले वर्ष राज्य सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने हमारे विद्यालय के आरआर पाटील को आदर्श शिक्षक के रूप में सम्मानित किया और इस बार मेरा नाम घोषित होने के संकेत मिले हैं।’

इस बीच पेडणेकर ने एक-दो जाने-पहचाने चेहरों को देखा तो बोल पड़े, ‘लो आज तो जैसे बड़े-बड़े महारथियों का सम्मेलन हो रहा हो।’ प्रकाशराव का भी ध्यान प्लेटफार्म पर लोकल ट्रेन आने के दिशा में था। बोले, ‘‘ देखो, एमआर बोंडे सर भी आ रहे हैं। उनके साथ महाजन भी है। यह प्रेरणाताई सीनियर सेकेंडरी स्कूल के अंग्रेजी के व्याख्या है।’

आश्चर्य व्यक्त करते हुए वे आगे बोले, ‘बोंडसर गजब है। चलती-फिरती डिक्शनरी है, क्या ग्रामर है इनका। दिन-रात स्टूडेंट्स का रेला लगा रहता है इनके पास।’

वे प्लेटफार्म पर इधर-उधर जा रहे थे, तो उन्हें भी पेडणेकर ने अपने साथ मिला लिया।

बोंडेसर को अपनी ओर आने का इशारा किया। आते ही, ‘नमस्कार-नमस्कार, क्यों इधर-उधर जा रहे हो? अब लोकल में सब शिक्षक बंधु एक साथ ही बैठेंगे।’

धक्का-मुक्की का अब सवाल ही नहीं था। आखिरी लोकल वापस कसारा जानेवाली आ गयी और शिक्षकों का झुंड सामने की आयी बोगी में घुस गया। अपनी-अपनी सीट पर जमे, प्रकाशराव, बेडेकर, पेडणेकर, एकनाथ सर, भोंडे सर, महाजन सर। सौभाग्य से उसी बोगी में और भी चार शिक्षक बैठे थे। एनआर सर, वामनसर, कुलकर्णी और श्रीपाद कडूसर। समय-समय पर ये शिक्षक किसी न किसी शैक्षणिक या सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बहाने मिलते रहते थे। ये ठाणे से बैठे थे। सभी की दिशा कसारा की ओर थी। ये सभी प्रसिद्ध स्कूलों के प्रसिद्ध ही नहीं आदर्श शिक्षक थे।

इसी बीच थोड़ा-थोड़ा वार्तालाप भी हुआ, बेडेकर ने प्रकाशराव से पूछा, ‘तुम्हारी हिन्दी भाषा तो कमाल की है। तुम्हारा रिजल्ट हमेशा अच्छा रहता है। तुम्हारे स्कूल के एक अध्यापक कह रहे थे चाहे जो फंक्शन हो स्कूल में प्रकाशराव का भाषण अवश्य होता है।’

इस पर प्रकाशराव बोले, ‘ऐसा कुछ नहीं है। सभी का प्रोत्साहन है। विद्यार्थियों का बैच भी अच्छा हो तो, शिक्षक को भी पढ़ाने में मजा आता है।’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद महाजनसर ने एक अध्यापक की ओर संकेत करते हुए पूछा, ‘और कुलकर्णी कैसे लेट हो गये?’

‘कुछ नहीं, बेटी साठे के गेस पेपर मांग रही थी, उसे ढूंढ़ने में देर लगी।’

‘साठे के गैस पेपर? हम तो चाटे के गैसपेपर सुनते आये हैं?’

‘यहां तो चाटे के गैसपेपरों की खूब पब्लिशिटी है। लेकिन अब साठे के गैस पेपर बच्चों को ज्यादा पसंद है।’

‘तुम्हारे यहां साईंस कौन पढ़ाते है?’

कडूसर ने हाथ जोड़ दिये। उनकी प्रशंसा करते हुए नाथसर बोलने लगे, ‘प्रकाशराव के साथ-साथ इस बार नहीं तो अगली बार कडुसर को भी आदर्श शिक्षक की फुलमाला पहनने को जरूर मिलेगी।’

‘बिल्कुल’ पेडणेकर हां कहते हुए बोले, ‘कडुसर, हमारे स्कूल के रत्न हैं। विद्यार्थियों को विज्ञान में खूब उत्साहित करते रहते हैं। उनके एक्सपीरिमेंट भी गजब के होते हैं। समाचार पत्रों में भी उनके प्रयोग छपते रहते हैं। पीछे टीवी में भी उनके प्रयोग प्रसिद्ध हुए थे।’

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कडुसर चुप्पी साधे हुए थे। रेल खटाखट-खटाखट आगे बढ़ती जा रही थी। पंखे पूरी शक्ति से हीन-हीना रहे थे। खिड़कियों से हवा अंदर घुस रही थी। प्रकाशराव ने कडुसर को सम्बोधित करते हुए पूछा, ‘कडुसर कुछ तो बोलो, चुप क्यों हो?’

कडुसर खिड़की ओर देखते हुए बोले, ‘कुछ नहीं मैं बार-बार विद्यार्थियों से यही कहता रहता हूं सृष्टि है तो सिद्धांत है और सिद्धांत है यानी विज्ञान है। इसी तरह मैं विद्यार्थियों को विज्ञान के प्रति उत्साहित करता रहता हूं।’

सभी शिक्षकों ने उनकी बात का मौन समर्थन किया। सारे शिक्षक बोगी के एक कोने में बैठे थे। रात की काली चादर में खिड़की के उस पार केवल बिजली के चमकते बल्ब की कतारें दिखाई दे रही थी। ये बल्ब ही कहीं पहाड़ से लगते थे कहीं पेड़ से दिखाई देते थे। कब लोकल रुकती और कब आगे बढ़ती इसका सबको भीतर ही भीतर ज्ञान था। अपना-अपना गंतव्य सबको याद था। शाद के बाद आम्बिवली, उसके बाद टिटवारा, उसके बाद खडावली उसके बाद बासिंदे उसके बाद आसनगांव उसके बाद खर्डी उसके बाद आदि-आदि.... और आखीर में कसारा। इस तरह सब लोकल रूकने अपने स्टेशन का ध्यान करते थे। बोगी में सात-आठ शिक्षक थे। सभी आत्मगौरव से भावविभोर थे। सभी अपने स्कूलों की प्रसिद्धि और व्यक्तिगुणों की पुष्टि कर रहे थे। यात्रियों के सहारे की छत पर लगी कड़ियां शान्ति से हील रही थी। थकी-थकी सी झूल रही थी। रात ने जैसे कोलाहल को भी निगल लिया था। कुछ देर सारे शिक्षकों ने चुप्पी साध ली। कुछ झपकी लेने लगे। कुछ आकारण बोलने के बजाय चुप रहने में ही भलाई समझ रहे थे। कुछ निश्चिंत आंखें बंद किये थे। आखिरी लोकल होने की वजह से न शोरगुल था न भीड़। स्टेशन पर लोकल ट्रेन तो रुकती लेकिन लगता जैसे गाड़ी अपने खानापूर्ति कर रही है। न कोई उतरता न कोई चढ़ता। अब टिटवाडा स्टेशन पर लोकल रुकी। चार दबंग नौजवान बड़ी बेफिक्री से इन्हीं शिक्षकों बोगी में जोर-जोर से वार्तालाप कतरे हुए चढ़े। उन्होंने शिक्षकों को एक कोने में देखा और दूसरे कोने में पैर फैलाकर बैठ गये। एक की आवाज आ रही थी, ‘ये बोगी अपने लिए अच्छी, उधर कोने में बैठने का।’

दूसरा बोला, ‘बिल्कुल सही।’ उसने चारो ओर निगाह डाली तो सात-आठ पचास-पच्चपन की आयु के पुरुष थे। उन्हें देखते हुए एक ने गले में लटका तौलिया निकाला और शीट पर फटके मारते हुए बोला, ‘अब हिलने का नहीं यहां से। कसारा तक यहीं बैठेंगे और देख पक्या, ‘उस पाटिल को कह दे सीधे-सीधे रुपये मेरे हवाल कर दे, नहीं तो सारा का सारा खानदान किधर चला जायेगा पता भी नहीं चलेगा। साला हमको क्या समझा? अपुन ने अपने भाई को नहीं छोड़ा, तो पाटिल कौन-सी चीज है? अपने लीडर-वीडर से डरने का नहीं। साले को चीर डालूंगा।’

ये संवाद सुनते ही शिक्षक जागे और पसीना पोंछना शुरू कर दिया। कुछ हिम्मत बटोर के सम्भल कर बैठ गये।

दबंग आगे बोलने लगा, ‘अबे पक्या, उस बामण को भी समझा देना कढीचट को, मैं पिछले दो साल से दो-दो रामपुरी रखता हूं। तूने देखी की नहीं?’

पक्या बोला, ‘भाऊ, वो पाटिल अपने आप रुपये ला देगा।’

तभी भाऊ ने जेब में से ताश की गड्डी निकाली, ‘ले पक्या, पिस जरा पत्तों को। जरा दिमाग ठंडा कर लूं।’

थोड़ी देर बाद अगला स्टेशन खडावली आया। इसमें पेसेंजर तो नहीं चढ़े लेकिन एक काले कोट वाला, नाक पर चश्मा चढ़ाये टी.टी. जरूर इनकी बोगी में चढ़ा। उसने बोगी के चारो ओर चश्मे के ऊपर से निगाह डाली। बोगी दो ग्रुपों में बटी थी। एक तरफ शिक्षकों का झूंड था दूसरी तरफ भाई पक्या एंड पार्टी। ये पैर फैलाये ताश खेल रहे थे। टी.टी. पहले उन्हीं के पास गया। वह समझ रहा था कि ये जो समझदार यात्री दिखाई दे रहे हैं। ये तो ईमानदर लग रहे हैं। इनसे तो बाद में भी निपटा जा सकता है। वो पक्या वाली टोली के पास पहुंचा। उसके एक हाथ में रसिद बुक थी और दूसरे हाथ में पेन। उसने पूछा, ‘टिकट बताओ?’

‘हमारे पास टिकट विकट कुछ नहीं है।’

‘तो अगले स्टेशन पर तुम्हें उतरना पड़ेगा।’

‘टी.टी. साहब, शान्ति रखो वर्ना अगले स्टेशन पर तुम्हें उतरना पड़ेगा।’

‘क्या कहा मुझे उतरना पड़ेगा?’

‘हां, तो जबरदस्ती करोगे तो क्या हम उतरेंगे?

‘देखो एक तो तुम्हारे पास टिकट नहीं है, और ऊपर से तुम धमका रहे हो अलग।’

‘इसको धमकाना नहीं समझो साहब, आपको हम साहब-साहब कर रहे हैं।’

‘तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा।’

‘पक्या क्या नाम है भाई इनके कोट पे?’ वह खड़ा होकर पढ़ते हुए बोलने लगा, ‘पक्या, इनका नाम वसंत नेने है। नेने साहब पिछले पांच साल में अपुन ने कोई टिकट लिया है। हमको तो याद नहीं।’

‘एक तो बगैर टिकट जा रहे हो और फिर शेखी बघार रहे हो।’

इस वार्तालाप को देखकर शिक्षकों के कान खड़े हो गये। सभी अपने-अपने जेब में हाथ डालने लगे। कुछ मुट्ठियां भींचने लगे।

टी.टी. ने फिर संभलकर कहा, ‘तुम्हें अगले स्टेशन उतरना होगा?’

अब पक्या बोल पड़ा, ‘तुम्हारा क्या, हमारा बाप भी हमें कसारा से पहले कोई उतार नहीं सकता। आपने अब इस बात को ज्यादा बढ़ा दिया है तो फिर.....’

उसको बोलने से रोकते हुए उसका लीडर बोला, ‘हमारे टी.टी. साहब वसंत नेने अच्छे आदमी हैं।’

पक्या ने जवाब दिया, ‘भाऊ कैसे अच्छे आदमी हैं बार-बार धमकी दिये जा रहा है। टी.टी. साहब आपने वसंत ऋतु के हिसाब से नये-नये खुश्बू वाले फूलो की तरह बोलना चाहिए। अपनी हालत को देखो। जरा-सा जोर से बोल दूंगा तो पैंट गीली हो जायेगी। तुम कैसे बोल रहे हो कि हमको उतार देंगे। तुमको पता है इस लोकल ट्रेन में दरवाजा भी नहीं है। कितनी देर लगेगी लुढ़काने में?’

अब नेने को थोड़ा सा पछतावा होने लगा कि बात बेवजह बढ़ा दी इन दबंगों से। ये गुंडे हैं, दबंग है, बेशर्म हैं। चाकू-छूरे लेकर घूमते है। कुछ भी कर सकते हैं। मन ही मन अपनी हार मानते हुए टी.टी. पलट गया, तो देखा शिक्षक सांस रोके बैठे थे। तभी भाई ने पक्या से कहा, ‘पक्या काई को रामपुरी निकाल रहा है यार वसंत नेने साहब बहुत भले आदमी हैं हो जाती है गलती।’

टी.टी. वसंत नेने मन ही मन बुदबुदाते हुए शिक्षकों की तरफ घुम गये। धीरे-धीरे कदम बढ़ा ही रहे थे कि प्रिंसिपल बेडेकर ने भाई की ओर इशारा करते हुए जोर से बोला, ‘पक्या भाई टी.टी. को बोलो हम भी आपके साथ हैं। फिर क्या सबने एक साथ घोषणा की, ‘हम भी पक्या के साथ हैं।’

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रचनाकार: हास्य - व्यंग्य - कहानी // हम भी पक्या के साथ हैं // सुरेश खांडवेकर
हास्य - व्यंग्य - कहानी // हम भी पक्या के साथ हैं // सुरेश खांडवेकर
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