वार्तालाप एवं आत्म-कथ्य // महेन्द्र भटनागर साक्षात्कार प्रगतिवादी-जनवादी कवि महेन्द्रभटनागर से प्रद्युम्नसिंह आपने आज़ादी बाद से अब तक के का...
वार्तालाप एवं आत्म-कथ्य // महेन्द्र भटनागर
साक्षात्कार
प्रगतिवादी-जनवादी कवि महेन्द्रभटनागर से
प्रद्युम्नसिंह
आपने आज़ादी बाद से अब तक के काव्यान्दोलनों और साहित्यिक विकास व परिवर्तनों को देखा है आपका रचनाकाल 1941 से प्रारम्भ हुआ तब से अब तक के इस विहंगम परिदृष्य में आप क्या-क्या परिवर्तन देखते हैं?
जुलाई 1941 में, उच्च-शिक्षा ग्रहण करने हेतु ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर में प्रवेश लिया। इस समय मेरी उम्र 15 वर्ष की थी। महाविद्यालय में विद्वान प्रोफ़ेसरों और साहित्यिक रुचि रखने वाले वरिष्ठ प्रबुद्ध सहपाठिओं के सम्पर्क में आया। द्वितीय विश्व-युद्ध और भारतीय स्वाधीनता संग्राम का चश्मदीद गवाह रहा। ग्वालियर के उपनगर मुरार में रहता था; जहाँ ब्रिटिश फ़ौज का अड्डा था। उस तरफ़ अक़्सर निकल जाया करता था। अंग्रेज़ सैनिक और अंग्रेज़ वेश्याएँ सड़क के इर्द-गिर्द नज़र आने पर ख़ून खौल उठता था। अपने मित्रों के साथ मिलकर षड्यंत्रा की रूपरेखा बनाता। कवि रघुनाथ सिंह चौहान उन दिनों मेरे घनिष्ठ मित्रा थे। हम दोनों साथ-साथ साइकिल पर ‘विक्टोरिया कॉलेज’ जाते - लगभग 6-7 किलोमीटर दूर। अभिप्राय यह है कि जब मैंने बाहर की दुनिया में प्रवेश किया; समग्र परिवेश राष्ट्रीय चेतना से उद्बुद्ध था। तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि ने मेरे कवि-व्यक्तित्व को आकार दिया। मेरा छह-वर्ष का लेखन स्वतन्त्रता-पूर्व का है; शेष स्वातंत्रयोत्तर। हिन्दी-काव्यान्दोलनों की दृष्टि से इस युग में चार प्रकार की काव्य-रचना समानान्तर चल रही थी। छायावाद का प्रभाव कम नहीं हुआ था। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी की काव्य-कृकतियाँ पाठ्य-क्रमों में निर्धारित थीं। प्रगतिवाद तीव्रता से उभर रहा था। पंत और निराला ने प्रगतिवादी काव्य-धारा को गति दी। इस युग में राष्ट्रवादी काव्यधारा का भी प्रभाव भरपूर था। मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ सुभद्राकुमारी चौहान, दिनकर आदि बलिपंथियों को बल पहुँचा रहे थे। इसी युग में, छायावादोत्तर गीति-काव्य की सहज-प्रांजल रचना लोकप्रिय हो रही थी। बच्चन, सुमन, नेपाली मेरे प्रिय कवि थे। प्रगतिवादी कवियों में, पंत और निराला ने ही नहीं; भगवतीचरण वर्मा, जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द, केदारनाथ अग्रवाल, सुमन, अंचल, नरेन्द्र शर्मा आदि ने जन-साधारण के सुख-दुख और उनके संघर्ष को वाणी दी। जन-संस्कृति का प्रतिबिम्ब प्रगतिवादी कविता को विशिष्ट और देशज बनाता है। तत्पश्चात् प्रयोगवादी कविता, नयी कविता, और जनवादी कविता प्रमुख रूप से चर्चित रहीं। काव्याभिव्यक्ति के अनेक अभिनव रूप दृग्गोचर हुए। संवेदना के साथ, विचारों एवं बौद्धिकता को भी कविता में महत्वपूर्ण स्थान मिला।
प्रश्न - 2- शुरूआती प्रगतिशील कविता और अब की जनवादी कविता में क्या अन्तर देख रहे हैं?
विशेष अन्तर नहीं। प्रारम्भ में प्रगतिशील कविता का क्षितिज अधिक व्यापक था। उसके परिप्रक्ष्य में सम्पूर्ण विश्व था। हिन्दी रचनाकार विदेश की गतिविधियों से प्रभावित होते थे; उन पर लिखते थे। इन दिनों वैसा लगाव दृग्गोचर नहीं होता। पूर्व में, सोवियत संघ, चेकोस्लोवेकिया, चीन, उत्तरी कोरिया आदि साम्यवादी देशों के संघर्ष और विकास में प्रगतिशील रचनाकरों की दिलचस्पी रही। इसका कारण, साम्यवादी देशों में हुए बदलाव हैं। चीन की विस्तारवादी नीति है। उत्तरी कोरिया भी विमुख रहा। असहिष्णुता के फलस्वरूप ख़ामोशी बनी रही। हिन्दी / भारतीय जनवादी साहित्य की दुनिया में स्वदेश के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन का लोकधर्मी पक्ष प्रमुखता से प्रतिबिम्बित है। उसमें समसामयिक समाज का बड़ा सशक्त और प्रेरक वर्णन हुआ है, हो रहा है।
प्रश्न 3- आपके दौर में प्रयोगवाद और रूपवाद का बोलबाला रहा क्या आप इस दौर से प्रभावित हुए अगर हुए तो किस रूप में?
कविता में नये-नये प्रयोगों का मैं समर्थक रहा हूँ; लेकिन ‘प्रयोगवाद’ का नहीं। प्रयोगवादी कविता में अधिकांश प्रयोग हासास्पद हैं। प्रयोगवादी कविता जन-साधारण की कविता नहीं।
प्रश्न 4- मैंने देखा कि आपके गीतों में प्रयोगशीलता है। मनोवैज्ञानिक चिन्तन का भी अक़्स है कृ भले वह वैचारिक सरोकारों के साथ आया हो। क्या इसे हम प्रयोगवाद का प्रभाव कह सकते हैं?
जी हाँ, प्रयोगशीलता है; किन्तु ‘प्रयोगवाद’ का प्रभाव नहीं। काव्य में मनोवैज्ञानिक चिन्तन; एक गुण है।
प्रश्न 5- गीत-नवगीत परम्परा हिन्दी में काफ़ी समृद्ध रही। साठ के दशक ने बड़े नवगीतकार हिन्दी को दिये। लेकिन, साठ के बाद हिन्दी-आलोचना ने गीत-नवगीत को उपेक्षित करना आरम्भ किया। इसके क्या कारण रहे?
इसका कारण बौद्धिकता और वैज्ञानिक प्रगति है। गीत-नवगीत के तत्त्वों में विचार-तत्त्व ने भी अपना स्थन बना लिया है। कोरी भावुकता इतनी प्रभावक नहीं बन सकती।
प्रश्न 6- हिन्दी की अकादमिक आलोचना ने लोकधर्मी वैचारिक लेखन को उसके फार्मेट के आधार पर दोयम दर्ज़े की संज्ञा दी। इसका कारण क्या था? राजनीतिक था अथवा हिन्दी में बढ़ती व्यक्तिवादी पुरस्कारवादी प्रवृत्ति है?
कारण राजनीतिक हैं। पूँजीवादी वर्ग की स्व-अस्तित्व-रक्षा की असफल कोशिश है।
प्रश्न 7- महेन्द्रभटनागर, हरीश भादानी , कैलास गौतम , गोरख पाण्डेय जैसे बड़े जनवादी गीतकार जो किसी भी पुरस्कृत और सम्मानित कवि से कम नहीं रहे। आखि़र कार इनकी उपेक्षा से साहित्य / कविता का ही नुक़्सान हुआ; ऐसा आप मानते हैं?
उपेक्षा बेमानी है। उपेक्षा अधिकतर जानबूझकर की जाती है। कुछ व्यक्तिगत कारणों से। कुछ अनधिकृत पात्र भी आलोचक बन जाते हैं / बनना चाहते हैं। कुछ आलोचक अनपढ़ होते हैं। कुछ ग़ैरज़िम्मेदार। रचनाकार किसी का मुहताज़ नहीं होता। रचना-कर्म हर कोई नहीं कर सकता। उसकी रचना का स्तर उसकी जन्मजात प्रतिभा, उसके संस्कार, उसके अध्ययन-अभ्यास पर निर्भर करता है।
प्रश्न 8- विचारधारा और प्रतिबद्धता कृ इन शब्दावलियों पर अकादमिक आलोचना का मत है कि जो गीतकार और गज़लकार हैं, वे कला पर अधिक ध्यान देते हैं - लिहाज़ा वे प्रतिबद्ध नहीं होते। क्या आप भी ऐसा मानते हैं?
नहीं।
प्रश्न 9- गीत और गज़ल ऐसी विधाएँ हैं; जो कविता को सीधे जनता से जोड़ती है। आज कविता महज़ पाठ्यक्रम की वस्तु हो गयी है्। जनता कविता नहीं पढ़ रही। इसका दोष आप किसे देंगे?
दोष, अधिकांश तथाकथित कवियों को। समय के चलने में कविता को छनने दीजिए। सार बचेगा; थोथा उड़ जाएगा।
प्रश्न 10 - जब प्रलेस का विभाजन हुआ और जलेस नामक लेखक-संगठन बनाया गया उस समय बडे लेखक जलेस से जुड गये थे। यह विभाजन वैचारिक सरोकारों के लिए था कि लेखकीय सरोकारों के लिए कि लेखकों की आपसी राजनीति थी?
अनावश्यक था। वैचारिक सरोकारों से तो कोई वास्ता नहीं।
प्रश्न 11- आपने बहुत लिखा। हर तरह की काव्य-रचना की। आप पर खूब लिखा गया। फिर भी; बड़े आलोचक आपको महज़ गीतकार मानते रहे - आपको ‘कवि’ नहीं माना गया। क्यों?
‘महज़ गीतकार’ की मान्यता - ऐसा तो नहीं।
प्रश्न 12- आप एक्टिविस्ट थे , संगठन से जुड़े थे। आपने कभी आलोचना और कविता की इस भेदभावपूर्ण राजनीति के खिलाफ़ आवाज़ उठाई ? अगर उठाई तो उसका प्रभाव किस तरह का रहा?
शायद ही कभी।
प्रश्न 13 आप शिवकुमार मिश्र के पसंदीदा कवि रहे हैं। उन्होंने आपके काव्य-कर्तृत्व पर पर्याप्त लिखा है। उनके साथ आपका कोई संस्मरण हैं?
उनके एकाधिक आलेख मेरी काव्य-रचना पर उपलब्ध हैं; जो सम्पादित समीक्षा-पुस्तकों में समाविष्ट हैं। जब नंददुलारे वाजपेयी ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के कुलपति थे; उनसे उज्जैन में मिलना होता था। वहाँ मैं हिन्दी-विभाग (माधव महाविद्यालय) का अध्यक्ष था। कुछ समय विश्वविद्यालय के ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ का अध्यक्ष भी रहा। शिवकुमार जी बड़े उत्साहपूर्वक मिलते थे।
प्रश्न 14- आप आजीवन लेखक-संगठन में रहे और सक्रिय भी रहे। लेखक-संगठन एक लेखक के विकास में कितना योगदान करता ह?ै
लेखक-संगठन में शामिल रहने से रचनाकार सक्रिय और अनुशासित रहता है। प्रतिभाशाली रचनाकार लेखक-संगठन को दिशा देने की क्षमता भी रखते हैं। फलस्वरूप, जब-तब सैद्धान्तिक विमर्शों का भी उभरना देखा जाता है। लेखक जड़ नहीं होता। इससे विचारधारा का विकास होता है।
प्रश्न 15- आप सबसे अच्छा गीतकार किसे मानते हैं? आपकी नज़र में कविता और गीत दोनों में फ़र्क क्या है ? गीत और कविता में भेद करना कहाँ तक उचित है?
बच्चन, नेपाली, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, वीरेन्द्र मिश्र, नचिकेता, आदि। कविता विषय-प्रधान होती है। उसमें वर्णन की प्रमुखता पायी जाती है। गीत में निहित भावावेश, कला-सौष्ठव, संगीतात्मकता, सहजता-सरलता आदि विशेषताओं से सहृदय भावक आकर्षित-प्रभावित होते हैं।
प्रश्न 16- आपको ‘मानबहादुर सिंह सम्मान” दिया गया है - यह वरिष्ठ लेखकों का सम्मान है। आप पर युवा आलोचक लिख-पढ रहे हैं। लम्बी काव्य-यात्रा के बावज़ूद जब आपका नाम अकादमिक आलोचना ने भुला दिया थारू महेन्द्रभटनागार का अचानक प्रासंगिक हो जाना - पुनः चर्चा होना - आपको कैसा महसूस हो रहा है?
अनुभव तो सुखद है; किन्तु ऐसा भी नहीं, अप्रासंगिक हो गया! इस संदर्भ में मेरा ‘स्व-वृत्त’ दृष्टव्य है। प्रचार की दुनिया से सदा दूर रहा। यात्रा-भीरु होने के कारण, यात्राएँ करता नहीं। कार्यक्रमों / कवि-सम्मेलनों / गोष्ठियों में भाग लेता नहीं। प्रस्तुति की कला जानता नहीं। जो लिखा चौराहे पर फेंक दिया। जिसे देखना-पढ़ना हो। सामने बैठकर स्व-प्रशंसा सुनना अच्छा नहीं लगता! ग्लानि होती है। सचाई यह है :
ज़िंदगी में याद रखने योग्य कुछ भी तो हुआ नहीं
बद्दुआ जानी नहीं, पायी किसी की भी दुआ नहीं
अजनबी-अनजान अपने ही नगर में मूक हम रहे
शत्रुता या मित्रता रख कर किसी ने भी छुआ नहीं!
प्रश्न 17 - इस चर्चा और परिचर्चा का श्रेय आप किसे देगें?
चयन / निर्णायक समिति के सदस्यों को ही श्रेय देना होगा।
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