संस्मरण श्रृंखला डोलर - हिंडा लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित [प्रारम्भिक शिक्षा विभाग के संस्मरणों के आधार पर तैयार की गयी पुस्तक ] प्रथम स...
संस्मरण श्रृंखला
डोलर - हिंडा
लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
[प्रारम्भिक शिक्षा विभाग के संस्मरणों के आधार पर तैयार की गयी पुस्तक ]
प्रथम संस्करण २०१८
इंसान की ज़िन्दगी डोलर हिंडे के माफ़िक है, जैसे यह डोलर हिंडा कभी आरोह स्थिति में आता है और कभी वह अवरोह स्थिति में। उसी तरह, मानव कि ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कभी पैसा आता है, तो कभी चला जाता है। मगर, इन्सान को अपना मनोबल कायम रखना ही बेहतर है। - रवि रतलामी [सम्पादक, ई पत्रिका ‘रचनाकार’]
प्रकाशक - राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन, अँधेरी-गली, आसोप कि पोल के सामने, जोधपुर [राजस्थान].
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२९/१०/१८
“डोलर हिंडा”
डोलर हिंडा का मफ़हूम है, ऐसा झूला जो गतिमान है...कभी यह झूला आरोह स्थिति में आ जाता है, तो कभी वह अवरोह स्थिति में। यह डोलर हिंडा इस तरह डोलकर, इंसानी ज़िंदगी की गति का प्रतीक बन जाता है। कभी आर्थिक सम्पन्नता, तो कभी आर्थिक विपन्नता। इन्सान के पास एक मात्र ताकत है, वह है आत्मबल। जिसको पाकर इंसान, हर प्रतिकूल स्थिति का मुक़ाबाला करता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि, यह डोलर हिंडा इंसान को जीने का राह दिखलाता है। श्री दिनेश चन्द्र पुरोहित द्वारा लिखी गयी संस्मरणों के आधार पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर हिंडा” हास्य और व्यंग से भरपूर है, इनका प्रयास सराहनीय है। मैं इनके लेखन कार्य की भूरी-भूरी प्रशंसा करता हूँ।
रवि रतलामी [संपादक]
ई पत्रिका “रचनाकार”
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भूमिका
लेखक की कलम से...
पाठकों।
मेरे लिखे गए कई मारवाड़ी, हिंदी और उर्दू नाटक और कहानियां आपने पढ़ी है। इसके बाद, अब मैं आपके सम क्ष ‘जिला शिक्षा अधिकारी [प्रारम्भिक शिक्षा] पाली के हंसी-मज़हाक़ के संस्मरणों’ को आधार बनाकर हास्यास्पद पुस्तक प्रस्तुत कर रहा हूं। मक़बूले आम बात है, एक डोलर हिंडे की तरह इस दफ़्तर में कई उतार-चढ़ाव आये। इन उतार-चढ़ाव के सन्दर्भ में, मैंने कई हास्य घटनाएं देखी है..उन सब हास्य घटनाओं को इस पुस्तक में शामिल किया, उन घटनाओं को पढ़कर आप ख़ूब हसेंगे।
इस पुस्तक के कुल २५ अंक हैं, इसका हर अंक हास्य के अलग और नए रूप पर रौशनी डालता है। मुझे आशा है, आप इस पुस्तक को ज़रूर पढेंगे। इस पुस्तक का हर अंक, ई पत्रिका “रचनाकार” में नियमित प्रकाशित हो रहा है। मुझे आशा है, “आप हर अंक को पढेंगे और एक टिप्पणीकार की तरह ‘’रचनाकार’’ ई पत्रिका में अपने विचार ज़रूर प्रस्तुत करेंगे।”
जय श्याम री।
दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक]
ई मेल
dineshchandrapurohit2@gmail.com
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अनुक्रम –
[कुल २५ अंक]
[१] म्युज़िक चेयर
[२] सहायक किसका
[३] तिगनी का डांस
[४] अहमदिया की टोपी महमूदिया के सर, महमूदिया की टोपी अहमदिया के सर..
[५] प्रशिक्षण
[६] लखटकिया
[७] हो गया कबाड़ा
[८] नीम का पेड़
[९] नीम चढ़ा करेला
[१०] तारे गिनों भाई
[११] ग़लती कहाँ की
[१२] बुढ़ऊ
[१३] पहला नशा
[१४] लीडरी
[१५] पांच भाई का क़ारनामा
[१६] भाषण बनाना सुदर्शन बाबू का, जीतना ठाकुर साहब का
[१७] फड़सा पार्टी
[१८] भेंगी आँखों वाला यानि बाडा
[१९] ईर्ष्यालु
[२०] मुख्बिरी
[२१] तू डाल-डाल, मैं पात-पात
[२२] धोबी-पाट
[२३] अच्छा नागरिक
[२४] सुल्तान एक दिन का
[२५] डोलर हिंडा
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डोलर हिंडा
अंक एक “म्युज़िक चेयर”
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
हवाई बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर जिला शिक्षा अधिकारी [प्रारम्भिक शिक्षा] का दफ़्तर होना, कार्यालय सहायक माननीय पंडित घीसू लाल के लिए अनुकूल न रहा। रोज़ सीढ़ियां चढ़ना और वापस उतरना, उनके लिए आफ़त से कम नहीं। बेचारे पंडित साहब का कोमल बदन इस आफ़त को बर्दाश्त न कर पाया, और जनाब बन गए रक्तचाप के मरीज़। इधर दवाइयों का ख़र्च बढ़ता गया, और अतिरिक्त चिकित्सा बज़ट देने के मामले में सरकार हो गयी मौन। इसके बिना, बेचारे पंडितजी महाराज को कैसे मिले राहत ..? चिकित्सा बिलों की तदाद बढ़ जाने से, बेचारे पंडितजी का रक्तचाप और बढ़ गया। जेब में पैसे हो तो बीमारी आराम करने का कारण बन जाती है, मगर यहाँ तो महंगी-महंगी दवाइयों के बिल चुकाते-चुकाते बेचारे बेहाल हो गए। उन्होंने दफ़्तर के लोगों को कई बार, सरकारी यात्रा का कार्य देकर हेड दफ़्तर बीकानेर भेजा। और साथ में हिदायत देकर कि, वे साथ में चिकित्सा का अतिरिक्त चिकित्सा बज़ट लेते आये। मगर हाय अल्लाह, यह कैसी उनकी बदक़िस्मती..? कई प्रयास करने के बाद भी, उनको चिकित्सा के अतिरिक्त बज़ट के दीदार नहीं हुए। फिर क्या ? बेचारे पंडितजी रूहानी इल्म रखने वाले साधु-संत और मज़ारों के दर पर मत्था टिका आये, मगर हुआ क्या ? वही ढ़ाक के पत्ते तीन, और क्या ? बेचारे चिकित्सा बज़ट के दीदार के लिए, तरस गए। बेचारे पंडितजी का बालाजी के सिन्दूर चढ़ाना, मस्तान बाबा की मज़ार पर मत्था टेक आना वगैरा सभी उपाय काम नहीं आये। अब यहाँ तो पंडितजी को मुसीबत ने आ घेरा, रक्तचाप घटने के स्थान पर हिन्दुस्तान की आबादी की तरह वह बढ़ता गया।
एक दिन इसी तरह जनाब का रक्तचाप बढ़ गया, मगर यह रक्तचाप दफ़्तर का जीना चढ़ने से नहीं...बल्कि, किसी अज़नबी गली में दाख़िल हो जाने से...! क्या कहें, इन पंडित साहब को ? जनाब का ख़्याल यही रहा कि, ख़ाकी वर्दी पहनने से लोगों पर उनका रौब ग़ालिब होता है। मगर यहाँ उनको ख़ाकी वर्दी पहने देखकर, गली के भंडारियों ने उनको पुलिस कर्मी समझ लिया..और बेहताशे भौंकते हुए, उनके पीछे पड़ गए। फिर क्या ? दौड़ते हुए उनको एक मकान का दरवाज़ा खुला मिला, फिर क्या ? तपाक से पंडित साहब, उस मकान के अन्दर दाख़िल हो गए...और, फटाक से दरवाज़े का कूठा लगा डाला। उनको भय था कि, ये भंडारी कहीं अन्दर दाख़िल न हो जाय ? मगर यहाँ तो कूठे की आवाज़ सुनकर, एक लम्बे कद का आदमी अपनी लुंगी थामे वहीँ आ गया...उस दीवान ख़ाने में। और वे सज्जन, रौबीली मगर कुछ कड़वी आवाज़ में बोल उठे “क्यों जनाब, यह कैसा है आपका मिज़ाज़-ए-शरीफ़...? भूल गए, शरीफ़ लोगों के घरों में उनकी इज़ाज़त लेकर अन्दर तशरीफ़ रखते हैं।”
उस आदमी की आवाज़ सुनकर, पंडित घीसू लाल सहम गए। फिर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, और उसकी शक्ल-सूरत देखकर बेचारे और ज़्यादा सहम गए। श्याम वर्ण का, चेहरे पर चेचक के दाग, बदन पर बनियान और इस्लामी लुंगी..ऐसा तो व्यक्तित्व किसी गुंडे-मवाली का हो सकता है। अब उनको अपनी ग़लती समझ में आयी कि, ‘बिना इज़ाज़त लिए, वे किसी अज़नबी के घर में क्यों दाख़िल हुए ?’ इस जुर्म की जानकारी, होते ही बेचारे घबरा गए और फ़िक्र के मारे वे पसीने से नहा गए। उनकी शक्ल देखकर वह अज़नबी मुस्कराया, और फिर उनका हाथ थामकर दीवान ख़ाने में रखी कुर्सी पर बैठाया। फिर ख़ुद पहलू में रखी कुर्सी पर आसीन होकर, बोल उठे “भाईजान आप आराम से बैठिये, ऐसा लगता है आपकी तबीयत कुछ नासाज़ है ..?” सहानुभूति के दो बोल पाकर, जनाब घीसू लाल को रहत मिली। उन्होंने जेब से रुमाल निकाला, और ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को साफ़ किया। फिर लम्बी सांस लेकर, कहने लगे “भाई साहब, संध्या हो गयी। अँधेरे में, मुझे नज़र कम आता है। इसलिए जल्दबाजी में, मैं अपनी गली छोड़कर आपकी अनजान गली में घुस गया...और मेरी ख़ाकी वर्दी को देखकर, आपकी गली के कुत्ते मेरे पीछे लग गए। हुज़ूर, किसी तरह अपनी जान बचाकर यहाँ आया हूँ। इधर, यह तक़लीफ़ देह ब्लड-प्रेसर का अलील जो ठहरा...”
तसल्ली से बैठने के बाद, जनाब घीसू लाल ने उस अज़नबी के चेहरे को घूरकर देखा.. और उनको यह चेहरा कुछ जाना-पहचाना लगा। इस कार्यालय में रहते, उनको बिता हुआ वह वक़्त याद आ गया, जब इन्होंने इसी महानुभव से चार्ज हासिल किया था। अब वे जान गए, कि “ये आली जनाब तो उपनिदेशक दफ़्तर के, कार्यालय अधीक्षक जनाब सोहन लाल हैं।” इनके बारे में, उनको एक जानकारी और याद आ गयी कि “आज़ वे जिस कुर्सी पर आसीन है, पहले कभी ये साहब बहादुर इसी कुर्सी पर बैठा करते थे...यानी इनके आने के पहले, ये जनाबे आली इसी दफ़्तर में कार्यालय सहायक का काम करते थे। उनको पहचानते ही, वे ख़ुशी से बोल उठे “वाह दवे साहब, लम्बे अरसे बाद मिले भी, तो ऊपर वाले ने किस स्थिति में मिलाया हमें। अरे क्या कहूं यार, आपके दर्शन तो दुर्लभ हो गए। कई बार सोचा, उपनिदेशक कार्यालय में आपसे मिलता जाऊं..मगर यार... ?”
“अरे जनाब, हम तो पदोन्नति पाकर चले गए उपनिदेशक कार्यालय जोधपुर। और फिर ..यह रोज़ का आना-जाना..रोज़ पाली से जोधपुर, और जोधपुर से पाली... इस रोज़ आने-जाने के लपड़े में फंसकर, कैसे आपसे मुलाक़ात होती ? अब हमारे सितारे चमके, और आपके दीदार हो गए...अब आपको एक सलाह देता हूँ, हुज़ूर। मानना या न मानना आपका काम। बस, आप यह दफ़्तर छोड़ दीजिये। करवा लीजिये अपना तबादला, कहीं और।” सोहन लाल बोले।
“क्यों भाई, ऐसी क्या बात है ? ख़ूब पापड़ बेले हैं, इस दफ़्तर में आने के लिए...और जनाब फ़रमा रहे हैं, इसे छोड़ दूं ..? घीसू लाल खिसियाकर, बोल उठे।
“अरे घीसू लाल मेरे दोस्त, ज़रा मामले की नज़ाकत को समझो। क्या, आप जानते नहीं ? आपकी बीमारी का पथ्य औषधि नहीं, यह कुर्सी है। वह भी इस शापग्रस्त दफ़्तर की, कुछ समझ में आया पंडितजी ? आपको सुखी रहना है तो, इस दफ़्तर को छोड़ना ही होगा।” उनको समझाते हुए, सोहन लाल ने कहा।
“वाह दवे साहब, मैं कोई देश का प्रधान मंत्री तो हूँ नहीं...जिसकी बीमारी कुर्सी से जुड़ी हो।” घीसू लाल शंका दर्शाते हुए, परिहास करते बोल उठे।
“अरे यार घीसू लाल, आप तो भय्या ज़रा सी बात पर नाराज़ हो गए..? आपके जैसे महानुभाव के बारे में ऐसी बात सोचने की, मुझमें कहाँ है ऐसी क़ाबिलियत ? जिस महानुभव के पीछे, गली के कुत्ते पड़े हों ? अरे जनाब, प्रधान मंत्री के पीछे लगे रहते हैं, चमचे रूपी नेता..न कि, कुत्ते।” सोहन लाल अपने लबों पर तबस्सुम बिखेरते हुए बोल उठे, फिर जनाब को अचानक ज़र्दा चखने की तलब हुई..झट उन्होंने टेबल पर रखी ज़र्दे की पेसी [ज़र्दा और चूना रखने कि डिबिया] उठाई और उसमें से ज़र्दा और चूना बाहर निकालकर, उसे हथेली पर रखा। फिर, अंगूठे से उस मिश्रण को मसलने लगे। बाद में उस मिश्रण पर, थप्पी लगाने लगे..थप्प, थप्प।
ज़र्दे कि सुरम्य सुगंध होती भी ऐसी, चलती रेलगाड़ी के गार्ड साहब उसकी सुगंध पाकर रेलगाड़ी को रुकवा देते हैं। और जनाब वहां पहुँच जाते हैं, जहां इस मिश्रण पर थप्पी लगायी जा रही हो। बस, फिर तो भय्या ? इस ज़र्दे कि महक़ पाकर, हमारे पंडित घीसू लाल बहक गए। और भूल गए, अच्छे ख़ानदान की तहज़ीब। बिना सोचे और बिना कहे, जनाब ने झट आगे हाथ बढ़ा दिया..उस सुरम्य सुर्ती को उठाने। फिर क्या ? उस सुर्ती को उन्होंने जैसे ही अपने लब के नीचे दबाया, और जनाब की दबी ज़बान खुल गयी। फिर क्या ? जनाब चहकते हुए, बोल उठे “देखिये सोहन लाल, आप जो चाहें कह दीजिये मुझे। मगर, मुझे अब इस बीमारी से छुटकारा लेना ही है। आप तो मुझे, इस बीमारी से छुटकारा पाने का इलाज़ बताइये। अब तो भय्या, इस बीमारी को झेलना नाक़ाबिले बर्दाश्त हो गया है । न तो जनाब, मुझे इस्तीफ़ा देकर गाँव जाना होगा और वहां कृषि कार्य करता हुआ शेष जीवन वहीँ बिताना होगा। बस मेरे दोस्त, अब कुछ भी बर्दाश्त नहीं हो रहा है।”
इतना कहकर, जनाब उठे और जाकर बाहर पीक थूक आये। वापस कुर्सी पर तशरीफ़ आवरी होकर, आगे बयान करने लगे “अरे जनाब, क्या बयान करूँ आपसे ? तीन मंजिल ऊपर सीढ़ियां चढ़कर जाता हूँ, इस छाती में सांस समाती नहीं। कुर्सी पर बैठने के पहले ही वहां खड़े ये गुरुजन अपना रोना शुरू कर देते हैं। किसी को छुट्टियों की मंजूरी लेनी है तो, किसी को बकाया बिलों का भुगतान ...? और इधर, टेलिफ़ोन की बेरहम घंटी बज उठती है। और उधर, बड़े साहब की घंटी बज उठती है। तभी यह कमबख़्त चपरासी मेरे पास आकर बोल उठता है, ‘बड़े साहब ने बुलाया है, आपको।’ सांस तो अभी थमी नहीं, ऊपर से इतने सारे ज़वाब देना..? आप ही बताओ, यार। क्या-क्या...करूँ, मैं ?”
“हिम्मत रखो, घीसू लाल। हिम्मत ही मर्द की निशानी है। आप क्यों भूलते हैं...? इस सीट पर, मैं भी कभी बिराज़मान था।” इतना कहकर सोहन लाल टेबल पर रखे पीकदान में पीक थूक डाली, फिर आगे ज़रा गंभीर होकर कहते गए “जानता हूं, इतिहास इस दफ़्तर का..कैसे यह दफ़्तर इस बिल्डिंग में आया, और क्यों आया ? क्या उस वक़्त कोई दूसरी बिल्डिंग किराए पर नहीं मिलती..क्या ? बस, आप समझ लीजिये..इन सभी सवालों के ज़वाब मेरे पास है। जानते हो, इस दफ़्तर पर शाप लगा है ? यहाँ कोई लम्बे समय तक, टिककर नहीं रह सकता। बस डोलता रहेगा, डोलता रहेगा...कभी ऊपर, तो कभी नीचे....डोलर हिंडा की तरह। अब आपको कैसे समझाऊं कि, इस दफ़्तर में कोई ज़िला शिक्षा अधिकारी दो साल से अधिक क्यों नहीं टिकता ? इस दफ़्तर में बेचारे ऐसे लाचार ज़िला शिक्षा अधिकारी आये, जिनको नीचे चाय की होटल पर बैठकर दफ़्तर के काम निपटाने पड़े। क्या करते, बेचारे ? इतनी सारी सीढ़ियां उनसे चढ़ी नहीं जाती, बस बेचारों को मज़बूरन यात्रा-प्रोग्राम बढ़ाना पड़ता।”
इन दोनों को क्या मालुम कि, “गुफ़्तगू करते-करते सांझ गिर गयी, और बाहर गली में कुत्ते भौंककर सांझ होने का एलान करते जा रहे हैं।” कुछ क़दम दूर आये शिव मंदिर में, इकट्ठी औरतें ज़ोर-ज़ोर से बेसुर में आरती गाने लगी। उनके बेसुर और बिगड़े ताल-लय से, सोहन लाल के कान पक गए। उनको यह बेसुरी आवाज़ बर्दाश्त न हुई, और उन्होंने झट उठकर खिड़की बंद कर डाली। फिर धम्म से पसर गए, सोफ़े पर। कमरे में नीरवता छा गयी, उस शान्ति को भंग करते हुए सोहन लाल ने आगे का किस्सा बयान करने लगे। वे आगे कहते गए कि, “प्रधान मंत्री की योजना अनुसार, “भारत सरकार का पंचायत राज़ को शक्तियां देने का प्रस्ताव, दोनों सदन में ध्वनी मत से पारित हुआ।” इससे राज्य के सभी ग्रामीण उच्च प्राथमिक विद्यालय, ज़िला परिषद् के अधीन कर दिए गए। इस तरह बाली शहर का अतिरिक्त ज़िला शिक्षा दफ़्तर क्रमोन्नत होकर, पाली शहर के ज़िला परिषद् दफ़्तर में जा मिला। इस तरह अब यह दफ़्तर ज़िला शिक्षा अधिकारी [ग्रामीण] के नाम से, जिला स्तरीय कार्यालय बन गया। जो अब, जिला परिषद् के अधीन हो गया। इस दफ़्तर में, ‘कार्यालय सहायक’ का एक पद रिक्त चल रहा था। तब मैं प्रोढ़ शिक्षा दफ़्तर में, प्रतिनुक्ति पर काम कर रहा था। वहां मैं जिस वरिष्ठ लिपिक पद पर कार्य करता था..उस पर मेरा लीन नहीं था यानी मैं उस पद के विरुद्ध प्रतिनियुक्ति पर कार्य करता था। तभी मेरी पदोन्नति हो गयी, इस समाचार ने मेरे जीवन में ख़ुशियाँ ला दी। अब पदोन्नति ज़रूर हुई मगर, मुझे शहर के बाहर किसी अन्य दफ़्तर में पदस्थापन होने का भय सताने लगा। अब मुझे लगा, इस पदोन्नति के कारण ‘कहीं मेरा मूल निवास स्थान पाली शहर, मुझसे न छूट जाए..?’ ईश्वर पर भरोसा करके, हमने ले लिया दो महीने का एक्शटेंशन। फिर हम पाली में रिक्त पद की तलाश में शिक्षा महकमें के हर दफ़्तर के चक्कर काटने लगे, यही हमारी दैनिक दिनचर्या बन गयी। इस दौरान एक दफ़े हम जा पहुंचे, जिला परिषद्। फिर क्या ? वहां आकर सभी कर्मचारियों कि सूरत देखने लगे, है भगवान वहां तो मुझे एक भी ऐसा इंसान नज़र नहीं आया जो मुझे पहचानता हो ? ज़िला परिषद् के सभी कर्मचारी, मुझे अज़नबी लगने लगे। कोई ऐसा माई का लाल नहीं, जो बाहें पसारे हमारा इस्तकबुल करता हो ? तभी मुझे ऐसा लगा, कोई पीछे से मेरा कंधा थपथपा रहा है ? तभी हमारा कन्धा थपथपाने वाले सज्जन हमारे सामने आ गए, हमने उनको देखा...अरे घीसू लाल उनको देखकर मुझे बहुत आश्चर्य क्या, बहुत ख़ुशी हुई। वे आली जनाब हमारे मोहल्ले के, मुअज़्ज़म निवासी वासुदेव आर्य निकले। बड़े ज़ोश के साथ हमें बाहों में भरकर बोले “अरे छोटे भाई, यहाँ कैसे ? बड़ी ख़ुशी हुई, आपके दीदार पाकर। चलो कोई तो मुअज़्ज़म, यहाँ तशरीफ़ लाया...हमारी ख़ैरियत पूछने।” आर्य साहब की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं, ऐसा लगा जैसे विदेश में कोई उनको परिचित आदमी मिल गया हो..? अब तो वे लगातार बोलते ही जा रहे थे, उनके रुकने का कोई सवाल ही नहीं। वे कह रहे थे “मेरे प्यारे लख़्ते ज़िगर, घर पर सब ठीक-ठाक है ?...” मैंने सोचा उनके सवाल का ज़वाब दे डालूँ, मगर है भगवान उनके रुकने का सवाल ही नहीं। जनाब मुझे बोलने का मौक़ा ही दे ही नहीं रहे थे, बस बोलते ही जा रहे थे धारा प्रवाह। तभी वहां ग्रामीण मिडल स्कूलों के दो हेड मास्टर वहां आ गए, और जनाब की ज़बान पर लग गया, ब्रेक।
“जय रामजी की।” भाचुन्दा मिडल स्कूल के हेड मास्टर हिन्दू लाल सोडा ने, अभिवादन करते हुए कहा।
“अरे भाई साहब, आपने बेवज़ह तक़लीफ़ उठायी। आपका सारा काम मेरी डायरी में, दर्ज़ है।” आर्य साहब उनसे गले मिलकर बोले।
“”आपकी मेहरबानी है, हुज़ूर ? न तो हमें कौन पूछता, इस कबूतर ख़ाने में ?” भाचुन्दा मिडल स्कूल के हेड मास्टर हिन्दू लाल सोडा, अपने दिल की बात ज़ाहिर करते हुए बोल उठे।
“जनाब, यों आप इस गलियारे में ही खड़ा रखेंगे या कहीं बैठाएंगे आप ?” हिन्दू लाल सोडा के साथी करणी दान बोल उठे, जो नादाना भटान मिडल स्कूल के हेड मास्टर ठहरे।
करणी दान ठहरे, व्यापारी किस्म के हेड मास्टर। करणी दान जब भी किसी काम वश पाली शहर आते, तब वे अपने साथ स्कूल के बकाया कार्य और गाँव के दुकानदारों की मांग अनुसार सामान की फ़ेहरिस्त साथ लेते आते। इस तरह दफ़्तर सम्बन्धी काम निपटने के बाद में, वे वहां से उपस्थिति प्रमाण पत्र हासिल कर लेते। और बाद में दुकानों का सामान होल सेल मार्केट से ख़रीदकर, बीच में कमाई ज़रूर कर लिया करते। यही कारण था, वे जब भी शहर में आते..तब अपने साथ कई थैले साथ ले आते। जिसमें दुकानदारों का सामान भरकर, वापस ले जाते।
तभी आर्य साहब बोल उठे “ भय्या, यह दफ़्तर है जिला परिषद्। इस दफ़्तर में पोस्टें हैं ज़्यादा, मगर अकाल पड़ा रहता है सीटों का यानी बैठने की कुर्सियों का। बस, हम तो भाई यहाँ कुर्सी हथियाने का खेल खेलते हैं। अब आप समझ लीजिये, यह कुर्सी है..म्युज़िक चेयर। जिसके हाथ लग जाए, हथियाकर बैठ जाओ काम करने। हम तो ठहरे उपजिला शिक्षा अधिकारी, यार हमारे लिए तो यह म्युज़िक चेयर एक खेल है। मगर आप इनको देखो, हमारे वयो वृद्ध ज़िला शिक्षा अधकारी माथुर साहब को। जो सुबह से, इस नामाकूल कुर्सी से चिपके बैठे हैं। इनके कारण यह कुर्सी तो, सुबह से हमारे पास हाथ आयी नहीं। किसी चपरासी का स्टूल लाकर बैठ गए इनके पास, और इनको उर्दू की गज़लें सुना-सुनाकर इनको घायल कर डाला...मगर यार क्या कहूं, आपसे ? यह हैं बुढ़ा शेर, है हिम्मत वाला। कुर्सी छोड़ने का नाम नहीं लेता, यह बुढ़ा शेर। लो चलो साथियों, आज़ भी केन्टीन में चलकर बैठते हैं। एक गज़टेड अफ़सर के लिए, इस दफ़्तर में बैठने के लिए कोई कुर्सी नहीं।” इतना कहकर, आर्य साहब अपने क़ाफिले के साथ केन्टीन की तरफ़ क़दमबोसी करने लगे।
अब आर्य साहब ने एक हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और दूसरा हाथ हिन्दू लाल सोडा के कंधे पर। मुझे भय सताने लगा, ‘उनका हाथ जो मेरे कंधे पर ज़रूर रखा है, मगर वह कंधे से खिसकता हुआ न मालुम कब मेरे मेरे कोमल गले को कसने के लिए पहुँच जाए...?’ आख़िर हम सभी केन्टीन में दाख़िल हुए, केन्टीन क्या थी ? जिसे कोई सभ्य पुरुष, उसे केन्टीन कहने की ग़लती नहीं करेगा। चाहे तो कोई उसे, मुंबई के दादर का दारु ख़ाना ज़रूर कह सकता है। केन्टीन में भीड़ होना, स्वाभाविक है। जिला परिषद् का दफ़्तर आया हुआ है, कचहरी के परिसर में। इस तरह इस परिसर में आये सभी दफ़्तरों और अदालतों के कर्मचारी, आगंतुकों और मुद्दई वगैरा सभी लोग इसी केन्टीन में नाश्ता और चाय-काफ़ी लेने आते हैं। इस परिसर में यही एक मात्र केन्टीन है, इस कारण यहाँ भीड़-भाड़ होना लाज़मी है। यही कारण है, ज्यादा ग्राहकों का आना, और कुर्सियों का अभाव। फिर क्या ? यहाँ भी, म्युज़िक चेयर का मसला बना रहता है। कुर्सी या बेंच यहाँ ख़ाली मिलती नहीं, और बेचारे ग्राहकों को मज़बूरन वहां कुर्सी या बेंच के लिए इंतज़ार करना पड़ता है। अब यहाँ आर्य साहब का क़ाफिला भी इंतज़ार करने लगा कि, ‘कब कोई कुर्सी या बेंच ख़ाली हो, और वे उस पर बैठ जाएँ।’ अब आर्य साहब ने वहां बैठे सज्जनों पर, अपनी काक दृष्टि दौड़ाई। तब उनकी नज़र में, ‘सामान्य प्रावधायी एवं राज्य जीवन बीमा विभाग’ के कर्मचारी वहां बैठे दिखाई दिए। जो एक घंटे से यहीं बैठे, ग्रामीण स्कूलों के अध्यापकों के साथ गुफ़्तगू करते जा रहे थे। अचानक वे लोग उठे, मुझे लगा कि ‘वे आर्य साहब के सम्मान में, उठे हों ?’ मगर बात कुछ अलग रही, गुफ़्तगू चल रही थी “सेटिंग करने की।” और ये सेटिंग की बातें, एक शिक्षा अधिकारी के सामने की नहीं जा सकती। मगर जब हाथी छाप नोटों को, इन बाबू लोगों जेब में जाते देखा..तब मुझे सारा मसला समझ में आ गया। इन नोटों ने दर्शा दिया कि, “सौदा पट चुका है। और उन्होंने जतला दिया कि, “अब नए आगंतुक आकर यहाँ बैठ सकते हैं..अगला सौदा पटाने।” उन लोगों को सीट से उठते देखकर, आर्य साहब बोल उठे “साहब बहादुरों। बैठो, बैठो। तक़ल्लुफ़ नहीं, हम कहीं और बैठ जायेंगे।”
“गुरु बैठिये, अब हमें जाना है।” उनमें से एक बाबू बोल उठा। फिर क्या ? सभी बाबू लोग, वहां से रुख़्सत हो गए। उनके साथ बैठे एक अध्यापक ने, अपने हाथ में सुलगती सिगरेट थाम रखी थी। वह बैठा-बैठा, सिगरेट से धुंआ निकाल रहा था। मगर जैसे ही उसकी नज़रें, आर्य साहब से मिली..तापाक से वह गुरु को देखते ही, शर्मसार हो गया। लज्जा के मारे, उसने बिना देखे फटाक से उस सुलगती सिगरेट फेंक दी। ख़ुदा की पनाह, यह क्या हो गया ? वह सुलगती सिगरेट सेबरजेट के तरह जा घुसी, अगली बेंच पर बैठे किसी सज्जन की धोती में...? ये धोती वाले सज्जन अपने दुर्जन साथियों का साथ पाकर तबाह हो गए, आख़िर बाकीदारों का क़र्ज़ न चुकाने पर अब ये सज्जन हवालात की हवा खा रहे थे। इस वक़्त दो सिपाही उनके अहलू-पहलू में बैठे थे, और जिन्होंने इस सज्जन का हाथ हथकड़ी से झकड़ रखा था। हथकड़ी से झकड़े धोती वाले सज्जन को क्या मालुम, अब आने वाली आफ़त का ...? मगर, हम क्यों ध्यान देंगे उस सज्जन की होने वाली दुर्गति का ? हमें लम्बे इन्तिज़ार के बाद बैठने की सीट मिली है, फिर क्या ? हम जाकर तपाक से उस ख़ाली बेंच पर बैठ गए, और गुफ़्तगू में मशगूल हो गए।
“जनाबे आली सोडा साहेब, हम तो हैं..दिल के मरीज़....”
आर्य साहब की बात काटकर, हिन्दू लाल सोडा बोल उठे “साहब। हम जानते हैं, जानते हैं। आप चाय पियेंगे फीकी, और नमकीन न खाकर खायेंगे लज़ीज़ दही बड़े। सभी चीजें लाने का हुक्म, उस केन्टीन वाले मैनेजर को देकर यहाँ आये हैं। आख़िर, आपसे पहली मुलाक़ात तो है नहीं। कई दफ़े आपके साथ यहाँ आये हैं, और आपकी शेरो-शाइरी सुनने का लुत्फ़ भी उठा चुके हैं।” इतना कहकर, हिन्दू लाल सोडा चुप हो गए।
केन्टीन वाला छोरे ने आकर, उनका दस्तरख़्वान करीने से सज़ा दिया। तभी करणी दान बोल पड़े “साहब, आपने कहा था कि, हमारी स्कूल के सभी बकाया एरियर बिल निकल जायेंगे और उनका भुगतान झट अध्यापकों को हो जाएगा। मगर, ख़ुदा की कसम एक भी बिल निकाला नहीं गया। अरे जनाब, आपसे क्या कहूं..? हमारी स्कूल की तनख़्वाह बनाने वाला दफ़्तरे निग़ार मियाँ संपत तो बड़ा खुर्राट निकला, हुज़ूर। वह तो अपने पुट्ठे पर, हाथ भी रखने नहीं देता...इसे हम ख़ाक बताएं, अपनी हर्ज़-मुर्ज़ ?
“लिव इट, यार बच्चा है..खाने-पीने के दिन है...उसके।” इतना कहकर, आर्य साहब ने एक पूरा दही बड़ा अपने मुंह में ठूंस डाला। फिर, आगे कहते गए “क्या छोटी-छोटी बातें, ले बैठते हो ?” तभी उनकी नज़रों में, उनके सामने वाली बेंच पर बैठे दफ़्तरे निग़ार सुदर्शन आ गए। उनके दीदार पाते ही जनाब की कली- कली खिल गयी। तपाक से गुरु ने, आवाज़ लगा दी “ अरे, ओ सुदर्शन साहब। ज़रा, इधर तशरीफ़ रखिये। क्या छोटे भाई, ईद के चाँद बने रहते हो ? कभी-कभी तो...”
“असलाम वालेकम।” सलाम करके मियाँ सुदर्शन आकर, उनके बगल में बैठ गए।
“वालेकम सलाम, मियाँ।” अपने लबों पर तबस्सुम बिखेरते हुए, आर्य साहब बोले “ देखिये छोटे भाई, हम आपके बड़े भाईजान ठहरे, तो फिर ये दोनों हमारे मिलने वाले गुरु क्या हुए आपके ..? कहिये, कहिये। बस, मैं आपसे यही चाहता हूँ इन दोनों का काम हो जाना चाहिए। अगर संपत कुछ पूछे तो उसे कहना कि, मैंने कहा है। समझ गए, छोटे भाई ?” इतना कहकर, आर्य साहब ने अंतिम दही बड़े को मुंह में ठूंस डाला। फिर सुदर्शन को रुख़्सत देने के बाद, आर्य साहब ने चाय का कप उठा लिया। चाय की चुस्कियां लेते हुए, हिन्दू लाल सोडा से आगे कहते गए “काम हो गया, समझो। अब सुनिए हमारी ग़ज़ल, कल ही हमने अपने मकान की मुंडेर पर बैठकर लिखी है।”
“नहीं साहब, हम कल की पुरानी बांसी ग़ज़ल नहीं सुनेंगे। आप ठहरे, अश्रु कवि..आपकी ज़बान पर माता सरस्वती वास करती है। चलिए आप...” उस धोती वाले सज्जन की तरफ़ उंगली का इशारा करते हुए, करणी दान बीच में लपककर बोल उठे “देखो साहब, उस पुलिस वाले के पास जो धोती वाले सज्जन बैठे हैं..उन पर आप कुछ कहें तो हम जाने कि आप...” जाति से करणी दान ठहरे, चारण जाति के। उनकी कई पुश्तें काव्य रस में डूबी रही है, यह अश्रु कविता हाथो-हाथ तैयार करने का गुण तो उनको अनुवंशागत मिला है। यानी दूसरे शब्दों में जनाब, ख़ुद क़ाबिलियत रखते हैं कवितायेँ, गज़लें और शेर-शायरी के सृजन की। उनके लिए यह कोई मुश्किल काम नहीं, बस वे कुछ अर्ज़ करने के पहले अगले को बोलने का मौक़ा देते हैं...ताकि, अगले की क़ाबिलियत परखी जा सके। उधर उस अध्यापक की फेंकी गयी सिगरेट ने, कमाल दिखलाने का काम शुरू कर डाला। उस सुलगते सिगरेट के टुकड़े से बेचारे धोती वाले सज्जन की धोती धीरे-धीरे जलने लगी, कुछ वक़्त बितने पर उस बेचारे की चमड़ी भी जलने लगी। चमड़ी जलने से, वह उस जलन को बर्दाश्त नहीं कर पाया। और “जले रे, जले रे।” कहता हुआ, बैठा-बैठा कुदकने लगा। पास बैठे सिपाहियों ने सोचा कि, ‘यह मुज़रिम कोई बहाना गढ़कर, यहाँ से छू-मन्त्र होने कि स्कीम बना रहा है।’ फिर क्या ? उन दोनों ने उस कैदी के रुख़सारों पर, पांच-छह झन्नाटेदार थप्पड़ कस कर लगा दिए। फिर उसे फटकारते हुए कहा कि, “साले, उल्लू की औलाद। भगना चाहता है..? बैठ जा, चुपचाप। नालायक। ‘जले रे, जले रे’ चीखना बंद कर, नहीं तो हम जला देंगे तेरे पिछवाड़े की दुकान।” और बाद में, वे दोनों उसे भद्दी-भद्दी गलीज़ गालियाँ देने लगे। इस मंज़र को देखकर आर्य साहब ने झट ग़ज़ल बना डाली, बस अब उन दोनों महानुभवों का इशारा ही करना बाकी था कि कब ये दोनों महानुभव “इरशाद, इरशाद” अपने मुख से कहें, और वे ग़ज़ल को उगलना शुरू कर दें ? बस, फिर क्या ? इशारा मिलते ही, जनाब उच्च सुर में ग़ज़ल उगलनी शुरू की – “ख़ाली हुआ पैमाना, फिर भरपूर हो गया।! कल तक जो मेरी बज़्म में आते थे दौड़कर। वो क़ाफ़िला-ए-यार मुझसे दूर हो गया।! जिस आईने से सूरतें संवारते थे यार। वो आइना-ए-दिल चकनानाचूर हो गया।! ख़ाली हुआ पैमाना, फिर भरपूर हो गया....!!
ग़ज़ल पूरी कहाँ हुई ? उस ग़ज़ल का असर उस कैदी पर ऐसा पड़ा..ख़ुदा न जाने उस कैदी में कहाँ से इतनी ताकत आ गयी..? बस, फिर क्या कहना ? ख़ुदा की कसम, उसने पास बैठे सिपाही के हाथ में थामी हथकड़ी छुड़ा ली.,,! फिर दोनों हाथों से उसे उठाकर उछाल दिया वहां..जहां केन्टीन का छोरा, ग्राहकों के लिए चाय बना रहा था। पहले सिपाही को बचाने आये दूसरे सिपाही को एक ऐसा ज़ोर का धक्का दिया कि, वह बेचारा सिपाही धूल चाटता नज़र आया। फिर उसने उस सुलगती धोती को खोलकर दूर फेंक दी, और चड्डे और कमीज़ में अवतरित हो गया। फिर क्या ? गुस्से से काफ़ूर होकर, आर्य साहब को डांटने लगा “यहाँ पर भी पीछा नहीं छोड़ोगे, शाइर की औलाद। बरबाद कर डाला मुझे, इन निक्कमें शाइरों ने। क्यों ज़ुर्रत की तुमने, मेरी शान में कसीदे पढ़ने की ? दोस्तों ने बरबाद कर डाला, मुझे। अब क्यों, मेरे ताज़े घावों पर नमक छिड़क रहे हो ?” जिस सिपाही को उछालकर फेंका गया था, उस बेचारे की हालत हो गयी पतली। बेचारा जाकर गिरा, चूल्हे पर चढ़े चाय के भगोने पर...जिसमें, चाय उबल रही थी। बेचारे सिपाही का मुंह जलना था..वो जला मगर, भगोने के गिरते ही उबली हुई चाय के छींटें उस बेचारे केन्टीन वाले छोरे के चेहरे के ऊपर जा गिरे। जिससे बेचारा छोरा, दर्द के मारे चिल्ला उठा। अब यहाँ तो चारों तरफ़ हाहाकार मच गया, कभी वह सिपाही चिल्लाये तो कभी केन्टीन वाला छोरा। और उधर कैदी ने, चीख-चीखकर आसमान उठा लिया। वह बेचारा, इधर-उधर दौड़ने लगा। “बदन जल रहा है, कोई पानी डालो।” इस तरह चिल्लाते हुए उस कैदी को समस्या से निज़ात दिलाना तो दूर, यहाँ तो खड़े मनचलों ने ताली पीटकर उसको और चिढ़ा दिया। आख़िर बेचारा गेट की तरफ़ दौड़ा, वहां पास प्याऊ में पानी से भरे मटके रखे थे...बस, फिर क्या ? मटके उठा-उठाकर ख़ुद पर पानी गिराकर, उसने अपने बदन की जलन को शांत किया। फिर उसी हालत में बाहर निकल आया, वहां पान की दुकान के पास आकर खडा हो गया और बनियान और कमीज़ को उतार बैठा। वहां खड़ा था, बुढ़ा भिखारी। जो लाचारगी से उसे ताक रहा था, बस फिर क्या ? उसने रहम खाकर, उस भिखारी को उतारा हुआ कमीज़ और बनियान दान में दे डाला। अब उसे ऐसी अर्द्ध-नग्न अवस्था में देखकर, वहां खड़े मनचलों ने उसे पगल समझ लिया और वे उस पर पत्थर बरसाने लगे। इस तरह वहां लोगों का मज़मा लग गया, और वे अपना मनोरंजन करते हुए तालियाँ पीटने लगे। तभी, वे दोनों सिपाही बाहर आ गए, और उसका हाथ थामकर ले गए अदालत की तरफ़...जहां बाहर खड़ा चपरासी, मुद्दई, गवाह और वकीलों को पेशी पर बुलाने के लिए आवाज़ लगा रहा था “करणा –गोमा हाज़िर हो।”
आर्य साहब की ग़ज़ल का ऐसा प्रभाव जमा कि, जिसे देखकर मेरा तो रोम-रोम कांप उठा। भाई घीसू लाल, मैं सच्च कह रहा हूँ..मेरे दिल में डर समा गया कि, ‘अगर आर्य साहब एक और ग़ज़ल पढ़ लेते तो, कहीं और कोई आदमी पागल होकर केन्टीन की कुर्सियां और टेबलें न तोड़ दे...? और उसका हरज़ाना, हमको न देना पड़ जाय ?’...”
इतनी लम्बी गाथा सुनाकर दवे साहब ने, टेबल पर रखा पानी से भरा ग्लास उठाया। अपने युसुबूत हलक़ में डालकर, उसे तर किया फिर जनाब आगे कहने लगे “घीसू लाल भय्या। तब से मैंने कसम खा ली कि, अब किसी शाइर का मुंह नहीं देखूंगा।”
आसियत का अँधेरा बढ़ता गया, पंडित घीसू लाल ने सोचा कि, “शायद, अब दवे साहब चाय के लिए रुकने का कहेंगे।” मगर, यहाँ तो कंजूसी के मामले में दवे साहब तो चार क़दम आगे चलते हैं, उनका चाय का पूछना तो दूर...जनाब ने, पानी का पूछना भी वाज़िब नहीं समझा। ऊपर से जनाब यह कहने लगे कि, “भाईसाहब, हम रहते हैं पाली शहर के भीतरी हिस्से में...जहां पानी की किल्लत हमेशा बनी रहती है। अरे हुज़ूर, आपको विश्वास नहीं होगा यह सुनकर कि, “इस पानी कि किल्लत के कारण, हम चार दिन से नहाए नहीं है।”
अब तो पानी पिलाने कि भी नौबत आने वाली नहीं, रही-सही आशा भी लुप्त हो गयी...चाय के आने की। अब क्या करते, बेचारे घीसू लाल ? बेचारे हताश होकर उठे, कुर्सी से। तभी किसी ने, दरवाज़े पर दस्तक दी। और बाहर से आवाज़ आयी कि, “सोहन लालाजी दवे घर पर हैं ?” सोहन लाल उठे, और जाकर दरवाज़ा खोला। सामने खड़े थे, भैरू घाट मिडल स्कूल के हेड मास्टर जनाब लाल चंद बाघमार।
“पधारिये, पधारिये। कुत्ता मारजी, आपका स्वागत है। तशरीफ़ रखिये, हुज़ूर।” अपने लबों पर व्यंगात्मक मुस्कान लिए, दवे साहब बोल उठे। उनके सोफ़े पर बैठने के बाद आप भी सोफ़े पर बैठ गए, और उनसे कहने लगे “कहिये कुत्तामारजी, सब ख़ैरियत है ? मैं कह रहा था कि, आप सही वक़्त पधारे...!” इतना कहने के बाद, दवे साहब ने घीसू लाल से कहा “पंडित साहब, आपको हमारा एक काम करना है..किसी तरह। कुत्तामारजी की पेश की गयी अनाज अग्रिम की दरख़्वास्त, आपको मंजूर करवानी ही होगी।”
यह सुनकर, पंडित घीसू लाल का क्या हाल हुआ होगा ? वह, ख़ुदा ही जाने। वे सोचने लगे कि, “एक घंटे बेफ़िज़ूल बैठा दिया मुझे यहाँ, चाय तो गयी दूर जनाब ने अभी-तक पानी का भी नहीं कहा..? ऊपर से इस मक्खीचूस ने लाल चंद बाघमार पर अपना अहसान जताते हुए, मुझ पर एक काम लाद दिया। और वह भी लेखाकार घसीटा राम की शाखा का, जिसके साथ चलता है हमारा छत्तीस का आंकड़ा।
“कुत्तारामजी। ज़रा पहले आप अपनी दरख़्वासत पर, आवक शाखा से आवक संख्या अंकित करवा देना। फिर, हम देख लेंगे भाई।” बुझे दिल से, घीसू लाल बोल उठे।
बेचारे लाल चंद बाघमार की हालत ऐसी हुई, मानों भरे बाज़ार उनको एक बार और नंगा कर दिया हो...? इतनी देर तक बेचारे बाघमार को कुत्तामार कहा जाता रहा है, अब आगे यही कुत्तामार शब्द सुनना लाल चंद को कहाँ मंज़ूर ? फिर क्या ? भाई लाल चंद बिफ़रकर, कहने लगे “साहब अब तो हमें बख्शो, हमारा नाम कुत्तामार नहीं। हमारा नाम है, लाल चंद बाघमार।” आगे हाथ जोड़कर, वे कह उठे “ साहब, आप हमारा नाम न बिगाड़ें।”
“अरे मास्टर साहब। बुरा न मानों। इस गली में कुत्ते भौंका करते हैं, इसलिए यहाँ बाघ नहीं रहते। फिर क्या ? इस गली को पार करके यहाँ तक पहुँचने वाला बाघमार नहीं, बल्कि कुत्ता मार ही हो सकता है। यहाँ बाघमार का, क्या काम ? बाघ यहां रह भी नहीं सकते हुज़ूर, वे वहां ही रहते है जहां दिल वाले लोग रहते हों...जो अतिथि को ईश्वर मानकर, चाय-पानी से उनका स्वागत करते हैं। जहां दिल वाले होंगे, वहीँ बाघ रहते हैं।”
सुनकर, लाल चंद खिसियानी हंसी हंसते हुए सोहन लाल दवे की तरफ़ व्यंगात्मक नज़रों से देखने लगे। उनका व्यंगात्मक नज़रों से देखना, क्या हुआ ? बेचारे दवे साहब, आब-आब होने लगे। वे बेचारे अपनी आदतों से मज़बूर थे, वे कैसे आगंतुक को चाय-पानी पिलाते..? आख़िर वे ठहरे, महाकंजूस..जिनका एक ही सिद्धांत रहा कि, ‘चमड़ी चली जाय मगर दमड़ी न जाय।’ मगर, इतना होने के बाद भी, उनसे बोले बिना रहा नहीं गया। वे दरवाज़ा खोलते हुए पंडित घीसू लाल से कहने लगे “पंडित साहब, कल आप किसी वक़्त यहाँ आकर आगे का किस्सा सुन सकते हैं। क्योंकि, कल मैं छुट्टी पर हूँ।”
सुनकर, घीसू लाल पीछे मुड़े और हैरत से दवे साहब को देखा। फिर इस अँधेरी रात में, तेज़ क़दम बढ़ाते हुए रुख़्सत हो गए। उनके पीछे, गली के कुत्ते ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगे।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी....)
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