संपादित पुस्तक का शीर्षक : “चलो, रेत निचोड़ी जाए” (साझा कविता-संग्रह), प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नई दिल्ली-110002, प्रकाशन-वर्ष : 2018, कुल प...
संपादित पुस्तक का शीर्षक : “चलो, रेत निचोड़ी जाए” (साझा कविता-संग्रह),
प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नई दिल्ली-110002,
प्रकाशन-वर्ष : 2018,
कुल पृष्ठ संख्या : 160,
मूल्य : 350/-रुपए,
पुस्तक प्राप्त करने का पता : फ्लैट नं-98, त्रिवेणी अपार्टमेंट, एच-3 ब्लॉक,
विकास पुरी, नई दिल्ली—110018
समीक्षक : डॉ मनोज मोक्षेंद्र
आसेबी दौर में कविता…
इस महापरिवर्तन के आपत्तिजनक दौर में हिंदी कविता के विवादों और आक्षेपों से घिरे होने के बावज़ूद, उसे अनेकानेक रूपों में अभिव्यंजित और रूपायित करने वाले अधिसंख्य रचनाकारों से हम रू-ब-रू रहे हैं। पर, अपने सनातनी लक्षणों के विपरीत अब वह कहीं भी फूहड़ या अल्हड़ नज़र नहीं आ रही है। निःसंदेह, काव्य सृजन में आई इस बाढ़ में वह हर कदम पर निखरती जा रही है। यह दौर अज़ीबो-ग़रीब ज़रूर है, जिसमें कविता की चाल-ढाल बेशक समय के अनुरूप बदली हुई है तथा उसकी ज़बान से फूटने वाले शब्द निरे सपने दिखाने और कभी भी साकार न होने वाले चित्र नहीं उकेरते हैं, बल्कि समाज में जो कुछ भी नकारात्मक हो रहा है, उसके विरुद्ध उसके उठे हुए नाज़ुक हाथों में एक खंझर दिखाई दे रहा है जिससे वह इंसानियत के ख़िलाफ़ सिर उठा रहे बुरे तत्वों का शिरोच्छेदन चुन-चुन कर करना चाह रही है।
सतत रचनाशील रचनाकारों में काव्य सृजन के प्रति गंभीर चेतना का संचार स्पष्ट रूप से नज़र आ रहा है। अब वे कविता के लिए, गिने-चुने अपवादों को छोड़कर, अपरिहार्य छांदिक अनुशासनों का भी पालन करने लगे हैं। कविता को शिल्पगत परंपरा से जोड़ते हुए हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़लों और नवगीतों में ऐसा साफ परिलक्षित हो रहा है। जो कवि छांदिक कविताएं लिख रहा है, वह रबर-छंद और ग़ैर-मात्रिक काव्य शैली का प्रयोग करने से भी कोई परहेज़ नहीं कर रहा है। उसकी जो कविताएँ छांदिक परंपरा का निर्वाह नहीं करती हैं, उनमें भी एक प्रकार का रिदम और सांगीतिक झंकार है। उन्होंने प्रायोगिक तौर पर मात्रिकता को दरकिनार करते हुए भी नवगीतों में लय और रिदम को बनाए रखा है। यही बात हिंदी ग़ज़लों में भी साधारणतया देखने को मिल रही है। आरंभ में हिंदी ग़ज़ल को भी सरस और प्रवाहपूर्ण हिंदी कविता के मात्रिक अनुशासनों के अनुरूप ढाला जाता रहा है। ख़ुद हिंदी के ग़ज़लकारों ने भी शुरुआती दौर में बड़ी सूक्ष्मता और तन्मयता से छांदिक परंपरा का पालन किया। परंतु, अब उसमें भी मात्रिक अनुशासन के बजाय प्रवाह पर विशेष ध्यान केंद्रित किया जाने लगा है। जब रचनाकार से पूछा जाता है कि उसने अपनी फलां गेय कविता में छांदिक नियमों को तोड़ा है तो वह साफ-साफ कह देता है कि ‘श्रीमन, आप यह क्यों नहीं देखते कि उस कविता में कितनी रवानगी-सादगी और काव्य-सुलभ सरसता है?‘ अस्तु, कुछ पाठकों के कविता के प्रति उपेक्षात्मक रवैये को हृदयंगम करते हुए, कवि इस बात को लेकर सचेत हो गया है कि उसकी कविताएं व्यापक रूप से पढ़ी जाएं और हर सामाजिक वर्ग द्वारा प्रशंसित हों।
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उल्लेख्य है कि मंचीय कविताओं के प्रति प्रबुद्ध पाठकों के बजाय, आम पाठकों का रुझान स्पष्टतया सकारात्मक रहा है। दरअसल, मंचीय कविताओं को साहित्यिक मापदंडों को पूरा न कर पाने के कारण, साहित्यिक गलियारों में एक सिरे से ख़ारिज़ कर दिया जाता रहा है। साहित्यिक गोष्ठियों में न तो उन पर चर्चाएं होती हैं, न ही उन्हें पुस्तकालयों, शोध-संस्थानों या अभिलेखों में सहेजने की आवश्यकता महसूस की जाती है। हाँ, उन्हें आम तबकों में खूब गुनगुनाया जाता है। किंतु, हालिया मंचीय कवियों की सोच में जो बदलाव आया है, वह उल्लेखनीय है। अब उनकी कविताओं में सिर्फ़ जुमलेबाज़ी और हंसोढ़पन ही नहीं है, बल्कि पर्याप्त रूप से काव्य-सुलभ व्यंग्य-वक्रोक्ति का भी पुट होता है; काव्यांगों पर ध्यान दिया जाता है और ऐसा बहुत आवश्यक भी है। मंचीय कविताओं के इस रुख से जो अच्छी बात सामने आई है, वह यह है कि जहाँ कविता में साहित्यिक मापदंडों को ध्यान में रखा गया है, वहीं उसमें मधुरता और सरसता स्वतः आवेष्टित हो गई है। नकारात्मक प्रवृत्तियों वाले इस समकाल में जहाँ कविता उन पर कटाक्ष करते हुए सकारात्मक तत्वों को दीर्घजीवी होने का वरदान देती हुई सुनी जाती है, वहीं वह अपने सुमधुर ध्वनि-तरंगों के माध्यम से जनमानस में साम्राज्ञी के रूप में विराजमान होती दिखाई देती है।
यह बात पर्याप्त रूप से संतोषजनक है कि कविता का जनाधार, इसका पाठकीय परास तथा इसकी स्वीकार्यता लगातार बढ़ती जा रही है। जुमलेबाज़ी का तिकड़म अपनाकर अपने पांव जमाने वाले शौकिया कविगण छंटते जा रहे हैं और जन्मजात प्रतिभाशाली रचनाकारों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि अच्छे कवियों की शिनाख़्त और छंटनी स्वयं पाठकगण कर रहे हैं। अब पाठक कविता की सूक्ष्मताओं को जानने-परखने लगे हैं। कविता की मीमांसा करने के लिए उनका बौद्धिक और भावनात्मक स्तर ऊंचा उठता जा रहा है। इस तरह, पाठकों का निर्णायक के रूप में आगे आना भी कविता की सेहत के लिए बहुत अच्छा है। काव्यांगों की प्रशंसा करने वाले और दोयम दर्ज़े की कविताओं को एक-सिरे से ख़ारिज़ करने वाले पाठकों की संख्या में वृद्धि होना भी कविता के लिए एक शुभ संकेत है। अनुरोध है कि अच्छी कविताओं को शोध-संस्थानों और पुस्तकों तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि उन्हें अधिकाधिक पाठकों के मन में भी सम्मानजनक स्थान बनाना चाहिए।
अस्तु, पाठकों के मन में रचने-बसने वाले कवियों की संख्या अब इतनी कम नहीं है कि उन्हें उंगलियों पर गिना जा सके। ग़ज़ल लिखने वाले समकालीन रचनाकारों में डा. आनन्द किशोर ‘आनन्द’, डा. मकीन कौंचवी, ओम प्रकाश कल्याणे, प्रतीक श्री अनुराग, पीयूष कांति और डा. मनोज मोक्षेंद्र ने शिल्प और भाव में अपनी ग़ज़लों को जो विस्तार प्रदान किया है, वह उल्लेख्य है। ग़ज़ल और विशेषतया उर्दू ग़ज़ल ने तो प्यार-मोहब्बत, शबाब-शराब और इश्कियाना ग़म को ही अपना मुख्य विषय बना रखा था। हिंदी ग़ज़लों ने इस आग्रह को इतने जोरदार ढंग से तोड़ा है कि उर्दू ग़ज़ल भी अति कल्पनाशील रोमानी भावों को दरकिनार करके, खुरदरी जमीन पर आ खड़ी हुई है। फिलहाल, हिंदी ग़ज़लकार ख़ुद को इस फ़न में आज़माते हुए परिपक्व होने की जो इच्छा रखते हैं, वह उन्हें ऊंचाइयों तक ले जाएगी जैसाकि डॉ.. आनन्द किशोर ‘आनन्द’ इन मिसरों में गुनगुनाते हैं :
ख़ूब अश-आर कहे फिर भी अधूरी है ग़ज़ल
काश! मिल जाए कमी कोई बताने वाला
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पेशे से चिकित्सक डा. ‘आनन्द’ का यथार्थबोध उन्हें जनप्रिय बनाने के लिए काफ़ी है। हाँ, नकारात्मकता के ख़िलाफ़ उनका आशावादी होना हमें निःसंदेह आश्चर्य में डाल देता है क्योंकि अधिकतर लोग बुरे तत्वों के विरुद्ध अपने जंग में हार मान चुके होते हैं :
आ गई हैं अब बहारें, धूल का मौसम गया
रोशनी पीछे पड़ी तो तीरगी का दम गया
आशावाद की यह बयार डा. मकीन कौंचवी की ग़ज़लों में भी बहकर जीवन को जिजीविषा से तर-ब-तर करने का दमख़म रखती है :
राह कांटों की ‘मकीं’ और बदन पे छाले
अज़्म के साथ सफ़र तय ये हमारा होगा
समकालीन हिंदी ग़ज़ल सियासत और समाज द्वारा पैदा किए गए विरोधाभासों का शिकार तन-तनकर कर रही है। सियासत के हानिकर तिकड़मों के दुष्प्रभाव की बखिया उधेड़ने का एक जोश डॉ. मकीन कौंचवी के इन मिसरों में दृष्टव्य है :
सियासत ने सलीके से गलों को काट डाला है
बचा क्या है वतन में बोलिए अपना बताने को
बेशक, सियासी कुचक्रों का पर्दाफ़ाश वे बड़े ही तल्ख़ अदावत में करते हैं :
जिसे देखियेगा वही रो रहा है
हुकूमत बता खेल क्या हो रहा है
हिंदी ग़ज़ल ने भी अपने आशिकाने मिथक को छिन्न-भिन्न कर डाला है। अब वह भी ज़िंदग़ी की मैली-कुचैली गलियों का चक्कर लगाने लगी है और बदग़ुमा मसअलों पर घड़ों आँसू बहाने लगी है। ख्यात रचनाकार ओम प्रकाश कल्याणे की इन पंक्तियों में देखिए ना :
गाय-भक्ति इस सियासी दौर में
देश-भक्ति पर है भारी ग़म न कर
क्योंकि मौज़ूदा सियासतदारी में राष्ट्रभक्ति बस एक जुमला बनकर रह गई है; इसे बकौल कल्याणे, निरे पाखंड की तरह बघारा जा रहा है :
अब यहां आफताब बनने के
ख़्वाब फिर जुगनुओं ने पाले हैं
और इसका ख़ामियाज़ा आम आदमी सहर्ष भुगतने को तैयार है; उन्हीं की ज़बान में :
दिल मिरा टूटा-जुड़ा सौ बार है
आप भी ठोकर लगा कर देखिए
पर, वे है कि कतई हार मानने को तैयार नहीं है और इसकी मुनादी करना चाह रहे हैं :
दर्दे ग़म सब छोड़ कर जी भर हंसो
सूचना जनहित में जारी ग़म न कर
उनकी ऐसी ही गीति-रचनाओं की ग़ैर-मात्रिक कविताओं में भी अभिव्यंजात्मक शैली का प्रयोग बिल्कुल अलग-सा लगता है। वर्तमान पीढ़ी पर उनका तंज कसना कितना हृदयग्राही है :
आज की पीढ़ी के लिए पिता/ अलादीन के चिराग़ से निकलने वाले/ ज़िन्न की तरह है/ जो चिराग़ रगड़ते ही/ हाथ जोड़े सामने आ-खड़ा होता है/ ‘क्या हुकुम है आका’ की मुद्रा में/ और पूरी करता है उनकी/ हर ज़रूरी ग़ैर-ज़रूरी इच्छा
नई कविता में विद्रूपताओं को दुतकारने की जैसी ऊर्जस्विता प्रतीक श्री अनुराग की कविताओं में अनुभूत है, वैसा बहुत कम देखने-सुनने को मिलता है। प्रेम जैसी अस्थायी भावना को भी दुतकारने का उनका अंदाज़ निराला है :
कहो कि बाज़ आ जाए वह/ ताज़महल की खिड़कियों से झाँकने से/ शाहजहाँ चला गया है/ वेस्टलैंड की गर्लफ़्रेंडों संग/ सेक्स स्कैंडलों की गठरी कांधे पर लादे हुए
यथार्थ जगत में अवास्तविकताओं के साथ गलबंहिया में रह रहे प्रतीक श्री ख़्वाबों की दुनिया को तिलांजलि देने के लिए सहर्ष तैयार हैं :
हमने ख़्वाबों में घर लुटा डाला
ऐसे ख्वाबों में कौन जीता है
इस अनुर्वर संसार में एक निष्ठावान इंसान की कहानी की इतिश्री केवल विफल संघर्षों में होती है :
मुझसे पूछो मेरी कथा असहमतियों की
अंत होना था व्यवस्थाओं से लड़ते-लड़ते
गीतों में पीयूष कांति की आनुभविक यात्रा भी कम दिलचस्प नहीं है। वे अपनी कविताओं में स्वयं द्वारा भोगे गए दर्द को सर्वजनीन बनाकर ही संतुष्ट होना चाहते हैं। चुनांचे, दुर्व्यवस्थाओं को धिक्कारने का उनका स्वर काफी दमदार है:
जान देते हैं यहाँ सरहद पे आशिक देश के
राज करते हैं सियासी दंगलों के आदमी
दुष्कर से दुर्दांत परिस्थितियों में भी वे हार कहाँ मानने वाले हैं? किसी साथी के संग वे अपने अभियान को हमेशा जारी रख सकते हैं:
ज़िंदग़ी का यह सफर लंबा बहुत है
स्वप्न भी मैंने सजाए कम नहीं हैं
राह पर हों शूल मुझको डर नहीं है
इस संग्रह में जीवन का यथार्थ बयां करने वाले एक प्रमुख कवि बृजेश त्यागी हैं जिन्हें इंसान में इंसानियत का होता अपरदन स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। दलन-पीड़ित जनों के प्रति ‘चूने-सा सफ़ेद होता लोगों का लहू’ किसे मर्माहत नहीं कर देगा? उनका चीत्कारना क्या कभी कम होगा :
मैं इस टूटते आदमी की/ टूटन में/ इंसानियत के अक़्स को/ टूटते देखता हूँ
जब दलन की बात चली है तो स्त्री-विमर्श में सभी तबकों के विमर्शकारों की ज़बान कैंची की तरह चलने लगती है। क्यों न चले; आख़िर, स्त्रियों के शोषण की कोई इंतेहां भी है या नहीं? कवयित्री लता प्रकाश की बुलंद होती आवाज़ कोने-कोने गूंज रही है :
कब तक लक्ष्मी-श्रद्धा कहकर, मुझको तुम मूर्ख बनाओगे
कब तक बेटे के लालच में, औरत की कोख गिराओगे
स्त्री–शोषण के कड़वे सच से मुंह मोड़ने वाले पुरुष इस सच को कैसे नज़रअंदाज़ कर सकते हैं कि सृष्टि के आरंभ से ही औरत की चुप्पी का रहस्य इस समाज के लिए कितना गूढ़ रहा है :
घर की चारदीवारी में क़ैद / अपने अकेलेपन से लड़ती/ चुप है, वो/ क्योंकि चुप्पी से ही घर बनता है
अर्थात समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई--परिवार में जब तक चैन-सुकून स्थापित नहीं होगा एक आदर्श समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस संग्रह की कवयित्री सौमी बनर्जी का भी यही मानना है; वे सदियों से दलितों की भाँति उपेक्षित रही स्त्रियों के लिए स्वर्णिम भविष्य की कामना करती हैं :
इस जहाँ में अपना भी आशियाँ होगा कभी
अस्तु, इसके लिए सौमी मानती हैं कि स्त्रियों को सबला बनना होगा, भले ही इसका हश्र चाहे कुछ भी हो :
तज देह की कोमलता वह सबल बने तो क्या होगा
बात पुरानी बीत गई कुछ नया हुआ तो क्या होगा
चुनांचे, इसके हश्र के बारे में किसी को कुछ संदेह क्यों हो? स्त्रियों के अभाव में तो जीवन का सृजन और पोषण ही असंभव है। वे तो मानवीय संवेदनाओं का संचार करने वाली एक अद्भुत रचना हैं। इसलिए उन्हें सहेजने और संवारने की ज़रूरत है। स्त्री की भूमिका में कवयित्री विजय लक्ष्मी को ख़ुद के तिरस्कृत-उपेक्षित होने पर सख़्त एतराज़ है :
टूटी कई बार, कई बार टूटकर जुड़ी
औरत तो पुरुषों से कहीं अधिक सपने देखती है और उसके देखे हुए सपने ही समाज के सौष्ठवीकरण के लिए एक महत्वपूर्ण कारक हैं। विजय लक्ष्मी को यह विश्वास है कि अपनी ख़्वाहिशों के बलबूते पर वे जीवन को सजा-संवार सकेंगी :
सतरंगा महकेगा उस दिन जीवन फिर
मुकम्मल पड़ाव में मैं मुस्कराऊंगी ज़िंदगी फिर से
आधी दुनिया से निकलकर जीवन के विस्तीर्ण परास में आते ही कवयित्री माणिक वर्मा की सामाजिक अधोपतन पर चिंता सर्वजनीन हो जाती है :
ये कैसा इंसान हो गया/ मशीन-सा बेजान हो गया
भावना तथा संवेदना के संसार से टूटकर कृत्रिम दुनिया में आने का मलाल मणिका को कितना गहरा है :
फेसबुक से गाँठी यारी/ रिश्तों से अनजान हो गया
इसी क्रम में, संवेदनशील संसार से जुड़े रहने का संकल्प जितेन्द्र सुकुमार के गीतों में कितना दृढ़ है जहाँ रिश्तों की अहमियत इंसानियत को ज़िंदा रखने के लिए निहायत ज़रूरी है और दिनचर्या में आपसी सहभागिता का नैरंतर्य भी बहुत आवश्यक है :
एक जैसा तेरा-मेरा ग़म का टुकड़ा है/ आ ज़रा मिलके बाँट लें…
और ऐसे सामाजिक साहचर्य के लिए धार्मिक और सांप्रदायिक परिवेश तो पहले से यहाँ उपलब्ध है; बस ज़रूरत है तो पारस्परिक सहिष्णुता की, जो मृतप्राय होती जा रही है :
अज़ां कहीं मन्दिरों में, गान कहीं, शबद कोर्इ गाए
घर-आँगन कहीं राम-राम कहीं कान्हां बंसी बजाए
चुनांचे, यह भी कितना हास्यास्पद है कि हम इंसानियत की इबादत न करके सारी उम्र मस्ज़िदों में फ़िज़ूल बांग देते रह जाते हैं और मंदिरों में बुतों से कृपा पाने के लिए इस अमूल्य जीवन के महत्व को नकार देते हैं। सुंदर सिंह की ये पंक्तियाँ इसी भावना से लबरेज़ हैं :
उसके घर का पता पूछता रह गया/ एक पत्थर को बस पूजता रह गया
तदनन्तर वे मानवीय श्रम-साधना पर बल देते हैं जिसमें जीवन के वास्तविक सुख का अक्षुण्ण कोश छिपा हुआ है :
सारे ही सीपों में देखो/ कोई इक गौहर रक्खा है
इसलिए, यह आवश्यक है कि मनुष्य कोरे सपने देखने से बाज़ आ जाए इसी खुरदरी जमीन पर अपने सुखापेक्षी प्रयत्नलाघव को बनाए रखे। रोहिताश कुमार ‘रोहित’ तो बस यही चाहते हैं क्योंकि उन्हें सपनों की उड़ान में कुछ भी सार्थक नज़र नहीं आता :
मुझे जमीं पर ही रहने दो/ उँचाई से डर लगता है
निःसंदेह, ऐसी ही जीवन-वृत्ति से उनके मन को सुखानुभूति होने वाली है जहाँ :
हवा तो रोज़ छूती थी बदन को/ मगर पहली दफा मन को छुआ है
‘रोहित’ का यह आशावाद ही सार्थक रचनाधर्मिता का मूल मंत्र है जो सुनील सिंह बिष्ट की कविताओं में भी प्रमुखता से विद्यमान है। सुनील आज महाभारत जैसी निरर्थक लड़ाई के आवर्तन के विरुद्ध हैं क्योंकि सौर परिवार की इस बेटी के आँचल में जी रहे सभी मनुष्य परस्पर बंधु-बांधव ही तो हैं जिन्हें एक-दूसरे पर रक्तरंजित युद्धों के ज़रिए हावी होने का कोई अधिकार नहीं है :
जो हारा, उसकी तो पराजय होगी ही/ पर जो जीता, क्या जीत होगी उसकी
यह असीम संसृति एक विशाल पीपल-वृक्ष की तरह है जिसके हर पत्ते अलग-अलग जीवन जी रहे मनुष्य की भाँति हैं जिसे न सहेज पाने का उन्हें ही क्या, हर किसी को मलाल होगा :
किसी बड़े पेड़ का हिस्सा था/ हर पत्ते का एक किस्सा था/ ये रिश्ता भी अब तो टूटा/ हाँ, टूट गया/ पीपल का पत्ता सूखा/ हाँ, सूख गया
सृजन और निर्माण ही कविकर्म का धर्म है। कवि का रचनात्मक अभियान ही मानव-समाज को टूटन और बिखराव से बचाने की भगीरथी कोशिश करता है; आदमी को आदमी से जोड़ने का संदेश देता है। कविवर प्रेम बिहारी मिश्र वर्तमान मनुष्य की अनर्गल आपाधापी पर विराम लगाते हुए, उसे अच्छे संस्कारों का ग्राहकी बनने का संदेश कुछ इस प्रकार देते हैं :
हमको तो कविता भाती है, तुम्हें फिल्म से प्यार सखे
कैसे हो गठबंधन अपना, बदलो यह संस्कार सखे
तुम मायावी जिस दुनिया के, पड़े हुए हो चक्कर में
पाषाणों की भीड़ वहाँ पर, रहते दिल दो-चार सखे
अपनी दिग्भ्रमित गतिविधियों के चलते आदमी नितांत एकाकी और निरुपाय हो गया है। प्रेम बिहारी की यह पीड़ा हम सबकी पीड़ा है :
कितना अकेला हूँ मैं/ खोया हुआ/ प्रपंच के गर्त में/ पैसे की पर्त में/ अपने ही अनर्थ में
इस पतित समाज का हिस्सा बनने के लिए मनोज मोक्षेंद्र की बेचैनी इस लिहाज़ से ज़्यादा मर्मस्पर्शी है कि वह इस आसेबी दौर से स्वयं को कैसे अलग करे :
लम्हे-लम्हे पर सवार हूँ कि नहीं
आसेबी दौर में शुमार हूँ कि नहीं
पर, उसे पूर्ण विश्वास है की वह अपने बलबूते पर ही समाज में इतनी रोशनी बिखेर देगा कि उसे किसी सूरज की आवश्यकता नहीं होगी जबकि ‘अस्मिता के नाम पर’ ‘डाइन सियासत’ ने ऐसा माहौल बना रखा है कि ‘इंसान में पत्थर’ गढ़ने की कोशिशें पुरजोर चल रही हैं।
इस संग्रह की विविधधर्मी रचनाओं में कुछ कवियों का स्वर इतना मुखर, अभिभावी और मर्मस्पर्शी होता जा रहा है कि मेरा विश्वास है कि परवर्ती वर्षों में इनकी बदौलत ऐसी साहित्यिक लीकों का सूत्रपात होगा जिनसे काव्य-गंगा की शीतल सृजनधर्मिता संपूर्ण मानव-समाज को सुख-चैन के जल से सिंचित करेगी और काव्य-धरा को उर्वर बनाएगी। संपादक के रूप में मैं उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।
मनोज मोक्षेंद्र
जीवन-चरित
लेखकीय नाम: डॉ. मनोज मोक्षेंद्र {वर्ष 2014 (अक्तूबर) से इस नाम से लिख रहा हूँ। इसके पूर्व 'डॉ. मनोज श्रीवास्तव' के नाम से लेखन}
वास्तविक नाम (जो अभिलेखों में है) : डॉ. मनोज श्रीवास्तव
पिता: (स्वर्गीय) श्री एल.पी. श्रीवास्तव,
माता: (स्वर्गीया) श्रीमती विद्या श्रीवास्तव
जन्म-स्थान: वाराणसी, (उ.प्र.)
शिक्षा: जौनपुर, बलिया और वाराणसी से (कतिपय अपरिहार्य कारणों से प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित रहे) १) मिडिल हाई स्कूल--जौनपुर से २) हाई स्कूल, इंटर मीडिएट और स्नातक बलिया से ३) स्नातकोत्तर और पीएच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य में) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से; अनुवाद में डिप्लोमा केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो से
पीएच.डी. का विषय: यूजीन ओ' नील्स प्लेज़: अ स्टडी इन दि ओरिएंटल स्ट्रेन
लिखी गईं पुस्तकें: 1-पगडंडियां (काव्य संग्रह), वर्ष 2000, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 2-अक़्ल का फलसफा (व्यंग्य संग्रह), वर्ष 2004, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली; 3-अपूर्णा, श्री सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में कहानी का संकलन, 2005; 4- युगकथा, श्री कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित संग्रह में कहानी का संकलन, 2006; चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह), विद्याश्री पब्लिकेशंस, वाराणसी, वर्ष 2010, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 4-धर्मचक्र राजचक्र, (कहानी संग्रह), वर्ष 2008, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 5-पगली का इंक़लाब (कहानी संग्रह), वर्ष 2009, पाण्डुलिपि प्रकाशन, न.दि.; 6.एकांत में भीड़ से मुठभेड़ (काव्य संग्रह--प्रतिलिपि कॉम), 2014; 7-प्रेमदंश, (कहानी संग्रह), वर्ष 2016, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 8. अदमहा (नाटकों का संग्रह) ऑनलाइन गाथा, 2014; 9--मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में राजभाषा (राजभाषा हिंदी पर केंद्रित), शीघ्र प्रकाश्य; 10.-दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास); 11. चार पीढ़ियों की यात्रा-उस दौर से इस दौर तक (उपन्यास) पूनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018; 12. महापुरुषों का बचपन (बाल नाटिकाओं का संग्रह) पूनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018
संपादन: “महेंद्रभटनागर की कविता: अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति”
संपादन: “चलो, रेत निचोड़ी जाए” (साझा काव्य संग्रह)
--अंग्रेज़ी नाटक The Ripples of Ganga, ऑनलाइन गाथा, लखनऊ द्वारा प्रकाशित
--Poetry Along the Footpath अंग्रेज़ी कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
--इन्टरनेट पर 'कविता कोश' में कविताओं और 'गद्य कोश' में कहानियों का प्रकाशन
--महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा, गुजरात की वेबसाइट 'हिंदी समय' में रचनाओं का संकलन
--सम्मान--'भगवतप्रसाद कथा सम्मान--2002' (प्रथम स्थान); 'रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान--2012'; ब्लिज़ द्वारा कई बार 'बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक' घोषित; 'गगन स्वर' संस्था द्वारा 'ऋतुराज सम्मान-2014' राजभाषा संस्थान सम्मान; कर्नाटक हिंदी संस्था, बेलगाम-कर्णाटक द्वारा 'साहित्य-भूषण सम्मान'; भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता द्वारा ‘साहित्यशिरोमणि सारस्वत सम्मान’ (मानद उपाधि); प्रतिलिपि कथा सम्मान-2017 (समीक्षकों की पसंद); प्रेरणा दर्पण संस्था द्वारा ‘साहित्य-रत्न सम्मान’ आदि
"नूतन प्रतिबिंब", राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक
"वी विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक, समूह संपादक और दिग्दर्शक
'मृगमरीचिका' नामक लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका के सहायक संपादक
हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, कथाक्रम, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, व्यंग्य यात्रा, उत्तर प्रदेश, आजकल, साहित्य अमृत, हिमप्रस्थ, लमही, विपाशा, गगनांचल, शोध दिशा, दि इंडियन लिटरेचर, अभिव्यंजना, मुहिम, कथा संसार, कुरुक्षेत्र, नंदन, बाल हंस, समाज कल्याण, दि इंडियन होराइजन्स, साप्ताहिक पॉयनियर, सहित्य समीक्षा, सरिता, मुक्ता, रचना संवाद, डेमोक्रेटिक वर्ल्ड, वी-विटनेस, जाह्नवी, जागृति, रंग अभियान, सहकार संचय, मृग मरीचिका, प्राइमरी शिक्षक, साहित्य जनमंच, अनुभूति-अभिव्यक्ति, अपनी माटी, सृजनगाथा, शब्द व्यंजना, अम्स्टेल-गंगा, इ-कल्पना, अनहदकृति, ब्लिज़, राष्ट्रीय सहारा, आज, जनसत्ता, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, कुबेर टाइम्स आदि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, वेब-पत्रिकाओं आदि में प्रचुरता से प्रकाशित
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इ-मेल पता: drmanojs5@gmail.com
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