वार्तालाप एवं आत्म-कथ्य // महेन्द्र भटनागर महेन्द्रभटनागर आत्म-कथ्य जीवन और कर्तृत्व जन्म 26 जून 1926 को प्रातः 6 बजे। झाँसी में। ननसार में...
वार्तालाप एवं आत्म-कथ्य // महेन्द्र भटनागर
महेन्द्रभटनागर
आत्म-कथ्य
जीवन और कर्तृत्व
जन्म
26 जून 1926 को प्रातः 6 बजे। झाँसी में। ननसार में। मुहल्ला वासुदेव में स्थित, किराये के, एक मकान में।
पारिवारिक पृष्ठभूमि
पिता श्री रघुनन्दलाल जी भटनागर ग्वालियर-रियासत की नौकरी में अध्यापक थे। खुला-संतर, मुरार-ग्वालियर में स्थित किराये के मकान में रहते थे। उनकी प्रथम नियुक्ति नीमच में हुई। अठारह रुपये मासिक पर। परिवार की आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी। अतः कम उम्र में नौकरी करनी पड़ी। अधिकांश परीक्षाएँ असंस्थागत परीक्षार्थी के रूप में दीं। इतिहास विषय में एम.ए. (आगरा विश्वविद्यालय) थे। अंग्रेज़ी और उर्दू पर उनका बहुत अच्छा अधिकार था। आर्यसमाजी थे। आर्यसमाज के सक्रिय कार्यकर्ता थे। संध्या-हवन करते थे। अच्छे खिलाड़ी थे। विशेष रूप से वॉलीबॉल के। बालचर गतिविधियों में अग्रणी थे। माध्यमिक विद्यालयों के प्रधानाध्यापक रहे। शासकीय इण्टरमीडिट कॉलेज, मंदसौर में इतिहास के व्याख्याता रहे। उज्जैन में सहायक शिक्षा-निरीक्षक रहे। अंत में द्वितीय श्रेणी के हाई स्कूल (मुरार-ग्वालियर) के प्रधानाध्यापक-पद से, छप्पन वर्ष की आयु में (दि. 14 जुलाई 1954 को) सेवा निवृत्त हुए। उन दिनों सेवानिवृत्ति की आयु पचपन वर्ष की थी; किन्तु यशस्वी अध्यापक, योग्य प्रशासक और लब्ध-प्रतिष्ठ शिक्षा-शास्त्र होने के कारण मध्य-भारत सरकार ने, उनके कार्यकाल में, एक वर्ष की वृद्धि की थी। वे अपने सिद्वांतों के बड़े पक्के थे। इस कारण उन्हें कई बार कड़े संघर्ष करने पड़े। विरोधियों के कुचक्र के परिणामस्वरूप, पचपन वर्ष की उम्र में, मध्य-भारत सरकार के तत्कालीन शिक्षा-मंत्र से उनका संघर्ष हुआ। साम्प्रदायिकता और चाटुकारिता से उन्हें सख़्त नफ़रत थी। संघर्ष में विजयी हुए। सेवानिवृत्ति के बाद भी ‘माध्यमिक शिक्षा मंडल’ (मध्य-भारत) के उत्तरदायी कार्य (केन्द्र-निरीक्षण आदि) उन्हें सौंपे जाते रहे। उत्तर-प्रदेश के यशस्वी शिक्षा-शास्त्र और मध्य-भारत के तत्कालीन संचालक श्री भैरवनाथ झा और पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी से उनके बड़े घ्निष्ठ और सम्मानपूर्ण संबंध रहे। पिता जी का निधन कोरोनरी थ्रोम्बोसिस से 17 जुलाई 1959 को, लगभग उनसठ वर्ष की आयु में ग्वालियर (जीवाजीगंज) में हुआ। उनके निधन की जानकारी, मेरे पत्र से, जब श्रीनारायण चतुर्वेदी जी को मिली तो उन्होंने उत्तर में लिखा :
”आपके पूज्य पिताजी के स्वर्गवास का समाचार पढ़कर अत्यंत दुःख हुआ। वे सरल प्रकृति के, सात्विक, ईश्वर-भीरु तथा कर्तव्य-परायण सज्जन थे। ऐसे ही लोगों से शिक्षा-विभाग अपना मस्तक ऊँचा रख सकता है। उनका जीवन आप लोगों को अवश्य प्रेरणा देगा।“
उपर्युक्त पत्र उनके कृतकार्य होने का ज्वलन्त प्रमाण है।
इसी संदर्भ में, विख्यात न्यायविद् श्री शिवदयाल जी के उद्गार भी उल्लेख्य हैं। निम्नांकित दो पत्र उन्होंने मुझे निर्दिष्ट तिथियों में प्रेषित किये :े
”आपके पत्र में मैंने परम पूज्य प्रातःस्मरणीय बाबू रधुनन्ेदन लाल जी का नाम देखते ही मानसिक रूप से उन्हें साष्टांग दंडवत की। वे मेरे शिक्षक ही नहीं; यथार्थ में गुरु थे, और मैं जो कुछ भी बना वह मास्टर रघुनन्दनलाल जी का बनाया हुआ हूँ। (उन्होंने) मानव-मूल्यों की जो सीख समय-समय पर दी वह मेरे जीवन की सबसे बहुमूल्य निधि है।“
शिवदयाल,
विधि-वाचस्पति, सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश, मध्य-प्रदेश।
(दिल्ली/दि. 6 जनवरी 1993)
“I rcalled the very first day when I joined Morar High School in July 1925 in class 5th. of which my class teacher was most respected Babu Raghunandan Lal Ji. He was very fond of me and I often used to go to your house in Baharwala santar for extra classes.”
Delhi/14 Dec. 1995 *Shiv Dayal
पिताजी के शोक में व उनकी याद में, जो स्वतंत्र तीन चतुष्पदियाँ लिखीं; वे मेरे कविता-संग्रह ‘जिजीविषा’ में समाविष्ट हैं। उन दिनों मैं उज्जैन में था और पिताजी के पवित्रा अंतिम-संस्कर-हेतु जीवाजीगंज-ग्वालियर आया हुआ था ः
पूज्य पिता जी की पावन-स्मृति में -
(1) तुम गए जगत से रवि-किरणों पर चढ़ कर
दे कर कभी न भरने वाला सूनापन,
पाने बहुमूल्य तुम्हारी निर्भर छाया
अब तरसेंगे हत-प्राण विकल हो प्रतिक्षण !
(2) तुम गये कि जग-जीवन से उल्लास गया
लगता जैसे जीवन में कुछ सार नहीं,
नश्वर सब, हर वस्तु परायी है जग की
अपना कहने को अपना घर-बार नहीं !
(3) हे दुर्भाग्य ! पिता को छीन लिया तुमने
पर, मेरा जीवन-विश्वास न छीनो तुम,
चारों ओर दिया भर शीतल गहरा तम
पर अरुण अनागत की आस न छीनो तुम !
माँ का नाम श्रीमती गोपाल देवी था। माँ धार्मिक मनोवृत्ति की - पूजापाठ, नेम-धरम, व्रत आदि में विश्वास करने वाली - वैष्णव थीं। वे छुआछूत भी बहुत मानती थीं। रसोई में प्याज़-लहसुन वर्जित था। उर्दू और हिन्दी पढ़ी हुई थीं। ‘रामचरित मानस’ का पाठ प्रायः करती थीं। परम्परागत रीति-रिवाज़ों में पूर्ण आस्था थी। पर्व-त्योहार विधिवत् मानती थीं। अनेक लोक-कथाएँ, पहेलियाँ और लोक-गीत कण्ठस्थ थे। उनके रहते घर का वातावरण परपरागत संस्कारों से युक्त रहता था। वे अंतिम समय तक अपने विश्वासों पर अडिग रही। पिताजी में धार्मिक सहिष्णुता और औदार्य भरपूर था। माँ की वैष्णवता से उनका कभी टकराव नहीं हुआ। वस्तुतः घरेलू काम-काजों में माँ का ही वर्चस्व था। पिता जी ने कभी दख़लंदाज़ी नहीं की। माँ का निधन लगभग 77 वर्ष की आयु में, 14 जुुलाई 1977 को उज्जैन में हुआ।
वंशावली का ज्ञान मुझे अत्यल्प है। इस ओर मेरी रुचि नहीं रही। दादी- बाबा को नहीं देखा। बाबा का नाम श्री मदन मोहन लाल था (अल्ल दिसुनिया)। गाज़ियाबाद (उत्तर-प्रदेश) में उनका मकान था और गाज़ियाबाद के निकट ही, शमशेर गाँव में उनकी ज़मीन थी। मेरे पिता जी जब मात्रा नौ-वर्ष के थे तब बाबा जी की मृत्यु हो चुकी थी। मेरे पास बाबा जी का मात्रा एक रंगीन चित्रा है - हाथ से बनाया हुआ। दादी का नाम श्रीमती मुकुन्दी देवी था; जिनकी मृत्यु सन् 1925 में हुई। श्री मदन मोहन लाल और श्रीमती मुकुन्दी देवी के पाँच संताने हुईं - तीन पुत्र और तीन पुत्र। पुत्रों में मेरे पिता जी सबसे बड़े थे। दोनों चाचाओं के नाम हैं - श्री जगनन्दन लाल और श्री देवकीनन्दन लाल। पुत्रियों के नाम हैं - श्रीमती रामकला और श्रीमती चन्द्रकला। पिता जी का जन्म जलालाबाद (उत्तर-प्रदेश) में हुआ था। जन्म-तिथि विदित नहीं। मात्रा इतना पता है कि जन्म फागुन में हुआ था।
ननसार पक्ष के नाना जी, उनके अनुज-परिवार, सबसे बड़ी बहन और छोटी बहन-बहनोई के सम्पर्क में आया। नाना जी मुंशी हरस्वरूप के पुत्र श्री बंसीधर (जिला बुलन्दशहर, उ.प्र. - गाँव रसूलपुरा में गढ़ी बना कर रहते थे।) सिकन्दराबाद के मूल निवासी थे (अल्ल फ़िरोज़ाबादी); जो सन् 1904 में इलाहाबाद से झाँसी चले आये थे। वे झाँसी में तत्कालीन अंग्रेज़-कलेक्टर के पेशकार चीफ़-रीडर थे। नाना जी की मृत्यु सन् 1941 में हुई। झाँसी, वर्ष में तीनेक बार जाना तो होता ही था - विशेषकर दिर्घावकाशों में। झाँसी में, बचपन में, नाना जी ने ही मुझे उर्दू सिख़ायी। तब मैं बर्रू की क़लम से, काली रोशनाई से, बहुत अच्छी तख़्ती लिखता था।
नानी, मुंगेर, सूबा बिहार में पेशकार श्री चंडीप्रसाद भटनागर की पुत्री थीं; जिनकी मृत्यु सन् 1906 में ही हो गयी थी। मेरी माता जी का जन्म सन् 1900 में, आषाढ़ माह में देवसोनी ग्यारस को, बदायूँ में हुआ। उनका विवाह सन् 1920 में हुआ। उनके श्रीमती रूपवती देवी नामक मात्रा एक बहन थीं; जिनका जन्म उरई में हुआ था।
मेरी दो बहनें, सबसे बड़ी श्रीमती कृष्णा कुमारी (पति स्व. श्री प्रताप शंकर) और सबसे छोटी श्रीमती प्रभा (पति स्व. प्रो. डा. गोपाल जी) हैं और तीन अनुज हैं - ज्ञानेंद्र प्रताप, देवेंद्र प्रताप, वीरेंद्र प्रताप। तीनों भौतिकी विषय में पी-एच.डी. और भौतिकी के यशस्वी प्रोफ़ेसर। अब तीनों सेवानिवृत्त।
बचपन
बचपन झाँसी और मुरार-ग्वालियर में व्यतीत हुआ। मुरार में तब हम ‘खुला संतर’ में रहते थे। किराये के मकान में। प्रथम तल पर। अब इस मकान का स्वरूप पर्याप्त बदल चुका है। इस स्थान से बचपन की अनेक स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। यह समय सन् 1936 और उसक पूर्व का है। तब मैं लगभग दस-वर्ष का था।
पतंग उड़ाने और लूटने का बड़ा शौक़ था। पतंगबाज़ी झाँसी में मामाओं से सीखी ! पतंगें बनाना और मंजा सूतना उन्हीं से सीखा, लेकिन यह पतंगबाज़ी मकान की छत से ही होती थी।
मकान की सफ़ाई करते रहने में बड़ी दिलचस्पी थी। स्वयं गंदे रह लें; किन्तु मकान स्वच्छ रहना चाहिए ! सफ़ाई के उत्साह में, मूर्खतावश, एक दिन मकान में आग लगा बैठा ! छत पर काँटों की कई टट्टियाँ, दीवार के सहारे टिकी रखी थीं। दोपहर में सफ़ाई कर चुकने के बाद, काँटों के बीच फँसा एक छोटा-सा गंदा अख़बारी कागज़ बाहर निकल नहीं पा रहा था। कागज़ का यह टुकड़ा सौन्दर्य-बोध में बाधक था। जब-जब निकालने का प्रयत्न किया, काँटे चुभे। अतः एक युक्ति सूझी। क्यों न उस कागज़ को जला दिया जाये और उसकी राख को फूँक मार कर उड़ा दिया जाये ! तुरन्त दियासलाई लगा दी ! तत्काल, कागज़ के साथ सूखे काँटे भी भभक कर जल उठे ! ऊँची-ऊँची लपटें देखकर, सामने के कुएँ पर टिके घुमन्तु साधु पानी की बाल्टियाँ भर-भर कर भागे और किसी क़दर आग का शमन किया ! टट्टियाँ जल कर राख हो गयीं। कमरे का कुछ छज्जा तड़क गया। लोगों की नाराज़गी देखकर, पास के मंदिर में जा छिपा। वहाँ भी पुजारी की डाँट खानी पड़ी। शाम को, जब पिता जी पाठशाला से आये तो सारी घटना उन्हें इस आशय से बतायी गयी कि मेरी पिटाई हो; लेकिन पिता जी को मेरी मूर्खता पर खूब हँसी आयी ! इस ‘अक़्लमंदी’ पर हँसी तो आज भी सबको आती है !
दोपहर में, जब मेरे उपद्रव बढ़ने लगे तो पिता जी मुझे अपने साथ पाठशाला ले जाने लगे। वहाँ, पिता जी के प्रधानाध्यापक-कक्ष के सामने, टीन के शेड में, कसरत करने के पेरेलल-बार रखे थे - लटक कर व्यायाम करने वाला सिंगिल-बार भी लगा था। सिंगिल-बार ऊँचा था। हाथ पहुँचे इस आशय से, अपने एक हमउम्र छात्र-मित्र की मदद से दो बड़े खण्डे (पत्थर) एक-के-ऊपर-एक रखे और उन पर चढ़ कर सिंगिल-बार पर लटक गया। फिर, छात्र-मित्र से खण्डे हटवा दिये; जिससे करतबों का निर्बाध प्रदर्शन हो सके ! लटक तो गया, पर उतरना नहीं सूझ पाया। करतब करने आते नहीं थे। जब हाथों की शक्ति जवाब देने लगी तो पहले एक हाथ छोड़ा। तदुपरांत ज़ोरदार चीख़ के साथ धड़ाम! यह सब देखकर छात्र-मित्र तो बेतहाशा भाग खड़ा हुआ। पास के, प्रधानाध्यापक-कक्ष से, पिता जी ने आवाज़ सुनी होगी। बाहर निकल कर देखा होगा। लगभग बेहोश पड़ा था। अस्पताल ले जाया गया। बाएँ हाथ की कुहनी की हड्डी टूट गयी थी। खपच्चियाँ लगीं, पट्टी बँधी। उन दिनों प्लास्टर-विधि नहीं थी। दो महीने में ठीक हुआ।
गणेश-चतुर्थी की झाँकियाँ देखने और ताज़ियों के जुलूस में शामिल होने का बड़ा शौक़ था। ताज़ियों का जुलूस हमारे मकान के पास से ही निकलता था। भव्य चमकदार ताजिये और बुर्राक़ !
‘आर्यसमाज-मंदिर’ (मुरार) के वार्षिकोत्सव में प्रति दिन जाता था। भजन बड़े रुचिकर लगते थे। स्वामियों-संन्यासियों के प्रवचनों से प्रभावित होता था। वैदिक-धर्म की अल्पमोली पुस्तिकाएँ ख़रीदता था।
पिता जी जब शासकीय माध्यमिक विद्यालय, सबलगढ़ (मुरैना) में प्रधानाध्यापक बने तो उनके साथ सबलगढ़ रहना पड़ा। विद्यालय में, सबसे पहले सबलगढ़ में ही भर्ती हुआ - सातवीं कक्षा में। हम जिस मकान में रहते थे; वह छात्रावास था। खाली पड़ा रहता था। सामने ही कुआँ था। होली के दिन आस-पास की औरतें जम कर, कीचड़ की होली खेलती थीं। बस्ती से थोड़ी दूर पर ही घनी हरियाली और जंगलों में प्रायः घूमने निकल जाया करता था। बड़े-बड़े तमाम साँप देखने में आते थे। एक बार, बहुत बड़ा साँप हमारे मकान की खपरैल वाली छत पर आ गया ! बंदूक लेकर लोग रात-भर बैठे रहे। पता नहीं, कब-कैसे निकला ! अड़ोस-पड़ोस में जहाँ जाओ, भूतों-प्रेतों के क़िस्से सुनने को मिलते। सब बड़ा रोचक व सनसनीखेज़ था !
पिता जी पुनः मुरार आ गये। चूँकि पिता जी ‘बॉय-स्काउट’ संगठन में कार्य करते थे; इसलिए मैंने भी बॉय-स्काउट में भाग लिया। ग्वालियर-क़िले पर लगे कैम्प में पिता जी के साथ एक रात रहने का स्मरण है। झंडियों की भाषा सीखी।
पिता जी खेल-कूल में बहुत रुचि लेते थे। मेरा प्रिय खेल हॉकी था। ंवॉलीबाल, कबड्डी और खो-खो भी खूब खेली। स्थानीय रेसकोर्स के वार्षिक खेलों में मुरार विद्यालय की जूनियर हॉकी-टीम में, एक्स्ट्रा (अतिरिक्त) खिलाड़ी के रूप में, एक बार, मेरा चयन हुआ। लेकिन, खेलने की ज़रूरत नहीं पड़ी। इण्टरवल में, खिलाड़ियों के साथ रिफ्रेशमेण्ट लिया; जो आज भी याद है ! ओलम्पिक में भी, जूनियर खिलाड़ियों की स्पर्द्धा में, हाई-जम्प (ऊँची कूद) में भाग लिया। चार-फुट से कुछ अधिक ही कूदा ! चाँदी का मैडल पुरस्कार में मिला। एक बार, जब छोटे चाचा जी को यह मैडल दिखाया तो वे बड़ी प्रसन्न मुद्रा में बोले - तुम तो बहुत बड़े उच्चके निकले ! इस वाक्य से आहत होकर, मैडल सदा के लिए अपनी बडी बहन को दे दिया !
आर्यसमाज-मंदिर, मुरार में ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ की शाखा लगती थी। वहाँ जाने लगा। वहाँ मेरे एक विद्यालय-सहपाठी श्री नरेश जौहरी (जो बाद में, मध्य-प्रदेश की जनसंघ-सरकार में एक मंत्र बने) ने मुझे लाठी चलाना सिखायी; लेकिन वहाँ के जड़ और अप्रिय अनुशासन में मेरा मन नहीं रमा।
पिताजी शतरंज के खिलाड़ी थे। विद्यालय के कई अध्यापक हमारे घर प्रायः आते और जम कर शतरंज खेलते। उनके देखा-देखी मैं भी शतरंज खेलना सीख गया। शतरंज की अपनी योग्यता पर मुझे बड़ा गुमान था। आगे चल कर जब ‘विक्टोरिया कॉलेज’ में शतरंज-स्पर्द्धा हुई तो मैंने भी भाग लिया। प्रतिस्पर्द्धी मुझे देखकर घबराया। जब-तक वह खेला, उसका हाथ बराबर काँपता रहा। पाँच बाज़ी खेलनी थीं। लेकिन, मैं लगातार दो बाज़ी हार गया ! तीसरी बाज़ी भी जब हारने वाला था तब क्रोधवश प्रतिस्पर्द्धी पर कोई आरोप लगा कर, मोहरे फेंक दिये और वहाँ से भाग खड़ा हुआ! शतरंज-प्रभारी छात्र मुझे बुलाता रह गया। श्री अटलबिहारी वाजपेयी, जो हमारे छात्र-यूनियन के नेता/अध्यक्ष थे, पूछते-देखते रह गये! इस घटना की ग्लानि आज भी है। वह प्रतिस्पर्द्धी भला और सीधा था। चुटकियों में उसे हरा दूंगा; ऐसा दृढ़ आत्मविश्वास मेरे मने में था तब! जल्दबाज़ी की। खेल में ध्यान नहीं दिया। चालें ग़लत पड़ गयीं। और वह बड़े सब्र से, सावधानी से खेलता रहा। यह पराजय मेरे लिए सबक़ साबित हुई। यह घटना कोई बचपन की नहीं। शतरंज-प्रसंग था, एतदर्थ उसका यहाँ उल्लेख करना युक्तियुक्त समझा। संगति के अभाव में शतरंज छूट भी गयी।
बहन मुझसे मात्रा एक वर्ष बड़ी थीं। हारमोनियम सिखाने उन्हें एक टीचर घर आते थे। बहन अकेली न रहें; इस कारण, उनके साथ बैठने के उद्देश्य से, मुझे भी हारमोनियम सीखना पड़ा। हारमोनियम बजाना और उस पर गाना मैंने बहन से बेहतर ही सीखा !
इस प्रकार, बचपन बड़ी बेफ़िक्री और आज़ादी से बीता। पढ़ने-लिखने में रुचि कम रही।
शिक्षा
प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। ‘माध्यमिक विद्यालय,सबलगढ़’ में सातवीं कक्षा में अध्ययन किया। सत्र 1937-38। सबलगढ़ में रह कर, ‘प्राथमिक चिकित्सा’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण की (सेंट जॉन एम्बुलेंस एसोसिएशन/पंजीयन क्र. 12841 दिनांक 23.3.38)। ‘मुरार विद्यालय’ में आठवीं कक्षा में अध्ययन किया। सत्र 1938-39। आठवीं की परीक्षा ग्वालियर-रियासत की महत्त्वपूर्ण परीक्षा थी। इस परीक्षा का केन्द्र ‘गोरखी विद्यालय, लश्कर’ था। गणित विषय बेहद कमज़ोर था। परीक्षा किसी क़दर उत्तीर्ण की। सन् 1941 में हाई स्कूल, मुरार से ही, मैट्रिक पूरा किया (अजमेर बोर्ड)। मैट्रिक में भी अंकगणित ने मारा। रेखा-गणित और बीज-गणित के बल पर गणित विषय में उत्तीर्ण हो सका। श्रेणी तृतीय। चित्राकला और इतिहास में विशेष रुचि थी।
इन दिनों, द्वितीय विश्व-युद्ध चल रहा था (1 सितम्बर 1939 से)। दैनिक समाचार-पत्रों को देखने-पढ़ने से देश-विदेश की गतिविधियों में रुचि उत्पन्न हुई। राष्ट्रीय स्वाधीनता-संग्राम आन्दोलनों और राष्ट्रीय नेताओं तथा हिटलर, मुसोलिनी, चर्चिल, स्तालिन आदि के बारे में जाना। साम्राज्यवाद, नाज़ीवाद, प्रजातंत्र और साम्यवाद के बारे में जाना। यह काल मेरे लिए बौद्विक जागरण का काल था। पिता जी ‘मुरार विद्यालय-छात्रावास’ के अधीक्षक थे इन दिनों। हम विद्यालय-परिसर में ही अधीक्षक-आवास में रहते थे। छात्रावास के प्रबुद्व छात्रों के सम्पर्क में आना हुआ, जिनमें कवि स्व. श्री रघुनाथसिंह चौहान के संसर्ग की स्मृतियाँ सजीव हैं।
जुलाई 1941 में, इंटरमीडिएट कक्षा के प्रथम-वर्ष में अध्ययन-हेतु, ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ में प्रवेश लिया। विषय - अंग्रेज़ी, हिन्दी-साहित्य, भूगोल और अर्थशास्त्र। प्राचार्य अंग्रेज़ थे श्री बी.ए. इंग्लिश। मुरार से, साइकिल से कॉलेज जाता था - लगभग दस किलोमीटर दूर। प्रथम-वर्ष की परीक्षा स्थानीय थी। उत्तीर्ण हो गया। जुलाई 1942 में, इंटरमीडिएट कक्षा के द्वितीय-वर्ष में (अजमेर बोर्ड) ‘माधव महाविद्यालय, उज्जैन’ में प्रवेश लिया; क्योंकि पिता जी का स्थानांतरण उज्जैन हो गया था। प्राचार्य श्री एच. आर. दिवेकर जी थे। परीक्षा-केन्द्र ‘क्रिश्चियन कॉलेज, इंदौर’ था। इस प्रकार सन् 1943 में इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की। श्रेणी तृतीय। इस सत्र, ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ द्वारा संचालित 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से सम्बद्ध छात्र-जुलूसों में भाग लिया। पिताजी को इसकी भनक भी नहीं लगने दी। साहित्यकार श्री नरेश मेहता यहाँ एक सत्र मेरे सहपाठी रहे।
इस अवधि में, उज्जैन-केन्द्र से, मैंने ‘मध्यमा’ परीक्षा (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग) भी उत्तीर्ण कर ली - संवत् 1999 विक्रमाब्द। श्रेणी द्वितीय। ऐच्छिक विषय थे - अंग्रेज़ी और भूगोल। इन दिनों, ‘सम्मेलन’ के सभापति श्री माखनलाल चतुर्वेदी थे।
आगे, उच्च-अध्ययन हेतु (बी.ए.) ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ में पुनः प्रवेश लिया। दो सत्र, अपने बड़े चाचा जी के साथ, कोतवाली संतर, मुरार रहा। सन् 1944 में, बी.ए. का प्रथम भाग उत्तीर्ण किया। प्रथम भाग की परीक्षा स्थानीय थी। आगामी सत्र, सन् 1945 में बी.ए. की उपाधि प्राप्त की। द्वितीय श्रेणी पाने में मात्रा एक प्रतिशत कम रह गया ! इंटरमीडिएट और बी.ए. - दोनों परीक्षाओं का माध्यम अंग्रेज़ी रहा। इस दौरान, श्री अटलबिहारी वाजपेयी मेरे कॉलेज सहपाठी रहे। वे बड़े लोकप्रिय छात्र-नेता थे। ख़ाकी नेकर और बंद गले की कमीज़ पहनते थे। मुझे ‘महेंद्र जी-महेंद्र जी’ कहते थे। चूँकि मैं मुरार से लश्कर ‘विक्टोरिया कॉलेज’ जाता था; इस कारण सम्पर्क के अधिक अवसर नहीं आये। कक्षाएँ समाप्त होते ही घर भाग आता था। लश्कर के रात्रि-कालीन कवि-सम्मेलनों में भी भाग नहीं ले पाता था।
अधिक साइकिल मजबूरी में ही चलाता था। अटल जी उन दिनों भी प्रखर वक्ता थे। वार्षिक स्नेह-सम्मेलन के अवसर पर, मैदान में, उत्तम स्वल्पाहार का आयोजन होता था। पुरस्कार-वितरण के बाद, छात्र बेतहाशा भाग कर स्वल्पाहार की टेबिलों पर टूट पड़ते थे। छीना-झपटी मच जाती थी। सारी व्यवस्था भंग हो जाती थी। 1944-45 वाले सत्र पर, पुरस्कार-वितरण के बाद श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने बुलन्द आवाज़ में कहा - स्वल्पाहार के लिए हम कुत्तों की तरह नहीं भागेंगे! यह सुनकर सब रुक गये। सब शांतिपूर्वक, मैदान में, स्वल्पाहार से भरी-सजी टेबिलों तक पहुँचे और किसी भी छात्र ने उनके इस कथन का बुरा न माना। ‘तन से हिन्दू, मन से हिन्दू , रग-रग हिन्दू मेरा परिचय !’ उनकी इसी काल की रचना है। सत्र-समाप्ति के कुछ महीने पूर्व, श्री शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ की हिन्दी-प्राध्यापक पद पर नियुक्ति हुई। अतः बी.ए. के अंतिम वर्ष में, कुछ माह ‘सुमन’ जी ने हमारी कक्षा भी ली। मैथिलीशरण गुप्त का ‘द्वापर’ पढ़ाया। व्यक्तिगत संस्मरणों और अनेक कण्ठस्थ काव्य-उद्धरणों की प्रस्तुति से ‘सुमन’ जी का अध्यापन बड़ा प्रभावी व रोचक होता था। इस समय तक, उनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हुए थे - ‘हिल्लोल’ और ‘जीवन के गान’। अटलबिहारी वाजपेयी जी उनकी कविता और अनके रहन-सहन में, शायद, कोई संगति नहीं देखते थे। तभी उन्होंने यह गीत लिखा था - ‘ये जीवन के गान नहीं हैं!’ बी.ए. करने के बाद, मैंने शिक्षण-क्षेत्र अपना लिया और उज्जैन चला आया। अटल जी ने राजनीति का रास्ता अपनाया। बरसों फिर कोई सम्पर्क नहीं हुआ।
दोनों सत्र, प्राचार्य, श्री एफ.जी. पीयर्स (अंग्रेज़) थे। यशस्वी शिक्षा-शास्त्र। हमें सप्ताह में, एक या दो दिन, बर्नार्ड शॉ का नाटक ‘आर्म्स एण्ड द मैन’ पढ़ाते थे। अभिनय के साथ। अभिनय - स्वर का, मुख-मुद्राओं का, हस्त-संचालन का। अपने भूगोल के प्राध्यापक श्री एम.एम. कुर्रेशी जी को भी मैं भूल नहीं सकता। उनका सौम्य, शालीन, शान्त स्वरूप। उनका सौन्दर्य-बोध। उनकी अध्यापन-शैली। विषय पर उनका अधिकार। उनकी कार्य-निष्ठा। कार्य-निष्ठा तो उस समय के सभी प्राध्यापकों में थी - उज्जैन के; ग्वालियर के।
मुरार में, श्री हरिहरनिवास द्विवेदी जी से संबंध घनिष्ठ होते गये। उनकी अध्ययन-स्थली ‘विद्या-मंदिर’ प्रायः रोज़ जाना होता था। उन दिनों, ग्वालियर में ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ का ‘साहित्यरत्न’ का परीक्षा-केन्द्र नहीं था। हरिहरनिवास जी ने केन्द्र खोलने के लिए पहल की। नियमानुसार निर्दिष्ट संख्या में, परीक्षार्थियों से परीक्षा-आवेदन प्रपत्र भरवाये। मैंने भी भरा। हरिहरनिवास जी ने भी भरा! प्रयत्न सफल रहे। ग्वालियर में ‘साहित्यरत्न’ का परीक्षा-केन्द्र खुल गया। लेकिन, ‘विद्या-मंदिर, मुरार’ में नहीं। लश्कर में, जहाँ प्रथमा-मध्यमा परीक्षाओं का केन्द्र रहा होगा; वहाँ। हमने और हरिहरनिवास जी ने, ‘साहित्यरत्न’ प्रथम-खण्ड की परीक्षा साथ-साथ दी। सम्भवतः परीक्षा-केन्द्र ‘गोरखी विद्यालय’ था। दोनों उत्तीर्ण हुए। हरिहरनिवास जी ने मात्रा परीक्षा-केन्द्र खुलवाने के निमित्त अपूर्ण परीक्षा दी।
बी.ए. करने के बाद, मुझे नौकरी करने पड़ी;क्योंकि घर की आर्थिक दशा शोचनीय थी। लेकिन अध्ययन-क्रम नहीं तोड़ा। ‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से एम.ए. हिन्दी करने का निश्चय किया। नियमानुसार, बी.ए. के तीन-वर्ष बाद ही, स्वाध्यायी परीक्षार्थी एम.ए. की परीक्षा दे सकते थे - पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्व एक साथ। अतः सन् 1948 में ही, एम.ए. की परीक्षा दे सकता था।
अतः इस बीच, उत्तमा (‘साहित्यरत्न’) के द्वितीय खण्ड को निपटा लेना उचित समझा। उत्तमा का द्वितीय खण्ड ‘मध्य-भारत हिन्दी सहित्य समिति, इंदौर-केन्द्र’ से उत्तीर्ण किया। संवत् 2002 विक्रमाब्द। श्रेणी द्वितीय। इन दिनों, ‘हिन्दी-साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ के सभापति श्री कन्हैयालाल मुंशी थे। परीक्षा-मंत्र डा. रामकुमार वर्मा। प्रांतीय भाषा का प्रश्न-पत्र, मैंने मराठी का लिया। इन दिनों, उज्जैन के ‘आदर्श विद्यालय’ में अध्यापक था। वहाँ, मेरे साथ श्री गजानन माधव मुक्तिबोध के अनुज, मराठी के यशस्वी कवि श्री शरच्चंद्र मुक्तिबोध भी अध्यापक थे। उन्होंने और लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर माचवे जी ने मुझे मराठी-साहित्य का ज्ञान कराया। मौखिक रूप से। प्रश्नों के उत्तर हिन्दी में ही देने होते थे। हिन्दी से मराठी में और मराठी से हिन्दी में अनुवाद करने में भी सक्षम हो गया था।
सन् 1948 में, एम.ए. हिन्दी की परीक्षा देने नागपुर गया। धर्मशाला में ठहरा। वहाँ हिन्दी के सुप्रसिद्ध आलोचक प्रोफ़ेसर विनयमोहन शर्मा जी से, उनके निवास पर मिला। उनका व्यवहार बड़ा आत्मीय रहा। वे मेरे लेखन-कर्म से पूर्व-परिचित थे। विनयमोहन जी से मेरे संबंध अंत तक बने रहे। उन्होंने मेरे साहित्यिक कर्तृत्व मेंं निरन्तर रुचि ली। प्रोत्साहित किया। हर प्रकार का सहयोग उनसे प्राप्त हुआ। एम.ए. की परीक्षा में उच्च द्वितीय श्रेणी मिली। प्रावीण्य-सूची में चतुर्थ स्थान रहा।
सत्र 1949-50 में, ‘टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, देवास’ से एल. टी. किया। देवास में, छात्रावास में रहा। प्रसिद्ध लेखक श्री श्याम परमार (उज्जैन), श्री रामस्वरूप ‘पथिक’ (ग्वालियर) और यशस्वी गायक श्री कुमार गंधर्व की पत्नी श्रीमती कोेमकली (देवास) सह-छात्र-शिक्षक/सहपाठी रहे। देवास के मराठी-कवि श्री गोविंद झोंकरकर जी से भी इन्हीं दिनों परिचय हुआ। ‘प्रतिभा निकेतन’ नामक साहित्यिक संस्था के माध्यम से देवास में, बड़े पैमाने पर, साहित्यिक गतितिधियों का संचालन किया।
आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी इन दिनों ‘विश्व भारती’ शांतिनिकेतन में थे। डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी के लिखने पर, उन्होंने मुझे शोध करने हेतु ‘विश्व भारती’ बुलाया। साक्षात्कार के लिए। घर की आर्थिक स्थिति इतनी नाज़ुक थी कि मैं अपनी अस्सी रुपये प्रति माह की, पक्की सरकारी नौकरी छोड़ कर, जा नहीं सका। अतः ‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से ही पी-एच.डी. करने का निश्चय किया। आचार्य विनयमोहन शर्मा जी के निर्देशन में पंजीयन हो गया। विषय - ‘प्रेमचंद के उपन्यास’ था। महाविद्यालयीन कार्यों की व्यस्तताओं और रचनात्मक लेखन के दबावों के फलस्वरूप शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत करने में विलम्ब होता गया। दि. 11 अप्रैल 1957 को मुझे पी-एच.डी. की उपाधि प्रदान कर दी गयी। सन् 1957 में ही, यह शोध-प्रबन्ध ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ नाम से ‘हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी’ से प्रकाशित हो गया।
विवाह/परिवार
विवाह 12 मई 1952 को स्व. श्री वसंतराय भटनागर की बेटी कुमारी कमलेश (जिनका नाम मैंने ‘सुधारानी’ रखा) से जीवाजीगंज, लश्कर में हुआ। जन्म संवत् 1990 वि. आश्विन। मैं इन दिनों, ‘आनन्द महाविद्यालय, धार’ में हिन्दी-व्याख्याता था और परिजन मुरार रह रहे थे; क्योंकि उन दिनों पिता जी ‘मुरार हाई स्कूल’ में प्रधानाध्यापक थे। श्रीमती सुधारानी ने सन् 1950 में ‘पंजाब विश्वविद्यालय’ की ‘भूषण’ परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा विवाह-बाद सन् 1954 में मुरार-केन्द्र से मैट्रिक-परीक्षा (अजमेर बोर्ड)। श्रेणी द्वितीय। तीन पुत्र हैं; पुत्र नहीं। ’अजय कुमार - जन्म 14 नवम्बर 1957, बी. एस-सी, एम.बी., बी.एस., कर्मचारी राज्य बीमा चिकित्सा, मध्य-प्रदेश में सहायक सर्जन/बीमा चिकित्सा अधिकारी । विवाह 11 अक्टूबर 1991 को भोपाल में सम्पन्न हुआ। बहू श्रीमती ममता संगीत/गायन में एम.ए. है। दो बेटे हैं - विराज (जन्म 11 अक्टूबर 1995) और स्वराज (जन्म 22 अप्रैल 1998)’ आलोक कुमार - जन्म 3 दिसम्बर 1959 एम.एस-सी. (प्राणि-विज्ञान), एम.ए. (अर्थशास्त्र), बी.एड. शाखा-प्रबंधक - चम्बल क्षेत्रय ग्रामीण बैंक। विवाह 18 अप्रैल 1992 को कानपुर में सम्पन्न हुआ। बहू श्रीमती अर्चना अंग्रेज़ी-साहित्य में एम.ए. और बी.एड. है। दो बेटियाँ हैं - इरा (जन्म 6 जून 1993), ईशा (जन्म 25 अप्रैल 1996) और एक बेटा - रजत (जन्म 24 नवम्बर 1997)। ’कुमार आदित्य विक्रम - जन्म 4 नवम्बर 1968, एम.ए. संगीत/गायन, सुगम-संगीत गायक और सिन्थेसाइज़र-वादक। विवाह 21 अक्टूबर 1997 को डबरा (ग्वालियर) में सम्पन्न हुआ। बहू श्रीमती सीमा इतिहास में एम.ए. है। दो बेटे हैं - असीम विक्रम (जन्म 26 जून 1999) और सुसीम विक्रम ( जन्म 26 जून 2000)
शैक्षिक कार्य
उज्जैन/देवास (जुलाई 1945 से 28 जुलाई 1950 तक)
घर की आर्थिक स्थिति शोचनीय होने के कारण, बी. ए. करने के बाद, साठ रुपये प्रति माह की नौकरी करनी पड़ी। बी. ए. में मेरा एक ऐच्छिक विषय भूगोल था। उन दिनों, भूगोल-स्नातकों की कमी थी; इस कारण, ‘मॉडल हाई स्कूल, उज्जैन’ में भूगोल-अध्यापक का पद मुझे तुरन्त, जुलाई 1945 में ही, मिल गया। मेरे कार्य-भार ग्रहण करने के पूर्व, इसी विद्यालय में श्री गजानन माधव मुक्तिबोध कार्यरत थे। यहाँ मेरा उनसे मिलना नहीं हो सका। मेरा दूसरा शिक्षण-विषय हिन्दी रहा। इस विद्यालय में, मात्रा एक सत्र रहा (1945-46)। अध्यापक का यही पद, स्थायी रूप से, ग्वालियर-रियासत के सरकारी विद्यालय ‘महाराजवाड़ा हाई स्कूल, उज्जैन’ में मिल गया। इस विद्यालय में, मालवा के प्रसिद्व कवि श्री भगवंतशरण जौहरी हिन्दी-अध्यापक थे। 17 जुलाई 1946 से 28 जुलाई 1950 इस संस्था में रहा। बीच में, सत्र 49-50, ‘टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, देवास’ एल.टी. करने जाना पड़ा। शासन की ओर से ही चयन हुआ था। एल.टी. करने के बाद, वेतन अस्सी रुपये प्रति माह हो गया। सन् 1948 में, चूँकि एम.ए. (हिन्दी) कर चुका था और अब एल.टी. भी हो गया था; एतदर्थ शासन ने मुझे पदोन्नत कर, हिन्दी-व्याख्याता बना कर, ‘शासकीय आनन्द इण्टरमीडिएट महाविद्यालय, धार’ स्थानान्तरित कर दिया।
धार (29 जुलाई 1950 से 27 सितम्बर 1955)
‘आनन्द इण्टरमीडिएट, धार’ में हिन्दी-विभागाध्यक्ष था। वेतन 150/- प्रति माह। ‘केनेडियन मिशन’ में दो-वर्ष ट्यूशन भी की। केनेडा से आये, ईसाई धर्म-प्रचारकों को, अंग्रेज़ी के माध्यम से, हिन्दी भाषा का ज्ञान करवाया। धार में रह कर आदिवासी संस्कृति से भी परिचित हुआ। उनके नृत्यों का अवलोकन किया; समूह गीत सुने। श्री अमीर महोम्मद खाँ साहब इसी महाविद्यालय में ग्रंथपाल बन कर आये थे; जिन्होंने मेरी अनेक कविताओं के अंग्रेज़ी-काव्यानुवाद किये। धार में रहकर बहुत बड़े पैमाने पर, साहित्यिक गतिविधियों का संचालन किया - ‘प्रतिभा-निकेतन’ और ‘युवक साहित्यकार संघ’ द्वारा। एक दिन, तत्कालीन शिक्षाधिकारी निरीक्षण पर आये; मेरी कक्षा में काफ़ी देर तक बैठे। मेरे अध्यापन को लक्ष्य कर जो टिप्पणी उन्होंने दी, वह इस प्रकार है :
“He was calm and steady. His black-board work was good and effective. Questions were well distributed and class co-operation obtained. His class control was very good.”
–J.J. Anukoolam
Dy. Director of Education, Indore Region.
ताज़ा एल.टी. करके आया था; उपर्युक्त अभिमत अच्छा लगा। धार के मूल-निवासी, सम्मानित शिक्षा-शास्त्र श्री सुमेरसिंह बोड़ाने, मध्य-भारत सरकार में शिक्षा उप-संचालक-पद से सेवानिवृत्त होने के बाद, ‘आनन्द इण्टरमीडिएट महाविद्यालय, धार’ में, कुछ समय, प्राचार्य रहे। महाविद्यालय से कार्य-मुक्त होते समय उन्होंने, अपनी ओर से ही, मुझे निम्नलिखित पत्र सौंपा :
“Shree Mahendra Bhatnagar has been working as a Lecturer of Hindi in the College. He is a quite Scholar of repute and a budding poet. On the eve of my departure from the college, I have no hesitation to recommend him for any higher responsibilities. He edited the college magazine with great success. His relations with both pupils and colleagues were extremely warm. He was always loyal & co-operative in any work entursted to him. I wish him all good sluck.
Date : 30th April 1955 -S.Bodane
राजा भोज की धारा नगरी से स्थानान्तरण, पदोन्नति के कारण हुआ। मध्य-भारत के तत्कालीन शिक्षा-सचिव विद्वान लेखक व साहित्य-प्रेमी श्री युधिष्ठिर भार्गव थे। वे मुझसे परिचित व प्रभावित थे। डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी ने भी मेरे बारे में बताया। डिग्री-कॉलेज व्याख्याता वरिष्ठता-क्रम से ही बना; किन्तु श्री युधिष्ठिर भागर्व जी के रुचि लेने से पदोन्नति में विलम्ब नहीं हुआ और उन्होंने मुझे ‘माधव स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उज्जैन’ में पदस्थ किया।
उज्जैन (28 सितम्बर 1955 से 15 जुलाई 1960 तक)
28 सितम्बर 1955 को ‘माधव स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उज्जैन’ में डिग्री-कॉलेज-व्याख्यता का कार्य-भार ग्रहण किया। उन दिनों, डिग्री-कॉलेज- व्याख्याता को 250/- प्रति माह मिलते थे। हिन्दी-विभागाध्यक्ष श्री गोपाल व्यास थे; जिन्होंने मुझे दसवीं (मुरार) और ग्यारहवीं (उज्जैन) कक्षाओं में पढ़ाया था। श्री भगवंतशरण जौहरी भी कुछ समय साथ रहे। 22 नवम्बर 1957 को, इसी महाविद्यालय में पुनः पदोन्नत होकर , सहायक-प्रोफ़ेसर बना। मध्य-प्रदेश का निर्माण हुआ। ‘माधव महाविद्यालय’ ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ को, अस्थायी रूप से, सौंप दिया गया। हम, प्रतिनियुक्ति पर, ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के अन्तर्गत कार्य करने लगे। श्री गोपाल व्यास जी के स्थानान्तरण के बाद, विभागाध्यक्ष का कार्य-भार सँभाला। ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ से संबंधित, हिन्दी के समस्त कार्य देखने पड़ते थे। बाद में, ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ की अपनी हिन्दी-अघ्ययन-शाला खुली। कुलपति चाहते थे कि मैं स्थायी रूप से विश्वविद्यालय की सेवाओं में आ जाऊँ। आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, उन दिनों, ‘सागर विश्वविद्यालय’ में हिन्दी-विभागाध्यक्ष थे। वे हमारे यहाँ ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ में बाह्य विशेषज्ञ सदस्य थे। उनका उज्जैन आना बना रहता था। एक बार वे मेरे यहाँ ठहरे भी। विश्वविद्यालय में स्थायी रूप से आ जाऊँ; ऐसा वे भी चाहते थे। उन्होंने एक प्रशंसा-पत्र भी मुझे दिया :
“I have much pleasure in testifying to the ability and scholarship of Dr. Mahendra Bhatnagar. I have been acquainted with him for the last 10 years. Dr. Bhatnagar impressed me as a consciencious young man devoted to literature. He had been a progressive poet of much promise. His poems have won for him widespread reputation and recognition. He is also devoted to academic pursuits. His Ph.D. thesis on Premchand is marked by clarity of thought and succinct reasoning. Dr.Bhatnagar has been a teacher of Hindi at colleges in Madhya Bharat. Recently he has been teaching at the Vikram University of Ujjain. Dr. Bhatnagar has fine power of expression and I am sure he will prove an excellent teacher of Hindi at that University. I wish him every success in the teaching profession.”
Dt. 16-4-60 Prof. N.D.Bajpeyi
‘ ‘माधव महाविद्यालय’ के प्राचार्य साहित्यिक अभिरुचि-सम्पन्न थे। उनके साथ उज्जैन में ‘आन्तर् भारती’ नामक साहित्यिक संस्था दो-तीन वर्ष सफलतापूर्वक चलायी। उन्होंने भी मुझे प्रेरित किया। उनका भी एक प्रशंसा-पत्र मेरे पास है ः
“I have known Dr. Mahendra Bhatnagar for about four years, and I am glad to put it on record that he is an asset to the Department of Hindi in this college, being not merely an academician but a creative writer also.
He has a fine personality and his pleasant manners make everyone feel at home in his presence. He is always anxious to do something, and keeps an open mind,
Essentially a man of letters, Dr. Bhatnagar has bright future provided, he gets the necessary opportunities.
He bears a good moral character.”
Dated : 20th. April 1960 [N.B. Paradkar]
लेकिन धर्म-संकट फिर रहा! अपनी पेंशन वाली सरकारी नौकरी छोड़ना ठीक नहीं समझा। विश्वविद्यालयों की राजनिति से भी भयभीत था। जीवन की मेरी मूल-प्रेरणा रचनात्मक लेखन थी। शांति से रहने का अभिलाषी था। शासकीय सेवा में ही, निकट भविष्य में, प्रोफ़ेसर-पद मिलने की सम्भावना भी थी। प्रतिनियुक्ति कुछ बाधक प्रतीत हुई। अतः शासकीय सेवा में लौट जाने का मन बना। स्वेच्छा से, शासकीय सेवा में लौट आया। सरकार, शायद, ऐसा न चाहती हो। प्रार्थना-पत्र वापस ले लूँ, सम्भवतः ऐसा सोच कर, मेरा स्थानान्तरण अच्छी जगह नहीं किया! पहले झाबुआ किया - स्नातक कॉलेज में; फिर उसे निरस्त कर, स्नातक कॉलेज, दतिया में। आपत्ति की तो बताया, जहाँ स्थान रिक्त होगा, वहीं तो पदस्थ किया जा सकेगा। विवश हो, दतिया जाना पड़ा।
दतिया (दि. 16 जुलाई 1960 से दि. 26 जुलाई 1960 तक)
दि. 16 जुलाई 1960 को ‘शासकीय स्नातक महाविद्यालय, दतिया’ में हिन्दी-विभागाध्यक्ष का कार्य-भार ग्रहण कर, अवकाश लेकर, अपने गृह-नगर ग्वालियर चला आया। झाँसी से जुड़ा होने के कारण, दतिया के प्रति लगाव था। बचपन में सुन रखा था :
झाँसी गले की फाँसी, दतिया गले का हार,
ललितपुर कभी न छोड़ियो जब-तक मिले उधार !
ग्वालियर के पास होने के कारण भी दतिया जाने में मुझे कोई मानसिक कष्ट नहीं हुआ। कुछ दिन बाद ही, दतिया महाविद्यालय के प्राचार्य ने सूचित किया कि मेरा स्थानान्तरण ‘होल्कर स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इंदौर’ हो गया है। अतः तुरन्त दतिया गया और कार्य-मुक्त हुआ।
इंदौर (27 जुलाई 1960 से दि. 6 अगस्त 1961 तक)
दि. 27 जुलाई 1960 को ‘होल्कर स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इंदौर’ में सहायक-प्रोफ़ेसर का कार्य-भार ग्रहण किया। आगामी सत्र से (दि. 1 जुलाई 1961) इस महाविद्यालय के कला-वाणिज्य विभाग को पृथक कर, नया महाविद्यालय बनाया गया - ‘शासकीय कला-वाणिज्य स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इंदौर’। यहाँ 6 अगस्त 1961 तक रहा। अचानक, मेरा स्थानान्तरण मेरे गृह- नगर ग्वालियर कर दिया गया। इससे पर्याप्त राहत मिली।
ग्वालियर (दि. 7 अगस्त 1961 से दि. 23 जुलाई 1964)
‘महारानी लक्ष्मीबाई कला-वाणिज्य स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर’ (पूर्व-नाम ‘विक्टोरिया कॉलेज’) के रिक्त प्रेफ़ेसर-पद के विरुद्ध दि. 7 अगस्त 1961 को कार्य-भार ग्रहण किया। जिस भव्य महाविद्यालय-भवन में कभी पढ़ा; उसी में अब पढ़ाने लगा। यहाँ संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष डा. प्रभुदयालु अग्निहोत्रा थे। जब-तक प्रोफ़ेसर का पद रिक्त रखा गया; मैं इस महाविद्यालय में बना रहा। दि. 23 जुलाई 1964 तक। प्रोफ़ेसर की नियुक्ति होते ही; मेरा महू स्थानान्तरण कर दिया गया।
महू (दि. 24 जुलाई 1964 से दि. 23 नवम्बर 1969 तक)
दि. 24 जुलाई 1964 को ‘शासकीय स्नातक महाविद्यालय, महू’ में हिन्दी- विभागाध्यक्ष का पद सँभाला। यह महाविद्यालय ‘इंदौर विश्वविद्यालय’ से सम्बद्ध था। विभागाध्यक्ष और क्षेत्रधिकार में वरिष्ठ सहायक प्राध्यापक होने के कारण ‘इंदौर विश्वविद्यालय’ की कई समितियों पर मेरा मनोनयन हुआ। महाविद्यालय का वरिष्ठतम प्राध्यापक होने के कारण, कार्यकारी प्राचार्य का दायित्व भी जब-तब निभाना पड़ता था। इस महाविद्यालय में हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक-कवि-पत्रकार श्री विष्णु खरे मेरे साथ कुछ समय रहे - अंग्रेज़ी-विभाग में व्याख्याता। महाविद्यालय के छात्र-नेता श्री किशन पंत मेरे प्रिय शिष्य थे। आख़िर, वरिष्ठता-क्रम से, प्रोफ़ेसर-पद पर पदोन्नत होने का दिन आया। मंदसौर नियुक्ति हुई।
मंदसौर (24 नवम्बर 1969 से 30 जून 1978)
दि. 24 नवम्बर 1969 को ‘शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मंदसौर’ में हिन्दी-प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष का पद ग्रहण किया। यह महाविद्यालय जब इंटरमीडिएट कॉलेज था, तब मेरे पिता जी, कुछ समय, इसी में इतिहास के व्याख्याता थे। यह महाविद्यालय ‘विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन’ से सम्बद्ध था। मंदसौर रहकर, वरिष्ठता के कारण, ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ की विभिन्न एकेडेमिक गतिविधियों में भाग लेना पड़ा। कुलपति डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ थे। मंदसौर के डिप्टी-कलेक्टर, संस्कृत-हिन्दी के विद्वान और उपन्यास-लेखक, श्री मोहन गुप्त से घनिष्ठ हुआ। उनके सहयोग से, मंदसौर में अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजन सम्पन्न किये। स्थानीय साहित्यकार-पत्रकार श्री रामगोपाल शर्मा ‘बाल’ मेरे प्रिय शिष्य रहे। मेरे दो बेटों - अजय और आलोक ने इसी महाविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की - बी.एस-सी. (प्राणी-विज्ञान)। महाविद्यालय में वरिष्ठतम प्रोफ़ेसर होने के कारण, कार्यकारी प्राचार्य और विश्वविद्यालयीन परीक्षाओं के संचालन का दायित्व निभाना पड़ता था। एक दिन, एक स्थानीय कांग्रेसी नेता के पुत्र ने, अपने साथियों को इक्ट्ठा करके, काफ़ी हंगामा मचाने की चेष्टा की। प्राचार्य का कार्य-भार उस रोज़ मेरे पास था। वैसे, मेरे से उसके संबंध सम्मानपूर्ण थे। कॉलेज से उसकी नाराज़गी के कारण जो रहे हों। संभवतः प्राध्यापकों की ट्यूशनबाज़ी। स्थायी प्राचार्य बाहर गये हैं; यह उपद्रवी छात्रों को पूर्व-विदित नहीं था। फ़ोन करके डिप्टी-कलेक्टर को बुलवा लिया। आख़िर, कांग्रेसी नेता का पुत्र था ! अच्छा ही हुआ। मेरा हौसला देख कर वे भी प्रभावित हुए। अगले दिन, स्थायी प्राचार्य ने भी मुझे लिख कर साधुवाद दिया ः
No. 1176/74 Dated-18 April '74
Dear Dr. Bhatnagar,
I am glad to learn that you handled the situation very well on the 17th April 1974, during the 11.00 a.m. to 2.00 p.m. shift of this year's University Examinations. Please give me early a detailed and exhaustive report, confidentially, in writing on all that happened that day."
Yours Sincerely,
V.K.Shrivastava, Principal
मंदसौर में पर्याप्त व्यस्त रहना पड़ा। एक अन्य प्राचार्य ने, स्वेच्छा से, मुझे प्रशंसा-पत्र पहुँचाया :
”मुझे अभिलेख पर यह अंकित करते हुए प्रसन्नता है कि आपने हिन्दी- विभागाध्यक्ष के रूप में अपने विभाग का संचालन कर्त्तव्य-निष्ठा की भावना और दक्षता से निरन्तर किया। हिन्दी-विभाग की उन्नति के लिए आप सदैव क्रियाशील रहे। आपके जागरूक मार्ग-दर्शन में ग्रंथालय के हिन्दी-खण्ड की अभिवृद्धि हुई। विभिन्न कक्षाओं के हिन्दी विषय के छात्रों के अध्यापन-कार्य में आप सतर्कतापूर्वक रुचि लेते रहे। अपने सहयोगी अध्यापकों पर भी इस दिशा में आपने निरन्तर दृष्टि रखी और उन्हें भी कर्त्तव्य निभाने के लिए प्रेरित कर निर्भीकतापूर्वक शैक्षिक हितों को सर्वोपरि स्थान दिया।
आपके निर्देशन में हिन्दी-विभाग में शोध-कार्य भी सर्वाधिक हुआ। आप विश्वविद्यालयीन परीक्षाओं का संचालन भी योग्यतापूर्वक निरन्तर करते रहे।
महाविद्यालय-पत्रिका ‘कीर्ति’ के सम्पादन-कीर्तिमान भी आपने स्थापित किये।
आशा है, आप अपने शेष कार्य-काल में और भी उत्तम कार्य करके दिखाएंगे।“
दि. 19 जनवरी 1978 (डा. के. सी. भंडारी)
प्राचार्य
सेवानिवृत्ति में छह-वर्ष शेष थे। अपने गृह-नगर ग्वालियर आना चाहता था। कुछ स्थितियाँ ऐसी बनीं कि मेरा स्थानान्तरण ग्वालियर हो गया।
ग्वालियर (1 जुलाई 1978 से 30 जून 1984 तक)
दि. 1 जुलाई 1978 को, ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ से सम्बद्ध, ‘कमला राजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर’ में हिन्दी-प्रोफ़ेसर व विभागाध्यक्ष का कार्य-भार ग्रहण किया। प्राचार्य श्रीमती डा. रमोला चौधरी थीं। यहाँ भी वरिष्ठता के कारण, पाठ्येतर गतिविधियों के अतिरिक्त, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय के अनेक दायित्व वहन करने पड़े। विश्वविद्यालयीन वार्षिक परीक्षाओं के संचालन का; कार्यकारी प्राचार्य का। महाविद्यालय-परिसर में ही छात्रावास था - उसकी समस्याएँ। ‘स्टेट बैंक ऑफ इंडिया’ की परीक्षाओं का भी संचालन-भार जब-तब रहा। प्राचार्य ने अनेक प्रशासनिक-कार्य व दायित्व मुझे सौंप रखे थे। श्रीमती रमोला चौधरी की सेवानिवृत्ति-बाद तो प्राचार्य का कार्य-भार अनेक माह तक मेरे पास रहा - सम्पूर्ण वित्तीय अधिकारों के साथ। इस अवधि में, स्थानीय प्रशासन का पूर्ण सहयोग मुझे मिला। महाविद्यालय के अनेक लंबित कार्यों को निपटाया।
श्रीमती रमोला चौधरी जिस सत्र सेवानिवृत्त हुईं; छात्र-संघ के चुनाव को लेकर, छात्राओं का एक दल कोर्ट चला गया था। इस प्रकरण की प्रामाणिक जानकारी श्रीमती रमोला चौधरी को थी या छात्र-संघ की प्रभारी-प्राध्यापिका को। विश्वविद्यालय के तत्कालीन नये कुलपति नाहक मुझे इस प्रकरण में उलझाना चाहते थे; जब कि प्रकरण मेरे कार्य-काल का था ही नहीं। बार-बार बुलावे आते। कुलपति का मात्रा मान रखने के उद्देश्य से, हर बार प्रभारी-प्राध्यापक को भेजा। प्रकरण चूँकि कोर्ट में था अतः उस पर अन्यत्र कोई औपचारिक चर्चा करना अवांछित था। इस प्रसंग को लेकर नये कुलपति की, मेरे प्रति, ग़लतफ़हमियाँ बढ़ती गयीं; वे पूर्वाग्रह-ग्रस्त होते गये। जब कि मैंने उनका असम्मान कभी नहीं किया। चूँकि मैं मध्य-प्रदेश सरकार का प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी था; विश्वविद्यालय का अधिकारी-कर्मचारी नहीं, इस कारण वे मुझे कोई क्षति पहुँचा नहीं सके।
एक सत्र (दि. 28 अगस्त 1982 से दि. 14 जुलाई 1983 तक) ‘शासकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरार-ग्वालियर’ हिन्दी- विभागाध्यक्ष रहा।
15 जुलाई 1983 को पुनः ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियर’ आ गया।
सेवानिवृत्त होने के लगभग एक सत्र पूर्व, ‘शासकीय स्नातक महाविद्यालय, कवर्धा (राजनंदगाँव)’ के प्राचार्य-पद पर मेरी पदोन्नति हुई। लेकिन मात्रा एक सत्र के लिए प्राचार्य बनना और कवर्धा जाना नहीं चाहा। अतः पदोन्नति छोड़ दी।
कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’ से ही, 58 वर्ष की आयु पूर्ण होने के बाद, 30 जून 1984 को सेवानिवृत्त हुआ।
समापन
सेवाकाल के अंतिम छह-वर्ष, कन्या महाविद्यालयों में बीते। इस कारण, ग्वालियर के छात्र-समुदाय से कटा रहा। माना, कन्या महाविद्यालयों में बड़ी शान्ति रही। अनुशासन-समस्या से मुक्त रहा।
जहाँ-जहाँ गया, छात्रों से भरपूर सम्मान व सहोयग मिला। मेरे अनेक छात्र, आज भी मेरे घनिष्ठ शिष्य-मित्र हैं। मेरे अनेक शिष्य आज स्तरीय साहित्यकार हैं; उच्च-पदों पर आसीन हैं। शासन की ओर से भी मुझे कोई असुविधा अनुभव नहीं हुई। स्थानान्तरण अच्छे स्थानों पर ही हुए। केवल मध्य-भारत में। जब कि मेरी राजनीतिक पहंँच नगण्य थी/है। मात्रा उज्ज्वल चरित्रावली के बल पर, 38 वर्ष की शासकीय नौकरी निडर रह कर; ससम्मान पूर्ण की।
मेरे सेवानिवृत्त होने के लगभग दो-माह बाद ही, प्राध्यापकों की सेवा-निवृत्ति आयु 60 हो गयी और महाविद्यालयीन प्राध्यापकों को ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ के नये वेतनमान व कई पेंशन-लाभ मिल गये। मैं इन तमाम लाभों से वंचित रहा। अधिकांश कार्य-काल अल्प-वेतन पर व्यतीत हुआ। हाई-स्कूल अध्यापक-पद से क्रमशः पदोन्नत होता हुआ महाविद्यालयीन प्रोफ़ेसर-पद तक पहुँचा। पेंशन मात्रा 930/- प्रति माह नियत हुई; जो पाँच वर्ष-बाद पुनरीक्षित हुई। आर्थिक तंगी आजन्म बनी रही। शेष जीवन नीरोग व्यतीत हो; आर्थिक अभाव कभी समस्या न बने; बस, इतना अलम है।
सेवानिवृत्ति-बाद
अन्वेषक : विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली
सेवानिवृत्त होने के पूर्व, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ को एक शोध- परियोजना का प्रारूप अनुमोदनार्थ भेज दिया था। विषय था-‘प्रेमचंद के कथा- पात्र : सामाजिक-स्तर और उनकी मानसिकता’। उपयुक्त समय पर, यह शोध- योजना स्वीकृत हो गयी। परियोजना पाँच-वर्ष की थी; किन्तु स्वीकृत मात्रा तीन-वर्ष के लिए हुई। शोध-केन्द्र ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’ ही रहा। सितम्बर 1984 से जून 1987 तक कार्य किया। लेखन-कार्य तीन-वर्ष में पूर्ण नहीं हो सका। जितना लिखा, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ को टाइप करवाके, सौंप दिया। इस शोध-परियोजना केे लिए, ‘आयोग’ ने, मानदेय सहित, कुल 56,000/- पाँच क़िस्तों में, प्रदान किये।
‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय’ IGNOU
‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय’ का अध्ययन-अध्यापन केन्द्र ‘जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर’ में भी है। केन्द्र के समन्वयक ने अध्यापन-हेतु मुझसे अनुरोध किया; जो मैंने स्वीकार कर लिया। मात्रा एक सत्र (फ़रवरी से जून 1992) ही गया। विद्यार्थी आते नहीं थे। समयावधि प्रति-दिन ढाई घंटे; मानदेय मात्रा एक-सौ रुपये प्रतिदिन।
विश्वविद्यालयीन कार्य
‘इंदौर विश्वविद्यालय, इंदौर’ / सन् 1964-68
‘शासकीय स्नातक महाविद्यालय, महू’ में जब हिन्दी-विभागाध्यक्ष था, तब ‘इंदौर विश्वविद्यालय’ में ‘कला संकाय समिति’, ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ और ‘महासभा’ का सदस्य रहा। एकेडेमिक क्षेत्र में नया अनुभव हुआ।
‘विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन’ / सन् 1969 से 78
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मंदसौर-कार्यकाल में ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ से जुड़ा रहा। यहाँ भी अनेक समितियों का सदस्य रहा; यथा- ‘विद्या-परिषद’, ‘महासभा’, ‘कला संकाय समिति’, ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ और ‘हिन्दी परीक्षा समिति’ का। ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ की ‘हिन्दी अध्ययन शाला’ के अध्यक्ष आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र कि सेवानिवृत्त होने पर, ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ में वरिष्ठतम प्रोफ़ेसर होने के करण, ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ के अध्यक्ष-पद पर मेरा मनोनयन हुआ (अधिसूचना 19 अक्टूबर 1973)। अध्यक्ष बनने के कारण, ‘हिन्दी शोध उपाधि समिति’ और ‘हिन्दी प्रश्न-प्रत्रा मॉडरेशन बोर्ड’ पर भी पदेन सदस्य रहा।
इस अवधि में, ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ द्वारा स्नातक-स्तर तक के, विभिन्न विधाओं के पाठ्-संकलन, योग्य प्राध्यापकों द्वारा तैयार करवाए गये। तदुपरांत उन्हें ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ ने मुद्रित-प्रकाशित किया। दो पाठ्य-संकलन मैंने भी तैयार किये - ‘गद्य गरिमा’ और ‘कहानी-कुंज’। इनकी भूमिकाएँ लिखीं। ‘विश्वविद्यालय’ ने सम्पादकों-संकलनकर्ताओं को समुचित पारिश्रमिक दिया।
‘जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर’ / सन् 1978 से 83
‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ के कुलपति जब डा. हरस्वरूप जी (प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष, प्राणी-विज्ञान, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन) नियुक्त हुए तो मैंने,मंदसौर से, उन्हें बधाई-पत्र भेजा। उत्तर में उन्होंने लिखा :
My Dear Dr. Bhatnagar,
I acknowledge with thanks your kind letter congratulating me on being appointed Vice-Chancellor of Jiwaji University, Gwalior. I shall Join the new assignment on 24th oct. 1977. I understand you originally belong to Gwalior. In case you are transferred there, I shall have ample opportunities to meet and discuss with you many matters.
With kind regards,
Yours Sincerely,
H. Swarup
Dated : 26-8-1977
और लगभग आठ-माह बाद ही, मेरा स्थानान्तरण ग्वालियर हो गया!
सर्वप्रथम, दि. 31 जनवरी 1979 को, जीवाजी विश्वविद्यालय- क्षेत्रधिकार के स्नातकोत्तर महाविद्यालयों के हिन्दी-विभागों के सर्वेक्षण और निरीक्षण का दायित्व सौंपा गया - ‘मध्य-प्रदेश राज्य उच्च-शिक्षा अनुदान आयेग, भोपाल और जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर द्वारा। समिति में तीन सदस्य थे। ग्वालियर के अलावा दतिया, भिंड, गुना, शिवपुरी, मुरैना और अम्बाह के महाविद्यालयों में हमारा दल गया। तदुपरांत, ‘मध्य-प्रदेश उच्च-शिक्षा अनुदान आयोग’ को हमने अपना प्रतिवेदन सौंपा। यह कार्य बड़ा सुखद रहा।
‘मध्य-प्रदेश साहित्य परिषद्, भोपाल’ एवं जीवाजी विश्वविद्याल के संयुक्त तत्वावधान में, ग्वालियर में, ‘युवा लेखक शिविर’ (दि. 16 और 17 मार्च 1980 को) आयोजित किया गया; जिसका संयोजन- दायित्व मुझे सौंपा गया। यह ‘शिविर’ मात्रा जीवाजी विश्वविद्यालय- क्षेत्रधिकार में स्थित महाविद्यालयों के छात्र-रचनाकारों के लिए आयोजित था। ‘शिविर’ में डा. विनयमोहन शर्मा, डा. विद्यानिवास मिश्र, श्री हरिहरनिवास द्विवेदी, डा. ललित शुक्ल, डा. गोविन्द ‘रजनीश’, डा. कमलाप्रसाद प्रभृति विद्वानों ने भाग लिया; छात्र-रचनाकारों का मार्ग-दर्शन किया। इस अवसर पर पढ़े गये आलेख ‘संवाद’ नामक पुस्तिका में संगृहीत हैं।
‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ में भी अनेक समितियों पर रहना और कार्य करना था; यथा - ‘कला संकाय-समिति’, ‘विद्या-परिषद्’, ‘हिन्दी परीक्षा समिति’, ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’, ‘हिन्दी शोध-उपाधि समिति’, ‘हिन्दी प्रश्न-पत्र मॉडरेशन बोर्ड’ आदि। सर्वाधिक विश्वविद्यालयीन- कार्य ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ में करना पड़ा।
25 अक्टूबर 1980 को ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ का, दि. 30 जून 1983 तक के लिए, पुनर्गठन हुआ और वरिष्ठता के आधार पर मुझे उसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया। ‘मंडल’के समस्त निर्णय सर्व-सम्मत रहे। स्नातक-स्तर के पाठ्य-संकलनों को, ‘मध्य-प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल’ द्वारा प्रकाशित करवाने का ऐतिहासिक व क्रांतिकारी क़दम इसी ‘मंडल’ द्वारा उठाया गया।
30 अक्टूबर 1981 को ‘मध्य-प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल’ के तत्कालीन संचालक श्री सुरेंद्र मिश्र ने मुझे, ‘अकादमी’ की एक विशिष्ट बैठक में आमंत्रित किया :
महोदय,
अकादमी के द्वारा पुनर्गठित ‘हिन्दी विषय सलाहकार समिति’ की बैठक दि. 12 बजे अकादमी कार्यालय में आयोजित की गई है।
इस बैठक के आयोजन का मुख्य उद्देश्य हिन्दी-साहित्य की उन पुस्तकों के प्रकाशन-कार्य को हाथ में लेना है जो विश्वविद्यालय-पाठ्य-क्रमों में पाठ्य-ग्रंथ के रूप में अनुशंसित की जाती हैं।
इस योजना को अंतिम रूप देने के लिए अकादमी, इस संबंध में आपसे मार्ग-दर्शन एवं परामर्श करना चाहती है। इस बैठक में, विश्वविद्यालय-पाठ्यक्रमों में अनुशंसित हिन्दी-साहित्य की संकलित पाठ्य-पुस्तकों के अकादमी द्वारा प्रकाशन- प्रस्ताव एवं उसे मूर्त रूप देने की प्रक्रिया के संबंध में विचार किया जाएगा।
कृपया इस बैठक में अवश्य ही पधारने का कष्ट करें।
सहयोग-कामना सहित -
भवदीय
(सुरेंद्र मिश्र)
संचालक
इस पत्र से मुझे पर्याप्त प्रेरणा मिली। ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ का अनुभव था ही। ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ के स्नातक-स्तर के पाठ्य-संकलन ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ के सदस्यों-द्वारा अविलम्ब तैयार करवाये और उन्हें ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ द्वारा ‘मध्य-प्रदेश हिन्दी-ग्रंथ अकादमी’ को प्रकाशनार्थ पहुँचा दिया। एक संकलन ‘एकांकी-वैभव’ मैंने भी तैयार किया। इस अनुष्ठान में ‘अकादमी’ के तत्कालीन संचालक श्री सुरेंद्र मिश्र का मुझे जो व्यक्तिगत सहयोग प्राप्त हुआ; उसी के फलस्वरूप संकलन समय पर प्रकाशित हो सके (इस संदर्भ में, उनसे हुआ मेरा विशिष्ट पत्रचार द्रष्टव्य है; जो ‘अकादमी’ की संबंधित पंजिका में सुरक्षित होगा।)।
सन् 1981 से 1983; ‘जनरल ऑफ जीवाजी विश्वविद्यालय’ (मानविकी) के हिन्दी-भाग का सम्पादन किया। मेरे कार्य-काल में मात्रा दो-अंक प्रकाशित हुए।
समापन
कुलपति डा. हरस्वरूप जी के अत्यधिक सम्मानपूर्ण-आत्मीयतापूर्ण व्यावहार के कारण ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ में कार्य करना अच्छा लगा। ‘विश्वविद्यालय’ में, जहाँ तक हिन्दी का संबंध था; सब मेरी इच्छानुसार हुआ। समस्त गोपनीय कार्य मेरी उपस्थिति में सम्पन्न हुए। अचानक, डा. हरस्वरूप जी के निधन से मुझे बड़ी व्यक्तिगत क्षति पहुँची।
उनके पश्चात् ‘लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक प्रशिक्षण महाविद्यालय, ग्वालियर’ के डा. रॉबसन (जो उस समय, ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ के वरिष्ठतम अधिष्ठाता थे।) कार्यकारी कुलपति बने। उनका भी मुझे भरपूर अद्भुत सहयोग मिला। समयाभाव की विवशता के कारण, ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ द्वारा अधिकृत, मात्रा मुझ अध्यक्ष द्वारा, मात्रा बी.ए. भाग प्रथम में, मात्रा एक सत्र के लिए, पाठ्य- पुस्तकों के निर्धारण को लेकर, स्थानीय प्रकाशकों ने ‘उच्च-न्यायालय, ग्वालियर’ में, ‘जीवाजी विश्वविद्यालय’ के विरुद्ध याचिका प्रस्तुत की। चूँकि ‘हिन्दी अध्ययन मंडल’ की कार्रवाई नियम-विरुद्ध नहीं थी और कुलपति द्वारा अनुमोदित थी; अतः ‘उच्च-न्यायालय’ ने, पहली सुनवाई में ही, याचिका निरस्त कर दी। डा. रॉबसन बड़े दबंग व्यक्ति थे। वे ‘विश्वविद्यालय’ की दुष्टतापूर्ण गंदी राजनीति से भली-भाँति परिचित थे। आख़िर, ‘विश्वविद्यालय’ के कार्य रुक नहीं सकते। निर्णय लेने ही पड़ते हैं।
डा. रॉबसन के बाद, जो नये कुलपति आये, उन्होंने पूर्व-कुलपतियों से मेरे संबंधों के बारे में सुना ही होगा। उन दिनों, मैं ‘कमलाराजा कन्या महाविद्यालय’ में कार्यकारी प्राचार्य था। प्रारंभ में ही, न जाने वे किस ग़लतफ़हमी के शिकार हो गये! वस्तुतः उन्हें निहित स्वार्थी तत्वों ने गुमराह किया। वैसे, आदरपूर्वक सहज ही मिलते थे। सन् 1982 में, ग्वालियर की साहित्यिक संस्था ‘अंकुर’ द्वारा मेरा जो सार्वजनिक सम्मान हुआ, वह नये कुलपति के द्वारा ही हुआ। वरिष्ठता-क्रम से, विश्वविद्यालय की विभिन्न समितियों में मनोनयन कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं होती। वरिष्ठता सापेक्ष होती है। जो व्यक्ति आज किसी विश्वविद्यालय में वरिष्ठतम है; वह किसी अन्य विश्वविद्यालय- क्षेत्रधिकार में स्थानांतरित होने पर वरिष्ठतम नहीं भी रह पाता। अतः मनोनयन-प्रसंग को मैंने कभी अनावश्यक महत्त्व नहीं दिया।
शोध-कार्य
शोध-निर्देशन :
मेरे शोध-निर्देशन में, सन् 1997 तक, सोलह शोधार्थियों को पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त हो चुकी है। प्रथम शोधार्थी डा. दुर्गाप्रसाद झाला (शाजापुर/म.प्र.) हैं; जो आज लब्ध-प्रतिष्ठ आलोचक व कवि हैं। इन्हें सन् 1966 में, ‘विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से, उपाधि मिली। यह शोध-प्रबन्ध ‘प्रगतिशील हिन्दी कविता’ नाम से प्रकाशित है (‘ग्रंथम’, कानपुर : 1967)।
शोध-निर्देशन का कार्य ‘इंदौर विश्वविद्यालय, इंदौर’, ‘विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन’, ‘जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर’, ‘बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी’ और ‘डा. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा’ में करता रहा हूँ और आज भी कर रहा हूँ। प्रमुख रूप से, मेरा शोध-क्षेत्र आधुनिक हिन्दी-साहित्य है।
शोध-प्रबन्ध परीक्षण :
सर्वप्रथम, सन् 1962 में, ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग’ ने मुझे शोध-संबंधी दायित्व सौंपे। एक शोध-प्रबन्ध परीक्षण-हेतु भेजा-‘निमाड़ के संत कवि सिंगा जी और उनका साहित्य’। साथ में, राजस्थान के एक प्रसिद्व कवि ‘श्रीबद्रीदास की काव्य-साधना और हिन्दी-साहित्य को उनकी आध्यात्मिक देन’ नामक विषय पर प्रस्तुत रूपरेखा पर मेरी सम्मति माँगी।
एक-सौ से अधिक, शोध-प्रबन्धों का परीक्षण कर चुका हूँ। एक शोध-प्रबन्ध डी.लिट्. का भी (‘आगरा विश्वविद्यालय’)। परीक्षण-हेतु प्राप्त पी-एच॰डी॰ का प्रथम शोध-प्रबन्ध ‘आगरा विश्वविद्यालय’ का था (सन् 1964-65) -‘एटा ज़िले की अलीगंज तहसील की बोलियों का रूपात्मक अध्ययन’।
एम.ए. और एम.फिल. के तमाम लघु शोध-प्रबन्धों का भी परीक्षण किया।
मौखिकी लेने अधिक दूर, अब तो बिलकुल नहीं जाता। हवाई-यात्रा से भी बुलाया, तो भी नहीं गया!
शोध-उपाधि समितियों में :
‘विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन’, ‘जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर’ और ‘डा. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा’ की शोध-उपाधि समितियों में सदस्य रहा। ‘डा. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा’ की ‘शोध-उपाधि समिति’ में बाह्य-विशेषज्ञ सदस्य के रूप में (मार्च 1996 से फरवरी 1998 तक) रहा। यहाँ, मेरे साथ, अन्य बाह्य-विशेषज्ञ सदस्य ‘दिल्ली विश्वविद्यालय’ के प्रोफ़ेसर डा. महेन्द्र कुमार थे। शोध-उपाधि समितियों पर रह कर, हिन्दी-शोध-स्तर को ऊँचा उठाने की भरसक चेष्टा की।
शोध-संदर्भ गं्रथ :
डा. गिरिराजशरण अग्रवाल (बिजनौर) के सम्पादन में प्रकाशित ‘शोध-संदर्भ’ ग्रंथों (भाग 2 और 3) के परामर्श-मंडल में एक सदस्य मैं भी हूँ।
ग्वालियर शोध-संस्थान :
‘ग्वालियर शोध-संस्थान’ (‘जीवाजी विश्वविद्यालय’) के मानसेवी निदेशक डा. हरिहरनिवास द्विवेदी थे। अगस्त 1980 में मैं इस ‘संस्थान’ की कार्यकारिणी का सदस्य मनोनीत हुआ - तीन-वर्ष के लिए :
प्रिय डा. महेन्द्र जी,
आपका 27-8-80 कर कृपा-पत्र मिला। आप ‘ग्वालियर शोध संस्थान’ को सहायोग देने के लिए सहमत हैं; इसके लिए ग्वालियर आपका आभारी रहेगा।
‘ग्वालियर शोध-संस्थान’ के संविधान केे अनुसार हिन्दी के वरिष्ठ प्रोफ़ेसर होने के नाते सदस्य मनोनीत होने के अधिकारी हैं, और इसी कारण कुलपति महोदय ने आपको मनोनीत किया है। यह मनोनयन तीन-वर्ष के लिए होता है।
आप 30-8 की बैठक में उपस्थित हों; यह मेरी इच्छा है। परन्तु अपनी इच्छा मनवा सकूँ ऐसा अधिकार आप पर अब मेरा नहीं रहा। फिर भी बाट तो देखूंगा ही।
अगस्त 28, 1980 आपका,
(हरिहरनिवास द्विवेदी)
मानसेवी निदेशक, ग्वालियर शोध संस्थान
‘ग्वालियर शोध संस्थान’ का औपचारिक उद्घाटन, मध्य-प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल-द्वारा दि. 4 अक्टूबर 1980 को हुआ। उद्घाटन-कार्यक्रम के संचालन का दायित्व मुझे सौंपा गया। मेरे समग्र प्रदर्शन से प्रभावित हो कर, डा. हरिहरनिवास द्विवेदी जी ने मुझे पत्र भेजा :
प्रिय डा. महेन्द्र जी,
‘ग्वालियर शोध संस्थान’ के उद्घाटन-समारोह पर, 4 अक्टूबर 1980 को आपने जा अत्राट, विद्वतापूर्ण तथा कुशलतापूर्ण मंच-संचालन किया; उसके लिए मैं अपका कृतज्ञ हूँ और अपनी प्रशंसा-भावना संप्रेषित करता हूँ।
हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ के शब्दों में यही कहूंगा-
‘बाँसुरी जादू भरी, रस-भर बजाए जा सलौने !’
आपका,
दि. अक्टूबर,1980 (हरिहरनिवास द्विवेदी)
डा. हरिहरनिवास द्विवेदी जी के निधन के बाद से, ‘ग्वालियर शोध संस्थान’ का क्या हुआ; कुछ विदित नहीं! ‘विश्वविद्यालय’ ने फिर मुझसे कोई सम्पर्क नहीं किया।
परिसंवाद-प्रतिभागी
साहित्य अकादमी, नई दिल्ली-द्वारा, ‘लेनिन शताब्दी समारोह’ के उपलक्ष्य में, इंदौर में आयोजित, एक स्तरीय परिसंवाद में, मालवा-क्षेत्र के एक विशिष्ट आमंत्रित प्रतिभागी के रूप में सम्मिलित हुआ (सन् 1970)। अन्य प्रतिभागियों में डा. नामवर सिंह, डा. शम्भुनाथ सिंह, श्री शरद जोशी, श्रीमती शीला संधू (राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) प्रभृति अनेक विचारकों व रचनाकारों ने इस परिसंवाद में विचार-विमर्श किया।
आकाशवाणी
1 आकाशवाणी, नई दिल्ली सुगम-संगीत का अनुबन्धित कवि सन् 1954 से; जब इस विभाग के सलाहकार पं. उदयशंकर भट्ट थे।
2 आकाशवाणी-केन्द्र इंदौर के प्रारम्भ होते ही, ‘आकाशवाणी’ के अनेक
ृ विभागों से संबंध स्थापित हुए। उन दिनों उज्जैन था।
3 ‘आकाशवाणी ड्रामा ऑडीशन कमेटी’, केन्द्र-इंदौर का दो वर्ष के लिए सदस्य रहा (सन् 1960)
4 ‘आकाशवाणी सुगम-संगीत ऑडीशन कमेटी’, केन्द्र-ग्वालियर का दो-दो वर्ष के लिए सदस्य रहा (सन् 1992, 1998)
निर्णायक
बिहार, उत्तर-प्रदेश और राजस्थान की साहित्यिक संस्थाओं के तत्वावधान में आयोजित विभिन्न पुरस्कार-योजनाओं के अन्तर्गत, निर्णायक का दायित्व, अनेक बार निभाया :
1 बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
सन् 1981 और 1983
2 उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
सन् 1983
3 राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
सन् 1991, 1993 और 1994
पदाधिकारी (साहित्यिक संस्थाएँ)
कार्यक्षेत्र ग्वालियर और मालवा रहा। जब जहाँ रहा; वहाँ की साहित्यिक संस्थाओं में कार्य किया। किसी संस्था में अध्यक्ष पद पर तो किसी में सचिव पद पर। शासकीय स्तर पर स्थापित अनेक साहित्यिक समितियों का सक्रिय सदस्य रहा; यथा-‘कालिदास समारोह समिति’, मंदसौर, ‘महर्षि अरविन्द शताब्दी समारोह समिति’, मंदसौर आदि। देवास, धार, उज्जैन और मंदसौर में बड़ी कश-म-कश रही। ‘प्रतिभा निकेतन’ (देवास और धार), ‘आन्तर् भारती’ (उज्जैन), ‘श्रीरामचरित मानस चतुश्शताब्दी समारोह ज़िला समिति’, मंदसौर और ‘सूर पंचशती समारोह ज़िला समिति’, मंदसौर के अनेक स्तरीय आयोजन अविस्मरणीय हैं।
सन् 1994 से 1997 तक ‘मध्य-प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’, भोपाल की ‘व्यवस्थापिका सभा’ का सदस्य रहा। सन् 1996 में, ग्वालियर में ‘मध्य-प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ की इकाई स्थापित की। इस ‘समिति’ का कार्याध्यक्ष रहा। ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’, वर्धा से भी जुड़ा हुआ हूँ।
ताशकंद-प्रसंग
‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ में हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्यापन-हेतु, मेरे नाम पर विचार होगा; ऐसा कभी सोचा न था! एक दिन, अचानक, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’, नई दिल्ली के सचिव का एक लिफ़ाफ़ा मिला; जिसमें ‘विक्रम विश्वविद्यालय’, उज्जैन के कुलपति को भेजे गये पत्र (16-17 जून 1977) की प्रतिलिपि थी :
Dear Vice-Chancellor,
The Tashkant State University, USSR proposes to invite a few Indian specialists in Hindi Language & Literature and Urdu Language & Literature of work at that University. The assignment will be initially for a period of two years, extendable by mutual concent. Appointments will be made on deputation and the selectd teachers will have the option to carry their own scale of pay and draw the same pay as they would have drawn in India. Other allowances and facilities will include foreign allowances, children allowance, furnished accomodation, medical facilities and to and fro air passage for the scholar and family (supouse and upto three dependent children only). The candidates would be rquired to appear before a Selection Committee for personal interview.
The ICCR had requested the University Grants Commission to intimate some teachers for this purpose. The UGC panel on Modern Indian languages has recommended Dr. Mahendra Bhatnagar, Government Postgraduate College, Mandsaur (M.P.) to be considered for assignment in USSR.
The University Grants Commission will be grateful if you kindly let me know whether you would agree to the above teacher being nominated for this purpose. If so, his bio-data in triplicate may be sent to the University Grants Commission urgently.
Yours Sicerely,
R.K.Chhabra, Secretary : UGC
यह पत्र मेरे लिए सुखद आश्चर्य था। इन दिनों मैं ‘शासकीय महाविद्यालय, मंदसौर’; में प्रोफ़ेसर और हिन्दी-विभागाध्यक्ष था। कुछ दिन बाद ही, ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के कुलपति का पत्र (20 जून 1977) आया :
प्रिय महेन्द्र,
अभी मैं 13 जून को, ताशकंद विश्वविद्यालय में हिन्दी और उर्दू के प्रोफ़ेसरों की नियुक्ति के संबंध में दिल्ली गया था। वहाँ मैंने संयोग से तुम्हारे नाम की सिफ़ारिश कर दी और आज मुझे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सचिव के पत्र से मालूम हुआ कि तुम उसके लिए चुन लिए गए हो। यह नियुक्ति शुरू में दो वर्ष के लिए होती है। इस संबंध में मुझसे तुम्हारी स्वीकृति माँगी गई है। अतएव तुम मुझे लौटती डाक से सूचित करो कि इस संबंध में तुम्हारी क्या मंशा है और यदि स्वीकार हो तो अपने संक्षिप्त जीवन-विवरण की तीन प्रतियाँ शीघ्रातिशीघ्र भेज दो।
आशा है, स्वस्थ औेर सानंद होगे। सस्नेह -
तुम्हारा सदा का,
(शिवमंगलसिंह ‘सुमन’)
स्वीकृति-पत्र और स्ववृत्त ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के कुलपति को जून 1977 माह में ही भेज दिया। तदनुसार, ‘विक्रम विश्वविद्यालय’ के कुलपति ने ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ के सचिव को सूचित कर दिया (30 जून 1977 का पत्र) :
Dear Shri Chhabra,
Please refer to your D.O. No. F. 19-20/76 (CE) dated June 17, 1977, informing me about the selection of Dr, Mahendra Bhatnagar of Government Post Graduate College, Mandsaur, as specialist in Hindi language and literature in the Tashkant State University (USSR). He has accepted the offer and as desired, I am sending his bio-data, in triplicate, for necessary action at your end. With kind regards & thanks,
Yours sincerely / (S.M. Singh 'Suman')
इस स्तर पर, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ का काम पूरा हो गया। अब सीधा संबंध ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, नई दिल्ली’ (I.C.C.R.) से प्रारम्भ हुआ। इस ‘परिषद्’ के उप-सचिव का, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ के पत्र के समान ही, एक पत्र (अगस्त, 20, 1977) प्राप्त हुआ। ‘भा.सां.सं. परिषद’ को भी वांछित समस्त विवरण प्रेषित किये। निर्धारित प्रपत्र (क्र. 0072) भर कर भेजा।
ऐसा लगा, ताशकंद जाना है। बड़े उत्साह से, रूसी भाषा पढ़नी-लिखनी सीखनी शुरू की। ‘रूसी-हिन्दी’ की कई पुस्तकें जगह-जगह से प्राप्त कीं। डा. भोलानाथ तिवारी जी से दिल्ली में मिला। उन्हीं के बाद, मुझे ताशकंद जाना था। डा. भोलानाथ तिवारी जी ने ताशकंद के अपने अनेक रोचक संस्मरण खुलकर सुनाये और राय दी कि मैं हिन्दी-व्याकरण बहुत अच्छी तरह से पढ़-समझ कर ही ताशकंद जाऊँ! उनके पूर्व, ताशकंद डा. रामकुमार वर्मा जी रह चुके थे। डा. रामकुमार वर्मा जी की भी, ताशकंद-संबंधी कुछ बातें उन्होंने बतायीं; जिससे वैसी भूलें मुझसे न हों।
ताशकंद जाने का प्रस्ताव कोई गोपनीय तो था नहीं; अतः घनिष्ठ मित्रों को भी बताया। मेरे साथ, सम्भवतः डा. कमर रईस साहब (उर्दू-प्रोफ़ेसर) को भी जाना था।
पर्याप्त प्रतीक्षा के बाद, अचानक, अक्टूबर 1978 मेें, विदेश-मंत्रलय, नई दिल्ली के हिन्दी-अधिकारी श्री बच्चूप्रसाद सिंह जी का निजी पत्र (दि. 16 अक्टूबर 1978) आया :
प्रिय प्रो. भटनागर,
किसी प्रसंगवश अभी विदेश-मंत्र जी से चर्चा चली तो विदेश-मंत्र जी ने यह इच्छा प्रकट की कि आप कभी दिल्ली आ सकें तो अच्छा हो। मेरा अनुमान है कि विदेश-मंत्र जी दीपावली के पहले तक दिल्ली मेंं हैं, सिर्फ 20 और 21 अक्टूबर को छोड़ कर। फिर भी, मेरा निवेदन है कि आप अपने दिल्ली आगमन की पूर्व सूचना मुझे भेज दें ताकि आपको विदेश-मंत्र जी से, दिल्ली आने पर, मिलने में कोई असुविधा न हो।
आपका
(बच्चूप्र्रसाद सिंह)
सर्वविदित है, इन दिनों, विदेश-मंत्र श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी थे। श्री बच्चूप्रसाद सिंह जी के पत्र का संदर्भ ताशकंद-प्रसंग होगा; ऐसा अनुमान सहज ही प्रतीत हुआ। उनका यह पत्र स्वयं में उत्साहवर्द्धक था। श्री अटलबिहारी जी के अल्पकालीन संसर्ग की पुरानी स्मृतियाँ ताज़ी हो गयीं। तैंतीस वर्षों से, किसी प्रकार का संबंध-सम्पर्क न होने पर भी मेरा स्मरण उन्हें रहा; इससे अपूर्व हर्ष और अपार तोष हुआ। भारत सरकार में विदेश-मंत्र होते हुए; उनका मुझसे मिलने की इच्छा प्रकट करना, उनके मानवीय गुणों का परिचायक है। राजनीति और साहित्य में ख्याति-लब्ध श्री अटलबिहारी वाजपेयी जी से, इतने लम्बे अंतराल-बाद, मिलने दिल्ली जाना, सचमुच, मेरे लिए बड़ा रोमांचक था।
निर्दिष्ट तिथियों को ध्यान में रख कर, शीघ्र ही, दिल्ली रवाना हुआ। दिल्ली में सर्वप्रथम पंडारा रोड-स्थित श्री बच्चूप्रसाद सिंह जी के निवास पर पहुँचा। अपने पत्र भेजने का कारण उन्होंने बताया -”फ़ाइल जब विदेश-मंत्र जी के समक्ष रखी तो उसे देख कर वे बोले, ‘डा. महेन्द्र भटनागर को जानते हैं ?’ मैंने कहा, ‘नहीं।’ वे तुरन्त बोले, ‘मैं जानता हूँ।’ इस पर मैंने कहा, ‘तो फिर निपटाइए; फ़ाइल बहुत दिनों से पड़ी है।’ इस पर उन्होंने कहा, ‘ऐसे नहीं। उन्हें बुलवाइए।’“
विदेश-मंत्र से मेरी भेंट अनौपचारिक व व्यक्तिगत थी। उसका कोई रिकार्ड नहीं रखा गया। अगले दिन, निश्चित समय पर, ‘साउथ एवेन्यू’ पहुँचा। श्री बच्चूप्रसाद सिंह जी ने, विदेश मंत्र के कक्ष तक जाने का जो द्वार व मार्ग बताया था; तदनुसार ज़ीना चढ़कर वहाँ पहुँचा। साथ में, दिल्ली-निवासी मेरे अनुज डा. वीरेन्द्र भटनागर भी थे (भौतिकी के यशस्वी लेखक व प्रोफ़ेसर)। दिल्ली-जैसे महानगर में, मैं अकेला घूम-फिर नहीं सकता। वाजपेयी जी मिल गये। औपचारिक अभिवादन-बाद; भाई का परिचय करवाया। सहज हलकी मुसकान उनके चेहरे पर बनी रही। मैंने अपनी कविताओं के अंग्रेज़ी-काव्यानुवादों की दो ज़िल्दें उन्हें भेंट में दीं- 'Forty Poems of Mahendra Bhatnagar' & ‘After the Forty Poems'. कुछ पृष्ठ वाजपेयी जी ने उलट-पलट कर देखे; हमारी उपस्थिति में। ‘ताशकंद’ की कोई चर्चा नहीं की। तीन-दशक से अधिक-बाद मिला था। बातचीत में मर्यादा का ध्यान बराबर बना रहा। चाहता तो अधिक देर रुकता; विनोद-प्रसंग भी आते; अतीत का स्मरण भी करते। किन्तु डर था; अवांछित न कह बैठूँ ! ताशकंद जाने की स्वीकृति का प्रश्न था। इस अवसर पर अधिक आज़ादी से बात करना युक्तियुक्त न समझा। भेंट गरिमापूर्ण और सार्थक रही। रात श्री बच्चूप्र्रसाद सिंह जी ने फ़ोन पर, कार्यसिद्धि का संकेत दिया। ताशकंदे जाना सुनिश्चित हुआ। यथासमय, ग्वालियर लौट आया। श्री अटल जी से चूँकि उन्मुक्त वार्ता नही हो सकी; अतः कुछ रह गया; महसूस करता रहा !
सन् 1978 गुज़रे कई माह बीत गये। ‘भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद’ से कोई सूचना नहीं आयी। जून 1979 में दिल्ली गया। ‘परिषद’ कार्यालय में चेयर्स के प्रभारी श्री सरकार से मिला। उन्होंने बताया - सब ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ भेजा जा चुका है। आमंत्रण कभी भी आ सकता है। उसके बाद, चलने की तैयारी करें। सरकार साहब ने बताया - समाजवादी देश अक्सर विलम्ब करते हैं। चलते समय, उन्होंने शीघ्र स्मरण-पत्र भेज देने का वचन दिया। लेकिन, फिर अनेक माह गुज़र गये। कहीं से कोई सूचना नहीं। सन् 1979 के लगभग अंत में, पुनः ‘परिषद्’ कार्यालय पहुँचा। सरकार साहब ने बताया - ‘आपका प्रकरण ‘ठंडे-बस्ते’ में चला गया ! ‘ताशकंद विश्वविद्यालय’ के कुलपति का ताज़ा टेलेक्स आया है कि इन दिनों ताशकंद में आवासीय स्थान की तंगी है, अतः फिलहाल इस योजना को स्थागित कर रखा है।’ सरकार साहब ने कहा, ‘सोवियत संघ से आगे यदि कभी भी प्राध्यापकों की माँग आयी तो हम नया चयन नहीं करेंगे; आपको ही भेजेंगे।’
अफ़सोस तो हुआ; लेकिन निराशा नहीं। बाद में पता चला; डा. भोलानाथ तिवारी जी के बाद से, कोई भी हिन्दी-प्रोफ़ेसर ताशकंद नहीं गया। ताशकंद से ही, हिन्दी-अध्यापक और छात्र, हिन्दी भाषा और साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने, ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली’ आते रहे; प्रवेश लेते रहे।
माना, ताशकंद-प्रकरण ‘टाँय-टाँय फिस’ हो गया ! अर्थात् ‘लम्बी बातें, पर परिणाम कुछ नहीं ! धूमधाम से काम शुरू करना, पर अंत में, कुछ न हो सकना !’ लेकिन जो हुआ; स्वयं में वह एक उपलब्धि है। इसे याद रखना चाहता हूँ। सबको बताना चाहता हूँ।
परिवेश और सर्जना
बारह वर्ष की उम्र सेे ही कविता ‘करने’ लगा था। तब उत्तर मध्य-प्रदेश के, वनाच्छादित ‘ग्राम’ सबलगढ़ (ज़िला मुरैना) की ‘शासकीय माध्यमिक शाला’ में सातवीं कक्षा में पढ़ता था। कविता लिखने की प्रारम्भिक प्रेरणा पर जब आज विचार करता हूँ तो मेरे सम्मुख सबलगढ़ के जंगल और घास के मैदान, जहाँ में हॉकी और फुटबॉल खेलता था, एक चलचित्रा के समान झूम उठते हैं ! निश्चय ही, प्रकृति के सौंदर्य और रहस्य ने मुझे उन दिनों बड़ा प्रभावित किया। कविता नामक वस्तु से परिचित था ही - कुछ घर के शैक्षिक वातावरण के कारण, कुछ हिन्दी-अंग्रेज़ी पाठ्यक्रमों के अध्ययन के फलस्वरूप। प्रारम्भिक कविताएँ आज मेरे पास नहीं हैं। वे जंगल, फूल, वर्षा, ऊषा आदि पर लिखी गयीं थीं और कोई-कोई तो काफ़ी बड़ी थीं। इन कविताओं में न तो व्यवस्थित तुकें होती थीं और न कोई अर्थ-संगति ! अपने मित्रों तक को ये रचनाएँ नहीं दिखाता था। एक बढ़िया नोट-बुक में, बड़े सुन्दर अक्षरों से, अपनी चुनी हुई कविताएँ लिख रखी थीं। यह क्रम सन् 1941 के जून तक अर्थात पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक चला। सन् 1941 में, मैट्रिक-परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ में उच्च अध्ययन के लिए प्रविष्ट हुआ और तभी से मेरे कवि-जीवन में महत्त्वपूर्ण मोड़ आया। उन दिनों मेरा उपनाम ‘अज्ञात’ था। यह उपनाम इस बात की स्पष्ट घोषणा करता था कि मैं कवि हूँ ! अतः मित्रों के मध्य कवि-रूप में जाना जाने लगा। पर, मेरी कविता से सभी अनिभज्ञ थे। एक दिन, मेरे एक घनिष्ठ कवि-मित्र (स्व.) श्री रघुनाथसिंह चौहान ने, जो मुझसे एक-दो कक्षा आगे थे, मेरी कविताओं की नोट-बुक देख ली ! इससे मैं क्षणिक संकोच से गढ़-सा गया; क्योंकि यह एक ऐसे रहस्य का उद्घाटन था, जिसे मैं अभी तक बड़ी तत्परता से छिपाये हुए था। मेरे मित्र मुसकराते हुए, वह नोट-बुक पढ़ने को अपने घर ले गये। अगले रोज़ उन्होंने बताया कि वे कविताएँ, जो मैंने खूब जमा-सजा कर लिखी थीं, सुधार कर अच्छी बनायी जा सकती हैं। पर, इस विचार से मुझे ऐसे लगा मानों मेरी ये रचनाएँ बिलकुल व्यर्थ हैं। अतः कुछ प्रिय रचनाओं को छोड़कर शेष कविताएँ मैंने बड़ी निर्ममता से नष्ट कर दीं।
इन्हीं दिनों ‘मध्यमा’ में बैठने का निश्चय किया और आधुनिक हिन्दी-कविता का विधिवत् अध्ययन भी प्रारम्भ कर दिया। काव्याभ्यास भी करता रहा। पूर्व प्रकृति-प्रेम बना ही हुआ था। इन दिनों, अन्य विषयों के अतिरिक्त तारों पर कुछ विशेष कविताएँ लिखीं; जो ‘तारों के गीत’ में संगृहीत हैं। कॉलेज के अर्थशास्त्र और भूगोल के अध्ययन ने मुझे प्रकृति के क्षेत्र से मानवी धरातल पर ला खड़ा किया। उस समय द्वितीय महायुद्ध और भारतीय स्वाधीनता-संग्राम अपनी चरम सीमा पर थे; जिनका भावात्मक प्रभाव मेरे मन पर बड़ा गहरा पड़ा। यह असम्भव था कि उसकी अभिव्यक्ति मेरे काव्य में न होती। अभिव्यक्ति मात्रा ही नहीं वरन् इन घटनाओें ने मेरे कवि-व्यक्तित्व को ही एकदम नयी दिशा में मोड़ दिया। राष्ट्रीय-उद्बोधन की ओर प्रवृत्त हुआ। गांधी जी राष्ट्रीय आन्दोलनों का नेतृत्व कर रहे थे; एतदर्थ मैं उनसे प्रभावित था और आज भी उनकी नैतिकता का क़ायल हूँ। पर, राजनीति विषयक मेरा ज्ञान कुछ न था। राजनीति से मेरा भावात्मक संबंध ही कहा जा सकता है। राजनीति जब साधारण जनता के जीवन को प्रभावित करने लगती है, तब उससे विलग भी नहीं रहा जा सकता। अतः राजनीतिक चेतना से मैं अपने को नहीं बचा सका। मुझ जैसे निम्न-मध्यम वर्गीय व्यक्ति का उससे बचना असम्भव भी था। इसी समय वामपक्षी विचार-धारा से भी मेरा परिचय हुआ। परिवार की विकट आर्थिक परिस्थितियों के बीच जब मैं ऐसे विचारों के सम्पर्क में आया तो मुझे उनमें अपने मन की बात मिल गयी ! जो मैं सोचता था, वह लोग पहले ही सोच चुके थे - उन विचारों को ग्रंथ-बद्ध कर चुके थे। एतदर्थ यह वैचारिक साम्य पा कर मुझे बड़ा संतोष मिला। सन् 1942 का देश-व्यापी आन्दोलन, बंगाल का अकाल, आज़ाद हिन्द फौज़ का अभियान आदि ऐसी घटनाएँ हैं जिनका जन-साधारण के मन पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य था। इस प्रभाव का राजनीति से कोई सीधा संबंध नहीं है। कोई भी भावुक व्यक्ति, जिसके हृदय में देश तथा मानवता के प्रति प्रेम है, अपने को इन घटनाओं से अछूता नहीं रख सकता। मैं प्रभावित था; अतः मैंने इन विषयों पर लिखा। ‘अभियान’ और ‘बदलता युग’ में इस समय की अनेक रचनाएँ संगृहीत हैं।
सन् 1945 में, बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही नौकरी करनी पड़ी। भारत की स्वाधीनता के साथ-साथ साम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये थे। इलाहाबाद में, सफ़र के समय, एक बार सुनसान मेंं घिर गया था - ‘राम-राम’ करके स्टेशन पकड़ा और थोड़ी देर बाद ही किसी ने समाचार दिया कि जिस रास्ते से मैं आया था, छुरेबाज़ी की वारदातें हो गयीं ! कितना बुरा समय था वह ! तिस पर मालवा में अकाल पड़ा। गेहूँ नहीं मिलता था। चावल बहुत मँहगा था। कंट्रोल के घुने-सडे़ जौ और चने कुछ मिल पाते थे। अमरीकी मेलो नामक लाल अनाज खाया नहीं जाता था ! बाद में तो, मूँग की दाल के चीलों और पकौड़ियों पर दिन काटने पड़े ! घर पर पढ़ने, व्यापारियों के जो लड़के आते थे, वे पारिश्रमिक के बदले में थोड़ा-सा गेहूँ दे जाते थे। इस जीवन में मुझे बड़े कटु अनुभव हुए। एक विद्यालय के अध्यापक की यह ज़िन्दगी थी। कल्पना कीजिए, ग़रीब जनता को कितनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा होगा ! राशन की दूकानें लुट जाया करती थीं! लाठी-चार्ज होते-होते बचता था। इस माहौल में, व्यापारी, पूँजीपति और बड़े अफ़सर मस्म-अलमस्त घूमते थे! यह उनके धन कमाने का समय था! अभिप्राय यह कि ये सारी घटनाएँ, एक-के-बाद-एक, मेरे मन में मौज़ूदा समाज-व्यवस्था के प्रति आक्रोश का भाव भरती गयीं। विद्रोह और क्रांति के भाव-विचार मेरी अपनी भोगी हुई ज़िन्दगी से उपजे हैं। मेरे प्रारम्भिक लेखन-काल का यह आर्थिक परिवेश था।
सन् 1943 तक, स्थानीय क्षेत्र तक सीमित रह लिखता रहा। मित्रों के मध्य और साहित्यिक गोष्ठियों में कविताएँ प्रस्तुत करता था, जहाँ से स्वस्थ आलोचना के कारण बल मिलता था। मेरी प्रथम कविता ‘विशाल भारत’ (कलकत्ता) के मार्च 1944 के अंक में, ‘महेन्द्र’ नाम से प्रकाशित हुई। उन दिनों इस मासिक पत्र के सम्पादक श्री मोहनसिंह सेंगर थे। यह रचना ‘हुंकार’ शीर्षक से ‘टूटती शृंखलाएँ’ नामक कविता-संग्रह में समाविष्ट है। ‘विशाल भारत’ उन दिनों हिन्दी का प्रमुख साहित्यिक पत्र था। प्रसिद्ध समाजवादी कवि श्री जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द की कविताएँ उसके मुख-पृष्ठ पर छपती थीं। मिलिन्द जी को इस पर बड़ा गर्व अनुभव होता था। इन दिनों, ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ में बी.ए. का छात्र था, मुरार में रहता था, मिलिन्द जी से प्रायः रोज़ मिलना होता था। प्रतिक्रिया-स्वरूप, मैंने भी ‘विशाल भारत’ में निम्नलिखित पंक्तियाँ लिख कर भेज दीं :
हुँकार हूँ, हुँकार हूँ !
मैं क्रांति की हुँकार हूँ !
मैं न्याय की तलवार हूँ !
शक्ति जीवन जागरण का
मैं सबल संसार हूँ !
लोक में नव द्रोह का
मैं तीव्रगामी ज्वार हूँ !
फिर नये उल्लास का,
मैं शांति का अवतार हूँ !
हुँकार हूँ, हुँकार हूँ !
मैं क्रांति की हुँकार हूँ !
आश्चर्य की बात थी कि यह रचना ‘विशाल भारत’ में छप गयी! इस पर मिलिन्द जी भी ज़रा चौंके। उन दिनों, मैं एक हस्त-लिखित अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘पतवार’ का सम्पादन व प्रकाशन करता था - अपनी हस्तलिपि में। ‘विशाल भारत’ में छपी उन साधारण पंक्तियों को पढ़कर, मिलिन्द जी ने, मुझे देखते ही, तपाक से, विनोद में कहा :
पतवार हूँ, पतवार हूँ ! अपने गधे पे सवार हूँ !
प्रथम प्रकाशित कविता होने और ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित होने के कारण, यह कविता उद्धृत करने योग्य बन गयी !
शुरू-शुरू में, सिद्ध कवि श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी ने, ‘महेन्द्र’ नाम से मेरी अनेक कविताएँ ‘कर्मवीर’ में प्रकाशित कीं। इससे प्रकाशन के क्षेत्र में मेरा उत्साह बढ़ा। मिलिन्द जी ने भी, अपने साप्ताहिक पत्र ‘जीवन’ (ग्वालियर) में, मेरी कई कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित कीं। आगे चलकर, स्वीडन के किसी लेखक के नाम के ध्वनि-साम्य पर, मैंने अपना नाम ‘महेन्द्रभटनागर’ रख लिया; तब से यही नाम चला आ रहा है! वास्तव में, मेरा नाम या तो ‘महेन्द्र’ है या फिर ‘महेन्द्रभटनागर’! मात्रा ‘भटनागर जी’ उचित नहीं! ‘राष्ट्रभारती’ (वर्धा) में प्रकाशित आलेख ‘मेरे कवि-जीवन के पंद्रह-वर्ष’ में मैंने विनोद में लिखा भी, ‘भटनागर’ कार्यस्थों में भी होते हैं !!’
मेरे प्रारम्भिक साहित्यिक जीवन में, जिन अन्य साहित्यकारों-पत्रकारों ने मुझमें रुचि ली; उनमें - डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’, श्री प्रभाकर माचवे, श्री हरिहरनिवास द्विवेदी, ‘हंस’ के सम्पादय-द्वय श्री अमृतराय और श्री त्रिलोचन शास्त्र, ‘जनवाणी’- सम्पादक श्री बैजनाथसिंह ‘विनोद’, आचार्य विनयमोहन शर्मा, डा. रामअवध द्विवेदी (सम्पादक ‘हिन्दी रिव्यू’, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी), श्री उदयशंकर भट्ट, श्री जगदीशचंद्र माथुर, विश्वम्भर ‘मानव’, राहुल सांकृत्यायन, प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त, रांगेय राघव, रामविलास शर्मा प्रभृति प्रमुख हैं।
कृति-परिचय
जो भी लिखा; क्रमशः पुस्तकाकार प्रकाशित होता गया। मात्रा कुछ ही प्रकाशकों का व्यवहार अच्छा नहीं रहा। कृतियों से, आर्थिक लाभ तो होना नहीं था। कविता-संग्रहों को प्रकाशित करने में तो अक़्सर नुक़्सान ही होता है। मजबूरन, कुछ कविता-संग्रह स्वयं प्रकाशित करने पड़े! जो दो-चार सम्पादित पाठ्य-पुस्तकें पाठ्य-क्रमों में निर्धारित हुईं, उनकी रॉयल्टी अत्यल्प प्राप्त हुई! उपन्यास या खंडकाव्य लिखे नहीं। अन्यथा भी, आर्थिक लाभ की दृष्टि से कभी लिखा नहीं, लिखना नहीं चाहा। अध्यापक की नौकरी से जो प्राप्त हुआ; उसी से गुज़ारा किया।
काव्य-सृष्टि
अभिव्यक्ति की मेरी प्रमुख विधा कविता है। सोलह कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मेरी काव्य-सृष्टि का संबंध छायावादोत्तर हिन्दी-कविता से है। उत्तर-छायावादी गीति-काव्य, राष्ट्रीय कविता, प्रगतिशील कविता (नव-प्रगतिवाद), नव-लेखन, वाम कविता, जनवादी काव्य-धारा, आदि से मेरी काव्य-सृष्टि किसी-न-किसी रूप में जुड़ी हुई है। राजनीतिक और समाजार्थिक चेतना से वह सम्पृक्त है। उसका क्षितिज मानवतावादी और अन्तर्-राष्ट्रीय है। धर्मनिरपेक्ष है। धार्मिक पाखण्ड का खुल कर भंडाभोड़ करती है। किसी राजनीतिक दल की प्रचारक नहीं है। समाजवादी समाज-व्यवस्था में विश्वास व्यक्त करती है। नैतिक मूल्यों को जीवन्त देखने की पक्षधर है। काव्य-तत्त्वों में प्राथमिकता-क्रम इस प्रकार है - विचार, भाव, कल्पना, भाषा, शिल्प। कविता के लिए सम्प्रेषणीयता अनिवार्य है। लक्षणा और व्यंजना निर्विवाद रूप से महत्त्वपूर्ण हैं; किन्तु अभिधार्थ में भी ज़बरदस्त ताक़त होती है, मात्रा कथन में सौष्ठव और अभिनव भंगिमा अपेक्षित है।
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कवि परिचय - डॉ. महेंद्रभटनागर
द्वि-भाषिक कवि / हिन्दी और अंग्रेज़ी
26 जून, 1926 को प्रातः 6 बजे झाँसी (उ. प्र.) में, ननसार में, जन्म ।
प्रारम्भिक शिक्षा झाँसी, मुरार (ग्वालियर), सबलगढ़ (मुरैना) में। शासकीय विद्यालय, मुरार (ग्वालियर) से मैट्रिक (सन् 1941), विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर (सत्र 41-42) और माधव महाविद्यालय, उज्जैन (सत्र 42-43) से इंटरमीडिएट (सन् 1943), विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर से बी.ए. (सन् 1945), नागपुर विश्वविद्यालय से सन् 1948 में एम.ए. (हिन्दी) और सन् 1957 में ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ विषय पर पी-एच.डी.
जुलाई, 1945 से अध्यापन-कार्य - उज्जैन, देवास, धार, दतिया, इंदौर, ग्वालियर, महू, मंदसौर में।
‘कमलाराजा कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, ग्वालियर’ (जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर) से 1 जुलाई 1984 को प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त।
कार्यक्षेत्र - चम्बल-अंचल, मालवा, बुंदेलखंड।
सम्प्रति - शोध-निर्देशक - हिन्दी भाषा एवं साहित्य।
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अधिकांश साहित्य ‘महेंद्रभटनागर-समग्र’ के छह-खंडों में एवं काव्य-सृष्टि ‘महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा’ के तीन खंडों में प्रकाशित।
महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा
खंड - 1
1.तारों के गीत 2. विहान 3. अन्तराल 4. अभियान. 5 बदलता युग
6. टूटती श्रृंखलाएँ
खंड - 2
7. नयी चेतना 8. मधुरिमा 9. जिजीविषा 10.संतरण 11.संवर्त
खंड - 3
12. संकल्प 13. जूझते हुए 14. जीने के लिए 15. आहत युग, 16. अनुभूत-क्षण 17. मृत्यु-बोध - जीवन-बोध 18. राग-संवेदन, 19 प्रबोध, 20 विराम
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काव्येतर कृतियाँ
1 समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद
2 प्रेमचंद के कथा-पात्र
3 सामयिक परिदृष्य और कथा-स्रष्टा प्रेमचंद
(विचारक, उन्यासकार, कहानीकार)
4 साहित्य : विमर्ष और निष्कर्ष
(आलोचना : खंड-1)
5 साहित्य : विमर्ष और निष्कर्ष
(आलोचना : खंड-2)
6 जीवन का सच (लघुकथा / रेखाचित्रादि)
7 प्रकाश-स्तम्भ (एकांकी / रेडियो फ़ीचर)
8 वार्तालाप जिज्ञासुओं से
(साक्षात्कार - भाग- 1)
9 वार्तालाप एवं आत्म-कथ्य ( भाग- 2)
10 साहित्यकारों से आत्मीय संबंध (पत्रवली - संस्मरणिका)
11 साहित्य : बालकों के लिए
(1) हँस-हँस गाने गाएँ हम!
(2) बच्चों के रूपक
(3) देश-देश के निवासी
(4) दादी की कहानियाँ
12 साहित्य - किशोरों के लिए
(जय-यात्रा एवं विविध)
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प्रतिनिधि काव्य-संकलन
1 आवाज़ आएगी (कविता-संचयन)
2 कविता-पथ - सर्जक महेन्द्रभटनागर
(सं. उमाशंकर सिंह परमार)
3 सृजन-यात्रा (कविता-संचयन)
4 कविताएँ - मानव-गरिमा के लिए (हिंदी-अंग्रेज़ी)
5 सरोकार और सृजन (कविता-संचयन)
6 जनकवि महेंद्रभटनागर (सं. डॉ. हरदयाल)
7 जनवादी कवि महेन्द्रभटनागर
(सं. डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव)
8 प्रगतिशील कवि महेंद्रभटनागर
(सं. डॉ. संतोषकुमार तिवारी)
8 जीवन जैसा जो है (हिंदी-अंग्रेज़ी)
10 जीवन-राग (कविता-संचयन)
11 चाँद, मेरे प्यार! (हिंदी-अंग्रेज़ी)
12 इंद्रधनुष (प्रकृति-चित्रण)
13 गौरैया एवं अन्य कविताएँ
(हिंदी-अंग्रेज़ी / प्रकृति-चित्रणे)
14 मृत्यु और जीवन (हिंदी-अंग्रेज़ी)
15 जीवन गीत बन जाए!
(गेय गीत /प्रस्तुति : आदित्य कुमार)
16 महेंद्रभटनागर के नवगीत
(सं. देवेन्द्रनाथ शर्मा ‘इंद्र’)
17 कविश्री : महेंद्रभटनागर /
संयोजक : शिवमंगलसिंह ‘सुमन’
18 चयनिका
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महेंद्रभटनागर-समग्र
खंड - 1 कविता
तारों के गीत, विहान, अन्तराल, अभियान, बदलता युग। परिशिष्ट : आत्म-कथ्य - जीवन और कृतित्व, अध्ययन-सामग्री एवं अन्य संदर्भ।
खंड - 2 कविता
टूटती श्रृंखलाएँ, नयी चेतना, मधुरिमा, जिजीविषा, संतरण।
खंड - 3 कविता
संवर्त, संकल्प, जूझते हुए, जीने के लिए, आहत युग, अनुभूत क्षण। परिशिष्ट : काव्य-कृतियों की भूमिकाएँ।
खंड - 4 आलोचना
हिन्दी कथा-साहित्य, हिन्दी-नाटक। परिशिष्ट : साक्षात्कार।
खंड - 5 आलोचना
साहित्य-रूपों का सैद्धान्तिक विवेचन एवं उनका ऐतिहासिक क्रम-विकास, आधुनिक काव्य। / परिशिष्ट - साक्षात्कार, आदि।
खंड - 6 विविध
साक्षात्कार / रेखाचित्र / लघुकथाएँ / एकांकी / रेडियो-फीचर /गद्य-काव्य / वार्ताएँ/ आलेख /बाल / किशोर साहित्य / संस्मरणिका / पत्रवली। परिशिष्ट - चित्रावली।
खंड - 7 शोध / प्रेमचंद-समग्र
सामयिक परिदृष्य और कथा-स्रष्टा प्रेमचंद (समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचन्द)
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मूल्यांकन / आलोचनात्मक कृतियाँ
(1) कविता-पथ / सर्जक महेन्द्रभटनागर
- उमाशंकर सिंह परमार
(2) महेंद्रभटनागर का काव्य-लोक
- वंशीधर सिंह
(3) महेंद्रभटनागर की काव्य-संवेदना :
अन्तः अनुशासनीय आकलन
- डा. वीरेंद्र सिंह
(4) कवि महेंद्रभटनागर का रचना-कर्म
- डा. किरणशंकर प्रसाद
(5) डा. महेंद्रभटनागर की काव्य-साधना
- ममता मिश्रा
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सम्पादित
(1) कवि महेन्द्रभटनागर-विरचित काव्य-कृतियाँ /
मूल्यांकन और मूल्यांकन (भाग 1 और 2)
- सं. डॉ. अनिला मिश्रा
(2) संवेदना का शब्द-शिल्पी
- सं. बृजेश नीरज
(3) महेंद्रभटनागर की कविता :
अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति
- सं. डॉ. मनोज मोक्षेंद्र
(4) कवि महेंद्रभटनागर की रचनाधर्मिता
- सं. डॉ. कौशल नाथ उपाध्याय
(5) महेंद्रभटनागर की काव्य-यात्रा
- सं. डॉ. रामसजन पाण्डेय
(6) डॉ. महेंद्रभटनागर का कवि-व्यक्तित्व
- सं. डॉ. रवि रंजन
(7) सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि महेंद्रभटनागर
- सं. डॉ. हरिचरण शर्मा
(8) कवि महेंद्रभटनागर का रचना-संसार
- सं. डॉ. विनयमोहन शर्मा
(9) कवि महेंद्रभटनागर : सृजन और मूल्यांकन
- सं. डॉ. दुर्गाप्रसाद झाला
(10) मृत्यु और जीवन
(महेंद्रभटनागर की 50 कविताएँ)
आलोचनात्मक आलेख
(11) ‘राग-संवेदन’ : दृष्टि और सृष्टि
(महेंद्रभटनागर की 50 कविताएँ)
आलोचनात्मक आलेख
(12)‘ अनुभूत-क्षण’ : दृष्टि और सृष्टि
(महेंद्रभटनागर की 55 कविताएँ)
आलोचनात्मक आलेख
(13) महेंद्रभटनागर के नवगीत
(महेंद्रभटनागर के 50 नवगीत)
आलोचनात्मक आलेख
(13) जीवन गीत बन जाए!
(महेंद्रभटनागर के गेय गीत)
आलोचनात्मक आलेख
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प्रकाशित शोध-प्रबन्ध
(1) महेंद्रभटनागर की सर्जनशीलता
- डा. विनीता मानेकर
(2) प्रगतिवादी कवि महेंद्रभटनागर :
अनुभूति और अभिव्यक्ति
- डा. माधुरी शुक्ला
(3) महेंद्रभटनागर के काव्य का वैचारिक
एवं संवेदनात्मकः धरातल
- डा. रजत कुमार षड़ंगी
(4) कवि महेन्द्रभटनागर
- डा० गिरिराज कुमार बिरादर
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अन्य स्वीकृत शोध-प्रबन्ध (अप्रकाशित)
(5) महेंद्रभटनागर के काव्य में संवेदना के विविध आयाम
- डा. प्रमोद कुमार
(6) डा. महेंद्रभटनागर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
- डा. मंगलोर अब्दुलरज़़ाक बाबुसाब
(7) डा. महेंद्रभटनागर के काव्य का
नव-स्वछंदतावादी मूल्यांकन
- डा. कविता शर्मा
(8) डा. महेंद्रभटनागर के काव्य में सांस्कृतिक चेतना
- डा. अलका रानी सिंह
(9) महेंद्रभटनागर का काव्य : कथ्य और शिल्प
- डा. मीना गामी
(10) डॉ. महेंद्रभटनागर के काव्य में समसामयिकता
- डा. विपुल रणछोड़भाई जोधाणी
(11) डॉ. महेंद्रभटनागर की गीति-रचना :
संवेदना और शिल्प
- डा. रजनीकान्त सिंह
(12) महेंद्रभटनागर की कविता : एक मूल्यांकन
- डा. रोशनी बी० एस०
(13) हिन्दी की प्रगतिवादी काव्य-परम्परा में महेन्द्रभटनागर का योगदान
- डॉ. निरंजन बेहेरा
(14) डॉ. महेन्द्रभटनागर की कविता
- डॉ. निशा बी. माकड़िया, राजकोट (गुजरात)
(15) डॉ. महेन्द्रभटनागर के काव्य में
जीवन-संघर्ष की चेतना
- डॉ मालती यादव
(16) महेन्द्रभटनागर के काव्य की अन्तर्वस्तु :
एक आलोचना
- डॉ अमित राठौर
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सह-लेखन
(1) हिन्दी साहित्य कोष
(भाग - 1 / द्वितीय संस्करण / ज्ञानमंडल, वाराणसी),
(2) तुलनात्मक साहित्य विश्वकोष : सिद्धान्त और अनुप्रयोग
(खंड - 1 / महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा)
सम्पादन
‘सन्ध्या’ (मासिक / उज्जैन 1948-49),
‘प्रतिकल्पा’ (त्रैमासिक / उज्जैन 1958)
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सम्मान / पुरस्कार
(1) ‘कला-परिषद्’ मध्य-भारत सरकार ने, 1952 में।
(2) ‘मध्य-प्रदेश शासन साहित्य परिषद्’, भोपाल ने /1958 और 1960 में।
(3) ‘मध्य-भारत हिन्दी साहित्य सभा’, ग्वालियर ने, 1979 में।
(4) ‘मध्य-प्रदेश साहित्य परिषद्’, भोपाल ने, 1985 में।
(5) ‘ग्वालियर साहित्य अकादमी’ द्वारा अलंकरण-सम्मान, 2004
(6) ‘मध्य-प्रदेश लेखक संघ’, भोपाल ने, 2006 में।
(7) हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग (जगन्नाथपुरी अधिवेशन) 2010 में।
सर्वोच्च सम्मान ‘साहित्यवाचस्पति’।
(8) जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर द्वारा ‘हिंदी-दिवस 2012’ पर।
‘हिंदी-सेवी’ सम्मान।
(9) कवि मानबहादुर सिंह ‘लहक’ सम्मान। ( कोलकाता) 2018
(10)‘जनवादी लेखक संघ’ एवं ‘प्रगतिशील लेखक संघ’, ग्वालियर द्वारा सम्मान - 26 जून 2018
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निदेशक,
डॉ. महेन्द्रभटनागर साहित्य और शोध केन्द्र,
सर्जना भवन (अर्जुननगर मोड़)
110, बलवन्तनगर, गांधी रोड, ग्वालियर-474 002 (म. प्र.)
फ़ोन - 0751-4092908 / मो. 81 09 73 00 48
ई-मेल - drmahendra02@gmail-com
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MAHENDRA BHATNAGAR
DR. MahendraBhatnagar’s is one of the significant post-independence voices in Hindi and Indian English Poetry, expressing the lyricism and pathos, aspirations and yearnings of the modern Indian intellect. Rooted deep into the Indian soil, his poems reflect not only the moods of a poet but of a complex age.
Born in Jhansi (Uttar Pradesh) at maternal grandfather’s residence on 26 June 1926; 6 a.m.
Primary education in Jhansi, Morar (Gwalior) and Sabalgarh (Morena); Matric (1941) from High School, Morar (Gwalior); Inter (1943) from Madhav College, Ujjain; B.A. (1945) from Victoria College, - at present, Maharani Laxmi Bai College - Gwalior; M. A. (1948) and Ph.D. (1957) in Hindi from Nagpur University; L.T. (1950 ; Madhya Bharat Govt.)
Places of work — Bundelkhand, Chambal region and Malwa.
High School Teacher from July 1945. Retired as Professor on 1 July 1984 (M.P. Govt. Educational service).
Selected once for the post of Professor of Hindi Language & Literature, in Tashkent University, U.S.S.R. (1978) by UGC & ICCR (NEW DELHI)
Principal Investigator (U.G.C. / Jiwaji University, Gwalior) from 1984 to 1987.
Professor in the IGNOU Teaching Centre of Jiwaji University, Gwalior in 1992.
Worked as Chairman \ Member of various committees in Indore University, Vikram University, Ujjain & Dr. BhimraoAmbedkar University, Agra.
Worked as a member in the managing committees of ‘Gwalior ShodhSansthan’, ‘Madhya Pradesh Hindi Granth Academy’ & ‘Rashtra-BhashaPracharSamiti, Bhopal’.
From time to time, poems included in various Text-Books of curricula of Educational Boards & Universities of India.
Worked as one of the members in the Audition Committees of Drama / Light Music of All India Radio (Akashvani) - Stations Indore and Gwalior. Contracted Song-Writer of All India Radio \ For all Radio Stations (Light Music Section). Broadcast many poems, talks and other programmes from Indore, Bhopal, Gwalior and New Delhi (National Channels) Radio Stations.
Conducted and directed many literary societies in Ujjain, Dewas, Dhar, Mandsaur and Gwalior.
Appointed as one of the Award-Judges by ‘Bihar Rashtra-BhashaParishad, Patna’ (1981 & 1983), ‘Uttar Pradesh Hindi Sansthan, Lucknow’ (1983), ‘Rajasthan SahityaAkademi, Udaipur’ (1991,1993,1994) & ‘Hindi SahityaParishad, Ahmedabad, Gujrat (2001).
Poems translated, published and broadcast in many foreign and Indian languages.
Eleven volumes of poems in English :
English translations are accomplished by the poet himself. Several poems are translated by him; while the rest translated versions are completely revised and finalized by him.
[1] ‘FORTY POEMS OF MAHENDRABHATNAGAR’
[Ed. Prof. L.S. Sharma, Head Dept. Eng., Vikram Univ., Ujjain (M.P.), Foreword : Dr. VidyaNiwas Mishra, Tr. Amir Mohammad Khan, L.S. Sharma; Pub. S. Chand &Co.,New Delhi – 55, 1968]
[2] ‘AFTER THE FORTY POEMS’
[Compiled. SudhaRani,Tr. Prof. Ramsevak Singh Yadav, Prof. Varendra Kumar Varma, Amir Mohammad Khan; Pub. S. Chand &Co.,New Delhi – 55, 1979]
[3] ‘EXUBERANCE AND OTHER POEMS’
[Tr. Prof. Ravinandan Sinha, Pub. Indian Publishers Distributors, Delhi – 7, 2001]
[4] ‘DR. MAHENDRA BHATNAGAR’S POETRY’
[Tr. Prof. H.C. Gupta, Pub. Indian Publishers Distributors, Delhi – 7, 2002]
[5] ‘DEATH-PERCEPTION : LIFE-PERCEPTION’
[Tr. Prof. D. C. Chambial, Pub. Indian Publishers Distributors, Delhi – 7, 2002]
[6] ‘PASSION AND COMPASSION’
[Tr. Dr. P. Adeshwar Rao,
Pub. Indian Publishers Distributors, Delhi – 7, 2005]
[7] ‘POEMS : FOR A BETTER WORLD’
[ Tr. KedarNath Sharma,
Pub. LokvaniPrakashan,New Delhi – 49, 2006]
[8] ‘LYRIC-LUTE’
[Tr. Dr. Shaleen Kumar Singh, Dr. Kalpna Rajput & Others, Pub. Vista International Publishing House, Delhi – 53, 2007]
[9] ‘A HANDFUL OF LIGHT’
[Tr. Prof. D. C. Chambial, Pub. National Publishing House, New Delhi – 2, 2007]
[10] ‘NEW ENLIGHTENED WORLD’
[Tr. Dr. AnshuBharadwaj, Dr. Mukesh Sharma, Pub. Indian Publishers Distributors, Delhi – 7, 2010]
[11] ‘DAWN TO DUSK’
[Tr. Dr. Mukesh Sharma, KedarNath Sharma, Dr. Narendra Sharma ‘Kusum’, Pub. Indian Publishers Distributors,
Delhi – 7, 2011]
*
Subject-wise anthologies in English
[1] ENGRAVED ON THE CANVAS OF TIME
[Poems of social harmony & humanism : realistic & visionary aspects.]
[Pub. Online Gatha, Lucknow -16, 2016]
[2] STRUGGLING FOR LIFE
[Poems of faith & optimism : delight & pain. Philosophy of life.]
Ed. P C K Prem
[Pub. Indian Publishers Distributors, Delhi – 7, 2015]
[3] LOVE POEMS
[4] NATURE POEMS
[5] DEATH AND LIFE
*
Distinguished Subject-wise Anthologies :
Published Bilingual — English & Hindi
[1] POEMS : FOR HUMAN DIGNITY
[Poems of social harmony & humanism]
[Pub. Indian Publishers Distributors,
Delhi – 7, 2013]
[2] LIFE : AS IT IS
[Poems of faith & optimism : delight & pain. Philosophy of life.]
[Pub. Indian Publishers Distributors,
Delhi – 7, 2012]
[3] O, MOON, MY SWEET-HEARET!
[Love poems]
[Pub. RachanaaPrakashan,
Jaipur (Raj.), 2013]
[4] SPARROW and other poems
[Nature Poems]
[5] DEATH AND LIFE
[Poems on Death & Life with criticism]
One volume of translated 108 poems in French
‘A Modern Indian Poet :
Un PoètIndien Et Moderne —Dr. MahendraBhatnagar
[Tr. Prof. Purnima Ray,
Pub. Indian Publishers Distributors, Delhi – 7, 2004]
Research & Critical studies :
[1] Post-Independence Voice For Social Harmony and Humanism
A Study of Selected Poems of MahendraBhatnagar
By Dr. Rama Krishnan Karthikeyan
[Thesis]
[2] Living Through Challenges :
A Study of Dr.MahendraBhatnagar’s Poetry
By Dr. B.C. Dwivedy.
[3] DR. MAHENDRA BHATNAGAR’S POETRY :
IN THE EYES OF CRITICS [e-book.]
By KedarNath Sharma
[4] Poet Dr. MahendraBhatnagar : His Mind And Art
(In Eng. & French)
Ed. Dr. S.C. Dwivedi& Dr. ShubhaDwivedi
[5] CONCERNS and CREATION
[A CRITICAL STUDY OF MAHENDRA BHATNAGAR’S POETRY]
Ed. Dr. R. K. Bhushan
[6] DEATH and LIFE
[50 Poems of MahendraBhatnagar / Criticism]
Ed. Dr. D. C. Chambial
[7] Poet MahendraBhatnagar : Realistic and Visionary Aspects
Ed. Dr. Vijay Kumar Roy
[8] AN INDIAN ENGLISH POET :
DR. MAHENDRA BHATNAGAR
Ed. Dr. Sulakshna Sharma [Forthcoming]
*
Received Awards, four times ( 1952, 1958, 1960, 1985. ) from Madhya Bharat & Madhya Pradesh Govts.
*
Adviser :
‘POETCRIT’ (Half-Yearly / Maranda, H.P.),
Member : National Advisory Board —’THE LITERARY HERALD.’ [Satna-M.P.]
Member Advisory Board :
Indian Journal of POSTCOLONIAL LITERATURES
[Half-yearly / Thodupuzha-Kerala]
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Contact :
110 BalwantNagar,Gandhi Road, Gwalior — 474 002 (M.P.) INDIA
Phone : 0751-4092908 / M-81 097 300 48
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
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