छितराये बदरा... छितराये-छितराये बदरा कर जाते हैं पानी-पानी काली-काली घनघोर घटाएं बिन बरसे निकल जाती है रोज शाम आकाशी बादल रंगोली माँड...
छितराये बदरा...
छितराये-छितराये बदरा
कर जाते हैं पानी-पानी
काली-काली घनघोर घटाएं
बिन बरसे निकल जाती है
रोज शाम आकाशी बादल
रंगोली माँडण से लगते
और सुबह सूरज की किरणें
माँडण सभी मिटा जाती है
चाँद आजकल घटाओं के संग
करते देखा आँख-मिचौली
लुका-छिपी के खेल में उसकी
रात यूं ही निकल जाती है...
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एक बार फिर... (कविता)
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वो
चला तो ठीक था
लोग कहते थे
इसमें
शक्ति है/बुद्धि है
और चातुर्य भी
ये जीत जायेगा
दौड़ अपनी,
पर क्या हुआ ?
गंतव्य से पहले ही
शायद
वो भटक गया
उसकी सब विशेषताएं
उड़ गई
सूखे पत्तों की तरह
या फिर
भूल गया वो
कि वह एक
विशेष कार्य को निकला था
वो अटक गया
राह की चकाचौंध में
और चटक गया
उसका लक्ष्य
शीशे की तरह...
दौड़ का समय
पूर्ण होने को है
अबकी बार
खरगोश सोया तो नहीं
अति आत्मविश्वास में
यहां वहां घूमता रहा
लगता है
एक बार फिर
कचुआ
जीत जायेगा
दौड़ अपनी ...
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भाग्य भी होता है ...
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उम्र सजीव की ही नहीं
निर्जीव की भी होती है
ये हम सब जानते हैं
समय पाकर सजीव/निर्जीव
मृत्यु को प्राप्त होते,
हम सबने देखा है...
पर ये क्या ?
किसी निर्जीव बुत का
भाग्य भी होता है
ये जाना ,
जब देखा उसे
किसी दुकान के बाहर
सुंदर कपड़े पहने हुये
और ग़ज़ब तो जब हुआ
जिसे निहार रहा था
एक निर्वस्त्र भिखारी बालक,
तो समझ आया
कि उम्र ही नहीं
भाग्य भी होता है
हर किसी का...
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स्वागत ! स्वागत !! ...
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आखिर
आ ही गये आप
स्वागत ! स्वागत !!
स्वागत !!!
कब से प्रतिक्षा में थी
मैं, तुम्हारी
तप रही थी
वियोग में
बरस जाओ
नेह की बूंद बनकर
खिलजाऊं जिससे
पुष्प की भाँति
महका दो मुझे
संदल की तरह
हे मेरे प्रिय ! मानसून
जानते हैं लोग सारे
तुम्हारी ही है
सदियों से
ये धरा...
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प्रभात...
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तम रात बन
छाया रहा
बाहर भी अंदर भी
तन मन बदलते रहे
करवट
बाहर भी अंदर भी
पूरी हुई भी नींद,
कुछ पता नहीं
मुर्गे बोल गये सारे
बाहर भी अंदर भी
रंगोली बिखर गई
धरा पर चहूंओर
करो कुछ गौर
उत्साह का साम्राज्य
बाहर भी अंदर भी
समीर
शीतल मंद सुगंध
पुष्प
बिखेर रहे मकरंद
ओसकण
दमक रहे हर कंद
बाहर भी अंदर भी
हुआ अब
समझो सुप्रभात
खिल रहे
डाली डाली पात
पक्षियों की
चली दूर बारात
कुहूं के सबके मन मयूर
बाहर भी अंदर भी...
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दीपावली त्योहार... (गीत)
आया दीपावली त्योहार
लाया खुशियां बेशुमार ।।
घर-आँगन की साफ-सफाई
दीवारों की हुई पुताई
गली मौहल्ले दमके सारे,
सजे हाट-बाजार...
आया दीपावली त्योहार ।।
रसगुल्लों के हैं हँसगुल्ले
जलेबी नवेली मारे ठल्ले
सोनपपड़ी सोनपरी सी,
कर रही है सत्कार...
आया दीपावली त्योहार ।।
हम माटी के दीयें लगायें
स्वदेशी वस्तु अपनायें
दीप-पर्व पर देशप्रेम के,
हम गावें मंगलाचार...
आया दीपावली त्योहार ।
लाया खुशियाँ बेशुमार ।।
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भाव चुराते....
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भाव चुराते
ताव चुराते
साहित्य समुंदर
पार करन को
वो शब्दों की
नाव चुराते
हाथ सफाई
ऐसी करते
अच्छे-अच्छे
गच्चा खाते
सूरज चंदा
छिपे ओट में
बादल अपना
रोब जमाते
कहीं से शब्द
कहीं से पंक्ति
भानुमता यूं
कविता बनाते
मंचों पर
छाजाते जैसे
आसमान पर
बादल छाते
चोर चोर
मौसेरे भाई
अपनी अलग
बिसात जमाते
व्यग्र आज भी
व्यग्र है देखो
अच्छे दिन
उसके ना आते
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ग़ज़ल
डूबते को तिनके का सहारा होजा
मत जीत अपनों से तू हारा होजा
बहुत कश्ती चला ली बीच धारे में
मेरे माँझी अब तो किनारा हो जा
थक चला क्यूं जिंदगी की राह में
मन मेरे तू फिर बंजारा हो जा
कीमती पल ना गवां रुसवाई में
फिर से तू आँखों का तारा हो जा
प्रेम बिन जिंदगी वीरान सी लगती
ना मुरझा व्यग्र खिलके हजारा होजा
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सो जाइये...
हो चुकी है रात अब सो जाइये
खत्म हुई है बात अब सो जाइये
चाँद ने भी कर लिया है तय सफर
रुक गये जज्बात अब सो जाइये
झिलमिलाये आसमां में खूब तारे
पड़े वो भी मद्धम अब सो जाइये
सजाकर संभालकर रखा था जो
मिट गया श्रृंगार अब सो जाइये
धीरे-धीरे बुझ गये हैं दीप सारे
तम का हुआ राज अब सो जाइये
'व्यग्र' जगे जारहे हो चिंता में क्यूं
करके आँखें बंद अब सो जाइये
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मम् हरो फंद...
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जय जय गणेश
हरो क्लेश
हे सिद्ध विनायक
गणनायक
सबके सहायक
शुभ फलदायक
हे शूपकर्ण
हे सुरेश्वरम्
हे मूषकवाहन
हे देव शुभम्
हे महावली
हे लम्बोदर
हे मृत्युञ्जय
हे विघ्नेश्वर
हे भालचन्द्र
हे एकाक्षर
हे प्रथम पूज्य
सबके ईश्वर
हे गजवदन
मंगलकारी
हैं रुद्रप्रिय
हे शुभकारी
हे गणाध्यक्ष
हे गौरीसुत
हे वक्रतुण्ड
मम् हरो फंद...
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रचनाकार
-विश्वम्भपार पाण्डेय 'व्यग्र '
गंगापुर सिटी, स.मा. (राज.)322201
ई-मेल-vishwambharvyagra@gmail.com
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