विज्ञान कथा सम्पादकीय वनस्पतिक ईंधन यह सम्पादकीय लिखते समय शीतलगंज ग्रान्ट के विशाल परिसर की चहरदीवारी क समीप लगे सेंहुड़ों के कटीले तनों पर ...
विज्ञान कथा
सम्पादकीय
वनस्पतिक ईंधन
यह सम्पादकीय लिखते समय शीतलगंज ग्रान्ट के विशाल परिसर की चहरदीवारी क समीप लगे सेंहुड़ों के कटीले तनों पर खुरचनों से निकलता सफेद ‘‘दूध’’ बाल्यावस्था में एक कुतूहल था जो आज भी स्मृति पटल पर अंकित है। दूसरी ओर यह प्राकृतिक वनस्पतियों से परिचय का प्रथम प्रयास भी था। सेंहुड़ उस पौधे का प्रचलित ग्रामीण नाम है, जिसे वैज्ञानिक शब्दावलि में इयूफारेबिया रॉयलियाना कहा जाता है। यह इयूफारेबिएसी परिवार का पादप है, जो भारत के ऊष्ण क्षेत्रों से लेकर विश्व के अनेक ऊष्ण और समशीतोष्ण देशों में सहजता से उगता है। इन पौधों को तोड़ने पर निकलने वाला सफेद दूध (लेटेक्स) त्वचा पर जलन, कभी-कभी फफोले और आँखों में पड़ जाने पर आंशिक अंधापन भी उत्पन्न कर देता है। यह प्रभाव इनके लेटेक्स में निहित जलन आदि उत्पन्न करने में सक्षम फोरबोल नामक डाईटरपीन-एस्टरों आदि के कारण होता है। अतः इन पौधों के सम्पर्क से बचना, उत्तम विकल्प है। इसी पादप परिवार में सम्मिलित हैं क्रोटान प्रजाति के अनेक पौधे, जिनके विविध औषधीय उपयोग आयुर्वेद की पुस्तकों में वर्णित हैं।
हम सभी पेट के कीड़ों के निकालने और पेट को साफ करने में प्रयोग किये जाने वाले क्राटोन प्रजाति के बीज के तेल ‘‘जमाल गोटा’’ के नाम से परिचित हैं। यह नाम फारसी शब्द जमाल-सौंदर्य से सम्बन्धित है। आँतों की सफाई और चेहरे की चमक, आनन की क्रान्ति से स्वास्थ्य का सीधा सम्बन्ध होने के कारण, इस तेल को यह नाम मिला। इसी प्रकार हम अरंड के तेल से परिचित हैं जिसे अवधी में रेंडी का तेल कहा जाता है। यह भारत में बहुतायत से उगने वाले, इयूफारेबिया प्रजाति के रेसिनस-कम्यूनिस नामक पौधे का वानस्पतिक नाम है।
‘‘जमाल-गोटा’’ इयूफारेबिएसी प्रजाति के क्रोटान टिगलियम नामक पौधे के बीजों से प्राप्त तेल का नाम है जिससे सर्वप्रथम चूहों की त्वचा पर जलन उत्पन्न करने वाले गुण के साथ इसमें निहित ट्यूमरों को एक विशेष रसायन की उपस्थित में, विकसित करने की क्षमता की ओर प्रो. वेरेनब्लूम ने 1941 में ‘‘कैंसर-रिसर्च’’ नामक जनर्ल में प्रकाशित कर विश्व वैज्ञानिकों का ध्यान आकृष्ट किया था। मुझे भी प्रो. वेरेनब्लूम की, ‘‘वाइज मान इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेस’’-रिहाबोय, इजराइल की प्रयोगशाला में अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिला था 1978 ई. में।
जरमन कैंसर शोध संस्थान, हाइडिल वर्ग में इयूफोरबिएसी परिवार के सह-कैंसरकारी गुणों के अध्ययन करने का अवसर एलेक्जेन्डर-फान-हम्बोल्ट फेलो के रूप में मिला और इस वैज्ञानिक शोध का परिणाम था एक नवीन ‘‘क्रिपटिक इर्टिटेन्ट और कोकार भारत में सिनोजेन’’ की खोज, क्रोटान स्पारसीफ्लोरस मोरंग के तेल से, इन पंक्तियों के लेखक द्वारा प्रथम बार। यह क्रोटान प्रजाति का पौधा भारत में प्रचुरता से पाया जाता है।
ईरान-तबरीज विश्वविद्यालय के प्रवास काल में भी मेरे छात्रों का शोध कार्य इयूफोरविएसी प्रजाति के पौधों पर चलता रहा। तबरीज के सईदाबाद क्षेत्र में एकत्र मधु-शहद, जो प्रचुरता से विद्यमान इयूफारेबिया प्रजाति के पौधों के फूलों से मधुमक्षिकाओं द्वारा मधु एकत्र करने का परिणाम था, उसमें विद्यमान सह कैंसरकारी तत्व की उपस्थिति की रिपोर्ट मेरी प्रयोगशाला से सर्वप्रथम प्रकाशित की गयी थी और जो वैज्ञानिकों के मध्य चर्चित रही।
इस प्रकार जब यह सूचना प्राप्त हुई कि इसी इयूफोरबिया प्रजाति के पौधे जट्रोफा कूराकास, लिन जो भारत में ऊसर-बंजर, शुष्क भूमि पर प्रचुरता से उगता है। उसके बीजों के तेल का प्रयोग वायुयान में प्रयोग हो रहा है, उसी समय से इस विषय पर लेखनी चलाने की इच्छा बलवती थी।
वववववनस्पतिक ईंधननस्पतिक ईंधननस्पतिक ईंधननस्पतिक ईंधननस्पतिक ईंधन (डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय) भारत में उगने वाले वाले तिस्कृत जट्रोफा के तेल ने एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी है-‘‘ईंधन-क्रान्ति’’ की दिशा में। स्पाइस जेट-एयर लाइन द्वारा इस बायोफ्यूएल के एविएशन टरवाइन में उपयोग ने, भारत को अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों के साथ उस पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया है, जहाँ से प्रदूषण मुक्त वैज्ञानिकी जैव ईंधन के प्रयोग का शंखनाद करती है। यह राह सर्वथा नवीन है-परिस्थितियों के अनुकूल होने के कारण ग्राह्य है।
जट्रोफा की खेती कम पानी और बंजर क्षेत्रों के किसानों के लिए वरदान सी सिद्ध हो सकती है, यदि इसकी खेती को वैज्ञानिक ढंग से करने के लिए कृषकों को बढ़ावा दिया जाए। इस जट्रोफा के तेल का वायुयानों में प्रयोग भविष्य में सल्फर और नाइट्रोजन मुक्त ईंधन के रूप में डीजल का एक प्रभावी विकल्प बनकर हमारे शहरी पर्यावरण एवं अर्थ व्यवस्था, दोनों पर छायी धुन्ध को तिरोहित करने में सहायक हो सकता है। उड्डयन क्षेत्र में जट्रोफा के तेल के प्रयोग की राह भारतीय पेट्रोलियम़ संस्थान और वैज्ञानिक तथा औद्योगिकी अनुसंधान परिषद के कई वर्षों के अध्ययन का परिणाम है। तेल के लगातार बढ़ते दामों और परिणाम स्वरूप मंहगी होती वायुयान सेवाओं के इस दौर में, यह कम्पनी और उपभोक्ताओं के लिए उत्साहवर्धक संकेत है। इस प्रकार भविष्य की उड़ानों पर वैज्ञानिक कम्पनियाँ ईंधन का खर्च घटकर आधा कर सकती हैं, जिसका सीधा लाभ घटे किराए को लेकर यात्रियों को मिलेगा।
दूसरी ओर जट्रोफा की खेती ने भले अभी किसानों को आकर्षित न कर सकी हो, पर वैज्ञानिकों के इस प्रयास ने जट्रोफा के तेल की कृषि के व्यवसायिक सफलता में पंख लगा दिये हैं। निकट भविष्य में, आयात विकल्प, कम लागत और किसानों को सीधे लाभ पहुँचाने वाले इस बायोफ्यूल का अधिक प्रयोग समय की पुकार सिद्ध होगी। इस हेतु मात्र विमानन कम्पनियाँ ही नहीं, वरन् अन्य उद्योगों में इस बायोफ्यूल की उपादेयता को प्रोत्साहित करना होगा। बायोफ्यूल को अमेरिकी मानक परीक्षा प्रणाली की मान्यता प्राप्त है और यह विमान में प्रेट एण्ड व्हिटनी तथा बाम्बार्डियर के व्यवसायिक मापदण्डों पर खरा उतरता है। वायुसेवाओं द्वारा उत्पन्न होने वाले प्रदूषण का इस प्रकार के प्रयोगों द्वारा कम से कम आधा तो किया ही जा सकता है। जौली ग्रान्ट-देहरादून से पालम-दिल्ली की स्पाइस जेट द्वारा इस प्रयोगिक उड़ान ने, न उड़ान के आकाश में एक नवीन अध्याय जोड़ा है, वरन् घाटो में डूबी भारतीय वायुयान सेवाओं के प्राणों में, इस नवीन प्रयोग ने प्राणवायु दे दी है।
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