विज्ञान कथा - अंक 60 - भर्तृहरि 2.0 - अभिषेक मिश्र

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भर्तृहरि 2.0 विज्ञान-कथा अभिषेक मिश्र रा ज अपने शोध की पूर्णता के काफी करीब था। वह यह सोच कर ही रोमांचित था कि इस प्रयोग के सफल होते ही मानव...

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भर्तृहरि 2.0

विज्ञान-कथा

अभिषेक मिश्र

रा ज अपने शोध की पूर्णता के काफी करीब था।

वह यह सोच कर ही रोमांचित था कि इस प्रयोग के सफल होते ही मानव प्रजाति की सहस्त्राब्दियों पुरानी एक समस्या का समाधान हो जाएगा और वो वृद्धावस्था की जीर्ण कर देने वाली अवस्था से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त हो जाएगी। इस समय अपनी इस कल्पना को साकार रूप में देखते उसके खयालों में जो छवि उभर रही थी वो आराधना की थी। आराधना उसके बचपन का प्रेम थी। रूप, गुण, बुद्धि में उसकी दृष्टि में वो अद्वितीय थी। राज स्वप्न में भी इस छवि से पृथक वृद्धावस्था में उसके स्वरूप की कल्पना नहीं कर पाता था। इस प्रयोग की प्रेरणा के पीछे कहीं-न-कहीं आराधना ही थी। राज ने मन-ही-मन तय कर लिया था कि उसकी प्रिय आराधना उन सर्वप्रथम लोगों में होगी जो इस पृथ्वी पर सदा युवा रहेंगे। उसने इसके बारे में बताने को झट आराधना को फोन लगाया। उसने ये भी न सोचा कि रात 11 बजे आराधना जागी भी होगी या नहीं! वह बेखुदी से बाहर तब आया जब पाया कि उसका फोन इंगेज आ रहा था। उसने घड़ी देखी, इतनी रात किससे बात कर रही होगी वो! फिर उसके ध्यान में आया कि आराधना की साहित्य में काफी रुचि थी। तकरीबन रोज ही कोई-न-कोई लेखक उसका क्रश बन जाया करता था। पहले तो पत्र-मित्रता का दौर था, अब फेसबुक आदि सोशल मीडिया से पसंदीदा लेखकों से सम्पर्क तथा घनिष्ठता काफी सरल हो गई थी।

लेखक गण भी अपने प्रशंसकों से अब पहले जैसी गरिमामय दूरी न रख खुल कर घुलमिल के बातें किया करने लगे थे।

वो आजकल ऐसे ही कुछ नामचीन लेखकों के संपर्क में थी, जिनसे फेसबुक से व्हाट्सऐप होते अब फोन पर भी लंबी चर्चाएँ होती रहा करती थीं। सोचते-सोचते उसकी तंद्रा आराधना की आवाज से टूटी। - ”राज! इस वक्त!“ ”हाँ आराधना, तुम तो जानती ही हो कि मैं अपने जीवन की हर छोटी-बड़ी बात सबसे पहले तुम्हें बताना चाहता हूँ। आज की यह खास बात भी मैं सबसे पहले तुम्हें ही बताना चाहता था, पर तुम्हारा फोन व्यस्त आ रहा था! किससे बातें कर रही थी इस वक्त!“- ”वो...वो... शोभित था। उसकी एक नई कहानी पर बात हो रही थी।“ आराधना की आवाज में एक लड़खड़ाहट थी, पर अपने उत्साह के अतिरेक में राज ने उसे नजरअंदाज कर दिया और बताना शुरू किया- ”मैंने तुम्हें अपने शोध के विषय में बताया था न कि जल्द ही मैं एक ऐसी वैक्सीन का निर्माण कर लूँगा जिसके प्रभाव से मानव शरीर में वृद्धावस्था का प्रभाव समाप्त हो जाएगा और वो चिरयुवा रह सकेगा। मैंने चूहों पर कई प्रयोग करने के बाद अब इसे वानरों पर भी आजमा लिया है। इस प्रयोग में मैंने उन वृद्ध जीवों की रक्त कोशिकाओं में एक दीर्घायु जीन को प्रविष्ट करा दिया। इससे उसकी वृद्ध और कमजोर कोशिकाओं में नवीन ऊर्जा आ गई और वो फिर से नई ब्लड कोशिकाएँ निर्मित करने लगी।

अर्थात, कोशिका की कार्यप्रणाली में वृद्धावस्था के साथ आने वाली जर्जरता न सिर्फ रुक गई, बल्कि उनके पुनर्जीवित होने की संभावना भी बढ़ गई। यह शोध न सिर्फ मानव शरीर को स्वस्थ, दीर्घायु बल्कि चिरयुवा भी रखेगा।...“

राज अपनी धुन में बोलता जा रहा था, किन्तु आराधना का ध्यान तो कहीं और ही था। उसका ध्यान तब टूटा जब राज ने जोर देकर कहा- ”हैलो आराधना, सुन रही हो न! मैं तुम्हें यह वैक्सीन कूरियर कर रहा हूँ। सोमवार तक तुम तक पहुँच जाएगा। मैं इसके प्रयोग के प्रति बिल्कुल आश्वस्त हूँ। मगर जब तक इसकी मान्यता से जुड़ी तमाम औपचारिकताएँ पूरी नहीं हो जातीं, और यह आम जनता के लिए उपलब्ध नहीं हो जाताय मैं चाहता हूँ कि इसे तुम और सिर्फ तुम ही प्राप्त करो। ताकि, मेरी कल्पना सदा-सर्वदा के लिए मेरी कल्पना सी ही सौंदर्य का प्रतिमान बनी रहे....।“ कहते-कहते राज ने फोन रख दिया।

यह प्रोजेक्ट उसके बचपन का सपना था। अपने नाना से बचपन में पुराणों की कहानियाँ सुनते उसे इस साहित्य में दिलचस्पी जगी थी, और उन्हीं दिनों उसने राजा भर्तृहरि की कथा पढ़ी थी। उसमें सेब खा चिरयुवा बने रहने की परिकल्पना से वह प्रभावित था। वह मानता था कि पौराणिक कहानियों को इतिहास मान लेना उचित नहीं, किन्तु उनसे भविष्य के शोधों के लिए प्रेरणा पाई जा सकती है। उसका यह शोध भी इसी से प्रेरित था। मनुष्य की मृत्यु अटल है वह जानता था, किन्तु सदा युवा और सामर्थ्यवान रहते हुये मृत्यु के द्वार तक पहुँच सकें यह भी उसके शोध का लक्ष्य था। इसी प्रेरणा से उसने अपने शोध का नामकरण भर्तृहरि 2.0 रखा था।

आज सोमवार था। राज की भेजी वैक्सीन आराधना के हाथों में थी, परन्तु उसके मनोमस्तिष्क में कुछ और ही चल रहा था। वो एक व्यवहार कुशल आधुनिक नारी थी, राज की तरह भावुकता भरी सोच से अलग उसके स्वतंत्र विचार थे। वो सोच रही थी- ”माना आज मेरे पास रूप है, गुण है जिसकी राज प्रशंसा करता है। परंतु क्या मात्र ये दीर्घ जीवन का आनंद उठाने के लिए यथेष्ट है! शोभित एक उभरता लेखक है और मुझे अत्यंत प्रेम भी करता है। नीरस विज्ञान की जगह कला-साहित्य जैसे आदि हर रसमय विषय पर उसका अथाह ज्ञान है। जिसके वक्त के साथ और बढ़ने तथा विस्तार पाने की पूरी संभावना है। वैक्सीन जब सभी के लिए उपलब्ध होगी मैं तो तब भी ले सकती हूँ। अभी क्यों न इसे शोभित को ही दे दूँ!“ - उसने मोबाईल खोल व्हाट्सऐप ऑन किया। शोभित ऑनलाइन ही था। उसने मैसेज टाईप करना शुरू किया।

आराधना के घर से निकलते शोभित के मन में कुछ और ही भावनाएँ उमड़ रही थीं। आराधना की अपने प्रति भावनाओं से वो प्रभावित था तो उसके प्रति ये जानते हुये भी कि वो राज से प्रेम करती है अपनी भावनाएँ उसने कभी छुपाई नहीं थीं। किन्तु आज वो आराधना के दिये इस वैक्सीन के प्रयोग को लेकर विचारमग्न था। अपने अन्तर्मन को मथने पर उसने पाया कि वह लेखन के क्षेत्र में एक अच्छे मुकाम पर है, उसका एक प्रशंसक वर्ग है। जिनमें काफी संख्या में महिलाएँ भी हैं। उसकी लेखनी से वशीभूत हो कई ने उसे प्रणय निवेदन किया है, और कई को उसने और कई बार दोनों ही ने परस्पर स्वीकार भी किया है। परंतु कहीं-न-कहीं वह अब इस जीवन से उकता भी गया है। आखिर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा! मेरे ख्याल से इस शोध का लाभ किसी ऐसे व्यक्ति को मिलना चाहिए, जिसके लिए यह ज्यादा उपयोगी हो। यह सोचते-सोचते उसने अपनी बाईक रेशमा के घर की ओर मोड़ दी।

रेशमा एक कॉल गर्ल थी, जिसके पास शोभित अकसर अपनी शारीरिक, मानसिक थकान मिटाने जाता रहता था। वह सुंदरता और बौद्धिकता का भी अनूठा संगम थी। परिस्थितियों ने उसे इस व्यवसाय में जरूर ला खड़ा किया था, किन्तु उसने शोभित के दिल में एक खास जगह बना ली थी। इतनी कि आज उसके दिल में इस वैक्सीन को देने के लिए बस एक ही नाम ध्यान में आ रहा था। उसे लग रहा था कि रेशमा इस वैक्सीन का उपयोग कर अपनी जिंदगी को ज्यादा बेहतर रूप दे पाएगी। यह वैक्सीन सर्वाधिक उसके ही हित में होगी। रेशमा उसकी बातों को ध्यान से सुनती और उसके इस समर्पण से प्रभावित थी। उसने शोभित को गले से लगा लिया। थोड़ी देर बाद दोनों जब प्रेम की लहरों से बाहर निकले तो उसने शोभित को शुक्रिया कहते विनम्र नजरों से विदा किया।

उसके जाने के बाद वो सोच में पड़ गई। क्या यह वैक्सीन उसे लेनी चाहिए! माना परिस्थिति ने उसे जिस स्थिति में ला खड़ा किया है वहाँ यह वैक्सीन उसके लिए काफी सहायक सिद्ध हो सकती है। मगर क्या ऐसा न होगा कि इसके बाद वो सदा इस नारकीय स्थिति में ही रहने को अभिशप्त हो रह जाएगी। क्या वो मृत्यु पर्यंत मात्र शोभित और ऐसे ही रूप के पुजारियों के मन बहलाव का साधन मात्र बनी रह जाए! यदि समय के साथ जब उसका रूप उसके साथ न रहेगा उस स्थिति में भी यदि वह कोई अन्य उपयुक्त राह पर चलना भी चाहे तो इस वैक्सीन का प्रभाव उसे उस राह पर चलने से रोकने में एक प्रलोभन ही बन सकता है। मुझे लगता है इस वैक्सीन को किसी ऐसे व्यक्ति के हाथों में होना चाहिए जो इन क्षुद्र मानसिकताओं से उपरा उठता मानवता के लिए कुछ बेहतर करने के लिए प्रयासरत हो। उसके दिमाग में एक ही नाम उभर रहा था। उसने ऑटो वाले को रोका और चल पड़ी। थोड़ी ही देर में वो राज के घर के सामने थी।

उसने राज के कई वैज्ञानिक योगदानों के बारे में पत्रिकाओं में पढ़ा था। विभिन्न पत्रिकाओं-अखबारों आदि में उसके लेख आदि वो पढ़ती रही थी। वो राज के प्रति एक मूक आकर्षण महसूस करती थी, परंतु उसे कभी न पता एक आम प्रशंसिका के रूप में ही उसके संपर्क में थी। पत्र व्यवहार आदि द्वारा उसके लेखों आदि पर वो चर्चा या विचार व्यक्त करती रहती थी। आज उसे अपने घर पर देख राज हतप्रभ था।

रेशमा ने अपने आने का कारण बताते हुये राज से कहना जारी रखा- ”आप एक वैज्ञानिक हैं, शोधरत हैं, आपका स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन विज्ञान और मानवता के लिए ज्यादा उपयोगी हो सकता है। मेरी दृष्टि में इस वैक्सीन के सबसे उपयुक्त पात्र आप ही हैं। इसे स्वीकार मुझे अपने जीवन में एक सार्थक कार्य की अनुभूति का तो अवसर दे दीजिये...।“ वो कुछ और भी कहती जा रही थी। पर राज सुन ही कहाँ रहा था! वो तो इस चक्र से हतप्रभ था। उसकी आँखों से भ्रम का आवरण हटता जा रहा था। विज्ञान के रहस्य के अलावे मानव मन के रहस्य का भी एक नया आवरण उसके सामने से हटा था। परिदृश्य बिल्कुल स्पष्ट हो चुका था। भर्तृहरि के लिखे एक श्लोक की भूली-बिसरी सी कोई पंक्ति उसके मन-मस्तिष्क में गूँज रही थी-

”जल्पन्ति साद्रधमन्येन पश्यंत्यन्यं सविभ्रामः

हृदये चित्यन्त्यन्यंप्रियः को नाम योषिताम...“

अर्थात, स्त्रियों का यथार्थ में कोई प्रिय नहीं है, ये किसी से बात करती हैं, तो किसी और को ही विलास भरी दृष्टि से देखती हैं और हृदय में किसी और को ही चाहा करती हैं...

वह समझ गया था कि हर व्यक्ति अपूर्ण है और इस अपूर्णता की पूर्ति वह किसी अन्य से करना चाहता है। पूर्ण तो सिर्फ ईश्वर ही है। अतः या तो ईश्वर से पूर्णता की प्रार्थना करे या इसे अपने अंदर तलाशे। स्रोत एक ही है। उसने तय कर लिया था कि यह पृथ्वी अभी इस आविष्कार के योग्य नहीं हुई है। छल, कपट, ईर्ष्या, धोखा आदि जैसी भावनाओं के रहते प्रेम यहाँ कभी साकार रूप नहीं ले पाएगा। उसने निर्णय ले लिया था कि इस प्रयोग को यही बंद कर वह शेष जीवन छात्रों के मध्य विज्ञान की शिक्षा देते व्यतीत करेगा। युवाओं का उत्साह, जिज्ञासा, जागरूकता आदि ही उसे उनके मध्य चिरयुवा रखेगी.

.... ❒ ई मेल : abhi.dhr@gmail.com

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रचनाकार: विज्ञान कथा - अंक 60 - भर्तृहरि 2.0 - अभिषेक मिश्र
विज्ञान कथा - अंक 60 - भर्तृहरि 2.0 - अभिषेक मिश्र
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