बहुत से लोग समझते हैं कि ब्लागर वेब पर पहले होस्ट हैं और इसके पहले वेब पर आम आदमी के लिये कोई ठिकाने नहीं थे, लेकिन १९९५ में जब मैंने दिन म...
बहुत से लोग समझते हैं कि ब्लागर वेब पर पहले होस्ट हैं और इसके पहले वेब पर आम आदमी के लिये कोई ठिकाने नहीं थे, लेकिन १९९५ में जब मैंने दिन में लगभग ६-८ घंटे वेब सर्फिंग शुरू की तब पाया कि वेब पर अनेक हिंदी साइट थे। कुछ अलग अलग हिंदी फांटों में बने थे तो कुछ में लिपि को इमेज बनाकर अपलोड किया गया था। उस समय इन्हें वेब होम कहा जाता था। हम मित्र इन्हें हिंदी में जालघर कहते थे। प्रमुख वेब होस्ट थे- जियोसिटीज और एंजिलफायर। ब्लागर का उस समय अता पता नहीं था। इसलिये इन जाल स्थलों का नाम ब्लाग होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। ब्लागर का जन्म इसके ४ साल बाद १९९९ में हुआ। 1995 से पहले भी कुछ हिंदी साइट जरूर बने होंगे लेकिन या तो मेरा उनसे परिचय स्थापित करना असफल रहा या फिर परिचय बना नहीं रह पाया। मुझे देशभक्ति की कविताओं और अन्य कविताओं की कुछ हिंदी साइटों का ध्यान आता है जो पारिजात आदि फांटों में बनी थीं लेकिन इस समय मुझे उनके नाम याद नहीं हैं।
इनमें से जो मुझे बिलकुल ठीक से याद हैं उनमें पहला जालघर था डॉ. विनोद तिवारी का जो जियोसिटीज में इस पते पर था- www.geocities.com/athens/forum/1179. मेरी कविताएँ नामक इस जालघर पर उनकी कविताएँ पढ़ी जा सकती थीं। डॉ. तिवारी कोलोराडो, अमरीका में रहते हैं और एक राष्ट्रीय वैज्ञानिक संस्थान में वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने भौतिक विज्ञान में दिल्ली विश्विद्यालय से पी एच. डी. और लखनऊ विश्विद्यालय से स्नातक किया। भौतिक विज्ञान में शोध कार्य के लिये उन्हें एरिक राइस्नर पदक, अमरीका सरकार का कांस्य पदक, और प्राइड आफ इंडिया पुरस्कार मिल चुके हैं। हिन्दी काव्य के लेखन और पठन में उन्हें विशेष रूचि है. उनकी कवितायें सरिता, कादम्बिनी, और अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। अनुभूति के प्रतिष्ठित संकलन "हिन्दी की 100 सर्वश्रेष्ठ प्रेम कवितायें" (http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/prem_kavitayen/) में भी उनकी कविता प्रकाशित हुई है। वे संप्रति वाणी मुरारका के काव्यालय में संपादक हैं।
१९९५-९६ में निर्मित एक और जालघर था जो बंगलोर के राज जैन ने एंजिलफायर पर बनाया था। वे मूल रूप से राजस्थान के थे और बंगलोर से एम.बी.ए. करने के बाद अपने व्यवसाय में वहीं स्थापित हो गए थे। उनकी कविताएँ सरल शब्दों और सुन्दर कल्पनाओं के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुआ करती थीं। राज जैन्स पोइट्री नामक उनके इस जालघर पर उनके गीत गजल और कुछ अँग्रेजी रचनाओं का संग्रह किया गया था। यह जालघर अभी भी देखा जा सकता है और इसका पता है- http://www.angelfire.com/ab/rajji/index.html आहट नाम से उनकी गजलों का एक और जालघर जियोसिटीज पर था जिसका पता था- http://www.geocities.com/Paris/Boutique/3908/index.html वे अपने गीत और गजल अंग्रेजी लिपि में लिखा करते थे। उन्होंने आखर नामक अपना एक और जालघर भी बनाया था लेकिन अब मुझे यह याद नहीं है कि इसे कहाँ होस्ट किया गया था। राज जी नाम से जाने जाने वाले ये रचनाकार साउस एशियन वुमेन फोरम के भी लोकप्रिय रचनाकार थे। उनके एक गीत- ये कैसी मीठी उलझन है को अमेरिका के शेखर फाटक और तेजस्विनी फाटक ने अपनी धुन और आवाज से सजाया था। २००१ में अनुभूति के जन्म के बाद वे हमारे नियमित रचनाकारों में से एक बने रहे। दुर्भाग्य से राज जैन अब हमारे बीच नहीं हैं। हृदयाघात से असमय ही (अपने जीवन के चालीसवें दशक में ही) उनका देहांत हो गया।
काव्यालय नाम से एक और महत्त्वपूर्ण जालघर था जो १९९७ में वाणी मुरारका ने बनाया था। इसका पता था- (www.geocities.com/Tokyo/9785/) वाणी मुरारका कोलकाता में पली बढ़ी हैं। वहीं स्नातक शिक्षा समाप्त करने के बाद, उन्होंने कुछ समय तक अपना सॉफ्टवेयर का व्यवसाय किया। इन दिनों वे अमरीका के एक विश्वविद्यालय में कंप्यूटर विज्ञान में पीएच. डी. कर रही है। वह कवि और चित्रकार भी हैं। उनकी कविताओं और चित्रों में मानवीय भावनाओं की कोमल अभिव्यक्ति होती है। काव्यालय उनकी मौलिक वैचारिकता और हिन्दी काव्य में उनकी रचनात्मक रूचि का प्रतिबिम्ब है। उन दिनों विश्व में अंतरजाल अधिक प्रचलित नहीं था। भारत में तो इसका आरम्भ हुआ ही था और अधिकांश लोग अंतरजाल से बिलकुल अपरिचित थे। उस समय, विशेष रूप से भारत में, यह कल्पना ही कठिन थी कि एक ऐसी सुविधा उपलब्ध की जा सकती है, जिससे घर बैठे पाठकों को निःशुल्क हिंदी काव्य की झलक मिल सके। ऐसे समय में उन्होंने बिना किसी आर्थिक स्वार्थ के, जिस कुशलता से काव्यालय का सृजन और संचालन किया वह प्रशंसनीय है। सच पूछा जाय तो काव्यालय बाद में बनी अनेक हिंदी कविता साइटों का प्रेरणा स्रोत है।
शेरो शायरी और राम चरित मानस का एक और विशाल जालस्थल सुमन कुमार घई ने जियो सिटीज पर बनाया था जिसके शायरी जालघर का पता था - www.geocities.com/sumankghai और रामचरित मानस वाले जालघर का पता था www.geocities.com/sumankghai। सुमन कुमार घई के बारे में मुझे विस्तार से लिखना है क्योंकि हिंदी के विकास में अद्भुत योगदान देने के बावजूद उनके बारे में लिखा बहुत कम गया है। वे लंबे समय तक अभिव्यक्ति में कैनेडा के सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर आधारित स्तंभ कनाडा कमान भी लिख चुके हैं। कैनेडा से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका “हिन्दी चेतना” के सह-सम्पादन और हिन्दी साहित्य सभा, कैनेडा के महासचिव का दायित्व संभालने के बाद सुमन कुमार घई संप्रति अन्तरजाल पर साहित्य कुंज के प्रकाशन और सम्पादन में व्यस्त हैं। “हिन्दी राइटर्स गिल्ड” का संस्थापक सदस्य होने के साथ वे शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली व्यवसायिक पारिवारिक पत्रिका “कैनेडियन पत्रिका” का मुख्य सम्पादक भी हैं। इसके साथ ही वे संवेदनशील कवि और अद्भुत कहानीकार हैं।
१९९५ में मुझे पता चला कि बिना खर्च के वेब पर अपनी पसंद से कुछ भी लिखा जा सकता है। उस समय वेब पर अनेक फोरम थे जिसके सदस्य वेब होम बनाने पर सहयोग करते थे। उनके सहयोग से मैंने मेरा अपना जालघर जियोसिटीज पर १९९६ में बनाया था जिसका पता था-http://www.geocities.com/SoHo/Village/8682/ था। जल्दी ही मुझे पता चला कि कम जानकारी से सुंदर जालघर नहीं बनाया जा सकता और तब मैंने वेबडिजाइनिंग के एक पाठ्यक्रम में दाखिला लिया। मेरी विशेष रुचि जावा स्क्रिप्ट के द्वारा कविता को सजीव करने में थी। लेकिन बाद में मैंने अपनी कविताएँ, भारतीय संस्कृति से संबंधित चित्रमय जानकारी तथा पेंसिल स्केच वाटरकलर पेंटिंग्स और पसंद की दूसरी चीजें इस साइट पर अपलोड की थीं। मेरी कविताओं के साथ त्योहारों पर शुभकामनाएँ भेजने वाले पृष्ठ इस साइट पर इमेज रूप में थे, जिन्हें जावा स्क्रिप्ट से सजीव किया गया था।
१९९६ में हिंदी वेब फांट के जनक हर्ष कुमार ने भी जियोसिटीज पर एक वेब साइट बनाया था जिसका पता था- http://www.geocities.com/SiliconValley/Lab/9988/faq.htm । इस पर सुशा का बीटा संस्करण जारी किया गया था। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक कार्य था। इसी तरह मुझे याद पड़ता है कि आज हिंदी के क्षेत्र में तकनीकी क्रांति के लिये सुप्रसिद्ध रवि रतलामी का भी जियोसीटीज पर एक जालघर था और वे मेरे साथ किसी वेबरिंग में भी जुड़े हुए थे।
जियोसिटीज के बंद होजाने से इनमें से बहुत से जालघर आज वेब पर नहीं हैं। लेकिन इनके कुछ न कुछ हिस्से वे बैक मशीन पर देखे जा सकते हैं। दुर्भाग्य से इन सभी साइटों के प्रारंभिक अंक 'वे बैक मशीन' में सेव नहीं किये गए हैं। सबसे पुराना अंक 15 जनवरी 1999 का राज जैन की साइट का सेव किया हुआ मुझे मिला है। लेकिन आशा है किसी न किसी वेब साइट ने कहीं न कहीं इन्हें इतिहास में कैद किया होगा जिससे इनकी प्रमाणिकता सिद्ध हो सकेगी।
इतना लिखते हुए भी मुझे लगता है कि पुराना बहुत कुछ छूट गया है। आशा रखती हूँ कि मेरे जो भी पुराने साथी इसे पढ़ेंगे वे छूटा हुआ सब कुछ इसमें जोड़ देंगे। यह लेख 2014 में लिखा गया था तब मैंने डॉ. विनोद तिवारी और वाणी मुरारका से संपर्क किया था। तबसे अब तक परिस्थितियों में बदलाव हो सकता है। हो सकता है कि वाणी जी अभी तक अपनी पीएच. डी. पूरी कर चुकी हों... या अन्य लोग कुछ और काम कर रहे हों... या सेवा निवृत्त हो चुके हों।
कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ -
पूर्णिमा वर्मन Ratan Mulchandani जी आप भी उन दिनों के वेब संसार के विषय में बहुत कुछ लिख सकते हैं
Jagdish Vyom
Jagdish Vyom बहुत अच्छी जानकारी दी आपने पूर्णिमा जी.... उन दिनों बहुत मुश्किल होता था वेव पर कार्य करना..... जियोसिटीज पर मेरा भी जालघर था.......
Suman K. Ghai
Suman K. Ghai पुरानी यादें ताज़ा करवाने के लिए धन्यवाद। वास्तव मेरी प्ररेणा की स्रोत आप थीं। उन दिनों कुछ मुट्ठीभर भर लोग वेब हिन्दी की नींव रख रहे थे। एक बार मुम्बई से सूरज प्रकाश अरोड़ा ने पूछा था - यह प्रकाशन विदेशों से ही क्यों होता है। मेरा उत्तर था कि जो सुविधाएँ हमें उपलब्ध हैं वह अभी भारत में नहीं हैं। पूर्णिमा जी मेरा मानना है कि जो भी हमने किया वह केवल साहित्य के प्रति निस्वार्थ प्रेम परिश्रम था। इन दिनों एक साफ़्टवेयर कम्पनी के साथ साझेदारी में हिन्दी की ई-पुस्तकों के प्रकाशन की वेबसाइट बनवा रहा हूँ। pustakbazaar.com पर केवल चुनी हुई सम्पादित पुस्तकें ही प्रकाशित होकर बिकेंगी। लेखक को बिक्री का 70% मिलेगा और बाक़ी 30% वेबसाइट के खर्च के लिए रखा जायेगा। अभी तक हिन्दी ई-पुस्तकों की ऐसी वेबसाइट नहीं है जिस पर हम गर्व कर सकें।
PUSTAKBAZAAR.COM
पूर्णिमा वर्मन
पूर्णिमा वर्मन सुमन जी आपकी विनम्रता को को नमन लेकिन अपनी जियोसिटी वाली साइट का पुराना पता (URL) दीजियेगा। आपके नये कार्य के बारे में जानकर बहुत प्रसन्नता हुई। मुझे भी इसमें शामिल करियेगा। निश्चय ही हिंदी लेखक समाज इस पर गर्व कर सकेगा।
Suman K. Ghai पूर्णिमा जी, उर्दू शायरी और हिन्दी कविता का url था
www.geocities.com/sumankghai
और रामचरित मानस का था
www.geocitues.com/sumanghai
अभी फोन पर सर्च कर रहा था तो पता चला कि Oocaties: geocities archives/Geocities mirror पर बैकअप है। कल कम्प्यूटर पर बैठूँगा तो ज़रा गहराई में जाकर खोजता हूँ। क्योंकि सब शुषा फ़ांट में था इसलिए पढ़ा तो नहीं जायेगा पर फिर भी .... ।
पूर्णिमा वर्मन
पूर्णिमा वर्मन धन्यवाद। अगर आपके कंप्यूटर में शुषा फांट है तो सब पढ़ा जा सकेगा। अब उसको कन्वर्ट कर के यूनिकोड में कहीं अपलोड कर देना होगा।
Raman Kaul
Raman Kaul बहुत अच्छी जानकारी, पूर्णिमा जी। अभिव्यक्ति अनुभूति तो शुरू से पढ़ते ही आए हैं। पर इसके इलावा वेब पर शुरू में गिने चुने ही हिंदी के वेबपृष्ठ थे। 90 के दशक के उत्तरार्ध में मेरी भी जियोसिटीज़ पर अस्थायी उपस्थिति रही होगी, पर मैंने शायद शुरुआत VSNL के खाते से की थी। VSNL के नई दिल्ली स्थित कार्यालय में लाइन में खड़े होकर इंटरनेट का खाता खोला था, जिसके साथ एक स्टार्टर सीडी मिली थी। वह सीडी शायद अभी भी कहीं पड़ी होगी मेरे पास। उस सीडी में हिंदी के फॉंट थे, और CDAC Pune द्वारा बनाया हिंदी सॉफ्टवेयर था -iLEAP के नाम से। इसके अतिरिक्त VSNL वाले मुफ्त webspace देते थे व्यक्तिगत जालघर बनाने के लिए, जिसपर मैंने personal.vsnl.com/ram के पते पर पहली वेबसाइट बनाई थी -- इसके लिए html की किताब नेहरू प्लेस से खरीदी थी। एक प्राउड इंडियन का बैनर भी लगाने की प्रथा थी उन दिनों की वेबसाइटों पर। कोलकता के कोई अमित शर्मा थे, जिन की वेबसाइट मैं नियमित देखता था। बाद में Tripod पर साइट बनाई थी, और आखिर वर्डप्रेस के ज़रिए ब्लॉगिंग पर आ गए लगभग पंद्रह साल पहले। लंबा सफर रहा है। और वह शुरु में बनाई दोस्तियाँ अभी भी कायम हैं।
पूर्णिमा वर्मन
पूर्णिमा वर्मन Raman Kaul जी आपने सही कहा हम सबके पास सीडैक की वह सी डी हुआ करती थी। लेकिन वेब पर वह इतनी सफल नहीं रही थी जितना हर्ष कुमार का सुशा फांट. प्राउड इंडियन का बैनर कहीं आपके पास सुरक्षित हो तो यहाँ लगाएँ बहुत अच्छा लगेगा। आपके हिंदी में वेब आगमन का वर्ष क्या था वह भी लिखियेगा याद कर के। यह जानकारी भविष्य में कुछ लोगों के बहुत काम आएगी।
संजीव वर्मा 'सलिल'
संजीव वर्मा 'सलिल' मैं तो अंतर्जाल पर चिट्ठा (ब्लॉग) के माध्यम से जुड़ा था. संभवत: १९९८-१९९९ में . तब शहर में कई युवाओं को ब्लॉग्गिंग सिखाई और उनके चिट्ठे खोले.
रवि रतलामी - Ravishankar Shrivastava आह! पुराने दिनों की याद ताजा हो गई। धन्यवाद। कुछ लिंक मैं भी टिकाना चाहूंगा-
यह मेरे जियोसटीज का आर्काइव पन्ना है। सभी फाइल व लिंक काम कर रहे हैं। इसमें यूनिकोड में गजल है और मजेदार बात यह है कि पूरा एक पैराग्राफ ट्यूटोरियल है अंग्रेजी में कि इस पन्ने को कैसे पढ़ें
http://web.archive.org/.../geo.../raviratlami/All_Gazal.html
http://web.archive.org/.../www.geocities.com:80/raviratlami/
जब जियोसिटीज बंद हुआ था तो यह लेख लिखा था कि अपनी सामग्री सुरक्षित है उसका जुगाड हो गया है-
https://raviratlami.blogspot.com/.../07/blog-post_21.html
(पूर्णिमा वर्मन के फ़ेसबुक पोस्ट से साभार)
सहजने योग्य सामग्री। हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएं