घ र पहुंचते ही मास्टर कमलाकांत इस तरह खटिया पर गिर पड़े, जैसे उनके अन्दर जान ही न बची हो। जान तो बची थी, तभी तो वह लंबी और गहरी सांसें ले रहे...
घर पहुंचते ही मास्टर कमलाकांत इस तरह खटिया पर गिर पड़े, जैसे उनके अन्दर जान ही न बची हो। जान तो बची थी, तभी तो वह लंबी और गहरी सांसें ले रहे थे, परंतु इस जान में कोई जोश, और ऊर्जा नहीं थी। शरीर में जान होने से ही क्या शरीर जिंदा रहता है? उसके अंदर का ज़मीर अगर मर जाए, तो फिर आदमी जिन्दा होते हुए भी एक लाश के समान होता है?
मास्टर जी ने ऐसा कोई काम नहीं किया था कि उनकी आत्मा को डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी न मिलता, परंतु उनकी आत्मा को इस कदर चोट पहुंची थी कि वह स्वयं को एक लाश की तरह महसूस कर रहे थे।
मास्टर कमलाकांत उस ज़माने में जवान हुए थे, जब प्यार-मोहब्बत तो होता था, परंतु इतना ढंका-मुंदा कि किसी को कानों-कान ख़बर न होती थी. स्त्री-पुरुष के बीच अवैध-संबंध भी बनते थे, जिनके कारण पंचायतें बैठती थीं और परिवार टूट जाते थे। यह वह युग था, जब दिन में आदमी अपनी पत्नी का मुंह देखने को तरस जाता था। पत्नी से उसकी मुलाकात रात के अंधेरे में होती थी और वह भी इस तरह, जैसे वह किसी और की अमानत लूटने आया हो।
खैर, वह ज़माने तो कब के चले गये। अब मोबाइल फोन और इंटरनेट का ज़माना आ गया था। लड़कियां ही नहीं, स्त्रियां भी घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने लगी थीं। लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर नौकरियां कर रही थीं। जगह-जगह पब्लिक स्कूल और महाविद्यालय खुल गये थे। उनके ज़माने में गांव में केवल सरकारी प्राइमरी स्कूल हुआ करते थे। लड़कियां मुश्किल से पांचवीं जमात तक पढ़ पाती थीं, क्योंकि दूर-दूर तक कोई हाई स्कूल या डिग्री कॉलेज नहीं होता था। लड़के दूर के स्कूलों-कॉलेजों में जाकर पढ़ाई कर लेते थे, परन्तु लड़कियों के लिए यह बहुत मुश्किल था। आज तो गांव की लड़कियां गांव में ही बी. ए. और एम. ए. कर रही थीं।
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मास्टर कमलाकांत ने अपने जीवन की शुरुआत प्राइमरी स्कूल के अध्यापक के तौर पर की थी। रिटारमेंट के समय वह सरकारी जूनियर स्कूल के अध्यापक हो गए थे। उनके रिटायरमेंट तक गांव-समाज में बहुत परिवर्तन हो चुके थे। कुछ परिवर्तन ऐसे थे, जिन्हें देखकर उन्हें लज्जा का अनुभव होता। वह सोचते, काश, यह सब देखने के पहले वह मर जाते तो उनकी आत्मा को शांति मिलती, परंतु भाग्य ने शायद अभी उनके जीवन में बहुत कुछ देखने के लिए छोड़ रखा था।
समाज में बढ़ती हुई अनैतिकता, दुराचार, अनाचार, व्यभिचार और अत्याचार को वह देख रहे थे, परंतु वह ऐसी स्थिति में नहीं थे कि इन सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए कुछ कर सकते। मन ही मन खीझते थे, गुस्सा होते थे, परंतु इसके सिवाय वह कुछ नहीं कर सकते थे। जब कोई परिचित मिलता, तो उसके सामने मन की भड़ास निकालते। सामने वाला कुछ देर तक सुनता, उनकी हां में हां मिलाता, और फिर जैसे ऊब जाता। वह बहाना बनाकर निकल लेता।
उनकी समझ में न आता कि समाज को यह क्या हो गया है? लड़कियां खुले-आम लड़कों के साथ घूमने लगी हैं, बेशर्मी से हाथ में हाथ डालकर घूमती हैं। लड़कों के शरीर से ऐसे चिपककर चलती हैं, जैसे उनके शरीर में चुंबक लगा हो। हद तो तब हो जाती है, जब वह आसपास के लोगों से बेखबर चूमा-चाटी करने लगते हैं। सबकी आंखों के सामने खेतों में घुस जाते हैं, झाड़ियों के पीछे छिप जाते हैं। गांव-कस्बों का यह हाल है, तो शहरों का क्या हाल होगा?
उनके गांव से सटा हुआ एक बड़ा कस्बा है। उस कस्बे में तहसील, थाना, डिग्री कॉलेज, अस्पताल, बैंक आदि सबकुछ हैं। प्रायः रोजमर्रा के कामों और खरीद-फरोख़्त के लिए लोग इसी कस्बे में जाते थे।
अभी आज की ही बात है, वह बैंक से पैसा निकालने के लिए कस्बे गये थे। वापसी में धूप तेज हो गयी, तो एक पेड़ के नीचे सुस्ताने के लिए बैठ गए थे। पैदल ही जाते थे। उन्हें बैठे दो-चार मिनट ही हुए होंगे कि उन्होंने देखा सड़क के दूसरी तरफ़ पेड़ के नीचे एक लड़का और लड़की बिलकुल सटकर खड़े हुए थे। वह आलिंगनरत थे और एक दूसरे का चुंबन कर रहे थे। वह अपनी क्रियाओं में इतना व्यस्त थे कि उन्हें आसपास की गतिविधियों और आने-जाने वाले लोगों का भी ध्यान नहीं था। कमलाकांत की तरफ़ भी उन्होंने ध्यान नहीं दिया था। कमलाकांत न चाहते हुए भी उस तरफ़ देख रहे थे। यह सहज मानव प्रवृत्ति होती है।
कुछ पल बाद जब उनका आलिंगन ढीला हुआ और लड़का-लड़की के मुख एक-दूसरे से अलग हुए तो उन्होंने ध्यान से लड़की को देखा। वह उन्हें कुछ जानी-पहचानी-सी लगी। एकटक उसे देखने लगे। हां, अरे, यह तो उनके परिचित शिवकुमार की बेटी शिवानी थी। उनके गांव की थी। कस्बे के कॉलेज में पढ़ती थी। उसके पिता शिवकुमार को उन्होंने पढ़ाया था। शिवानी के कृत्य को देखकर उन्हें धक्का-सा लगा। लड़की को इस समय कॉलेज में होना चाहिए, परंतु वह अपने प्रेमी के साथ बीच सड़क में अभिसार-रत थी। सारी मर्यादाएं भूल चुकी थी।
उनका मन हुआ कि उठकर उन दोनों के पास जाएं, और परिचित की लड़की को कुछ समझाएं, परंतु वह कुछ करते, उसके पहले ही दोनों युवा अपनी बिखरी किताबें समेटकर पास के खेत में घुस गये। खेत में ज्वार की फसल खड़ी थी। उसके अंदर घुसकर दोनों उनकी निगाहों से ओझल हो गए। लड़का और लड़की ने इतना भी ध्यान नहीं रखा कि कोई उन्हें खेत के अंदर घुसता हुआ देख रहा था।
मास्टर कमलाकांत सन्न् रह गये। वह समझ गये, दोनों किस कारण खेत के अंदर गये थे। उनका मन हुआ कि लपककर अंदर जाएं और दोनों को दुष्कृर्त्य करते हुए पकड़ लें। दोनों को नंगा ही बाहर लाएं और दुनियावालों को बताएं कि आज की पीढ़ी पढ़ाई छोड़कर क्या कर रही थी। हमारा समाज किधर जा रहा था।
वह सड़क पारकर दूसरी तरफ़ पहुंचे, जहां कुछ पल पहले लड़का-लड़की खड़े थे। फिर कुछ सोचकर रुक गये। बुजुर्ग व्यक्ति थे। शरीर में इतनी शक्ति नहीं थी कि दो युवाओं को पकड़कर खेत से बाहर ला सकें। उनके कुकर्म के बीच में बाधा बनेंगे, तो कहीं आक्रमण न कर दें। फिर क्या, वह अपने परिचित की बेटी को नंगा देखने की हिम्मत जुटा सकेंगे। उधर से कोई यात्री भी नहीं गुजर रहा था। किससे अपने मन की व्यथा कहते। वह आहत मन और हतप्रभ से सड़क के किनारे संज्ञाशून्य से खड़े रहे।
लगभग एक घंटा बाद शिवानी उस लड़के के साथ खेत से बाहर निकली। वह अस्त-व्यस्त हालत में थी। लड़का ठीक-ठाक अवस्था में था। अंधा भी अंदाजा लगा सकता था कि वह दोनों कौन-से कृत्य को अंजाम देकर बाहर निकले थे।
सामने कमलाकांत को खड़े देखकर एक बार तो शिवानी के चेहरे का रंग उड़ गया, परंतु फिर उसने अपने को तुरंत संभाला और दूसरी तरफ़ जाने लगी। लड़के के चेहरे पर कोई शर्म या संकोच का भाव नहीं था। वह कमलाकांत को नहीं जानता था। उसने उनकी तरफ़ देखा भी नहीं और शिवानी के पीछे विपरीत दिशा में चलने लगा।
कमलाकांत उन्हें यूं ही नहीं जाने देना चाहते थे। वह लपककर उसके पीछे पहुंचे। जोर से पूछा, ‘‘तुम शिवानी हो न्!’’
शिवानी ने मुड़कर उनकी तरफ़ देखा भी नहीं, बल्कि अपने क़दमों की गति तेज कर दी। लेकिन लड़का पीछे मुड़कर बोला, ‘‘क्या है बुड्ढे!’’
कमलाकांत को लड़के की उद्दण्डता से क्रोध तो बहुत आया, परंतु उन्होंने धीरज रखते हुए कहा, ‘‘मैं तुमसे नहीं पूछ रहा हूं।’’
‘‘तुम्हें क्या?’’ वह और ज्यादा उद्दण्डता से बोला।
‘‘मुझे तो कुछ नहीं, परंतु तुम दोनों जो कर रहे हो, वह क्या उचित है? तुम खुलेआम नैतिकता और मर्यादा की धज्जियां उड़ा रहे हो और मुझसे कह रहे हो, ‘तुम्हें क्या- क्या तुम्हें अपने दुष्कर्म पर शर्म भी नहीं आती? यह कौन से संस्कार तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें दिये हैं कि पढ़ाई छोड़कर तुम खेत के अंदर दुराचार कर रहे हो।’’
‘‘कौन-सा दुराचार? हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं?’’ लड़के ने ऐंठते हुए कहा।
कमलाकांत को लड़के के अक्खड़पन और उग्र स्वभाव पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था, परंतु वह उस युवा लड़के से भिड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। वह जिस तरह से उनकी बातों का जवाब दे रहा था, उससे वह स्वयं को अपमानित महसूस कर रहे थे। जिसे शर्म आनी चाहिए, वह दुःसाहस कर रहा था।
‘‘प्यार...? यह कौन-सा प्यार है, यह तो वासना है?’’
‘‘तुझे क्यों तकलीफ हो रही है बे? तू क्या इसका बाप है?’’ लड़का अभद्रता पर उतर आया था।
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इस बीच शिवानी थोड़ा परेशान सी दिखने लगी थी। उसने लड़के के कान में धीरे से कहा, ‘‘वह मेरे परिचित हैं, चलो यहां से.’’ और उसने लड़के का हाथ पकड़कर आगे की तरफ खींचा। फिर भी लड़का पीछे की तरफ मुड़कर उनको क्रोधित आंखों से घूरता जा रहा था, जैसे उन्हें कच्चा चबा जाएगा।
कमलाकांत को लगा, जैसे भरी भीड़ में किसी ने उन्हें जूता मार दिया था। लड़का-लड़की तो चले गये, परंतु अपने पीछे एक सम्मानित व्यक्ति की आत्मा को लात मारकर गये थे। अपनी मृत आत्मा की लाश अपने अंदर समेटे वह काफी देर तक वहीं खड़े रहे, फिर धीरे-धीरे गांव की तरफ चल पड़े।
गांव के अंदर पहुंचकर उन्होंने कुछ सोचा और फिर शिवप्रसाद के घर की तरफ़ मुड़ गये। शिवप्रसाद को उन्होंने पढ़ाया था। वह इतना अपमानित महसूस कर रहे थे कि शिवप्रसाद से मिलकर उसकी बेटी की करतूत के बारे में बताना उचित समझा। यह उम्र बड़ी ख़तरनाक होती है। लड़कियों पर ध्यान न दिया जाय, तो वह बिगड़ जाती हैं। इस उम्र में पैर फिसलने से न केवल लड़की का जीवन बर्बाद होता है, मां-बाप की जो बदनामी होती है, वह उन्हें किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ती।
शिवप्रसाद घर पर नहीं था। वह कस्बे के अस्पताल में डिस्पेंसर का काम करता था। उस समय अस्पताल में था। घर में उसकी बीवी थी। क्या उसकी बेटी की करतूत मां को बताया उचित होगा? वह उस वक्त अपमान, क्षोभ और क्रोधावस्था में डूब-उतरा रहे थे। लगभग विवेकशून्य हो चुके थे। बिना आगा-पीछा सोचे वह बोले, ‘‘बहू, तुम्हारी बेटी कहां है?’’
‘‘काका, वह तो कॉलेज गयी है, कोई काम था क्या?’’
‘‘नहीं, परंतु तुमको पता है, तुम्हारी बेटी कॉलेज जाने के नाम पर कहां जाती है? कभी पता किया कि वह कॉलेज ही जाती है या कहीं और जाती है। वह क्या गुल खिला रही है, इसका कुछ पता है तुमको?’’
‘‘यह क्या कह रहे हो, काका? मेरी बेटी कहां जाती है?’’
इसके बाद कमलाकांत ने जो देखा था, सब शिवानी की मां के समक्ष बयान कर दिया। वह कुछ देर तक तो सन्न् सी बैठी रही, कुछ मनन करती रही, फिर जोर से बोली, ‘‘काका, आप बुजुर्ग हैं। मेरी बेटी के बारे में इस तरह की बात करते हुए आपको शर्म आनी चाहिए। इतना बड़ा इल्जाम लगाने के पहले कुछ सोच लिया होता। आप हमसे किस जन्म का बदला ले रहे हैं? मैं अपनी बेटी को बहुत अच्छी तरह जानती हूं। वह बहुत सीधी-सी है। इस तरह का कुकर्म हरगिज नहीं कर सकती। वह केवल पढ़ाई की तरफ़ ध्यान लगाती है। आप क्यों उसे बदनाम करना चाहते हैं? हमारा आपसे क्या बैर है?’’ शिवानी की मां तैश में यह सब कहे जा रही थी। दरअसल, वह एक मां थी। वह जानती थी, कमलाकांत सही कह रहे थे, परंतु वह अगर उनकी बात नहीं काटती, तो वह किसी को भी यह बात बता सकते थे। इस तरह की बातों को कोई भी मां-बाप सहजता से स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि स्वीकार करने में ज्यादा बदनामी हैं। आरोपों का खंडन करके वह बदनामी के दाग से बचने का आसान रास्ता अख़्तियार करते हैं। यहीं शिवानी की मां कर रही थी।
कमलाकांत भौंचक से रह गये। वह सत्तर-साल के हो चुके थे। उच्च जाति के थे। अध्यापकी जैसे सम्मानित पेशे से जुड़े रहे हैं। आज तक किसी ने उनकी बात नहीं काटी, उन्हें झूठा नहीं कहा, परंतु शिवानी की मां को उनकी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। या वह जानते-बूझते मक्खी निगल रही थी।
उन्होंने शांत भाव से कहा, ‘‘बहू, मैं तुमसे किस बात का बदला लूंगा। मेरी तुमसे क्या दुश्मनी? शिवप्रसाद मेरा शिष्य है। मैंने उसे पढ़ाया है। मैंने तो जो देखा, तुमसे बयान कर दिया, ताकि तुम लोग अपनी बेटी को समझा सको। वह गलत रास्ते पर जा रही है. उसको सही रास्ते पर लाना तुम्हारा काम है। कल को यह बात सबको पता चलेगी तो क्या तुम अपने माथे से कलंक का दावा मिटा सकोगी?’’
‘‘काका, मैं अच्छी तरह जानती हूं, मेरी बेटी ऐसी नहीं है, परंतु आपने अगर गांव में मेरी बेटी को बदनाम करने की कोशिश की, तो समझ लीजिए, आपका बहुत बुरा होगा। पंचायत के सामने आपकी इज्जत उतारकर रख दूंगी।’’ यह स्पष्ट चेतावनी थी. कमलाकांत का शिवानी की मां का यह तेवर समझ में नहीं आ रहा था।
‘‘तुम मेरी क्या बदनामी करोगी? मैंने तुम्हारे साथ क्या कर दिया?’’
‘‘आप झूठ-झूठ मेरी बेटी को बदनाम कर रहे हैं?’’
‘‘मैं उसे क्यों बदनाम करूंगा?’’ वह हताश स्वर में बोले।
शिवानी की मां अब उग्र रूप में आ चुकी थी, ‘‘इसलिए कि आपकी नज़र मेरी बेटी के ऊपर है. उसने आपको घास नहीं डाली, तो आप उसे पूरे गांव में बदनाम करते फिर रहे हैं।’’
‘‘यह तुम क्या कह रही हो, बहू? तुम तो उल्टा मेरे ऊपर इल्जाम लगा रही हो। तुमको अपनी बेटी की करतूत का पता नहीं, न समझने की कोशिश कर रही हो। उल्टे मेरे खिलाफ़ इल्जाम लगाने लगी. इससे क्या वह कुकर्म करना छोड़ देगी?’’
‘‘वह क्या करेगी, क्या नहीं करेगी, यह आप हमारे ऊपर छोड़ दीजिए, परंतु अगर आपने मेरी बेटी की बदनामी की तो पंचायत के सामने यही इल्ज़ाम आपके ऊपर लगाऊंगी, समझ लीजिए।’’ यह साफ़ धमकी थी।
कमलाकांत समझ गये। पता नहीं, आज किसका मुंह देखकर उठे थे। सत्तर साल की उम्र में यही देखने के लिए बाकी बचा था। शायद भलाई के काम में बदनामी और बुराई मिलने पर किसी विद्वान ने कहा होगा, ‘‘हवन करते हाथ जलते हैं।’’ वह तो नेकी करने निकले थे, परंतु बदी अपने ऊपर ओढ़ ली।
बुराइयां क्यों अच्छाइयों पर हावी होती जा रही हैं, इस बात का विश्लेषण करते हुए वह घर की तरफ लौट पड़े? शिवानी की मां को और अधिक समझाने का साहस उनके पास नहीं बचा था। वह अध्यापक थे। शिवानी की मां क्यों अपनी बेटी का बचाव कर रही थी, यह भी उनकी समझ में आ गया था। परंतु बुराई को छिपाने से क्या वह अच्छाई में बदल सकती थी? बुराई को जितना ही दबाया जाता है, वह अपने भयानक रूप में एक दिन अवश्य सबके सामने प्रकट होती है। शिवानी की मांग इस शाश्वत सत्य को अभी नहीं समझ रही थी। उसे नहीं पता था कि पढ़ाई के पाठ पढ़ने के बजाय प्रेम के जो पाठ उनकी बेटी पढ़ रही थी, यही पाठ एक दिन कलंक के रूप में उनके माथे पर चमकते हुए दिखाई देंगे।
आहत, हताश और निराश कमलाकांत जब अपने घर पहुंचे, तो वह इस तरह खटिया पर गिरे, जैसे उनकी आत्मा उड़ चुकी थी। आत्मा तो मरी थी, परंतु किसकी? कमलाकांत की, शिवानी की, उसकी मां की या समाज की?
किसी न किसी की आत्मा उस दिन अवश्य मरी थी।
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