गणेश चन्द्र राही स मकालीन हिंदी कविता का प्रस्थान बिंदु अस्सी के आसपास माना जाता है। इस समय हिंदी कविता अपनी पूर्ववर्ती कविता से विभिन्न स्त...
गणेश चन्द्र राही
समकालीन हिंदी कविता का प्रस्थान बिंदु अस्सी के आसपास माना जाता है। इस समय हिंदी कविता अपनी पूर्ववर्ती कविता से विभिन्न स्तरों पर स्वयं को अलग कर रही थी। अलहदा होने का लक्षण कविता में साफ-साफ दिख रहा था। कवियों ने इसे कविता की मुख्यधारा में वापसी कहा। यह अलहदापन संवेदना, भाव, विचार, दर्शन एवं भाषा के स्तर पर झलक रहा था। परिस्थितियों का रुख जनतांत्रिक हुआ। नक्सलवाड़ी आंदोलन में कूदनेवालों को अब अपने घर का रास्ता साफ-साफ दिखाई पड़ने लगा। पारिवारिक संबंधों की चिंता जगी। क्रांति की अग्नि धीरे-धीरे से बुझने लगी थी। इस काल की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के प्रति रचनाकारों का दृष्टिकोण बदलने लगा था।
समकालीन हिंदी कविता सकारात्मक मानव मूल्यों के साथ ही मुनष्य को समग्रता में आत्मसात कर चलती है। मनुष्य को तोड़नेवाली हिंसा और उसके विकास की दिशा को रोकनेवाली साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ सृजनात्मक मूल्यों को प्रश्रय देती है। इसमें सकारात्मक हस्तक्षेप का भी स्वर है। इस कविता की मूल शक्ति है-मानवीय संवेदना, करुणा, दया, अहिंसा, मानवाधिकार के तत्व, लोकतांत्रिक जीवन मूल्य। कवि सामान्य लोगों को उसकी बौद्धिक कमजोरी को दूर कर समाज में समता, बंधुत्व व न्याय की स्थापना के लिये संघर्ष करने को प्रेरित करता है। उसके ज्ञान क्षितिज को विस्तार देता है। रूढ़िवादिता,
अंधविश्वास, अज्ञानता को मिटा कर वैज्ञानिक चेतना का निर्माण कर स्वविवेक से सत्य और असत्य के निर्णय करने के योग्य बनाता है। उसे संवेदनशील बना कर इंसानियत की रक्षा के लिये सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर तैयार करता है। उसे अपनी सुविधाओं एवं खुशियों को हासिल करने के लिये गुरिल्ला युद्ध हेतु उसके हाथों में हथियार नहीं थमाना चाहता है। आज का कवि जानता है कि हिंसा से मानव समुदाय का अहित होगा। आनेवाली पीढ़ियों के लिये यह धरती शांति, प्रेम एवं भाईचारे को खो देगी। विषमतामूलक समाज को मिटा कर मानवीय समानता के आधार पर देश-दुनिया का निर्माण समकालीन कविता का लक्ष्य है। हिंसा, खून-खराबा को प्रश्रय न देकर कवि मनुष्य को मनुष्य से जोड़नेवाले तत्व प्रेम, करुणा, दया, अहिंसा, सत्य, आत्मीयता, सहानुभूति, सहयोग जैसे महान मानव मूल्यों को संपोषित करता है। जीवन को सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ने में मदद करनेवाले प्राकृतिक उपादानों को भी आज की कविता अहम् मानती है। इसके लिये लाल आतंक और घातक हथियारों की जगह कविता में- धरती, आकाश, बादल, बारिश, पेड़, पौधे, फूल, चिड़िया, नदी, पहाड, जंगल, सुबह, शाम, दोपहर, वसंत, सर्दी जैसे प्राकृतिक रूपों को विशेष स्थान दिया गया है। वहीं साधाारण आदमी की इच्छा, प्रेम, विचार, भाव, सहयोग, संघर्ष, खून-पसीना और बदलते सामाजिक मूल्यों का चित्रण भी है। घर, परिवार, पत्नी, मां, बाप, बच्चे, मित्र, टोला, पड़ोस, खेत-खलिहान, श्रम एवं फसलें मिल कर आज की कविता को पूर्व की अपेक्षा जनसरोकारों से जोड़ती हैं। वह जीवन के यथार्थ की मानो भोक्ता हो गयी है। वायवीय भावों, विचारों एवं कल्पनाओं के लिये यहां बिलकुल जगह नहीं है।
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आज की कविता अनंत संभावनाओं से युक्त तेजी के साथ जीवन के अनछुए पहलुओं को रच रही है। इसमें आतंक और चीख-पुकार या शोर-शराबा नहीं है। यही कारण है कि समकालीन कवियों की कविताएं नारेबाजी एवं बड़बोलेपन का शिकार नहीं है। व्यक्ति, समाज, देश एवं दुनिया के अनुभव, चिंतन एवं लोगों के संघर्ष को स्वाभाविक तरीके से सहज एवं सरल भाषा में व्यक्त किया जा रहा है। अपने परिवेश, संस्कृति, देश एवं भाषा के प्रति उत्कट प्रेम दिखायी पड़ता है। यहां निषेधवादियों की तरह पूरी तरह नकार नहीं है, क्योंकि जीवन में सबकुछ बुरा ही नहीं होता। उसमें नवसृजन के बीज हमेशा आत्मा की तरह सुरक्षित रहते हैं। कवि अपने परिवेश एवं परंपरा में उस सृजनात्मक बीज की तलाश करता है। और अवसर आते ही पूरी संवेदना के साथ कविता में चुपचाप अपना स्थान ग्रहण कर लेता है। बदलाव की दिशा तय होने लगती है। हां, एक बात मैं समकालीन कविता के बारे में जरूर कहना चाहता हूं, यह आंदोलन विहीन दौर की कविता है। सारा दायित्व कवियों एवं आलोचकों पर आ गया है, क्योंकि इसके पूर्व हिंदी कविता के समक्ष इतनी बड़ी चुनौती नहीं आयी थी। उसके सामने अपने अस्तित्व की रक्षा की चिंता है, क्योंकि दुनिया में जो नये-नये विचार-चिंतन का विस्फोट हो रहा है। कवि दिग्भ्रमित न हो। वह इधर-उधर की न सोचे। उसके सामने यथार्थ जीवन का विराट संसार फैला है। कविता के जन-जन तक पहुंचने के लिये महान अवसर प्रस्तुत करता है। आज इस तेजी से बदलते वैश्विक जीवन और कविता परिदृश्य को समझने की जरूरत है। मानवता को बचाने का संघर्ष सृजनधार्मियों को ही करना है।
समकालीन हिंदी कविता में कई नयी प्रतिभाएं नई सोच, विचार, भाव एवं भाषा को लेकर उभरे थे। इनमें बहुआयामी व्यक्तित्व, संवेदनशील एवं परिपक्व कवि के रूप में भारत यायावर भी एक रहे हैं। कविता के अलावा इन्होंने आलोचना के क्षेत्र में ऐतिहासिक काम किया है। इन्होंने महान कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु के बिखरे समग्र साहित्य को एकत्र कर उसका संपादन एवं रचनावलियों के रूप में प्रकाशन किया है। इसके अलावा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के समग्र साहित्यिक अवदानों को भी रचनावलियों के रूप में प्रकाशन कर हिंदी साहित्य की विरासत को आगे बढ़ाने का काम किया है। व्यक्तिगत जीवन से लेकर साहित्यिक जीवन में इनका व्यक्तित्व सहयोगी का रहा है। यहां हम उनकी कविताओं पर ही विचार करेंगे, क्योंकि इनका कवि पक्ष बड़ा ही सशक्त और प्रभावशाली है। ये समकालीन हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं। लेकिन ये किसी प्रायोजित आत्म प्रचार-प्रसार के फेर में न रह कर एकांत साहित्यिक साधना में लगे हैं। इसका मतलब तो यह नहीं होता है कि जिनका लेखन विगत साढ़े तीन दशकों में फैला है और आज भी निरंतर लिख रहे हैं, इनके साहित्य पर विचार-विमर्श न किया जाए। यह आलोचना की सही समझ नहीं कही जा सकती है। भारत यायावर की रचनाएं अपने समकालीनों में किसी भी स्तर पर कमजोर नहीं ठहरती हैं।
1980 में इनकी एक लंबी कविता ‘झेलते हुए’ प्रकाशित हुई। इसमें कवि अपने अस्तित्व की तलाश करता है। बाहरी और भीतरी अंर्तद्वंद्व से कवि व्यक्ति, जीवन, समाज एवं देश की व्यवस्था से जूझता नजर आता है। वह अपने चारों ओर के परिवेश में फैले जीवन संसार और इसमें रहनेवाले लोगों के बीच अजनबी-सा पाता है। उसे चिर-परिचित लोग ही उनको प्रेत की तरह देखते हैं। लेकिन कवि के हृदय में उनके प्रति प्रेम है। वह अपनी संघर्षधर्मी चेतना का वाहक मामूली आदमी को मानता है। यहां अपने अस्तित्व की चिंता है और अपनी कविता के पक्ष को स्पष्ट भी करता है। दरअसल, इस लंबी कविता में कवि दार्शनिक अंदाज में चीजों पर विचार करता है। उनका मुकम्मल काव्य संग्रह 1983 में ‘मैं हूं यहां हूं’ आया है। देश में इसकी खूब चर्चा हुई। लेकिन कुछ वादग्रस्त आलोचकों ने इसका उदारतापूर्वक मूल्यांकन नहीं किया। बड़े सूक्ष्म तरीके से कवि को खारिज करने की कोशिश की गयी। यही पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह दृष्टि इनकी पीढ़ी के अन्य रचनाकारों के साथ भी अपनाया गया। राकेश भ्रमर प्रमुखतः गजलकार हैं, परन्तु इन्होंने समकालीन कविताएं भी लिखी हैं. इनकी कवितायें ‘आजकल’, ‘दिनमान’ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ जैसी पत्रिकाओं में 80 के दशक में प्रकाशित होती रही हैं. इनका प्रथम काव्य संग्रह ‘अम्मा क्यों रोईं’ 2014 में प्रकाशित हुआ था. परन्तु समीक्षा जगत में इसकी कोई खास चर्चा नहीं हुई.
इसके अलावा भारत यायावर का 1990 में ‘बेचैनी’, 2004 में ‘हाल बेहाल’ एवं 2015 में युवा कवि गणेश चंद्र राही द्वारा संपादित ‘तुम धरती का नमक हो’ कविता संग्रह प्रकाशित हुये हैं। इन कविताओं की दुनिया ग्रामीण संवेदना, मामूली आदमी के जीवन, उनके सुख-दुख, संघर्ष, अर्द्धनिद्रा से जागता हुआ समाज है, इतिहास के गोरखधंधों में फंसे लोग हैं, पिता की बदहाली, माता का स्नेह, बहन का दुलार, इंसानियत को बचाने की चिंता, व्यक्ति के संपन्न होने पर उनके भीतर से खत्म होती कोमलता और उसकी जगह विध्वंसक सोच का जन्म, इंसान को बेहतर बनाने वाले सपने और विषमता से भरी समाज को बदलने की बेचैनी है। एक रोटी का प्रश्न किस प्रकार पूरी व्यवस्था के लिये चुनौती का प्रश्न बन जाता है। और जब इस प्रश्न के समाधान के लिये आवाज उठाती है तो यह पूरी व्यवस्था राक्षस बनकर किस तरह उसके खिलाफ खड़ी हो जाती है। उसकी सारी सुविधाओं को लीलने की तैयार हो जाती है। इस कठोर सच्चाई की अभिव्यक्ति भारत यायावर की कविताओं में हुई। यहां साम्राज्यवाद का अदृश्य पंजा किस प्रकार भारत की जनता को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए बढ़ रहा है और अमेरिका के नेतृत्व में दुनिया के विकासशील देश किस तरह उसकी विकास की नीतियों में भ्रमित होते हैं, इनकी कविताओं से जाना जा सकता है।
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कवि ने ‘मैं हूं यहां हूं’ कविता में अपनी पक्षधरता को स्पष्ट किया है। वह यह बताना चाहता है कि उसके सरोकार क्या हैं और किन लोगों के पक्ष में खड़ा है। यह कविता घोषित करती है कि कवि संघर्षधर्मी चेतना के साथ खड़ा होना चाहता है। वह इसके लिये सुविधाओं को त्याग करेगा। उसे अनुभव एवं यथार्थ ज्ञान पाने के लिये धूल में, धूप में मीलों मील चलना स्वीकार है। लेकिन वह किसी की विचारधारा के पिछलग्गू बन कर नहीं चलेगा-
‘मैं नहीं चाहता एक सिंहासन
एक सोने का हिरण
मैं नहीं चाहता एक बांसुरी
एक वृंदावन
मैं चाहता हूं भटकना मीलों-मीलों
धूल में रेत में
धूप में ठंड में
चाहता हूं जीना
संघर्ष में ,प्यास में, आग में
मैं हूं, यहां हूं, यहीं रहूंगा।’
यहां कवि का उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट है। कवि मिथकों और प्रतीकों में जीना नहीं चाहता है। उसके लिये जीवन का नंगा यथार्थ ही स्वीकार है।
भारत यायावर की कविताएं पाठकों को आतंकित नहीं करती हैं। इनकी कविताएं आत्मीयता, सहयोग एवं प्रेम की कविताएं हैं। ये पाठकों को समझदारी भरी अंर्तदृष्टि देती हैं। नारेबाजी और बड़बोलेपन से मुक्त हैं। कवि की ‘सपने देखती आंखें’ एक गंभीर कविता है। आज व्यक्ति सकारात्मक एवं
बंधन मुक्त जीवन चाहता है। विध्वंसक एवं अराजक स्थिति से बाहर निकलना चाहता है। और समकालीन कविता का यह मुख्य स्वर भी है। अपनापन, भाईचारा, मैत्री और सहज भावबोध इनकी कविता का मानवीय पक्ष है। ‘सपने देखती आंखें’ में कवि कहता है-
‘सपने देखना चाहिये
सपने जो हमें सही-सही सरोकारों से जोड़ते हैं
सपने आंखों की तरह ही कीमती है।’
यहां कवि सपने को बंधन से मुक्ति के लिये शक्ति के रूप में देखता है-
‘सपनों में आंखें डूबी हैं
क्या अच्छा है
मुक्ति का बल इस बंधन से बंधा हुआ है
दुनिया से अपनापन इससे सजा हुआ है।’
कवि जीवन की सहजता में, उसके संघर्ष और जिजीविषा में, सादगी और बेहतर भविष्य के स्वप्न में सौंदर्य को देखता है। अपने परिवेश के प्रति इतना संवदेनशील है कि वह कविता में हर छोटी-छोटी घटना, विचार और सोच को दर्ज करना चाहता है। कविता में जिस प्रकार जीवन के यथार्थ एवं मार्मिकता का सूक्ष्म चित्रण हुआ है, उसी प्रकार स्मृतियों का इसमें विराट संसार भी है। आज का कवि स्मृतियों के माध्यम से संपूर्ण मानवीय संबंधों- प्रेम, मधुरता, आत्मीयता और करुणा को बचाना चाहता है। यह लोक जीवन एवं संस्कृति का अभिन्न अंग है। कवि ने इस भावबोध को ‘नहीं छूटता घर’ कविता में इस प्रकार व्यक्त किया है-
‘घर का एक इतिहास है
जर्जर और धूल खाया इतिहास!
जिसके पन्नों पर अब भी मेरे जीवन की
कितनी कठिनाइयों से भरी
कहानियां लिखी हैं!’’
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत यायावर का रचना-संसार जीवन के बहुविध चित्रों से संपन्न है। उसमें जीवन का अंर्तद्वंद्व है। युगीन परिस्थितियों का सहज अंकन है। साधारण मनुष्य के प्रति गहरा अनुराग है। विकृत सभ्यता एवं संस्कृति की आलोचना है। एक आदिम अंधेरा है जो पूरी मानवजाति का सदियों से पीछा करता आ रहा है। कवि उससे मानव की मुक्ति चाहता है। क्योंकि अज्ञानता के कारण लोग अपनी जीवन स्थितियों को न तो समझ पाते हैं और न इसे बदलने के लिये उठ खड़े हो पाते हैं। भारत यायावर की कविता आम आदमी में एक बौद्धिक समझदारी पैदा करती है, उसे उग्र नहीं बनाती, बल्कि आत्मीयता एवं संवेदनशील होकर समस्याओं का निदान का मार्ग दिखाती है। उनकी कविता में चंदर का, चंद्र, चंदा केसरवानी के लिये, बीनू, दोस्त, किस्सा लंगड़ू पांडेय का, इदरीश मियां जैसे चरित्र लोक जीवन के मूल्यों के प्रतीक हैं। कविता में आने के बाद ये व्यक्ति नहीं रह जाते हैं; बल्कि समाज को प्रेरित करनेवाले भाईचारे एवं मानवता के प्रेरक बन जाते हैं। इनकी समग्र कविताओं का विवेचन आज जरूरी है।
ग्रामीण सभ्यता से निकल कर जब व्यक्ति शहरी व महानगरीय सभ्यता का नागरिक बना तो उसके दिमाग में विध्वंसक सोच पैदा होने लगा। सृजनात्मकता की चेतना जैसे लुप्त हो गयी है। गांव में वह जिस घर में रहता था, वह घर भले ही मिट्टी का था, किंतु उसमें एक खिड़की थी। उस खिड़की से सामने खेतों में फैली हरियाली देखता था। उसका हृदय विकृत नहीं हुआ था। उसका प्रेम एवं अनुराग हर व्यक्ति, पेड़, पौधे, नदी, तालाब, पोखर, मैदान से था। उसके सामने हंसती-खेलती एक मनोरम दुनिया थी जो उसे सदैव संवेदनशील बनाये रखती थी। और उस खिड़की से बाहर निकल कर वह शहर के जिस मकान में रह रहा है, उसमें खिड़की तो है लेकिन वहां ग्रामीण जीवन की हरियाली नहीं है। वह तो उस पक्के मकान के बंद कमरे में अकेलेपन और असुरक्षा का शिकार हो गया है। और सुरक्षा के लिये खतरनाक हथियारों की ईजाद कर मानवजाति के लिये वह खतरा बन गया है। उसकी मानवीय गरिमा, संवेदना, आत्मीयता, प्रेम जैसे मूल्य धीरे-धीरे शहरी सभ्यता में नष्ट हो गये हैं। वह घातक हथियारों का निर्माण करने में जुटा है।
कवि भारत यायावर मनुष्य के इस दिमाग में आये परिवर्तन अपनी कविता ‘खिड़की’ में दिखाते हैं-
‘इस अकेले दिमाग ने रचे
विध्वंसक अस्त्र-शस्त्र
जनता को और विपन्न कर दिया
इस अकेले दिमाग ने रचे
इतने सारे भोग के सामान
पर प्रेम की कोई खिड़की नहीं खोली
जिसके आगे हरा-भरा कोई उपवन
पेड़ चिड़िया सृष्टि का संगीत कूजन
वह एक द्वीप बन गया अपने में
सर्वाधिक शक्तिसंपन्न!
पर घातक विनाशक जनता के लिये।’
क्या एक रोटी का प्रश्न किसी व्यवस्था के लिये चुनौती बन सकता है? और यह व्यवस्था रोटी के लिये उठनेवाली आवाज के खिलाफ राक्षस बन कर खड़ी हो सकती है? क्योंकि मनुष्य की आदिम बुनियादी जरूरत रोटी, कपड़ा, मकान रहा है। उसकी भूख, प्यास एवं मानवीय आवश्यकता अनादिकाल से चली आ रही है। वह आज सपरिवार दो जून की रोटी के लिये दिन-रात गांवों, शहरों एवं महानगरों में जूझ रहा है। जबकि इसी समस्या के समाधान के लिये ही इतना बड़ा तंत्र इंसान ने खड़ा किया है। बावजूद यह तंत्र उसकी मूलभूत जरूरत को पूरा करने में अपने आप को कमजोर साबित हो रहा है। वहीं वह भूखी नंगी जनता की मांगों को कुचलने के लिये आमने-सामने आ जाता है। फिर यह कैसी व्यवस्था है? इस भ्रष्ट व्यवस्था का असली चेहरा भारत यायावर की कविता बिना किसी नारेबाजी और बड़बोलेपन के उघार कर दिखाती है। व्यवस्था रोटी की समस्या को हल करने के बजाय वह किस प्रकार जनता के खिलाफ गोलबंद हो जाती है और रोटी की चुनौती को बर्दाश्त नहीं कर पाती है, कवि की पंक्तियों में देखें-
‘यह बार-बार हर बार हर बात
क्यों टिक जाती है
सिर्फ रोटी पर।
यह बार-बार हर बार हर रोटी
फैल कर क्यों हो जाती है
एक व्यवस्था
यह बार-बार हर बार हर व्यवस्था
क्यों हो जाती है राक्षस?
क्यों लील जाती है
लोगों की सुख-सुविधााएं
क्यों लगा दिया जाता है
किसी नए सूरज के उगने पर प्रतिबंध।’’
पूंजीवादी व्यवस्था इस तरह की खाई पैदा करती आ रही है, जहां एक ओर इंसान अत्यंत जरूरी चीजों से महरूम रहा है, वहीं पूंजीपतियों की पूंजी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। गरीबी, बेरोजगारी, विपन्नता मानव जीवन को निर्बल एवं असहाय बना रहे हैं। परोक्ष में कवि इस विपन्नता को मिटाना चाहता है। और साथ ही भ्रष्ट-व्यवस्था को रोटी का प्रश्न बना कर चुनौती भी देता है कि जब तक इसका समाधान नहीं होगा, व्यवस्था ऐसे प्रश्नों के घेरे में रहेगी।
कवि आम आदमी की पीड़ा को गहराई से महसूस करता है। आज के असंतुलित विकास और आर्थिक एवं सामाजिक विषमता के बीच हर जगह आम आदमी पीड़ित है। प्रतिदिन उसे दुख, तकलीफ एवं असमानता का दंश झेलना पड़ रहा है। लेकिन कवि ने पाया है कि इस ‘मामूली आदमी’ का स्वत्व अभी जिंदा है। इतनी भयंकर विषमता में भी उसका मन विकृत नहीं हुआ है। उसकी सज्जनता उसकी सहजता में झलक रही है। उसके पास मुखौटा नहीं है। विद्रूपता के घिनौने वातावरण से स्वयं को बचाये हुए गुरबत में जी रहा है। कवि उसकी सहजता पर मानो मुग्ध होता है। अपने आप को उसके रहस्य को जानने के लिये रोक नहीं पाता है। वह उसके करीब पहुंचता है और इस सत्य को जानने के लिये प्रश्न कर बैठता है-
‘जो बहुत मामूली है
उसको रोक कर
पूछता हूं-
सादगी का भरा जीवन
कहां से पाकर
जीते आ रहे हो?
जटिलता से भरे इस संसार में
सरलता का
मर्म कैसे सुरक्षित है।’
मानव इतिहास इस बात की गवाह रहा है कि श्रेष्ठ मानवीय मूल्य इन्हीं साधारण एवं मामूली इंसानों से बचा रहे। व्यक्ति ज्यों-ज्यों धनाश्रित होता जाता है, उसके अंदर खोखलापन बढ़ता जाता है। उसकी सहृदयता मिट जाती है। जबकि मानव जीवन के सौंदर्य का एक पहलू उसकी सहजता एवं सरलता भी है। सत्य, न्याय, प्रेम, करुणा, सहयोग जीवन में जड़े हीरे-मोती हैं। व्यवहारिक जीवन इन महान मूल्यों से शून्य होता जा रहा है। कवि का संकेत इसी ओर है। यथार्थ जीवन में प्रतिदिन कुछ न कुछ बदलता रहता है। यह बदलाव सूक्ष्म रूप से होने के कारण साधारण लोगों को ज्ञात नहीं हो पाता है। लेकिन चिंतक व दृष्टिसंपन्न रचनाकार इसे पकड़ लेता है। भारत यायावर का कवि सचमुच में जीवन से प्यार करनेवाला कवि है। और जैसा कि हम जानते हैं कि जीवन में भोग की वृत्ति अधिक बढ़ गयी है और प्यार की खुशबू कम होती जा रही है। उसकी जगह नफरत और हिंसा समाज को दिशाहीन बनाने का काम कर रही है। आदमी आदमी से दूर जा रहा है। घर-परिवार में बिखराव हो रहा है। देश-दुनिया में हिंसा की विकृति फैल रही है। प्यार का सेतु टूट गया है। जाति-पांति, संप्रदाय, गरीबी एवं अमीरी जैसे समाज के तत्वों ने जीवन को प्यार से विमुख कर दिया है। उसके अंतर की जोत को जलने से इन तूफानों ने हमेशा बुझाने का काम किया है। दूसरी ओर कवि दीये और तूफान के बीच संघर्ष करता दिखायी पड़ता है। कविता उस प्यार को बचाने और हजारों पीढ़ियों तक ले जाने की वाहिका है। आज की कविता इस दायित्व को खूब अच्छी तरह समझ रही है। कवि कहता है-
‘हम जो जीवन से प्यार करते हैं
घृणा भी करते हैं
कि बदसूरत और घिनौनी चीजें डराती हैं हमें
कि दुनिया को नष्ट करने की साजिशों में
लगे हुए हैं शैतानी दिमाग
वे हमारे सपनों के भीतर घुस कर
हमें कमजोर और निरीह बना देना चाहते हैं।’
लेकिन प्रेम जीवन के भीतर से जब बाहर इस संसार की ओर विस्तार पाना चाहता है तो इसके लिए वह अनुकूल हृदय और समाज की तलाश करता है। और यदि उसके अनुकूल हृदय और समाज उपलब्ध न हो तो प्रेम के इस पौधे को बचाने के लिये नये समाज और मनुष्य को तैयार करना होता है। महान कवि टी एस इलियट ने महान रचना की विशेषता को रेखांकित करते हुए संभवतः इसी दिशा की खोज की ओर संकेत किया था। यह काम कवि जो सृष्टा और युग दृष्टा है, उसे करना होता है। भारत यायावर का कवि अपने प्रेम के एहसास से पैदा होनेवाले अपने नन्हें पौधे के लिए नयी सृष्टि करना चाहता है। कवि के प्रेम की अद्वितीयता इस सौंदर्य के साथ यहां प्रकट होता दिखायी देती है-
‘करोड़ों सूर्य की ताकत/ भरी कविता
मैं रच सकूं
मै कर सकूं
सबको सुखी-संपन्न
जन-की चेतना में
भर सकूं
एहसास के भीतर
जनम लेता हुआ पौधा
ऊंचे दरख्तों-सा
मैं यह स्वीकार करता हूं
इसी से खौफ खाता फिर रहा हूं।’
इस प्रकार यहां हम देखते हैं कि भारत यायावर अपने समय, समाज और दुनिया में होनेवाले बड़े-बड़े सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवर्तनों के प्रभावों से आंख नहीं मूंदते। उनकी सतर्क दृष्टि रचनाओं में उसे उपयोगी समझती है। उनका साहित्यिक विकास हुआ है। उनकी कविताओं के शीर्षक घर, चौखट, खिड़की, दरवाजे, मां, पिताजी, भाई, बहन, पंडताइन ममा, चंदर का, चंद्र, बीनू, पत्नी, दोस्त, मामूली आदमी, इतिहास, धान रोपती औरतें आदि हैं. जब आदमी से ज्ञात होता है कि कवि की दुनिया वायवीय नहीं है। इनमें जो चेहरे आये हैं वे गांव-घर, टोले पड़ोस एवं नियमित मिलनेवाले लोगों के हैं। इनके ही दुख, पीड़ा, आशा, स्वप्न की बात कविता करती है। पाठकों को पूरी आत्मीयता से अपना बना लेती है। जैसे अपने पास बैठा कर कोई हमदर्द देश-दुनिया के यथार्थ से ईमानदारीपूर्वक अवगत करा रही हो। सहजता इन कविताओं का गुण है। कवि को पूरा विश्वास है कि मानव जीवन के निर्माण में कविता ही अहम भूमिका निभाएगी। इसके लिये किसी नायक की जरूरत नहीं है। शमेशर बहादुर की कविता ‘बात बोलेगी’ की ही तरह यहां भी कवि आम आदमी चेतना से भरी कविता को अपनी जिम्मेदारी खुद निभाने की बात करता है। उसे हथियार या नारेबाजी के जुमले से मुक्त करते हुए कवि कहता है-
‘पर मेरी कविताओं को
हथियार नहीं मानना
न कोई नारा समझना
कविताएं अपनी भूमिका आप निभायेंगी
इनके अंदर के आदमी को
अपने अंदर बिठा लो
उसे अपनी आत्मा का
सहचर बना लो।’
कविता पर इतना विश्वास विरले कवि ही कर सकता है। यह साहस उसी कवि में हो सकता है जिनके चिंतन, विचार एवं संवेदना का आधार यथार्थ जीवन है। दरअसल, आज का कवि मूल्यों एवं संवेदनाओं को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। वैश्वीकरण के इस दौर में मानव जीवन खतरों से घिरता जा रहा है। यह खतरा मात्र पर्यावरण के विनाश होने का नहीं है; बल्कि उसके अंतःकरण का नष्ट होने का है। क्रूरता और हिंसा का जो रूप आतंकवाद के रूप में उभर का आया है, वह मानवजाति के लिये चिंता का विषय है और एक सम्मानजनक लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित सुंदर दुनिया रचने के स्वप्न का भी सवाल है। आज के कवि को हर चुनौती को स्वीकार करना होगा। मुक्तिबोध ने एक वाक्य में जिन खतरों को उठाने का सवाल उठाया है, उसके विविध रूपों को आज के कवि को और
अधिक गंभीरता से समझने जरूरत है। कविता निरंतर अपने साहित्यिक परिवेश का विस्तार करती जा रही है। साधारण लोगों के जीवन का अभिन्न अंग बनती जा रही है।
सम्पर्क : ग्राम- डुमर, पोस्ट, जगन्नाथधााम,
हजारीबाग-825371
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