कहानी वह लड़की सुषमा श्रीवास्तव वरिष्ठ लेखिका. आकाशवाणी से सेवानिवृत्त. अब स्वतंत्र लेखन. कहानी और कविताओं की कई पुस्तकें प्रकाशित. वासुदेव क...
कहानी
वह लड़की
सुषमा श्रीवास्तव
वरिष्ठ लेखिका. आकाशवाणी से सेवानिवृत्त. अब स्वतंत्र लेखन. कहानी और कविताओं की कई पुस्तकें प्रकाशित.
वासुदेव कृत लघु रामायण की टीका लिखकर महती कार्य किया. यह रामायण प्रज्ञा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गयी है और पाठकों के लिए निःशुल्क उपलब्ध है.
सम्प्रति दिल्ली में रहकर साहित्य सेवा में रत्.
‘‘हैलो डॉक्टर!’’
‘‘हैलो तिमोती इधर कैसे?’’
‘‘वह...मृदुजी से मिलना था.’’
‘‘ओह! लो वह आ भी गई.’’
‘‘तिमोती तुम यहाँ? क्या बात है?’’ मृदु ने पास आकर पूछा.
‘‘बात कुछ खास नहीं है और है भी! तुम्हारी सिफारिश से मुझे तीन दिन के लिए गैलरी प्रायोजित कर दी गई है. कल ही प्रदर्शनी का उद्घाटन है. यह लो कार्ड और लम्बा सा
धन्यवाद!’’
डॉ. शिखा लेटर बाक्स से अपने पत्र निकालकर बैग के हवाले कर रही थीं.
तिमोती ने नाम लिखकर एक कार्ड डॉ. शिखा की ओर भी बढ़ाया.
‘‘डॉक्टर... मैं आपको बता दूं कि मैं एक कलाकार हूं. कल मेरे चित्रों की पहली प्रदर्शनी लग रही है. प्लीज कुछ समय निकालिए. आप आयेंगी तो हमें बहुत अच्छा लगेगा.’’
‘‘लेकिन तिमोती शायद हमें कुछ खास अच्छा न लगे... यानी कला से मुझे कुछ लगाव नहीं, इसलिये उतनी समझ भी तो नहीं है. हां, तुम्हारी उन्नति देखना मुझे अवश्य अच्छा लगेगा. मैं आऊँगी.’’
‘‘मैं सोचती हूं तिमोती कि रंगों का अर्थ सबके लिए एक जैसा नहीं होता. हर दिन नए अर्थ खुलते जाते हैं. अच्छा कल मिलते हैं, बॉय...’’
अब मृदु आगे आ गई।
‘‘तिमोती... तुम भी किससे उलझ रहे हो... डॉ. शिखा, पेंटिंग म्यूजिक... कला, यह सब उनके लिए नहीं. उनकी एक ही कला है डॉक्टरी-सर्जरी, काट-कूट, जोड़-घटाव.’’
‘‘हाँ मृदु, मैं उनकी जिजीविका का कायल हूं.’’
‘‘बड़ी जिजीविका...’’ वह होंठ बिचका कर बोली. मृदु के चेहरे पर उसकी अपनी समृद्धि, पिता का रुतबा और कला की समझ का दर्प एक साथ झलक उठा.
शिखा की प्रशंसा वह सहन नहीं कर सकी.
‘‘चलता हूं. कल जल्दी आना.’’
तिमोती के सामने इस समय विचार नहीं, भविष्य के सुंदर सपने थे. उन सपनों में मृदु भी थी. उसके लिए मृदु ने माडलिंग भी की. प्रदर्शनी लगाने के लिए काफी सहायता भी की थी. वह मृदु के प्रति कहीं अपने मन में एक कोमल भाव सजा चुका था.
अपनी स्वतंत्र जीवन शैली के कारण मृदु अपने धनाढ्य पिता के साथ नहीं रहती थी. इस वर्किंग वीमेन हॉस्टल में
अधिक समय बिताती थी. डॉक्टर शिखा ऊपरी हिस्से में रहती थीं पर उनका अधिक समय हास्पिटल में ही बीतता था, बस आपस में एक औपचारिक मुस्कान या हैलो!
एक दिन सड़क दुर्घटना में घायल उस औरत को अपने हाथों में उठाए तिमोती ही अस्पताल लाया था.
‘‘डॉ. जल्दी कीजिए, खून बहुत बह गया है.’’
जेब से सारे रुपये निकाल कर मेज पर उसने रख दिये थे.
डॉ. शिखा ने नर्स को आवश्यक निर्देश दिये. काफी देर डॉ. शिखा अपने सहयोगियों के साथ उस औरत के गहरे जख़्मों से जूझती रही थीं.
तिमोती व्यग्रता से बरामदे में चक्कर लगा रहा था.
नर्स ने पूछा-‘‘आपकी माँ हैं क्या?’’
दूसरी ही मानसिकता में विचरण कर रहे तिमोती, नर्स की ओर एक गहरी नज़र डालकर चुप हो गया। क्या किसी घायल को अस्पताल ले आने के लिए किसी का माँ होना ज़रूरी है?
माँ ही सी तो है वह!
डॉ. शिखा कुशलता का संदेश देकर केबिन में जा चुकी थीं. अपने कंधों पर वह डॉ. शिखा के आश्वस्ति भरे हाथों को अच्छी तरह अनुभूत कर रहा था. फिर वह मरीज़ की खैर ख़बर लेने दोनों समय आता रहा. कभी-कभी स्टूल पर बैठकर घंटों, आड़ी-तिरछी लकीरें खींचता रहता. कभी किसी कागज पर कभी पैड पर या फिर टुक-टुक किसी भोले बालक की तरह उसकी ओर देखता रहता. यही परिचय, यही पहचान, तिमोती की डॉ. शिखा से थी जिसके सहारे उसने डॉ. शिखा को निमंत्रण पत्र दिया था.
डॉ. शिखा आर्ट गैलरी में आई थीं.
जीन्स टॉप सिर के ऊपर फँसा काला चश्मा, कंधों पर लम्बे बैग्स... लड़कियाँ ठक-ठक हील पहने घूम रही थीं-चित्रों पर चर्चा कर रही थीं. लम्बे बालों या पोनी में या फिर सफाचट खोपड़ी, लम्बे कुर्ते पहने झोले लटकाए युवक कलाकार या कला प्रेमी जोर की बहस कर रहे थे.
डॉ. शिखा यहाँ अपने को पूरी तरह से मिसफिट समझ रही थीं. फिर धीरे-धीरे गैलरी में घूम-घूम कर चित्र देखती रहीं. सच ही तो, जीवन के इस पैंतालीसवें वर्ष में वह समझ पा रही हैं कि संवेदनाओं से दूर, ललित कलाओं से दूर, व्यक्ति समाज को रुक्षता और उद्दंडता के उस छोर पर ले जाता है, जिसे हम दहशतगर्दी या आतंकवाद कहते हैं.
अब डॉ. शिखा ने अधिक गहराई से एक चित्र पर नज़र जमाई-पर तिमोती, उसी ओर आ रहा था.
‘‘आप यहां हैं? कैसा लगा यह चित्र?’’
‘‘मेरी समझ में यह नीले रंग का प्रचुर प्रयोग और इसके गहरे शेड्स चित्र को अवसाद से भर रहे हैं.’’
‘‘लेकिन डॉ. आकृति की सुनहरी उड़ान देखिए-उसमें है न अवसाद से मुक्ति-होप! होप! इटरनल होप!’’
‘‘हाँ शायद!’’ वह तिमोती को छोड़ आगे बढ़ गई. स्त्री चेतना को अनेक रूपों अनेक रंगों में परिभाषित किया गया था. नीले रंग के अनेक प्रयोग थे. कोने में रखा एक चित्र उसे आकर्षित कर रहा था. वह उसी ओर बढ़ ली. वह सीधे चित्र को देखने लगी. इसमें गहरे नीले, लाल, बैंगनी रंगों के सर्पिल फेनों के बीच से एक स्त्री आकृति, श्वेत वस्त्रों में आधी उठी हुई दिखाई दे रही थी. खूब घने काले बाल चेहरे पर फैले हुये-बस एक आँख बड़ी स्पष्टता से बालों के बीच से दिखाई दे रही थी. चेहरे के दाहिनी ओर का हिस्सा झुका हुआ! वह एक आंख-उसमें क्या था?
शिखा चिपक सी गई उससे. वह आंख उसे कहां खींचे लिये जा रही थी, किन गलियों, किन चौबारों, उम्र के किन मोड़ों पर...! यह रंगों में डूबती आकृति है या रंगों के व्यूह से बाहर आती आकृति...यह ‘‘आंख’’ यह ‘‘चेहरा’’ उसको पहचानता है, कोई रिश्ता है उसके और मेरे बीच. जरूर, पर क्या? जीवन के कितने रंग बिखरे हैं यहां पर. रंगों के व्यूह से उठती यह शुभ्र आकृति कितनी शाश्वत है. वह आंख, वह एक आंख कैनवास से निकल कर किसी दुस्साहसी बाला की तरह उसके भीतर बैठ गई-कि अब मैं कहीं नहीं जानेवाली. शिखा के लाख झटकने के बाद भी वह आंख उसके करीब आती गई. कुछ कहती सी, कुछ बोलती सी.
क्यूं मुझे भूल गईं? आप डॉक्टर हो, रुतबा है, होली के उन रंगों को याद करो-दोपहर एक बजे का समय. ढोल-मजीरे के साथ होली के गीत रंग बरसे... होली खेले रघुबीरा अवध में... रंगों से पुते लोग मस्त थे, नाच रहे थे, होली खेल रहे थे. मोहल्ले के लोग भी टोली बनाकर एक दूसरे के घर रंग खेल रहे थे. गुझिया, पापड़ चल रहे थे. चारों ओर उल्लास बरस रहा था. पड़ोस के घर में जोर की होली चल रही थी. अचानक देखा पन्द्रह-सोलह साल की एक रंगी-पुती लड़की सीधे सड़क से भागती आ रही थी. वह बेहद दहशत में थी. उसके पीछे कई लड़के दौड़ रहे थे, पकड़ने की कोशिश कर रहे थे. बचने के लिए वह लड़की पड़ोस के गेट में घुस कर भीड़ में घुल गई, पर बात समाप्त नहीं हुई. वह लड़के भी गेट खोल कर घुस गए. जब तक कोई कुछ समझ पाता, उनमें से दो ने लड़की को लपक लिया और रंग उस पर पोत दिया और बाहर निकल कर पीछे की ओर भाग लिए. लड़की भी उसी समय निकल गई. रंगों में पहचान क्या... सब लोग इस घटना से स्तब्ध थे.
‘‘यह गुण्डागर्दी!’’
‘‘क्या जमाना आ गया.’’
‘‘होली ऐसे त्योहार में बदमाशी.’’
‘‘इतनी भीड़ में कारगुजारी कर गये.’’
‘‘लड़की के लक्ष्छन तो देखो, बाहर ऐसे हुड़दंग में भला क्या?’’
‘‘पता नहीं कौन थी?’’
‘‘अरे, आसपास की ही थी.’’
भीड़ हटने को ही थी कि सामने के फ्लैट से एक सुदर्शन युवक आकर खड़ा हो गया. ‘‘अरे आपलोग तमाशा देख रहे हैं. लड़की किसी की हो, इस तरह सरेआम बदमाशी करना और सबका चुप रहना क्या ठीक है? वह पांच हैं, और हम लोग इतने. खदेड़िए उनको, सबक सिखाइए, दूर नहीं गये होंगे. आज यह लड़की है, कल कोई और हो सकता है.’’ उनकी ललकार पर कुछ हमारे अपने जवान लड़के, उनके पीछे, काफी लोग और भी दौड़ पड़े. सारा शोर गली की ओर मुड़ गया. एक डेढ़ मिनट बाद ही धाँय ही आवाज़ आई. लोग जल्दी से घरों में घुसने लगे-शोर हुआ, ‘‘गोली चल गई, कोई मारा गया.’’
‘‘कौन! कौन!’’ इधर घरों के लोग ही गये थे. उनके परिजन उधर ही दौड़ पड़े. खबर आई-सामने के घर के अन्नू के फूफाजी हैं-कुछ ही देर में नजारा ही बदल गया था. लुटे-पिटे वर्माजी, अपने तीस वर्षीय लहूलुहान बहनोई को लेकर अस्पताल भागे. हाहाकार मच गया था.
चौबीस वर्षीय रमोला, तीन वर्षीय तिमोती, भौजाई ललिता की चीखें आसमान भेद रही थीं. पुलिस शिनाख्त, रंग, लड़की, फायर, फिर यह मौत... पूरा सन्नाटा पसरा था. सब दरवाजे बंद हो गए थे. चीखें चुप हो गई थीं.
पुलिस के बूटों की खटखट और सन्नाटे को तोड़ती एक टैम्पो की आवाज़ आई. बहनोई जी के घरवाले आ गए थे. हृदय विदारक चीखें दीवारें भेद रही थीं. तुरंत ही वह चीखें आवाज़ में बदल गईं.
रमोला की सास, रमोला के लम्बे बालों को खींच-खींच कर उसे दीवार से पटक रही थी.
‘‘होली मायके में मनाय के खाय गई न हमरे लाल को. कुलनासी, कुल कलिंकिनी...सब नास कर दिहिस’’ भौजाई दौड़ीं... ‘‘माँ जी इसमें इसका क्या दोष...’’ सास ने उसकी ओर भी जलती आँखों से देखा, ‘‘ठीक कही बहूरानी, दोस तो हमरा ही था जो...’’
वह अपनी छाती कूट रही थीं, सिर दीवार पर मार रही थीं.
बहू निस्पंद निष्चेष्ट दीवार से चिपकी थी.
सास ने पति को झकझोरा-‘‘बुलाव गाड़ी, चलउ अभी...’’ दूसरा बेटा उन्हें लेकर बाहर चला गया. गाड़ी तैयार खड़ी थी, उसी तरह विलापती वह गाड़ी में बैठीं. पीछे आती बहू को उन्होंने फिर धक्का दिया-और रमोला के गले में पड़ा रक्षा कवच खींच कर बच्चे के गले में डाल दिया.
‘‘कहां आय रही, अब तू मायके में रह, अब तू देख हां हमारे लिए मर-खप गई, जा मर
कलमुंही...’’
उसकी गोद से बच्चा छीनकर वह गाड़ी में बैठ गईं. सहमा बच्चा भी अब चीख पड़ा था. अभी तक चुप बहू रमोला चीख मारकर बच्चे की ओर झपटी, पर गाड़ी जा चुकी थी. कुछ ही क्षणों में उसका सबकुछ जा चुका था। उसका सौभाग्य, उसकी गोद, उसका संसार... लहराकर वह वही गिर पड़ी. लम्बे काले बाल गोरे चेहरे को ढक चुके थे. बालों की जाली से दिख रही थी बस दाहिनी आँख-आधी खुली-आँख कुछ नहीं देख रही थी, सब उसे देख रहे थे. उस एक आँख की लपट से तू अन्जान है, पहचान चाहिए तुझे.
हाँ, वो गरदन का बड़ा-सा काला मस्सा जिससे वो माँ के हाथ निकाल कर खेला करता था. फिर जोर से दबा भी देता. मां को दर्द भी होता तो वो हाथ दिखाती कि मारूँगी, तो फिर वो बच्चा जल्दी से अपना चेहरा माँ के आँचल में छिपा देता-इस समय दिखाई दे रहा है गर्दन का वो मस्सा.
तीन साल के बच्चे तिमोती के मस्तिष्क पर इस घटना का गहरा असर हुआ था. लुटी-पिटी माँ की गोद से जबरदस्ती छीने जाने का दर्द उसे बेचैन कर देता था. जब तक काले बालों, के बीच झाँकती वह जलती आँख उसके सपनों में उसे आक्रांत करती थी. वह बेचैन हो उठता था पर समय की धारा ने सबको अपनी जगह लगा दिया था.
डॉ. शिखा के शरीर के सारे रोयें खड़े हो गये.
आतंक से एक चीख निकल गई. हाँ हाँ पहचान पा रही है वह आँख, और उसकी जलन, जिसमें स्वयं उसके भी जीवन को बेरंग कर दिया था. एकाकी रहना उसके व्यक्तित्व का पर्याय बन गया था. माता-पिता के अथक प्रयास के बावजूद अपने जीवन में कोई रंग न भरना उस एक आँख की चीख के कारण ही तो था. आज रंगों के कोलाज में वह सफेद आकृति अपने अर्थ खोल रही थी.
शिखा अपने बिस्तर पर करवटें बदल रही थी. रात उसके लिए हुई ही कहाँ, अचानक वह उठ बैठी-गाड़ी निकाल कर अस्पताल के मानसिक रोगियों के वार्ड की ओर दौड़ गई थी.
संख्या 20 बेड उसके सामने था.
बदहाल सी डॉ. शिखा को वार्ड में पैर रखते देखकर स्टॉफ नर्स परेशान हो गई.
रात के साढ़े तीन बजे-‘‘डॉ. शिखा स्लीपर डाले नाइट गाउन में... यहाँ...’’
अब डॉ. शिखा ने ध्यान से देखा.
वह औरत टेढ़ी लेटी हुई थी. उसके लंबे सर्फिल केश उसके चेहरे पर फैले हुए थे, बालों के बीच से वह दाहिनी आँख दिखाई दे रही थी. पर अब उसमें तपती लपटों की जगह राख के ढेर थे. कोई ज्वलनशील पदार्थ उसमें पहले ही विस्फोट कर चुका था. रंग अब उसे भिगोते नहीं थे, विक्षिप्त कर देते थे, वरना अब वह सामान्य थी.
शायद बीस बर्षीय तिमोती ने उसे पहचान लिया है. माँ जो है उसकी. ममता के रंग ने इस पर शीतलता की वर्षा कर दी है.
अब सुबह के चार बज गये हैं. वार्ड के गेट पर तिमोती खड़ा है. उसकी प्रश्नात्मक दृष्टि के उत्तर में-‘‘एक काल थी.’’
काश कि शिखा, तिमोती को बता सकती कि उन दोनों के जीवन क्रम में गहरे अवसाद, तीक्ष्ण व्यथा के रंगों के संयोजन की सूत्रधार वह स्वयं है. वही तो थी वह लड़की-जिसकी अस्मिता की रक्षा के लिए उसके पिता ने सीने पर गोली खाई थी. हँसता-खेलता परिवार होली के रंगों में लहूलुहान हो गया था.
सम्पर्क : आस्था, 19/1152, इन्दिरा नगर,
लखनऊ-2620016 (उ. प्र.)
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