आपने कहा है खुशी प्राप्त होती है ‘प्राची’ का जुलाई अंक हमने पढ़ा. कहानी-ताड़पुत्री, अंतिम इच्छा, मां, कोई नहीं जानता खूब पसंद आईं. साथ ही कवित...
आपने कहा है
खुशी प्राप्त होती है
‘प्राची’ का जुलाई अंक हमने पढ़ा. कहानी-ताड़पुत्री, अंतिम इच्छा, मां, कोई नहीं जानता खूब पसंद आईं. साथ ही कविता, गीत-गजल भी खूब पसंद आईं. लेख ‘मौर्य प्रशासन का विश्लेषण’, ‘महात्मा गांधी की साहित्यिक चेतना, ‘उत्तर भारत पर एक विहंगम दृष्टि’ अच्छी लगी. संपादकीय भी हमें खूब पसंद आई. पत्रिका पढ़ने से हमें अपार खुशी की प्राप्ति होती है.
बद्री प्रसाद वर्मा ‘अनजान’, गोरखपुर
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गया में अभी सुखाड़ है
प्राची का जुलाई 18 अंक प्राप्त हुआ. कवर पेज पर छमाछम पानी में खेलकर बच्चे खुशी मना रहे हैं. आसाढ़ के महीने से ही बरसात शुरू हो जाती है, भले ही हमारे गया जिला में अभी भी सुखाड़ है.
संपादकीय ‘नाम और काम’ व्यंग्यात्मक यथार्थवादी है. उर्मिल सत्यभूषण से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत ‘मैं धरा पर प्यार के कुछ बीज बोना चाहती हूं’ काबिले तारीफ है. आलेख ‘महात्मा गांधी की साहित्यिक चेतना’ खोजपूर्ण एवं स्तरीय है. महात्मा गांधी हिन्दी भाषा के भी प्रबल समर्थक थे. मार्गदर्शक तुलसीदास पर आलेख भी अच्छा लगा. यह जानकर कि तुलसीदास के एक अधूरे दोहे को रहीम ने पूरा किया था, अच्छा लगा-
सुरतिय, नरतिय न गति, यह चाहत सब कोय- तुलसीदास
गोद लिये हुलसी फिरे, सो सुत तुलसी होय-रहीम
‘मौर्य प्रशासन का विश्लेषण’, ‘जाति व्यवस्था की उत्पत्ति’, ‘उत्तर भारत पर एक विहंगम दृष्टि’ भी अच्छे आलेख हैं. मानस के रत्न-भाग तीन सत्यपरक तथ्य, अपठनीयता के विस्तार को नकारती कहानियां और पुस्तक समीक्षा भी अच्छे लगे. साहित्य समाचार में डॉ. कुंवर प्रेमिल का सम्मान, राष्ट्रीय महिला काव्य मंच महोत्सव भी पत्रिका को शोभायमान बनाती है. व्यंग्य ‘रंगा सियार’ जो आज के दिल्ली सल्तनत पर आधारित है, अच्छा लगा.
कविता ‘मनुमुक्त के प्रति’ एक सच्ची श्रद्धांजलि है. देश के गौरव उन्मुक्त को शत्-शत् नमन. आचार्य भगवत दुबे की कविता ‘प्रश्न सारे ज्वलंत धर आया’ एवं ‘तू कबीर की बानी लिख’ उत्कृष्ट कविता है. रूप और नयन, मुस्कान की पहचान, संवदेना के सूखे दरख्त, उम्मीदों का नया आकाश, एकांत भाषा के शब्द भी उच्च कोटि के हैं. कुल मिलाकर इस अंक की सभी कवितायें अच्छी हैं.
असमिया कहानी ‘नौकरी की आवश्यकता’ बेरोजगारी पर आधारित एक आधुनिक कहानी है. प्रेमचंद जयन्ती के उपलक्ष में धरोहर कहानी ‘बेटों वाली विधवा’ में फूलमती के चारों बेटे एवं बहुएं अपने स्वार्थ के चलते मां को धीरे-धीरे सम्पत्ति से अलग करते गये. विपत्ति की मार से चारों बच्चे भी जूझने लगे. मां भी गंगा में कलश भरते समय फिसलकर विलीन हो गयी. कुंवर प्रेमिल की कहानी ‘ताड़पुत्री’ अच्छी लगी. अंतिम इच्छा में लड़का न पापा का ध्यान रखता है, न बहन की शादी का. वह आधुनिकता में विदेश में नौकरी करता है और वहीं अपनी शादी कर लेता है. इधर पापा अपनी बच्ची का ब्याह कर उसी के यहां रहने लगते हैं और विचार व्यक्त करते हैं कि बेटी ही उनका दाह संस्कार करेगी. उनकी अंतिम इच्छा पूर्ण होती है. राजेश माहेश्वरी की ‘मां’, रामबाबू नीरव की ‘लाश का धर्म’ भी अच्छी लगी. राकेश भ्रमर की ‘कोई नहीं जानता’ दो समुदायों की अलग-अलग संस्कृति को दर्शाती है. इस अंक की सभी कहानियां आधुनिक होते हुए भी यथार्थवादी हैं.
कामेश्वर प्रसाद, ग्राम-कुजापी, जिला गया
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आज की लघुकथा में कहानीपन नहीं होता
प्राची का जून अंक नसीब हुआ. आत्मिक आभार! संपादकीय ‘जिन्न मरते नहीं’ भूत, प्रेत और जिन्न के हवाले से, वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का जो खाका आपने प्रस्तुत किया है, इससे गुजरे काल की निशानदेही होती ही है, वर्तमान राजनीति का मुखौटा भी चीथ दिया गया लगता है. आज का विज्ञान भूत, प्रेत और जिन्नों के वजूद को नकारता है. किंतु उनकी उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता. आपके व्यंग्य में जो खुभने की ताकत है और वर्तमान से जोड़ देने की हुनरवरी है, वह ‘रेयर’ है. व्यंग्य संभावित खतरे से आगाह करता है. ‘जिन्न मरते नहीं’ जिन्न, भूत, प्रेत की ‘पाश्चराइज्ड’ नस्ल है. इसे हर कोई अपने-अपने तरीके से मानता है और ऐतिहासिक संदर्भ देकर व्याख्यायित करता है. जिन्न अगर किसी पर मेहरबान है तो उसे मालामाल भी कर देता है अगर नाराज हो गया तो नेस्तनाबूद भी कर देता है. रूहें दो तरह की होती हैं-खुशरूह और बदरूह. खुशरूह मनुष्य से जुड़कर उसे लाभान्वित करती है और बदरूह जिन्दगी भर सताती रहती है. जिन्न और जिन्ना में बहुत कम फर्क है. जब तक हिन्दुस्तान में थे, जिन्दा जिन्न की आकृति में थे, पाकिस्तान में जाकर उनका कायाकल्प-सा हो गया. आज पाकिस्तान में जिन्ना का जिन्न वहां की व्यवस्था को पामाल कर रहा है. पड़ोसी के नाते उसका असर हिन्दुस्तान पर भी समय-समय पर होता रहता है. आपने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हवाले से जेनुइन बात कही है. आपकी संपादकीय का एक-एक वाक्य मारक व्यंग्य ही तो है. आप का व्यंग्य नश्तरी चाकू की मानिन्द है जो ‘चुभकर’, ‘खुभकर’ मनुष्यात्मकता की संरक्षा करता है. कारगर रचना से सामाजिक परिवेश का विरेचन होता है. पूर्व चीफ जस्टिस पं. आनन्द नारायण ‘मुल्ला’ का निम्नस्थ शेर कलम और कलमकार की ताकत की पैरवी करता हैः-
"खूने शहीद से भी है कीमत में कुछ सेवा,
फनकार के कलम की सियाही की एक बूंद."
भाई भ्रमर जी! आप के कलम की ताबानी पर मेरे जैसे लोगों को नाज है. आदरणीय शिवपूजन सहाय की कहानी ‘कहानी का प्लॉट’ प्रकाशित करके आपने कथा-पीढ़ी को भाषाई दिशा-सुविधा दी है. ‘सादगी और पुरकारी’ से यह कहानी वरिष्ठों और नये कथाकारों को ‘कहानीपन’ का आयाम देती है. ‘कहानी का प्लॉट’ सशक्त कहानी की सर्व सुलभ भाषा, तर्कशक्ति और बहु-आयामी वैचारिक सम्पदा से विभूषित वाक्य संरचना मन मोह लेती है. "भाषा में गरीबी को ठीक-ठीक चित्रित करने की शक्ति नहीं होती. भले ही वह राजमहलों की ऐश्वर्य-लीला और विलास-वैभव के वर्णन में समर्थ हो." प्रकाशित कहानी में अनेकशः उद्धरणीय वाक्य हैं. वरिष्ठ साहित्यकार लघुकथाकार रामयतन यादव से सितारा देवी की लघुकथा पर बातचीत काफी संयंमित है. आज पत्र-पत्रिकाओं में कुछ ऐसी भी लघुकथाएं, लघुकथा के नाम पर प्रकाशित हो रही हैं, जिनमें कहीं से कहानीपन होता ही नहीं. चुटकुले भी इन्हें नहीं कहा जा सकता है. लघुकथाकार को कहानीपन की तात्विकता, संप्रेष्यता और प्रभावान्विति का ख्याल रखना चाहिए.
डॉ. मधुर नज्मी, गोहना मोहम्मदाबाद, मऊ
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पत्रिका से आत्मीयता हो गई है
गंगा-जमुनी संस्कृति संगमरमर पर्वत की नगरी जबलपुर से प्रकाशित प्राची माह जून 18 का अंक जिसे डाककर्मी ने ही खोलकर दिया, क्योंकि मैं पैरालिसिस से पूरी तरह ग्रसित हूं. वहां की एक मुस्लिम लड़की हिन्दु देवी-देवताओं के भजन एवं गीत सुरीली आवाज में गाकर पूरे भारत में धूम मचा चुकी है (शायद शहनाज अख्तर).
सर्वप्रथम मेरी नजर आवरण पृष्ठ पर पड़ी. ऐसा लगा कि अभावों के बीच एक किशोरी सुनहरी यादों में खोयी है. पृष्ठ पलटने पर मेरी दृष्टि इस पर पड़ी कि संपादन-संचालन पूर्णतया अवैतनिक एवं अव्यावसायिक है. यह जानकर मैं संपादन मंडल के सदस्यों के प्रति श्रद्धावनत हुए बिना नहीं रह सकता. संपादकीय व्यंग्य की चाशनी में लिपटा यथार्थवादी लगा. मार्क ट्वेन के विचार में ‘हास्य मानव जाति का सबसे बड़ा आशिर्वाद है’ बहुत अच्छा लगा.
कविता प्रायः अन्तर्मन की आवाज होती है, हृदय का उद्गार होती है. यशस्वी प्रधान मंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी की कविता-
सौगन्ध मुझे इस मिट्टी की,
मैं देश नहीं मिटने दूंगा,
मैं देश नहीं झुकने दूंगा.
में देश के प्रति पूरी समर्पण की भावना है, जो बहुत बड़ी बात है. इसे देश के लोगों को सोचना चाहिए. प्रसाद के नाटकों में राष्ट्रीय चेतना बहुत अच्छी लगी. जैसे-
"जिये तो सदा उसी के लिए, यही अभिलाषा रहे यह हर्ष,
न्योछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष."
अत्यंत उच्चकोटि का है.
रामयतन यादव से सितारा की बातचीत, साक्षात्कार, समकालीन हिन्दी कविता : एक दृष्टि, रहीम के नीति काव्य की प्रासंगिकता, अंधायुग का रचना संसार आदि आलेख के लिए
धन्यवाद. राकेश भ्रमर द्वारा खगेन्द्र ठाकुर लिखित लक्ष्मीनारायण मिश्र : व्यक्तित्व और कृतित्व पुस्तक की समीक्षा अच्छी है. साहित्य समाचार में डॉ. कुवर प्रेमिल का सम्मान, स्व. महावीर प्रसाद द्विवेदी का स्मरण, गायक पंकज उधास का सम्मान पत्रिका में चार चांद लगा देती है. पत्रिका की प्रायः सभी कवितायें अच्छी हैं.
शिवपूजन सहाय की कहानी का प्लॉट एक मार्मिक सामाजिक एवं यथार्थवादी कहानी है. अन्य कहानियां भी स्तरीय हैं. ‘अनजाने देश में’ उपन्यास अंश तारतम्य बनाये रखती है, पाठक को बांधे रखती है. धन्य हैं छपास प्रेमी, पिता-पुत्र संवाद, शराब के ग्लैमरस पैरोकार आदि व्यंग्य बहुत अच्छे हैं. लघु कहानी ‘बोझ’ एक बेहतरीन कहानी है. पत्रिका पढ़ने के बाद न जाने क्यों मेरी उससे आत्मीयता हो गई है.
कामेश्वर प्रसाद, ग्राम-कुजापी,
जिला-गया (बिहार)
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विशिष्ट पत्र
मधुर नज्मी समीक्षात्मक पत्र लिखते हैं
सम्पादक के नाम पत्र लेखन का चलन अभी कुछ पत्र-पत्रिकाओं में बड़े विस्तार से हो रहा है. ‘बालवाटिका’ में दृष्टव्य है. आदरणीय भाई श्री मधुर नज्मी भी बड़े-बड़े सारगर्भित विद्वतापूर्ण समीक्षात्मक पत्र लिखते हैं. आपका अनुरोध सराहनीय है. परन्तु प्रायः लोग अपनी रचनाएं प्रकाशित देखकर ही संतुष्टि पा जाते हैं. मैं मानता हूं कि पत्र लेखक के रूप में न जाना जाकर अपनी रचनाओं से ही जाना जाऊं. हां, पत्रिका के सुधार-परिष्कार आदि के सुझावों को महत्त्व दिया जाना चाहिए. प्रायः प्रशंसापूर्ण पत्र लिखकर कुछ रचनाकार अपने प्रति सद्भावना अर्जित करके संपादकगण को नवनीत लेपन भी अपना उद्देश्य बनाते हैं. कभी-कभी आलोचना के बहाने कुछ अनुचित टिप्पणियां करके निन्दा रस का सृजन करते हैं. यही नहीं, कुछ रचनाकार पारस्परिक प्रशंसाएं करके गुट निर्माण की भूमिकाएं भी बनाते हैं.
बहरहाल, श्रेष्ठ रचनाओं की प्रशंसा तो की ही जानी चाहिए. इससे विशेष कर नव रचनाकारों का उत्साहवर्धन होता है. समसामयिक विषयों पर विचार व्यक्त करके समाजोपयोगी चर्चाएं करना भी श्लाघ्य है.
‘प्राची’ के जून’18 अंक में प्रायः सम्पादकीय सहित सभी आलेख एवं रचनाएं रुचीं. परन्तु आपकी सम्मानित पत्रिका में मुद्रण दोषों का भी निवारण हो सके तो मुझे प्रसन्नता होगी. मैं रचनाएं प्रायः कम ही भेज पाता हूं. हां, इस बार एक रचना संलग्न है. यदि रुचे, तो इसे अपना स्नेह देने का कष्ट करें. स्वस्थ, सानन्द एवं प्रसन्न हों यही कामना है.
मधुर गंजमुरादाबादी,
अध्यक्ष हितैषी स्मारक सेवा समिति,
गंजमुरादाबाद, उन्नाव (उ.प्र.)
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