“गंगा राम कौन है ?” इस सवाल का ज़वाब पाने की कोशिश कर रहा था, बेचारा मंगता राम...जो पुलिस थाने में बैठा था। बेचारा इस इस सवाल का ज़वाब पाने की...
“गंगा राम कौन है ?” इस सवाल का ज़वाब पाने की कोशिश कर रहा था, बेचारा मंगता राम...जो पुलिस थाने में बैठा था। बेचारा इस इस सवाल का ज़वाब पाने की कोशिश कर ही रहा था, तभी थानेदार साहब कह उठे “आ, मेरे गंगा राम। अब तो तुझको, आना ही होगा।” बेचारा मंगता राम उनका मुख देखता रह गया, बेचारा बगलें झांकने लगा कि ‘अब कहां से से आ रहा है, गंगा राम ?’ इधर गंगा राम तो आया नहीं, और दूसरा सवाल उसको सताने लगा कि ‘अगर वह हाज़र होता तो, उसके साथ वकील साहब होते...जो उसकी जमानत करवाकर, उसे छुड़वाकर यहां से ले जाते ?’ मगर यहाँ तो क़िस्मत ही ख़राब निकली, बेचारे मंगता राम की। ख़ुदा की पनाह, उसका पड़ोसी गंगा राम अभी-तक लौटकर क्यों नहीं आया ? कितनी देर हो गयी, उसे गए..? मगर, अभी-तक वह वकील साहब को बुलाकर लाया नहीं।
मगर, यह क्या ? गंगा राम तो आया नहीं, और उसके बदन पर डंडे बरसने लगे। दर्द के मारे, मंगता राम कराह उठा और चिल्लाकर कहने लगा “हुज़ूर, मैं गुनाहगार नहीं हूं, ज़रा गंगा राम को तो आने दीजिये। वह वकील साहब को बुलाने गया है, हुज़ूर। उनके आते ही मेरी जमानत हो जायेगी, माई बाप..अल्लाह के फज़ल से... ”
यह सुनते ही, थानेदार साहब बिफ़र उठे, और कह बैठे “हरामखोर। काहे अल्लादीन और फ़ज़लू मियाँ को बांग दे रहा है ? जानता नहीं, मेरे हवलदार ऐसे उल्लू के पट्ठे नहीं हैं जो यहां आकर तेरी तेरी मदद करेंगे। इस थाने में जो मैंने कह दिया, वह लोहे की लकीर है।” अब तो बेचारे गंगा राम की हालत, और पतली हो गयी। समझ में नहीं आ रहा उसे, कि “आखिर, थानेदार साहब समझ क्यों नहीं रहे हैं...कि, वह चाहता क्या है ?” सच्चाई यह है, “वह बेचारा अपने पड़ोसी गंगा राम को भेज चुका था, वकील साहब को बुलाने।” अब बेचारे के मुख से निकल पड़ा “हुज़ूर, ज़रा आने दीजिये गंगा राम को।” बस, उसका इतना कहना ही हुआ...और, उसके बदन पर तड़ा-तड़ डंडे पड़ने लगे। अब तो जनाब मंगता राम को अल्लाह मियां का ही सहारा रहा, क्योंकि जब वह याद करता है, अपने पडोसी “गंगा राम” को। तब ये जनाब, बरसाते हैं डंडे । अगर अब अल्लाह पाक को पुकारता है, तब थानेदार साहब को याद आते हैं उनके हवलदार। अब बेचारा मंगता राम सोचने लगा कि “ए मेरे परवरदीगार। तू नेक है क़रीम है, मेरे मोला। तू मुझे इस पागल थानेदार से निज़ात दिला।” उसका अल्लाह मियां को याद करना ही हुआ, और हो गया करिश्मा। सामने, क्या देखा ? दरवाज़ा पार करके, वकील साहब और और उसका पड़ोसी गंगा राम एक साथ थाने में दाख़िल हो गए हैं। उनके दीदार पाते ही, मंगता राम का दिल बाग़-बाग़ हो उठा। मगर, बेचारा मंगता राम क्या जाने ? कि, यह गंगा राम किसी टटपूंजिये वकील को उठा लाया ? जिसके पास वकालत की प्रेक्टीस का कोई तुजुर्बा नहीं। ये जनाब तो अभी-अभी ही, वकालत के मैदान में दाख़िल हुए हैं। इनकी पूरी ज़िन्दगी, किसी सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ाने में बीती है। मगर जनाब ने रिटायर होने के पहले, युनीवर्सिटी की इवनिंग पारी में लॉ क्लासेज़ में दाख़िला लेकर एल.एल.बी. की डिग्री हासिल की है...और रिटायरमेंट के बाद, इन्होने वकालत की प्रेक्टीस करने के लिए सनद भी हासिल कर ली। इस तरह जनाब बिना किसी तरह का तुज़ुर्बा हासिल किये, जनाब उतर गए वकालत के जंगाह में। बस, ऐसे कई वकील कचहरी में मुव्वकिलों को फांसने के लिए अक्सर घूमते हुए मिल जाया करते हैं। उस वक़्त ऐसा लगता है, ‘मानों ये वकील मुव्वकिल नहीं, बल्कि शिकार को अपने ज़ाल एन फंसा रहे हैं ?’ बस, उन्ही में ये मास्टर साहब भी है..जो अभी-अभी इस मैदान में आये हैं। बस, फिर क्या ? गंगा राम मियां फंस गए, मास्टर साहब के सफ़ेद बालों को देखकर..उसका विचार यही था, ‘जिस वकील के के बाल सफ़ेद होंगे, वह तुज़ुर्बा रखने वाला वकील होगा।’ इस तरह, वह इनको यहाँ ले आया। सच्चाई यह है, ‘इस किस्म के वकील कभी अपने सीनियर के नीचे रहकर, काम करने की तमन्ना नहीं रखते।’ तब सोचिये आप कि, ‘इनके पास वकालत की प्रेक्टीस करने का तुजुर्बा, आएगा कहां से ?’
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अब क्या होने वाला है, यह तो अल्लाह मियां ही जाने कि ‘इस बेचारे मंगता राम की क़िस्मत में लिखा क्या है ?’ थाने में जैसे ही वकील साहब गंगा राम के साथ दाख़िल होते हैं, वे टोह लेने लगे कि ‘मंगता राम कहां बैठा है ?’ तभी गंगा राम उंगली के इशारे से जतला देता है कि ‘वह पर बैठा है, मंगता राम।” फिर क्या ? जनाब वकील साहब अपनी पुरानी आदत से मज़बूर होकर मंगता राम को आवाज़ इस तरह दे बैठते हैं, मानों वह उनका मुव्वकिल नहीं, बल्कि उनकी स्कूल का कोई छोरा है..जो स्कूल से नौ दो ग्यारह होता हुआ पकड़ा गया।’
वकील साहब – अरे ओ..मंगते। क्या कर...कर रिया...
इसके आगे बेचारे वकील साहब बोल नहीं सके, बदक़िस्मत से बेंच के पास ही सीट पर मौज़ूद थानेदार साहब के दीदार हो गए। जो बैठे-बैठे, अपनी मूंछों पर ताव दे रहे थे। फिर, क्या ? उनके दीदार पाते ही उनकी ज़बान पर..जड़ गया ताला। बेचारे वकील साहब, एक लफ्ज़ आगे बोल नहीं सके। अब, आगे..जमानत के काग़ज़ात कैसे पेश करते, यहां.. तो जनाब डर के मारे, पत्थर के बूत की तरह हो गए खड़े।
तभी थानेदार की दहाड़ गूंज उठी “अरे, ओ बकवादी कीड़े। मंगता किसे कहा रे, कुत्तिया के ताऊ ? तेरे जैसे कई मंगते आते हैं यहां, गिड़गिड़ाने।”
ख़ुदा जाने, अब माहौल क्यों बिगड़ गया ? वकील साहब को अपनी ग़लती का अहसास हो गया कि “इस वक़्त आते समय, वे वकील का काला कोट पहनकर क्यों नहीं आये ?” अब यहां कौन ऐसा मुसाहिब बैठा है, जो वकील साहब को जानता हो ? और साथ में वह ज़ामिन दे सकता हो, कि ‘ये जनाब एक वकील हैं..जो अभी कुछ माह पहले ही वकालत के मैदान में उतरे हैं।’ वकील साहब तो पहले यही समझ रहे थे कि, ‘ये सीनियर वकील बिना काला कोट पहने आया करते हैं अदालत में, फिर हम ही उनसे कम नहीं..आख़िर हमने भी एल.एल.बी. की है, लॉ कोलेज से।’ हमें भी लोग जानते हैं, आख़िर चालीस साल भाड़ नहीं झोंकी मास्टरी की नौकरी में। हमारा भी कोई सर्कल है, जितने बच्चों को पढ़ाया है..उन सबके वालिद हमको पहचानते हैं। उस वक़्त हम लॉ की डिग्री हासिल कर चुके थे, इसलिए कई लोग हमसे क़ानूनी सलाह लेने हमारे पास आते थे। हमारी सलाह से, उन लोगों का भला हुआ। तभी तो लोग हमें मास्टर साहब न कहकर, वकील साहब कहकर पुकारा करते। फिर हम, क्यों पहनकर आयें काला कोट ? ” अब सीनियर दिखाई आने की फ़िराक में, जान-बूझकर काला कोट पहनकर आये नहीं। मगर, यहाँ तो सारा खेल बिगाड़ दिया इस उल्लू के पट्ठे थानेदार ने। वकील साहब ने अपने फ़रीक़ मंगता राम को देखते ही, उसके नाम से उसे पुकारा था...मगर क़िस्मत ख़राब, उस थानेदार ने समझ लिया उसे मंगता कहा जा रहा है। अलफ़ाज़ “मंगता” को तहज़ीब के खिलाफ़ समझकर, थानेदार ने समझ लिया कि ‘उसकी तोहीन हो गयी ? किसी सरकारी ओहदेदार को ‘मंगता’ कहकर पुकारा जाना, कहाँ की तहज़ीब है ?’
यहाँ तो इस बिना कोट पहने वकील को, यह उल्लू की दुम थानेदार समझ नहीं पाया कि..”तशरीफ़ रखने वाला कोई लल्लू-पंजू न होकर एक ईमानदार वकील है। जो जीवन भर आदर्श मास्टर बनकर रहा है।” फिर, क्या ? थोड़ी देर तक कोई नहीं बोला, चारों ओर सन्नाटा छाया रहा। ना मालुम, यह थानेदार कुछ भी कर बैठे ? इस सन्नाटे को तोड़ते हुए, घबराया हुआ गंगा राम बोल उठा “माई-बाप। ख़ुदा के लिए रहम....रहम। ये वकील साहब हैं, हुज़ूर। ये तो बेचारे मंगता...’
थानेदार साहब कड़कदार आवाज़ में, बोल उठे “भाड़ में जाए, तू और तेरा वकील। मिस्टर, यह थाना है, यहाँ किसी का निकाह नहीं हो रहा है ? जो तू लेकर आ गया यहाँ, निकाह में मौज़ूद रहने वाले वकील को। अब बाकी क्या रह गया..मौलवी ? उसे भी बुला लाता, मेरे बाप का निकाह करवाने ?”
“हुज़ूर। आपके अब्बा हुज़ूर, तो..तो..जनाब..” गंगा राम सहमकर कह उठा।
सुनकर थानेदार साहब कहने लगे “जानता हूं, जानता हूं। अब्बा हुज़ूर अल्लाह मियां के घर रुख़्सत हो गए, तो क्या हो गया ? तू भी चला जा वहां, इस वकील और मौलवी को लेकर। साला...मेरे सामने ज़बान चला रहा है, कतरनी की तरह ? लगा लगाम, तेरे ज़बान पर। नहीं तो, यह गंगा राम...” इतना कहकर, थानेदार साहब अपने डंडे पर अपना हाथ फेरने लगे। इनका डंडा ही गंगा राम है..इस रहस्य को न समझकर वह नादान गंगा राम फिर बोल उठा “हुज़ूर। इस आपके सेवक को सभी लोग कहते हैं, गंगा राम। हुक्म दीजिये, मेरे आका। बस...आप, इस तरह नाराज़ न हो।”
उसका ज़वाब सुनकर थानेदार साहब झल्ला उठे, और कहने लगे “नामाकूल। क्या कहा, तूने ? तू मेरे हुक्म की तामिल करेगा..? ठीक है, चल पीछे घूम।”
बेचारा गंगा राम था, सीधा इन्सान। बेचारा हुक्म पाते ही पीछे घूम गया। उसके घूमते ही, उसके पिछवाड़े पर लगने लगे डंडे। डंडे की मार पड़ते ही, दर्द के मारे गंगा राम चीख़ने लगा। अब हंसकर, थानेदार साहब बोल उठे “अब आया, समझ में ? “गंगा राम कौन है ?” अबे मुर्दार। बोल, कैसा लगा गंगा राम ?”
बेचारा गंगा राम, क्या बोलता ? उस बेचारे का, दर्द के मारे हाल बेहाल था। बेचारा थानेदार साहब के गंगा राम के डर से, उनके आगे कराह भी न सका। बरबस आँखों से निकले अश्कों को पोंछता हुआ, वह वकील साहब की तरफ़ कातर नज़रों से देखता रहा। उसकी नम आँखें कह रही थी कि, “अब तो वकील साहब, आप कुछ बोलो।” मगर, वकील साहब का कलेज़ा था, लल्लू-पंजू...कभी अदालत में उन्होंने किसी मुद्दे पर ज़िरह की नहीं, वे यहाँ कैसे बोल पाते ? यहाँ तो वे अभी-अभी, थानेदार साहब का यह कारनामा देखकर ही सहम गए..! ख़ुद को अब ऐसी दशा में पाकर, उनकी आँखों के आगे स्कूल के उन मज़लूम बच्चों की तस्वीरें छा गयी..जो मुख-ज़बानी पहाड़े याद नहीं कर पाते, और वे सज़ा के तौर पर उन बच्चों की बेरहमी से पिटाई कर दिया करते थे। गंगा राम पर बरस रहा था, गंगा राम...तब ही बेचारे हो गए थे, खामोश। और उनका कमज़ोर बदन तो डर के मारे ऐसे कांप रहा था, मानों उनको हो गया हो मलेरिया बुखार। तभी एक हवलदार एक नशेड़ी आदमी को पकड़ लाया, थाने में। उसी वक़्त थानेदार साहब के पास ए.सी.पी. साहब का फ़ोन आ गया, मोबाइल ओन करके वे उठे। फिर बरामदे की ओर चले गए, जहां चेनल सही मिलने पर आवाज़ साफ़-साफ़ आ रही थी। अब थानेदार साहब को वहां न पाकर उस हवलदार ने, उस आदमी को लाकर वकील साहब के पास बेंच पर बैठा दिया। और ख़ुद क़दमबोसी कर बैठा, बरामदे की तरफ़...जहां थानेदार साहब, मोबाइल पर ए.सी.पी. साहब से गुफ़्तगू कर रहे थे।
यह नशेड़ी था, शातिर दिमाग़ का। वह नालायक तो ऐसा शैतान था कि, दिन में कम से कम चार दफ़े अपनी शरारतों से लोगों को न सताता तो उसके पेट में पानी पचता। कभी-कभी उसकी शरारतों के शिकार, कई तुर्रम खां भी बन जाया करते। ऐसे तुर्रम खां इंसानों की फ़ेहरिस्त में, हवलदार कल्लू रामजी का नाम भी अभी हाल में ही जुड़ा है। इनका नाम थाने में आदर के साथ लिया जाता रहा है, कारण यह है कि जनाब एक तो ठहरे थानेदार साहब के सहपाठी, और दूसरी बात है..उनमें ईमानदारी का गुण, ठूंस-ठूंसकर भरा हुआ। यही कारण रहा, लोग इनकी बहुत इज़्ज़त किया करते।
आज बेचारे कल्लू रामजी बैठे थे, चाय के ढाबे पर। तभी, उनके मोबाइल पर घंटी बजी। उस वक़्त वे, विसलरी बोतल से पानी पी रहे थे। घंटी सुनते ही वे उस बोतल को पास रखे स्टूल पर रखकर, कुछ दूर चले गए...जहां चेनल साफ़ आ रहा था। फिर क्या ? वे वहां खड़े-खड़े, गुफ़्तगू करने लगे। तब न मालुम कहाँ से, यह शातिर नशेड़ी वहां चला आया ? वहां आकर उसने विसलरी बोतल से पानी ख़ाली कर डाला, और उसकी जगह दारु भरकर वहां चुपचाप बैठकर बीड़ी पीने लगा। यह दारु भी था, पानी की तरह रंगहीन। उसको भला इंसान पानी समझने की ग़लती कर बैठे, तो उसकी ग़लती नहीं होगी। मगर सभी जानते हैं कि, ख़ुदा सब देखता है अपने बन्दों की आँखों से। उसकी शैतानी हरक़त, ढाबे वाले महाराज की निग़ाह से बच नहीं सकी। वह चाय बनाते-बनाते, पूरी वारदात कनखियों से देखते रहे।
कल्लू रामजी ठहरे, पंडित आदमी। वे घर से बाहर निकालने के बाद, किसी के घर का पानी पीते नहीं। इसलिए घर से निकलते वक़्त, विसलरी पानी की बोतल अपने साथ रखते। बाहर कहीं चाय भी पीते, तो महाराज के ढाबे पर। कारण यह भी रहा, महाराज उनके लिए शुद्धता से चाय अलग से बनाया करते। अब धोखे से विसलरी पानी की जगह, उन्होंने पीली दारु। फिर क्या ? दारु सर पर चढ़ते ही, वे करने लगे पागलों जैसी हरक़तें। और इधर एक बात हो गयी न्यारी, ये कम्बख़्त टीवी चैनल वाले केमेरा वगैरा लेकर वहां आ गए और इस बदनसीब पुलिस कर्मी की दारु पीकर हुड़दंग मचाने की तसवीरें लेते गए। आख़िर ढाबे वाले महाराज का दिल पसीजा, उन्होंने कल्लू रामजी को नीम्बू का रस पिलाया। रस पीते ही, कल्लू रामजी आ गए होश में। होश आने पर, ढाबे वाले महाराज ने उनको पूरी दास्तान सुनायी...पूरी दास्तान सुनते ही, उनकी आँखों से खून उतर आया। अब वे बदला लेने की फ़िराक़ में, उस नशेड़ी की हर गतिविधि पर ध्यान देने लगे। आख़िर आज़ वे उस नशेड़ी को अपने लपेटे में लेने में, सफल हो गए। लपटे में आते ही, नशेड़ी को हिरासत में लेकर आ गए थाने में। तभी उनको थानेदार साहब की आवाज़ सुनायी दी, वे कल्लू रामजी को देखते ही उन्हें आवाज़ दे बैठे। फिर क्या ? जनाब ने झट उस शातिर नशेड़ी को एक हवलदार के हवाले कर, ख़ुद चले गए थानेदार साहब के पास।
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थाने में बैठे वकील साहब को क्या मालुम, “इस मुज़रिम के रोम-रोम में, शरारत बसी हुई है।” ऐसा हो नहीं सकता कि, ‘यह वहां निक्कमा ख़ामोशी से बैठ जाय, और किसी शरारत को अंजाम न दें ?’ ऐसा लगता है कि, ख़ुदा जब फ़ुर्सत में थे, तब उन्होंने ऐसे नमूने को गढ़ा होगा ? वह शैतानों का ख़ालू, चुप-चाप बैठने का आदी कभी रहा नहीं। अगर परचूनी बनिया होता तो इधर का तोला उधर और उधर का तोला इधर रख देता, मगर यह मआमला शैतानों के ख़ालू का रहा..जो चुपचाप बैठे रहने का, आदी कभी रहा नहीं। एक तो वह चलाता था, दारु का ठेका..और दारु के ठेके पर, उसके पास रहते हैं ढेरों काम। मगर अब यहाँ इस बेंच पर बैठे इस शैतान के पास, कोई काम रहा नहीं। यही कारण था, यह शैतानों का ख़ालू शैतानी करने में बाज़ नहीं आया, बस झट उसे शरारत सूझ गयी। उसने इधर-उधर देखा, उसे कहीं थानेदार साहब नज़र नहीं आये। फिर क्या ? झट उसने उठकर थानेदार साहब की टेबल पर रखा आलपिन का डब्बा खोला, और उसमें से तीन-चार आलपिने उठा लाया। फिर बेंच पर वापस बैठकर, उसने जेब से दारु का पव्वा निकाला। और बैठा-बैठा, उसे पीने का अभिनय करने लगा। बेचारे वकील साहब को, दारु तो क्या ? उनको तो, दारु की गंध से भी नफ़रत थी। अब बेचारे वकील साहब, अजीब स्थिति में फंस गए। ना तो वे उठकर कहीं जा सकते थे, और न वे चीखकर उसको ऐसा करने से मना कर पाते ? क्योंकि, उनके दिल में थानेदार साहब का आंतक ऐसा छा गया था..वे बेचारे डर मारे, मुंह से एक लफ़्ज़ बाहर निकालने की स्थिति में नहीं थे। उधर अब इस मुज़रिम को दूसरी शरारत सूझ गयी, उसने चुप-चाप वकील साहब की पीठ पर आल-पिन चुभा दी। बेचारे वकील साहब उस दर्द को बर्दाश्त कर नहीं पाए..वे चिहुंक उठे। मगर जैसे ही वकील साहब की निग़ाह उस शैतान पर गिरी, वह शैतान चुप-चाप भोले इंसानों की तरह ऐसे बैठ गया..मानो इसके समान, इस ख़िलक़त में कोई सीधा आदमी नहीं। बेचारे वकील साहब उस पर शक नहीं कर पाए, क्योंकि वह शैतान किसी भी नज़र में शरारती नहीं लग रहा था। आख़िर, सवाल यह रहा ‘तब पिन किसने चुभायी ?’ अब वे इस मामले पर मिट्टी डालकर, अपने मुवक्किल को बचाने के बारे में सोचने लगे। इस तरह उनको विचारों में खोया पाकर, उस मुलाज़िम की शरारती हरक़तें वापस सर उठाने लगी। इस बार उसने वकील साहब की पिछली दुकान पर पिन चुभा डाली, तब बेचारे वकील साहब नाक़ाबिले दर्द के मारे तिलमिला उठे...और बरबस उन्होंने चमककर हाथ चला दिए..! जिससे उनका हाथ सीधा जाकर, मुज़रिम के हाथ में थामी बोतल पर जा पड़ा। और, हाथ पड़ते ही बोतल गिर पड़ी। अरे जनाब, यह बोतल क्या गिरी...? उस बोतल का थोड़ा-बहुत दारु, वकील साहब के कपड़ों पर भी जा गिरा। अब तो चारों तरफ़, दारु की महक़ फ़ैल गयी। फिर वह बोतल आंगन पर लुढ़कती रही, और उस आंगन पर दारु गिराती गयी। इस तरह, अब दारु का नुक़सान वह मुज़रिम बर्दाश्त कर नहीं पाया। गुस्से से काफ़ूर मुज़रिम मियां की लाल-लाल सुर्ख आँखें, अंगारे के माफ़िक धधकने लगी। फिर क्या ? उसने आंगन से बोतल उठाकर, बची हुई दारु को जबरदस्ती वकील साहब के मुंह में उंडेल डाली..फिर शेर की तरह, ग़रज़ता हुआ कह बैठा “साले। तेरे बाप ने कभी ख़रीदी, ऐसी ख़ालिस दारु ? साला मुफ़्त की समझकर, इस आंगन को पिला बैठा ?”
सुनकर, बेचारे वकील साहब सहम गए। एक शब्द जनाब के मुंह से न निकला, बेचारे इतने घबरा गए कि कहीं एक शब्द मुंह से निकाला तो यह लम्पट उनके रुख़सार पर थप्पड़ रसीद न कर दे ? बेचारे वकालत के जंगाह में अभी-अभी आये, और उनका कभी ऐसे मुज़रिमों से पाला नहीं पड़ा। तभी वह हवलदार लौट आया, और वकील साहब की जान में जान आयी। उस हवलदार ने उस मुज़रिम का हाथ पकड़ा, और ले जाकर उसे हवालात में बंद कर आया। इस तरह वकील पर, उस मुज़रिम का छाया खौफ़ ख़त्म हो गया। अब तसल्ली से लम्बी-लम्बी साँसें लेते हुए, वे थानेदार साहब का इन्तिज़ार करने लगे।
थोड़ी देर बाद थानेदार साहब लौट आये, आते ही कुर्सी पर तशरीफ़ आवरी होते हुए उन्होंने फ़ज़लू मियां को आवाज़ दी “अरे, ओ फ़ज़लू मियां। ज़रा, अपने दीदार देना..!” कुछ देर बाद, फ़ज़लू मियां थानेदार साहब के दरबार में हाज़िर हुए। उनके आते ही थानेदार साहब कह बैठे “ अल्लाह के फ़ज़लो करम से, हम मोबाइल पर आ रही काल से फ़ारिग़ होकर अब आये हैं। मियां फ़ज़लू, क्या करें ? जनाब-ए-आली कमिशनर साहब ने, एक भारी जिम्मेवारी हमारे कन्धों पर डाल दी। अब तो फ़ज़लू मियां, आपको तहक़ीकात करने जाना होगा। मआमला कुछ नाज़ुक ठहरा, इस कारण मियां आपको तक़ल्लुफ़ दे रहा हूं। क्योंकि, आप हर नाज़ुक...”
“हुज़ूर, हम मुरीद हैं, इस नाज़ुकता के। घर पर बीबी नाज़ुक, पनघट से पानी लाती नहीं। ख़ुदा की पनाह, बच्चे भी ठहरे नाज़ुक...वे इस नाज़ुकता के कारण, मदरसा जाते नहीं..घर पर मौलवी साहब को बुलाकर, बच्चों को तालीम दिलानी पड़ती है। इन बच्चों को तो छोड़िये, हुज़ूर। यहाँ तो, हमारा डोगी इतना नाज़ुक...”
इसके आगे मियां फ़ज़लू बोल न पाए, क्योंकि थानेदार साहब की दहाड़ ने उनकी जुबां से निकल रहे अल्फ़ाजों पर ब्रेक लगा डाला।
“ओ फ़ज़लू की औलाद। चुप बे...यहाँ तेरे ख़ानदान की बिरयानी खाने नहीं बैठे हैं। हमने ख़ाली यह कहा है कि, मआमला ज़रा नाज़ुक किस्म का है। समझे, या दूं हुक्म...इस गंगा राम को ?” शेर की तरह दहाड़े, थानेदार साहब। उनकी एक ही दहाड़ ने, कतरनी की तरह चल रही फ़ज़लू मियां की ज़बान को बंद कर डाला। फिर क्या ? ज़राफ़त से धीमी आवाज़ में, फ़ज़लू मियां कह उठे “आपका हर हुक्म, मेरे सर पर। हुज़ूर आपसे दरख़्वास्त है...आप इस बन्दे को फ़ज़लू की औलाद न कहें, अल्लाह के मेहर से यह बन्दा ख़ुद फ़ज़लू है।” हाथ जोड़कर, फ़ज़लू मियां बोले।
“मियां, तू कुछ समझता नहीं..? तेरे समझ में कुछ आता है, या फिर हुक्म दूं इस गंगा राम को ?” इतना कहकर, थानेदार साहब डंडे को अपने हाथ में लेकर उसे सहलाने लगे।
इतनी बातें सुनकर, गंगा राम का सर चकराने लगा कि, “थानेदार साहब बार-बार, उसी को याद क्यों कर रहे हैं ? हो सकता है, शायद वे मुझसे कोई मदद की उम्मीद रखते हों ? अब यह ख़्याल दिल में आते ही, फटे बांस से निकले सुर जैसी आवाज़ मुंह से निकाल बैठा “साहब। हुक्म दीजिये, मुझे। आपकी ख़िदमत में, मुझे क्या करना है ?” सुनते ही, थानेदार साहब ने उसको सर से पाँव तक घूरते हुए देखा। फिर न मालुम उन्होंने क्या सोचा, बस उन्होंने फ़ज़लू मियां को हुक्म देते हुए कह दिया “फ़ज़लू मियां, आप ज़रा इन साहब बहादुर को पिछले वाले मेरे कमरे में लेते आइये। आगे की गुफ़्तगू, अब वहां ही होगी।” इतना कहकर, थानेदार साहब कुर्सी से उठ गए...और, अपने क़दम पिछवाड़े बने कमरे की तरफ़ बढ़ा दिए।
बेचारे वकील साहब फटी नज़रों से, गंगा राम को देखते रहे। उसके जाने के बाद, बेचारे सोचते लगे “गंगिया ख़ुद तो यहाँ से निकलकर चला गया, और मुझको फंसा गया इस नामाकूल मंगता राम के साथ। अब यह मंगता, मुझ बदनसीब को कौनसा नज़ारा दिखलायेगा ? अनजाने ज़ाल में फंसे वकील साहब के मुंह से, बरबस ये लफ्ज़ निकल गए ‘अरे भगवान। आया था इस मंगते को छुड़ाने, मगर यह कमबख्त गंगिया मुझको फंसाकर चला गया। अब यह साला गंगिया, खुली हवा का आनंद ले रहा होगा ?’ इतना कहकर, लाचार वकील साहब ने अपना सर पीट लिया। उनकी यह हालत देखकर, पास बैठा दूसरा मुज़रिम ठहाके लगाकर हंसने लगा। ये जनाब, अभी-अभी अदालत में हाज़री देकर ही यहाँ आये हैं। बेचारे की क़िस्मत ही कुछ ऐसी ही थी, जिसको बार-बार रिमांड के नाम पर इसी थाने में लम्बे समय से रोका जा रहा था। धीरे-धीरे जनाब यहाँ के स्टाफ़ से घुल-मिल गए, तब से ये इस थाने को अपना घर ही समझने लगे। इसलिए ये जनाब तो इस थाने की हर गतिविधि पर नज़र गढ़ाए रखना अपना फ़र्ज़ समझने लगे हैं। इस कारण नए आने वाले मुज़रिमों को, वे बिना पूछे ही सलाह दे दिया करते। इस पाक काम को, वे दीनदार मोमीन का फ़र्ज़ समझकर करते आ रहे हैं। वकील साहब को इस तरह परेशान पाकर, वे बोल उठे “भाईजान। उनका रिहा होना, उनका ख़ुशअख़्तर होना नहीं, यहाँ तो बेचारे गंगा राम अब-तक बन गए होंगे..क़ुरबानी के बकरे। जिसे, थानेदार साहब जब चाहे हलाल कर सकते हैं। जनाब, आपको क्या मालुम ? वे उन्हें मुख्बिर तो क्या बनायेंगे, हुज़ूर ? असल में उनको क़ुरबानी का बकरा बनाकर, ख़तरनाक जगहों पर भेजेंगे अब।” अब बेचारे वकील साहब, क्या बोलते ? और ये जनाब, वापस दूसरी कोई सलाह देते या नहीं ? बस इसका इन्तिज़ार करते-करते, उसका मुख देखते रहे। अब काम से निपटकर कल्लू रामजी वापस आ गए..इन मुलज़िमों के पास। उनकी बातें सुनने के लिए, कहाँ वक़्त हवलदार कल्लू रामजी के पास ? बस, वे तो उन सबको पकड़कर, हवालात की कोठरी में बंद कर आये....जिन्हें वे रिमांड बढ़वाने बाबत, अदालत ले गए थे।
बेचारे वकील साहब की आ गयी, शामत। वे बेचारे, इस मंगता राम के साथ-साथ अन्दर धर लिए गए। क्योंकि, कल्लू रामजी भूल गए कि ‘ये बेंच पर आसीन इंसान मुज़रिम न होकर, एक ईमानदार वकील हैं। जो, मंगता राम को ज़मानत पर छुड़ाने हवालात में तशरीफ़ लाये थे।’ आख़िर होना वही था, थानेदार साहब ने फ़ज़लू मियां के साथ उस गंगा राम को बाहर तहक़ीकात करने भेज दिया। बेचारा गंगा राम, करता क्या ? बस थानेदार साहब की सौ नंबर की धमकी पाकर, मुख्बिर बनने के लिए रज़ामंद हो गया। बात यही थी...अगर वह फ़ज़लू मियां का बराबर साथ देता आया, तो उस पर किसी तरह का केस नहीं बनेगा। नहीं तो उसे इस बदमाश मंगता राम के साथ, दफ़ा २९१ के तहत बंदी बनना होगा।
अब मियां फ़ज़लू ने गंगा राम को सारा वाकया सुना डाला, जिसकी तहक़ीकात ए.सी.पी. साहब के हुक्म के तहत की जानी है। मआमला यह था कि, दो माह पहले बिहार से गंगा राम नाम का कमठा मज़दूर मज़दूरी करने जोधपुर आया था। जो अब लापता है, जिसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट इस थाने में दर्ज हुई है। इस केस को जल्द निपटाने के लिए, कमिशनर साहब के पास रेलवे मिनिस्टर लालू प्रसादजी यादव की सुफारिश आयी, और उन्होंने ए.सी.पी. साहब पर विशेष दबाव डालकर केस निपटाने की बात की है। आख़िर, उन्होंने थानेदार साहब पर विशेष दबाव डालकर केस को जल्द निपटने का कहा है। अब फ़ज़लू मियां ने, गंगा राम को गुमशुदा गंगा राम की फोटो दिखलाई। फोटो को देखते ही, गंगा राम चहकता हुआ कह बैठा कि, “जनाब, इस शक्ल-सूरत के आदमी को हमने बकरा-मंडी के मज़दूरों के साथ देखा था।” फिर क्या ? फ़ज़लू मियां के दिमाग़ के, कल-पूर्जे काम करने लगे। अब मियां फ़ज़लू सोचने लगे कि, ‘अब आगे क्या करना है ?’ सोचते-सोचते उनको, बकरा-मंडी में रहने वाले गज़धर नूर अली साहब याद आ गए। अब उनका ख़्याल था, शायद नूर अली साहब ने अपने कमठे में मज़दूर गंगा राम से काम करवाया हो ? चलो पहले नूर अली साहब से गुफ़्तगू कर ली जाय, ताकि इस मआमले में कुछ रोशनी लाई जा सके।
नूर अली साहब के मामूजान का इन्तिकाल हो गया था, वह भी गज़धर थे। उनकी ताज़ियत की बैठक से निपटकर, अब वे बकरा-मंडी में एक चाय की दुकान पर बैठे-बैठे चाय नोश फ़रमा रहे थे। तभी उनको फ़ज़लू मियां के दीदार हो गए, उन्होंने जनाब को आवाज़ देकर दुकान पर बुलाया। फिर उन दोनों को इज़्ज़त के साथ, दुकान पर रखे स्टूलों पर बिठाया। उनके बैठते ही नूर अली साहब ने, बेरे को इन दोनों के लिए चाय लाने का हुक्म दे डाला। फ़ज़लू मियां ने उनको आदाब अर्ज़ कहकर, वे उनसे कहने लगे “कहाँ गए थे, जनाब ? कुछ ग़मगीन लग रहे हैं मियां, आख़िर बात क्या है ?” जनाब नूर अली साहब को, ऐसे सवाल की उम्मीद कतई नहीं थी...क्योंकि अब-तक झेल रहे मुसीबतों के कारण, उनको अब मय्यत और ताज़ियत की बैठकों से नफ़रत होने लगी। जब से जनाब ने लालजी मिठाई वाले के, दीवानख़ाने की मरम्मत का काम उन्होंने करवाया था...तब से इनको, हर सवाल के ज़वाब में ‘ख़ुदा जाने’ कहने की आदत अलग से हो गयी। अब फ़ज़लू मियां के दागे गए सवाल के कारण, बेचारे नूर अली साहब के दिमाग़ में मय्यत और ताज़ियात की बैठकें घूमने लगी...और उनकी ज़ब्हा पर, पसीना छलकने लगा। आख़िर ख़ुदा के फ़ज़लों करम से, नूर अली साहब ने अपना मुंह खोलकर बस इतना ही कहा “ख़ुदा जाने।” फिर जनाब ने ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को, रुमाल से साफ़ करते हुए कहा “यार, याद न दिलाओ। इन मरने वालों का, क्या जाता है ? ख़ुद तो मर जाते हैं, और अपनी सारी मुसीबतें दूसरे भोले इंसानों को भुगतने के लिए दे जाते हैं...तौहफ़े में।” मगर, फ़ज़लू मियां चुप रहने वाले नहीं। झट सहानुभूति जतलाते हुए, मियां फ़ज़लू पूछ बैठे “ऐसा क्या हुआ, छोटे भाई ? कुछ तो बोलो।” सहानुभूति के दो लफ्ज़ क्या कह दिए, फ़ज़लू मियां ने ? जनाब नूर अली साहब हो गए, इमोशनल। और, मियां कहने लगे “भाईजान ग़ारत करे...ये रिश्ते-रब्त, क्या काम के ? मामूजान मर गए, डूबा गए इस ग़रीब इंसान को। नाइकों की मस्जिद के पास वाली गली के बासिन्दे का कमठा हाथ में लिया, और काम करने के पहले...ले लिया, हाथ में अडवांस। काम पूरा किया नहीं, और जनाब चल दिए ख़ुदा के घर।” पास बैठा गंगाराम, अब चुप बैठ न सका। फिर क्या ? झट, अपनी कतरनी जैसी ज़बान चला दी..कहने लगा “जन्नत से बुलावा आता है, तो इंसान को रुख़्सत होना पड़ता है। इसमें क्या नयी बात है, बड़े मियां ?” चुभती बात को सुनते ही, नूर अली साहब हो गए बेनियाम। तेज़ी खाकर, कह बैठे “मियां दिल से नहीं, दिमाग़ से सोचा करो। मुअज़्ज़म मामूजान के अधूरे कमठे को, अब इस ग़रीब को मुफ़्त में पूरा करना है। यह मुसीबत तो आज़ आयी है, मगर हम दो माह पहले एक और मुसीबत का सामना पहले कर चुके हैं। अब तो इस कुतिया के ताऊ, लालजी मिठाई वाले के सर पर मारुं जूते चार। कमबख़्त ने फंसा दिया मुझे, ग़ैर इस्लामी...” आगे न जाने क्या सोचकर, नूर अली साहब चुप हो गए। मगर, यहाँ तो सामने मौज़ूद है, फ़ज़लू मियां..जो दायन की तरह, पेट में छिपे रहस्य को जानने में माहिर। वे तो ००७ – जेम्स बांड के माफ़िक सौ तालों को तोड़कर, रहस्य पर ढके परदे को उठा लेते हैं। इनसे, कोई गूढ़ बात छिपी नहीं रह सकती। बस, फिर क्या ? उन्होंने दो-चार जासूसी तरीक़े, क्या इस्तेमाल किये ? सारी हक़ीक़त, सामने आ गयी। पूरी जानकारी लेकर, उन्हें मालुम हुआ कि, “इस केस की सारी कड़ियां, गुमशुदा गंगा राम के केस से जुड़ी हुई है।” फिर क्या ? तहक़ीकात का काम पूरा होने पर, दोनों लौटकर थानेदार साहब के पास आ गए। अब फ़ज़लू मियां चहकने लगे कि, उन्होंने काफ़ी केस हल कर डाला है। फिर उन्होंने नूर अली साहब से जो हक़ीक़ी बयान मालुम हुए, उन्हें इस तरह से बयान करने लगे “जनाब। क़रीब दो माह पहले, नूर अली साहब लालजी भाई मिठाई वाले के दीवानख़ाने की मरम्मत करवा रहे थे, उस दौरान उनके पास दूसरे मज़दूरों व कारीगरों के साथ यह बिहारी मज़दूर गंगा राम भी काम कर रहा था। मकान काफ़ी पुराना था, इसलिए पुरानी दरार खाई छित्तर पत्थर की शिलाएं हटाने का काम चल रहा था। अचानक एक चवालिया कम पड़ गया, और इधर इस गंगा राम के पास कोई काम नज़र नहीं आ रहा था। लालजी ने कह दिया कि, “इस ख़ाली बैठे मज़दूर से, काम क्यों नहीं ले लेते ?” लालजी की सलाह को मानकर, नूर अली साहब ने, इस गंगा राम को चवालियों की मदद में लगा दिया। इस बेचारे गंगा राम को चावालिये का तुजुर्बा होना, तो ओखली में सर देकर हिफ़ाज़त से बाहर निकाल देने के बराबर था। सच्च तो यही था कि, गंगा राम पूरा अनजान था..कि, “किस तरह पत्थर की शिला को थामा जाता है ?” इस काम का, गंगा राम को कोई तुजुर्बा कभी रहा नहीं। आख़िर वही हुआ, जो होना था। उस शिला को वह अपने हाथ में थाम न सका, और वह शिला उसके हाथ से छूट गयी। ख़ुदा की पनाह, वह शिला उसके हाथ से छूटकर क्या गिरी ? वह तो हाथ से फिसलती-फिसलती, उसके सीने पर आ गिरी। दिल पर लगे आघात को वह बर्दाश्त न कर सका, उसी वक़्त उसकी रूह निकलकर, अल्लाह से जा मिली। अब उसकी लाश देखकर, लालजी भाई के हाथ-पाँव मलेरिया बुखार के मरीज़ की तरह थर-थर कांपने लगे। बेचारे ऐसे घबरा गए, कहीं उनका हार्ट फेल न हो जाय ? बेचारे नूर अली साहब ने पास आकर उन्हें संभाला, उनको दिलासा देते हुए कह दिया कि “सेठ साहब, हम कुछ करेंगे.. आप घबराये नहीं। आप जानते हैं ? इस गंगा राम का कोई रिश्तेदार इस राज्य में नहीं है, इस कारण इसकी मौत की ख़बर को दबाई जा सकती है। बस, आप रुपये-पैसों की थैली खुली रखना। क्योंकि, इन कारीगरों और मज़दूरों का मुंह रुपये-पैसों से भरना ज़रूरी है। ना तो ये कम्बख़्त अपना मुंह खोल देंगे, फिर तो बात को संभालना मुश्किल हो जाएगा। इनको रुपये-पैसे दे दिए जाय, तो फिर यह बात दब जायेगी। बाद में कोई बाहर जाकर, कोई कहेगा नहीं।” इतना सुनकर, लालजी भाई की सांस में सांस आयी। फिर वे ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को रुमाल से साफ़ करते हुए, नूर अली साहब से कहने लगे कि, “गज़धर साहब। आप पैसों की फ़िक्र मत करना, मगर अब इस लाश का क्या किया जाय ? लाश को घर में दफ़नाने से रहे, क्योंकि यह घर है क़ब्रिस्तान तो है नहीं।”
इतना कहकर फ़ज़लू मियां लम्बी-लम्बी सांस लेने लगे। फिर दुरस्त होने पर, वे आगे कहने लगे “यह तो अच्छा हुआ, नूर अली साहब अपनी टीम में अपने नज़दीकी रिश्तेदारों को ही रखा करते हैं। यहाँ तक कि कमठे से जुड़ने वाले दूसरे कारीगर जैसे सुथार, लोहे की जालियां बनाने वाले, सिनेटरी-पानी वगैरा के फिटर, बिजली फिटिंग के इलेक्ट्रिसियन आदि सभी नज़दीकी रिश्तेदारों को ही रखा जाता है। यही कारण है, ये लोग वक़्त पर काम करके कमठे को जल्द निपटा दिया करते। इधर मज़दूरी व लागत भी सही लगाने से सेठ भी नूर अली साहब से खुश रहता, और अगली बार काम पड़ने पर सेठ कमठे का काम नूर अली साहब को ही देता। दूसरी बात एक और यह भी है कि, आपसी रिश्तेदारी होने से कई राज़ की बातें, सात पर्दों के भीतर ही रहती है। इस तरह गंगा राम की मौत के बाद, अच्छी प्लानिंग के साथ उसे दफ़नाने का काम उन्होंने अपने हाथ में ले लिया। अब उन्होंने लाश को दफ़नाने के पहले, रस्मी काम निपटाकर उन लोगों ने उस लाश को लोहे के छोटे पलंग पर लिटा दिया। यह पलंग लालजी ने अपने बच्चे के लिए ख़रीदा था। जो अब, गंगा राम के ज़नाज़े के लिए काम आने लगा। अब मय्यत का काम निपटाने के लिए, लाश को कफ़न से ढक दिया गया। फिर उनके चार साथियों ने जनाजे को उठाकर, क़ब्रिस्तान की ओर क़दमबोसी करने लगे। नूर अली साहब और उनके साथी रिश्तेदार, जनाजे के साथ-साथ चुपचाप साथ चलने लगे। इस जनाजे में नूर अली साहब और साथी रिश्तेदारों का होना, लालजी भाई की क़िस्मत के लिए अच्छा था। बिना शक-सुब्हा गंगा राम का जनाजा आगे बढ़ता गया। रास्ते में कोई मोमीन मिलता, इन लोगों को देखकर वह भी जनाजे में शराकत कर बैठता। जनाजे को कन्धा देना, हर मोमीन अपना फ़र्ज़ समझता आया है। इस तरह कंधे बदलते रहे, और जनाजा क़ब्रिस्तान की ओर ख़ामोशी से बढ़ता जा रहा था। अगर कोई नया मोमीन जनाजे में शराकत कर बैठता, और वह किसी से सवाल भी कर लेता कि “जनाब, किनका इन्तिकाल हुआ है ?" तब सबको एक ही ज़वाब मिलता कि, ‘ख़ुदा जाने।’ फिर क्या ? बिना सवाल-ज़वाब किये, वह भी मज़हबी फ़र्ज़ निभाता हुआ जनाजे को कंधा देता हुआ..उन लोगों के साथ-साथ, चलने लगता।
ख़ुदा की क़रामत कहिये, या क़िस्मत कहिये लालजी सेठ की। चलते-चलते, बकरा-मंडी आ गयी। वहां चाय की दुकान पर बैठे मुअज़्ज़म निजामुद्दीन साहब और उनके रिश्तेदारों ने, जनाजे में चलते नूर अली साहब को देख लिया। ये जनाब, नूर अली साहब के पड़ोसी ठहरे। इनके नेक दख़्तर साबिर मियां, दुबई में नौकरी करते थे। बदक़िस्मती ठहरी, दस दिन पहले साबिर मियां दुबई के तस्करों के ज़ाल में फंसकर अगवा हो गए..तब से, उनकी कोई ख़बर नहीं। इस कारण, निजामुद्दीन साहब अक्सर ग़मगीन रहते थे। ख़ुदा जाने, उनके चेहरे पर छाई मुस्कान न जाने कहाँ गायब हो गयी ? अब नूर अली साहब को देखकर जनाब से रहा नहीं गया, और पड़ोसी होने का फ़र्ज़ निभाते हुए जनाजे में शामिल हो गए। फिर क्या ? नूर अली साहब और उनके साथी, एक-एक करते वहां से बाहर निकल गए। अब तो निजामुद्दीन साहब और उनके रिश्तेदार, दूसरे मोमिनों के साथ जनाजे में साथ चलते रहे। राह में इन लोगों को देखकर, उनके सगे-सम्बन्धी भी शराकत करने लगे। क्योंकि, इन सबको एक साथ देखकर मोमिनों में यह ख़बर फ़ैल गयी ‘इनके नेक दख़्तर साबिर मियां तस्करों के हाथों मारे गए, और यह जनाजा उनका ही है।’
चलते-चलते, आख़िर क़ब्रिस्तान आ गया। खोदी गयी कब्र के पास, जनाजा रखा गया। फिर मुर्दे के चेहरे से कफ़न हटाकर, निजामुद्दीन साहब लाश का चेहरा देखने लगे। उस लाश को देखते ही वे चौंक गए, मृत गंगा राम की उम्र और साबिर मियां की उम्र क़रीब-क़रीब बराबर थी..यहाँ तक कि, शक्ल-सूरत भी एक दूसरे की मिलती-जुलती थी। देखते ही, निजामुद्दीन साहब की आँखों से अश्क छलकने लगे, जो रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। उधर जैसे ही निजामुद्दीन साहब के रिश्तेदारों ने, उसकी शक्ल देखी और वे दहाड़े मारकर रोने लगे। तभी फातिहा पढ़ाने वाले मौलवी साहब वहां आ गए, और कहने लगे “काफ़ी वक़्त बीत गया है, अब मिट्टी को ख़राब मत करो। जल्दी दफ़नाने की रस्म चालू करो।” उनका हुक्म मानकर निजामुद्दीन साहब और उनके क़रीबी रिश्तेदार क़ब्र के नज़दीक आये। और क़ब्र के एक ओर इबारत रखी...फिर क़ब्र के अन्दर, गुलाब जल का छिड़काव किया। इसके बाद गंगा राम के मृत शरीर को उठाकर, क़ब्र में लिटाने लगे। क़ब्र में लाश को रखते वक़्त उसका मुंह पश्चिम दिशा की ओर रखा गया, ऐसा माना जाता है कि ‘इस दिशा में मुंह रखने से, उस रूह को जन्नत नसीब होता है।’ लाश को उठाकर लाने वाले वे ही मोमीन थे, जो पूरे रास्ते आयतों का जाप करते हुए चल रहे थे। आगे बढ़कर उन्होंने अपनी हथेली में मिट्टी उठायी, और फातिहा पढ़कर क़ब्र में मिटटी डालने लगे। फिर क्या ? निजामुद्दीन साहब और उनके रिश्तेदार क़ब्र में मिट्टी डाल-डालकर, लाश को दफ़नाने की रस्म पूरी कर डाली। दफ़न का काम पूरा हो जाने के बाद, सभी मोमीन ख़ामोशी के साथ चालीस क़दम चलकर मौलवी साहब के पास आकर खड़े हो गए। फिर मौलवी साहब ने फातिहा पढ़ा, और बाद में सभी अपने-अपने घर जाने के लिए रुख़्सत हो गए।
इस तरह तहक़ीकात का काम पूरा हो गया, इस कारण फ़ज़लू मियां खुशी से झूम रहे थे। उन्हें तो ऐसा लगा रहा था कि, उनके पाँव ज़मीन पर नहीं हैं...वे आसमान की सैर कर रहे हैं। फिर क्या ? जनाब ने गंगा राम को साथ लिए, चल दिए थाने की तरफ़। थाने में पहुंचकर, उन्होंने तहक़ीकात का पूरा ब्यौरा थानेदार साहब को दे दिया। फिर जनाब, कह उठे “जनाब, सारा मआमला सलट चुका है, अब आप आराम से कमिशनर साहब को फाइनल रिपोर्ट भेज दें।” मगर थानेदार साहब हंसते हुए कह बैठे कि, “मियां, इतनी काहे की उतावली ? अभी तो तहक़ीकात पूरी हुई है, यानी घड़े कच्चे पड़े हैं। अब इन कच्चे घड़ों को, आग में रखकर पकाना है। पकाने पर, ठोस सबूत बनेंगे। अब जाओ, और बुला लाओ...उस क़ब्रिस्तान के मौलवी और नूर अली को। कम्बख़्त, ग़ैर मज़हबी और ग़ैर क़ानूनी काम करते हैं ?” हुक्म पाकर, बेचारे फ़ज़लू मियां चल दिए हुक्म बजाने।
फ़ज़लू मियां के रुख़्सत होते ही, थानेदार साहब ठहाके लगाकर ज़ोर से हंसने लगे..फिर, बरबस उनके मुंह से यह जुमला निकल गया “अब ऊंट आया, पहाड़ के नीचे। छह महीने पहले इस कम्बख़्त मौलवी ने मेरी नाक में दम कर डाला, कह रहा था कम्बख़्त कि मुझे लाश पहचानना नहीं आता..मुझे कुछ मालूम नहीं पड़ता कि लाश किसकी है ? हिन्दू की है, या मुसलमान की ?”
वाकया हुआ, यों। कबीर नगर के बासिन्दे जनाब मुमताज़ अली अपनी जवानी के वक़्त किसी मोहतरमा को अपना दिल दे बैठे। दोनों की तरफ़ इश्क के परवान चढ़ते गए, मगर उस मोहतरमा का मामू उनके इश्क के बीच में आ गया..दाल-भात में मूसल चंद की तरह। कम्बख़्त मामू किसी अमीरज़ादा का रिश्ता ले आया, और उधर बेचारी ख़ानदान की इज़्ज़त बनाए रखने के लिए अपने इश्क के बारे में किसी से कुछ कह न सकी। मज़बूरन उसे अपने इश्क की क़ुरबानी देनी पड़ी। बुढ़ापे में आकर उस मोहतरमा का शौहर अल्लाह का प्यारा हो गया, तब उसे पुराने इश्क की यादें व प्यार में पागल मजनू मियां मुमताज़ अली याद आये। जब उसे मालूम हुआ कि, मियां मजनू अभी-तक कुंवारे रहकर अपने इश्क की यादों के सहारे ज़िंदगी बसर कर रहे हैं। फिर क्या ? अब पुराना इश्क परवान चढ़ने लगा, और आख़िर बुढ़ापे में इन दोनों का निकाह हो गया। मगर, बदक़िस्मती के मारे इनका यह सुख ज़्यादा दिन टिक न सका। एक साल बाद ही, वह मोहतरमा अल्लाह की प्यारी हो गयी। फिर क्या ? मुमताज़ मियां यह बिछोव बर्दाश्त न कर पाए, और उस मोहतरमा की याद में दिमाग़ का संतुलन खो बैठे। वे पागलों की तरह, शहर की गलियों में घूमने लगे। आख़िर मौत ने दस्तक दी, एक दिन उनकी लाश मंदिर की सीढ़ियों पर पायी गई। मुमताज़ मियां ठहरे कबीर नगर के, उनको यहाँ भीतरी शहर में जानने वाला था कौन ? जनाब को किसी ने नहीं पहचाना कि, जनाब कौन है ? कहाँ रहते हैं ? किसी को यह भी मालुम नहीं कि, यह मरने वाला इंसान हिन्दू है या मुसलमान ? अंत में उनको हिन्दू भिखारी समझ लिया गया। फिर क्या ? तहक़ीक़ात करने थानेदार साहब आये, उन्होंने लाश को मंदिर की सीढ़ियों पर पाकर उन्होंने आख़िर तज़वीज़ ले लिया कि “मरने वाला शख़्स सौ फीसदी हिदू है, अगर मुसलमान होता तो यह आदमी मंदिर क्यों आता ?” फिर क्या ? थानेदार साहब ने लाश का पोस्ट मार्टम करवाकर, उस लाश को हिन्दू सेवा मंडल को सुपर्द करके उसका दाह संस्कार करवा डाला।
कुछ साल बाद मुमताज़ अली के क़ानूनी वारिस का मुद्दा उठा, ख़ोज-बीन के बाद असलियत सामने आयी..बस, तभी से मौलवी साहब ने थानेदार साहब को परेशान करना चालू कर दिया। बेचारे थानेदार साहब खून का घूंट पीकर रह गए, आख़िर यह मआमला महज़बी ठहरा। जिसे कभी भी, उन्मादी शक्ल दी जा सकती थी। इस तरह उस वक़्त, उन्होंने अपने गुस्से को काबू में रखा। मगर अब गंगा राम के मआमले की तहक़ीक़ात होने के बाद, थानेदार साहब के सितारे चमकने लगे। फिर क्या ? आख़िर, थानेदार साहब कमर कस ली, और सोचने लगे कि, किस तरह इस कमबख़्त मौलवी से बदला लिया जाय ?
आख़िर, फ़ज़लू मियां मौलवी साहब और नूर अली साहब को बुला लाये। फिर क्या ? थानेदार साहब ने, एक-दो बन्दर घुड़की क्या पिलाई उनको ? दोनों मुअज़्ज्ज़म का खाया-पीया बाहर निकल गया, और पोपट की तरह वे दोनों बताने लगे कि, “गंगा राम के साथ, क्या हुआ ? और किस तरह उसे, मुस्लिम रस्म से क़ब्रिस्तान में दफ़ना दिया ?” उन्होंने इक़बाले एतबार देकर क़बूल कर लिया कि, “एक हिन्दू को मुस्लिम बनाकर, उसे क़ब्रिस्तान में दफ़नाने के वे पूरे जिम्मेवार हैं।” मआमला संगीन ठहरा, जो कभी भी “हिन्दू-मुस्लिम दंगे” का रूप ले सकता है। इस कारण अब, मौलवी साहब काफ़ी हद तक डर गए। अब तो जनाब थानेदार साहब के आगे हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगे कि, “माई-बाप किसी तरह हमें बचाओ, हमारी टोपी को सलामत रहने दो।”
बस, फिर क्या ? थानेदार साहब ने जंग जीत ली, मुमताज़ अली और गंगा राम के अंतिम संस्कार के मामले सलटा दिये गए। साबिर मियां को गंगा राम बनाकर, फाइनल रिपोर्ट तैयार कर ली गयी। उस रिपोर्ट में लिख दिया गया कि, ‘गंगा राम को दुबई में, किसी फेक्टरी में काम करते देखा गया। जो बाद में, तस्करों के ज़ाल में फंस गया। अभी भी वह, इन तस्करों की कैद में है। अत: केन्द्रीय सरकार से अर्ज़ किया जाता है कि, वे तुरंत दुबई सरकार से संपर्क करें और गंगा राम को छुड़ाने की कोशिश करें।’
मंगता राम पर यह आरोप था कि, उसने अपने पड़ोसी को अपशब्द कहकर उसका अपमान किया था। वैसे तो यह केस इतना संगीन नहीं था, जिसका सलटारा रज़ाबंदी से न किया जा सके ? आख़िर इस केस को निपटाना ही बेहतर है, यह सोचकर थानेदार साहब ने उसके पड़ोसी को थाने में बुलाया। फिर दोनों को समझाकर, उनका आपसी मनमुटाव ख़त्म करवा डाला। आख़िर, मंगता राम को हिदायत देकर छोड़ दिया गया। मंगता राम के पड़ोसी गंगा राम की क़ाबिलियत देखकर, थानेदार साहब ने उसे इस हिदायत के साथ छोड़ दिया..कि, उसे रोज़ हाज़री देने थाने में आना पड़ेगा। हाज़िर न होने पर, उसे अमन ख़त्म करने का आरोप लगाकर उस पर क़ानूनी कारवाही चालू कर दी जायेगी।
मंगता राम और गंगा राम के रुख़्सत होने के बाद, बेचारे वकील साहब को छोड़ा नहीं गया। अब हवलदार कल्लू रामजी जब भी बराक में जाते, तब ये वकील साहब उनके पैर पकड़कर बैठ जाते। बार-बार कातर सुर में कहते “पंडितजी मेहरबानी..मेहरबानी। इस कैद से, मुक्ति दिलाओ।” तब कल्लू रामजी एक ही ज़वाब देते “मास्टर साहब, ज़रा पहले चालीस तक के पाहड़े सुना दीजिये। फिर देखेंगे, क्या करना है आपका ?” कभी वे थानेदार साहब से गुज़ारिश करते कि, ‘साहब, आपकी मेहरबानी होगी..अब तो छोड़ दीजिये, मालिक।’ कल्लू रामजी की तरह थानेदार साहब उनको उत्तर पुस्तिका देकर सटीक ज़वाब दे देते, कि ‘मास्टर साहब, ज़रा इस उत्तर पुस्तिका में एक हज़ार बार लिख दीजिएगा कि, भविष्य में, आप जब कभी किसी मुज़रिम की ज़मानत के मामले में पुलिस थाने में आयेंगे, तब वे वकालत का काला कोट पहनकर ही आयेंगे..इसमें कभी भी भूल-चूक नहीं होगी।
एक हज़ार दफ़े लिखते हुए वकील साहब के दिमाग़ में दो मासूम बच्चों की सूरत छाने लगी, जिनकी सूरत थानेदार साहब और कल्लू रामजी से काफ़ी मिलती थी। उस अतीत में, वे आये दिन उन बच्चों की बेरहमी से पिटाई कर देते। जिनकी एक ही ग़लती होती थी, वे पहाड़े याद नहीं करते और वे दोनों बच्चे स्लेट पर सुदर हर्फ़ से लिख नहीं पाते। यानी, वे अपनी तहरीर में कोई सुधार नहीं लाते। तब वे उन दोनों से स्लेट पर कई बार लिखवाते कि, “भविष्य में, कभी ऐसी ग़लती नहीं करूंगा।” अब बार-बार उत्तर पुस्तिका में लिखते वक़्त, उन्हें अपनी ग़लती का अहसास होने लगा।
गलियारे में थानेदार साहब व कल्लू रामजी के ठहाके गूंज़ने लगे, थानेदार साहब कल्लू रामजी से कह रहे थे “यार कल्लू राम, कैसी रही ? बचपन में मास्टर साहब हमसे बार-बार स्लेट पर लिखवाये करते थे कि, ‘आगे से ऐसी ग़लती नहीं करूंगा।’ इस प्रकार, हमने मास्टर साहब से ही सिखकर आज़ इनको ग़लती का अहसास करवाया है।” हंसते हुए कल्लू रामजी बोल पड़े कि, “हुज़ूर, आख़िर आज़ पहाड़ के नीचे ऊंट आ गया। अब इनको यह भी मालुम हो गया है, ‘गंगा राम कौन है ? यह कम्बख़्त गंगा राम भी ऐसा धीट है, जो कभी इनके हाथ में रहा और आज वह हमारे हाथ में... ’
तभी थाने के बाहर से गुज़रते लोढो की गली के निवासी शाइर जस राज जोशी ‘लतीफ़ नागौरी’ के गुनगुनाने की आवाज़, थानेदार साहब और कल्लू रामजी को सुनायी दी। वे नज़्म गुनगुना रहे थे ‘यूं ख़ता पे ख़ता करके ख़ुद को बेगुनाह किया, यूं झूठी ताज़ीम में फंस के ख़ुद को तार-तार किया। अपना जुल्म दूसरों पे मंढ के ख़ुद को आज़ाद किया, बेमानी चालबाजी से क़ानून से खिलवाड़ किया। ज़माना था कौड़ी में भी थी औकात यारों, अब बदलती हवा है ऐसी गुनाहगार को बेगुनाहगार किया। किसकी नालिश किससे करूँ, अब मैं यारों। किससे प्यार करना था, अब किसको याद किया। घर-घर से आ रहे हैं लोग, आबो-रसद के वास्ते। ज़माने ने देखो, इनको बार-बार बेकार किया। ए लतीफ़ इन हैवानों बेइमानों के वास्ते, अब दुआ कर लें। चूंकि, अब क़ानून के रखवालों ने इसे तार-तार किया।’
ख़ुदा जाने यह नज़्म सुनते ही, दोनों को पछतावा होने लगा। उनकी रूह उनको धिक्कारने लगी “जिस उस्ताद ने इनको इल्म सिखाया, उस इल्म के बलबूते आज वे अपने बाल-बच्चों का पेट भर रहे हैं। अब उसी उस्ताद को वे, बेइज़्ज़त करके उन्हें गुनाहगार बना रहे हैं ?” बस, फिर क्या ? पछतावे की आग में उनके दिल में, हाहाकार मचा डाला। फिर क्या ? बरबस, इन दोनों के क़दम बेरक की तरफ़ बढ़ गए..जहां उनके उस्ताद बंद थे। अब इनका एक ही मक़सद रहा, ‘किसी तरह अपने उस्ताद के पाँव पकड़कर मुआफ़ी मांग लें..और, इज़्ज़त के साथ उनको रिहा कर दें।
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