नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १६, राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित मंज़र १, ‘कोई भी अफ़सर अपने पॉवर का डेलिगेशन, अपने मफ़ाद में नहीं मानता !’ [...
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १६, राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
मंज़र १,
‘कोई भी अफ़सर अपने पॉवर का डेलिगेशन, अपने मफ़ाद में नहीं मानता !’
[मंच रोशन होता है ! बरामदे में लगे नल के नीचे चाय के बरतन रखकर, अब शमशाद बेग़म नल खोलकर बरतन धोने वहीँ बैठ जाती है ! बरतन धोती हुई, वह ग़म में बड़बड़ाती है !]
शमशाद बेग़म – [ग़म में बड़बड़ाती है] – “जोइंद: को ज़रूरत है, कब मिले जोइदनी ? पहुंच जाता है स्कूल में वह नादान जोयां ! जहां जोलिद:बयां ज़रूर है, मगर सच्ची ख़ल्वत पसंदी नहीं !’ अब इस आलिमा बेनज़ीर को, कैसे कहें ? असल में तुम हो, ज़ोरशिकनी अलूदएइसयां !
[अब यह मंज़र धुन्धलासा नज़र आता है, बहुत दूर से धुंधली-धुंधली शमशाद बेग़म की तसवीर दिखाई देती है ! फिर इस बोले गए जुमले का सरल लफ़्ज़ों में अर्थ बताती हुई, वापस उसकी आवाज़ गूंज़ती है “खोज़ी को ज़रूरत रहती है कि, कब उसे ढूँढ़ने योग्य या खोज़ने तोग्य कोई सामग्री मिले ! ऐसा नादान खोज़ी पहुंच जाता है स्कूल में ! जहां अनर्गल भाषी मोहतरमा ऊँचे पद पर आसीन है, जिसे बेतुकी बातें करने वाली कहें तो कोई ग़लत नहीं ! यह एक ऐसी मोहतरमा है, जो ख़ुद अकेले रहती है मगर वह अकेलेपन का आनंद लेने वाली नहीं ! ऐसी मोहतरमा ही, स्कूल की बड़ी बी कहलाती है ! इस आलिमा को विदुषी नहीं कहा जा सकता, बल्कि वह मोहतरमा असल में अपने दिल में पाप रखती हुई लोगों का दमन करने की प्रकृति रखती है !” अब शमशाद बेग़म की तस्वीर, साफ़-साफ़ दिखाई देती है ! दीवार पर टंगी घड़ी, जुहर के साढ़े बारह बजने का वक़्त दिखला रही है ! मगर यह मोहतरमा अभी-तक बैठी-बैठी, बरतन धोती जा रही है ! अब घर जाने की इल्तज़ा रखती हुई, कुछ लड़कियां क्लास से बस्ता लिए बाहर आती है ! तभी इसके मुंहलगी एक लड़की, अब शमशाद बेग़म के नज़दीक आती है...और, उससे कहती है !]
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लड़की – [नज़दीक आकर] – तक़लीफ़ होगी, ख़ाला ! वक़्त हो गया छुट्टी का, मगर अभी-तक घंटी लगी नहीं ! क्या, हम आपकी इज़ाज़त से घर जा सकती हैं ?
शमशाद बेग़म – [रिदा से सर ढकती हुई, कहती है] – मुझे क्यों पूछती हो, दुख़्तर ? हम तो इस स्कूल के चपरासी हैं, मेरी बला से तुम कहीं जाओ..मुझे क्या ? [होंठों में ही कहती है] चाय के सारे बरतन धुल जाएँ, तब ही लगाऊंगी घंटी ! न बाबा ना, अभी बड़ी बी नाम की जोलिद:बयां का ज़ान लेवा शोर मच जाएगा ! [आवाज़ बदलकर] हाय..अल्लाह ! इस स्कूल का बंटाधार हो गया है, जनाना पियोन के होते हुए कोई मर्द पियोन वक़्त पर स्कूल आता नहीं ?
[तभी कमरे में बैठी, बड़ी बी घंटी बजाती है ! इस घंटी की आवाज़ सुनते ही, शमशाद बेग़म बौखला जाती है ! पास खड़ी लड़की की तरफ़ देखती हुई, बड़ी बी की आवाज़ की नक़ल उतारती हुई वह कहती है !]
शमशाद बेग़म – [बेनज़ीर की आवाज़ की नक़ल करती हुई] – हाय अल्लाह इतनी देर से हम घंटी बजा रहे हैं , मगर ये मर्द चपरासी इतने सारे बैठे हैं निक्कमों की तरह...क्या करें ? कोई कम्बख़्त उठता ही नहीं, घंटी सुनने ! अरी...ओ.. साबू भाई की नेक दुख़्तर ! यह घंटी ले जाकर, ख़ाला को दे आ !
दुख़्तर – क्या कहती जा रही हो, ख़ाला ? समझ में कुछ नहीं आ रहा है, आप क्या कहना चाह रही हैं ? अब आप ही बताएं कि, मैं क्या करूँ ?
शमशाद बेग़म – [अपनी आवाज़ में] – कुछ नहीं, तुम अपना काम करो ! वह समझ लेगी...बड़ी आलिमा ! कब से गला फाड़ रही है ?
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[सारे बरतन धुलने के बाद, वह झाड़ू लेने जाती है ! घंटी न लगने से, स्कूल की कई दुख़्तर बस्ता लिए बाहर निकल पड़ती है ! इधर शमशाद बेग़म झाड़ू लाने के लिए, अपने क़दम आक़िल मियां के कमरे की तरफ़ बढ़ाती है...मगर तभी सामने से दोनों हाथ फैलाए बड़ी बी बेनज़ीर, शमशाद बेग़म का रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है ! अब तो मानों, शमशाद बेग़म पर आसस्मां तशक्कुक़ हो जाता है ! मुश्किल हो गयी, शमशाद बेग़म के लिए...अब कैसे पकड़ें तवस्सुत ? अब तो उसके लिए, झाड़ू उठाना भी आसान नहीं रहा है !]
बेनज़ीर – [दोनों हाथ फैलाकर, शमशाद बेग़म से कहती है] – मैं ठहरी तल्ख़गो ! तल्ख़ाब लफ़्ज़ कहने की, मेरी आदत ठहरी..जाओ..! क्या देखती हो ? उठाओ, घंटी का डंडा ! अब मेरा मुंह क्या देखती हो ? जाओ...लगाओ घंटी ! लड़कियां यहाँ से क़दमबोसी करती हुई, मेन गेट को पार करके अपने घर चली गयी है ! और यह ख़ालाजान डूबी हुई है, अपने ख़्यालों में...
[आख़िर, बेचारी शमशाद बेग़म करें क्या ? बेदिली से घंटी का डंडा उठाती है, और जाकर घंटी लगा देती है ! उसके दिल में ख़्याल उठता है “हाय अल्लाह, अब इन बच्चियों के वालेदान इस घंटी की आवाज़ सुनकर क्या सोचते होंगे इस स्कूल के बारे में ? यही कहते होंगे कि, वाह, इस मज़दूर बस्ती की स्कूल है भी है बड़ी निराली..जहां बच्चियों के घर पहुंच जाने के बाद, छुट्टी की घंटी लगाई जाती है ?” ग़म को ज़्यादा देर तक, दिल में रखा नहीं जा सकता ! किसी को अपना दर्द बयान कर देने से, दिल हल्का हो जाता है ! फिर क्या ? उसके दिल में ख़्याल आता है कि, ‘वह दाऊद मियां के पास जाकर, उन्हें पूरी दास्तान सुनाती हुई वह अपना दिल हल्का कर सकती है !’ अब उनके पास जाने के लिए, बरामदे में बैठने की कोई ज़रूरत अब रही नहीं ! जिसका कारण यह रहा ‘अब दाऊद मियां बरामदे में बैठे दिखाई देंगे नहीं, क्योंकि इस नयी आने वाली बड़ी बी बेनज़ीर ने क्लासों की बैठक व्यवस्था में ऐसा बदलाव लाया है....जिससे दफ़्तर-ए-निज़ाम दाऊद मियां के बैठने के लिए, एक अलग कमरे की व्यवस्था हो गयी है !’ इस तरह उसने, दाऊद की शिकायत हमेशा के लिए दूर कर डाली ! इस कारण अब शमशाद बेग़म के क़दम अपने-आप, उनके कमरे की तरफ़ स्वत: बढ़ जाते हैं ! यहाँ इस कमरे में, दफ़्तर-ए-निज़ाम के पास वक़्त की क्या कमी ? कहा जाय तो उनके पास, चार्ज है भी क्या ? केवल सुपरविज़न, और क्या ? कोई कलम घिसाई नहीं, फिर क्या ? वे बैठे-बैठे, अपना वक़्त इन चपरासियों से गुफ़्तगू करने में जाया कर दिया करते हैं ! आख़िर, गुफ़्तगू का मुद्दा रहता भी क्या ? स्टाफ़ के मुलाज़िमों के दुःख-दर्द के वाकये सुनना, और उनको तसल्ली देते हुए उनको सलाह भी दे देना ! और साथ में मौक़ा मिले तो, बड़ी बी बेनज़ीर और आक़िल मियां के खिलाफ़ ज़रूर उनको भड़का देना ! अक्सर उनके दिल में आक़िल मियां से रहती है, नाराज़गी ! वे क्यों नहीं उनके पास बैठकर, गुफ़्तगू में शराकत होते हैं ? आक़िल मियां काम अधिक होने के कारण, वे इनके पास गुफ़्तगू करने कम बैठा करते..अगर थोड़ा-बहुत वक़्त मिल जाता तो, वे बगीचे के काम ख़ाली बैठे चपरासियों से करवा देते हैं ! जिससे बेचारे चपरासी, दाऊद मियां की हां में हां मिलाने के लिए गुफ़्तगू में शराकत कर नहीं पाते ! यही वज़ह बन जाती है दाऊद मियां के लिए, आक़िल मियां के खिलाफ़ इन चपरासियों को भड़काने की ! कई कामचोर चपरासी इनकी बातों में आ जाया करते, और वे बगीचे को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश में लगे रहते...उनका यही ख़्याल रहता है कि, ‘न बगीचा रहेगा, और न उनको मेहनती काम करने होंगे !’ कहते हैं, निक्कमा बनिया क्या करें ? बस, इधर का तोला उधर और उधर का तोला इधर रखना..और, क्या ? इस तरह बैठे-बैठे दाऊद मियां “दबिस्तान-ए-सियासत” का शतरंजी दाव खेल बैठते हैं ! अपनी पूछ बनाये रखने के लिए, दाऊद मियां को यह सब-कुछ करना पड़ता है ! इसी तरह यही वज़ह है, अक्सर दाऊद मियां के पास इन चपरासियों का जमाब बना रहता है, और वे इनके हर हुक्म को माना करते ! इस कारण अब रुआंसी शमशाद बेग़म भी अपने दिल-ए-दर्द को हल्का करने के लिए, उनके कमरे में दाख़िल हो जाती है ! उसे देखते ही दाऊद मियां, झट नाक भौं की कमानी को चढ़ाकर कह बैठते हैं !]
दाऊद मियां – [ऐनक चढ़ाकर, कहते हैं] – बेतकल्लुफ़ होकर बयान करें, ख़ाला ! किस मुख़त्विफ़ से मुख़ातबात होकर, आप ग़मगीन हो गयी हैं ? कोई पोशीदा बात हो तो, डरने की कोई ज़रूरत नहीं ! यहाँ और ग़ैर सुनने वाला नहीं बैठा है ! मेरा मफ़हूम है कि, वह जोलिद:बयां यहाँ नहीं है !
[टेबल के पास रखी ख़ाली कुर्सी पर आकर वह बैठ जाती है, फिर वहां रखी अपनी थैली से ज़र्दा और चूना बाहर निकालती है, फिर उसे हथेली पर रखकर, सुर्ती बनाने लगती है ! हथेली पर रखे ज़र्दे और चूने को अंगूठे से मसलती है, फिर सुर्ती तैयार हो जाने के बाद अपने दूसरे हाथ से हथेली पर फटकारा लगती है...जिससे, खंक उड़ती है ! फिर वह हथेली पर रखी सुर्ती को, दाऊद मियां के पास लाती है ! दाऊद मियां सुर्ती उठाकर, उसे अपने होंठ के नीचे दबा देते हैं ! बची हुई सुर्ती अपने होंठ के नीचे दबाकर, शमशाद बेग़म वापस कुर्सी पर बैठ जाती है ! फिर वहां बैठे-बैठे, अपने लबों पर मुस्कान छोड़ देती है !]
दाऊ द मियां – [होंठ के नीचे सुर्ती दबाकर, कहते हैं] – अंधेर नगरी चौपट राजा वाली कहानी, आपने सुनी होगी ? बस, आप उसी कहानी से सीख लेकर वैसा ही रुख़ अपना लिया करें..जैसा रुख़, वहां के बासिन्दे रखते थे ! बड़ी बी जो हुक्म देती जाए, उस हुक्म को ताज़ीम [सम्मान] देती हुई तामीले हुक्म [आज्ञा पालन] करती रहो ! अगर वह दिन को रात कहे, तो आप भी कह दीजियेगा ‘जी हुज़ूर, रात है ! हुज़ूर ने वज़ा फ़रमाया !’ क्यों आप अपनी सलाह बेबाक देती हैं, उसे..
शमशाद बेग़म – [ज़र्दा और चूना, वापस थैली में रखती हुई, आगे कहती है] – ऐसा नहीं कर सकती, हुज़ूर ! आप तो वाकिफ़ हैं, चाय के बरतन पड़े हैं..और बाद में, इन्हें कौन धोएगा ? यहाँ तो स्कूल में कोई मेहमान आ जाता है, बड़ी बी का...फिर क्या ? झट आलिमा के फ़रमान ज़ारी हो जाते हैं, यह क्या...?
दाऊद मियां – कहिये, क्या फ़रमान ज़ारी करती है ?
शमशाद बेग़म – [बेनज़ीर की नक़ल उतारती हुई, बोलती है] – “ख़ाला ! जनाबे आली तशरीफ़ लाये हैं, अपनी स्कूल में ! ज़रा चाय तैयार कीजिये ना..!” [वापस अपनी आवाज़ में] ख़ुदा रहम, आया एक नियाज़मंद...मगर, चाय बने पूरे स्टाफ़ के लिए ? यह है, क्या...माज़रा ?
[अब दाऊद मियां को, शमशाद बेग़म की पेशानी पर परेशानी की झलक नज़र आती है...जो पसीने की बूंदों के रूप में, ज़ब्हा से छलकती नज़र आती है ! शमशाद बेग़म अपने रिदा से इन बूंदों के एक-एक कतरे को साफ़ करती हुई, कहती है]
शमशाद बेग़म – [रिदा से पसीने के एक-एक कतरे को, साफ़ करती हुई कहती है] – हुज़ूर, इन पसीने की बूंदों को क्या देखना ? इस पसीने को मारो, गोली ! ख़ुदा की पनाह, इस आलिमा की निशस्त जब-तक जमी रहे, जनाब तब-तक मुझे इनकी हाज़री उठानी पड़ती है ! हुज़ूर, चाय ही बनाती रहूँगी..तब कौन झाड़ू निकालेगा, कौन पीने का पानी भरेगा ? अब क्या कहूं, हुज़ूर ? मेरा कोई नियोश नहीं, किसे कहूं मेरे दिल की बात ?
[यह सुनकर दाऊद मियां की आँखें फटी की फटी रह जाती है, और वे होंठों में ही बड़बड़ाते हैं !]
दाऊद मियां – [होंठों में ही बड़बड़ाते हुए] – यह क्या ? नियोश नहीं...? यह कैसे कह दिया, ख़ाला ने कि, किसे कहूं अपने दिल की बात ? तो फिर, अब-तक यह मोहतरमा किसे सुनाती आ रही है अपने दिल की बात ? अब-तक मेरे आलावा नियाज़मंद नियोश रहा कौन ? जो इसकी बात, शान्ति से सुने ? अरे, मेरे मोला ! वह मैं हूं, जो इसके हर शिकवे को सुनकर चुटकी में हल कर देता हूं इसकी हर तक़लीफ़ !
[शमशाद बेग़म मुंह फुलाए बैठ गयी, अब दाऊद मियां को उसकी यह हालत देखी नहीं जा रही है ! आख़िर बेचारे रहमदिल इंसान, शमशाद बेग़म को समझाते हुए कहने लगे !]
दाऊद मियां – ख़ालाजान ! पहले यह बताओ कि, यह स्कूल किसकी है ? क्या आप अपनी मुक़्तज़ा से, स्कूल का कोई काम करने को मुख़्तार है ?
शमशाद बेग़म – हुज़ूर ! आपका कहने का, मफ़हूम क्या है ?
दाऊद मियां – मैं यह कहना चाहता हूं, ख़ाला ! सोच लीजिये, कभी सुबह की पारी की चपरासी चाँद बीबी ने कचरा नहीं निकाला तब...यह आलिमा उसे कोई सज़ा न देकर, वह केवल आप पर ही हुक्म चलायेगी !
शमशाद बेग़म – वज़ा फ़रमाया, हुज़ूर ! यह आलिमा तो ऐसे तनकर बोलेगी...[बेनज़ीर की नक़ल उतारती हुई] ‘जाओ ख़ाला, आपको कचरा दिखाई दे गया..अब आप ही कचरा निकालकर कचरा बाहर फेंक आयें ! आख़िर, आपको भी नौकरी दे रखी है सरकार ने ! आपका काम ही है, झाड़ू निकालना..पीने का पानी भरना, अब देखती क्या हो मेरा मुंह ? जाओ, कचरा निकालो ! अरे मेरी अम्मा, अभी-तक आप यहाँ क्यों खड़ी हैं ? जाती, क्यों नहीं ?’ [वापस अपनी आवाज़ में] आख़िर, यह बात है..हुज़ूर !
दाऊद मियां – आख़िर, इस बात को आप समझ गयी ना ? ये हमारी आलिमा बेनज़ीर, यानी बड़ी बी आलिमेकुल है ! ऐसी दानिशमंद मोहतरमा को कहाँ ज़रूरत है, आपकी सलाह की ? उसको सलाह देना, अपना निश्तर करवाना...एक बात है !
शमशाद बेग़म – [रुआंसी होकर, कहती है] – मेरी भी इज़्ज़त है, जनाब ! इतनी सारी मेडमें और कई बच्चियां वहां खड़ी थी बरामदे में, उनके सामने आ गयी बड़ी बी [अपने दोनों हाथ फैलाकर] यों हाथ फैलाए...और कहने लगी कि, ‘उठाओ घंटी का डंडा, फिर लगाना झाड़ू !’
दाऊद मियां – तो क्या हो गया, ख़ाला ? घंटी लगा देती, और क्या ?
शमशाद बेग़म – आली जनाब, आप तो आली जर्फ़ हैं...यानी, आली नज़र रखने वाले ! फिर बताओ, इस अलूदए इसयाँ को यह मालुम नहीं कि, नब्बे फीसदी बच्चियां अपने घर पहुंच चुकी है, फिर मैं घंटी लगाकर क्यों अपनी आबरू रेज़ी करवाऊं ?
[इतनी देर कमरे के बाहर खड़ी बड़ी बी बेनज़ीर इन दोनों के बीच में हो रही गुफ़्तगू को, चुपके-चुपके सुनती जा रही है...! अब वह छिपकली की तरह दबे पाँव कमरे में आती है, अचानक इन दोनों के सामने आकर वह कहती है !]
शमशाद बेग़म – [अचानक सामने आकर] – कहो...कहो, ख़ाला ! ये लोग क्या कहेंगे ? यह कैसी चपरासी है, जो बच्चियों के चले जाने के बाद छुट्टी की घंटी लगाकर छुट्टी होने का एलान करती है ? आगे यह क्यों नहीं कहती कि, स्कूल की बड़ी बी बेनज़ीर को स्कूल चलाना नहीं आता ! क्योंकि, वह तो एक जोलिद:बयां है..उसे क्या आता है, स्कूल चलाना ?
[बेनज़ीर को देखते ही, शमशाद बेग़म घबराकर खड़ी हो जाती है ! फिर, बेनज़ीर उसके नज़दीक आकर कहती है !]
बेनज़ीर – [नज़दीक आकर, कहती है] – अरे...इतना सुन लिया, मोहतरमा आपने ! फिर भी आप, यहाँ खड़ी हैं ? निफ्रीं [लानत] हैं..? तशरीफ़ रखिये, आलिमा ! जाइए, अभी सभी कमरों में झाड़ू लगाना हैं ! फिर होल में जाकर सफ़ाई करनी है ! एक बार और हिदायत दे देती हूं कि...
शमशाद बेग़म – [आब-आब होती हुई] – हुज़ूर, आप मुझे आप आलिमा मत कहिये ! हुजूरे आलिया, आप हुक्म दीजिएगा कि, ‘होल में फ़र्नीचर किस तरह जमाने हैं ?
बेनज़ीर – अच्छी तरह सुन लेना, बार-बार आकर समझाऊँगी नहीं कि “कल होल में सर्व शिक्षा अभियान की निशस्त: होगी ! कल आते ही वहां यू-सेप में फ़र्नीचर जमा देना, समझ गयी आप ? सारे काम, वक़्त पर हो जाने चाहिए !”,,
[हाथ में झाड़ू थामे, शमशाद बेग़म वहां से जाती हुई नज़र आती है ! अब दाऊद मियां अपनी अलमारी से फाइलें बाहर निकालकर टेबल पर रखते हैं, फिर एक-एक फ़ाइल खोलकर नत्थी किये ख़तों को पढ़ते हैं ! तब पास रखी कुर्सी पर, बेनज़ीर बैठ जाती है !]
बेनज़ीर – काम नहीं करना और हफ्वात हांकना, मर्ज़े मुतअद्दी हो गया है ! मर्ज़े मोहलिक कहो, तो कम नहीं ! अरे..जनाब, इन चपरासियों को तो छोड़ो ! यहीं इसी जगह मेडमें बेधड़क यहाँ आकर, मज्ज़लिसे क्या जमाती है ? अरे जनाब, दही की तरह जम जाती है आपके पास !
दाऊद मियां – फिर जनाब, आपने मुझे इस कमरे में लाकर क्यों बैठाया ? जब बरामदे में बैठता था, तब भी आप यही आरोप लगाती आ रही हैं कि, ये मोहतरमाएं मेरे पास आकर बैठकर अपना और मेरा वक़्त जाया करती है ! और, अब भी...
बेनज़ीर – हाय अल्लाह ! अब तो बच्चियों को पढ़ाने का काम चला गया, कोसों दूर ! अब क्या कहूं, दाऊद मियां ? अब तो ये सारी मोहतरमाएं, अपने बदन के अलील का रोना लेकर बैठ जाती है ! ख़ुदा की पनाह, यह क्या हो गया इन मेडमों को ? कोई है ब्लड-प्रेसर की मरीज़, तो कोई बन गयी है दिल की मरीज़..? हाय अल्लाह, क्या मैंने इस स्कूल में अस्पताल खोल रखा है..?
दाऊद मियां – वल्लाह ! आप तुर्बेदार हक़ीम नहीं हैं, तो क्या हुआ हुज़ूर ? किसी तुजुर्बेदार हक़ीम को बुलाकर, इन सबका इलाज़ करवा दें आप ! अल्लाह मियां, आपका भला करेगा !
बेनज़ीर – जानती हूं, दाऊद मियां ! मगर, करें भी क्या ? सभी मेडमें आलिमे बेअमल ठहरी, कुछ फर्क नहीं पड़ेगा ! जाइए, जाइए आप भी देख आइये, क्या कर रही हैं ये मोहतरमाएं ?
दाऊद मियां – क्या देख आऊँ, हुज़ूर ? क्लासों में देख आऊँ, या इन बदबू से भरे पाख़ानों में..? जहां इन पाखानों के दरवाजों के पास ही बैठकर, ये मोहतरमाएं पेशाब करके गन्दगी फैलाती जा रही है ? बच्चियों को सिखाया जा सकता है, मगर इन आलिमाओं को कौन समझाएं ?
बेनज़ीर – देखने ही जा रहे हैं, तो इन बच्चियों के पाख़ानें भी देख आइये ! इस बदबू के कारण बेचारी छठी क्लास की बच्चियां कमरे की खिड़कियाँ खोल नहीं सकती ! अब क्या कहूं, आपसे ? ये आलिमे बेअमल मेंडमें पेशाब करने वहीँ दरवाजे के पास ही आंगन पर बैठ जाती है..सेम..सेम..! ये क्या इल्म देगी, इन बच्चियों को ? जिनका ख़ुद का अमल, आलिमे बेअमल हैं,...बस, ज़राफ़तपसंद है !
दाऊद मियां – अजी मेडम, आप नहीं जानती ! इसी ज़राफ़तपसंदी के, ज़रासीम रग़ रग़ में व्याप्त है ! अजी, कुछ तो इतनी होश्यार है...उन्होंने तो जनाब, स्कूले-हकूमत में ख़लल डालने के असरदार तरीक़े इज़ाद कर रखे हैं !
बेनज़ीर – जानती हूं, दाऊद मियां ! इन सबको दबिस्तान-ए-सियासत, हाथ में लेने का अलील है !
[तभी क्लास छठी की एक बच्ची कमरे में दाख़िल होती है, और बड़ी बी से कहती है !]
बच्ची – सलमा मेडम के..के कह रही है....
बेनज़ीर – के..के..क्या बकती है ? कलाग़ है, क्या ?
बच्ची – वे क्लास की बच्चियों को, बगीचे में बैठाना चाहती है !
बेनज़ीर – [दाऊद मियां पर नज़र डालकर, कहती है] – देख लिया, दाऊद मियां ? मैंने सच्च कहा था, ना ? अब देख लो, ‘हाथ कंगन, आरसी की क्या ज़रूरत ?’ अब देख लिया, आपने ? इन मेडमों का यह तरीक़ा है, आराम करने का ! अब यह मेडम बगीचे में तफ़रीह करेगी, या पढ़ाएगी इन बच्चियों को ?
बच्ची – नहीं बड़ी बी, ऐसी बात नहीं है ! क्लास में बहुत बदबू.....
बेनज़ीर – [बात काटकर, कहती है] – चुप रहो, दुख़्तर ! बदबू नहीं, तो क्या सुगंध आयेगी क्या ? पाख़ाने के हर ठौड़ पर पानी गिराने के नल लगे हैं, फिर नल खोलने में भी मौत आती है तुम लोगों को ? इतनी सफ़ाई पसंद हैं आप सभी, तब पाख़ाना साफ़ क्यों नहीं रखती ?
[तभी आक़िल मियां कमरे में दाख़िल होते हैं ! अब वह बच्ची, अपने क्लास में चली जाती है !]
आक़िल मियां – वज़ा फ़रमाया, हुज़ूर ! ये बच्चियां इतनी बदसलूक हो गयी है, हुज़ूर ! मेरे कमरे के बाहर, बिल्कुल कमरे की खिड़की के नीचे बैठकर पेशाब करने बैठ जाती है ! हुज़ूर, अब आपको क्या कहें ? इस दुर्गन्ध के मारे दफ़्तरे काम निपटाना हो गया है, मुश्किल ?
दाऊद मियां – अरे जनाब, वहां पास ही टी-क्लब की चाय भी बनती है ! और उधर यह बदबू...हाय अल्लाह, सांस लेना दूभर हो गया है !
बेनज़ीर – सफ़ाई नहीं होती, इन पाख़ानों की ! इन पाख़ानों पर निगरानी रखने वाला कोई नहीं, तब क्या ख़करोब को मुफ़्त में पग़ार दे रहे हैं...आप ? सारी ग़लती आपकी है, मियां !
आक़िल मियां – [सकपकाकर] – नहीं, नहीं बड़ी बी ! भुगतान, आपके हुक्म से होता है...इसमें बेचारे ख़करोब की, क्या ग़लती ? उस बेचारे को जो दोगे, वही ले लेगा !
बेनज़ीर – मियां, काहे काजिया किये जा रहे हैं आप ? ख़्याली तस्सवुर में रहने से, काम नहीं चलता ! सफ़ाई करवाने की जिम्मेदारी, मौज़ूदा चपरासी की है ! उसकी गवाही पर ही, भुगतान होना चाहिए !
आक़िल मियां – हुजूरे आलिया ! भुगतान पर शहादत के दस्तख़त, मौज़ूदा चपरासी से लिए जाते हैं !
[कंधे पर सौंटे की तरह झाड़ू थामे, शमशाद बेग़म कमरे में दाख़िल होती है ! आते वक़्त, वह आक़िल मियां की बात सुन लेती है ! अब वह आक़िल मियां के निकट आकर, कहती है !]
शमशाद बेग़म - [कंधे पर, झाड़ू रखे हुए] – मियां, हद हो गयी ? चपरासी के दस्तख़त हो जाने के बाद, जिम्मेवारी पूरी नहीं होती...जनाब, आपको इतना भी मालुम नहीं ? पाख़ाने की टंकी में कई दरारे आयी हुई है, इसके अआवा उस टंकी में इतनी काई है..आपको क्या कहें ?
आक़िल मियां – तो क्या हो गया, आप तौफ़ीक़ मियां से कह दीजिये “काई खाने वाली मछलियाँ छोड़ दें, इस टंकी में !”
शमशाद बेग़म – पाइप में भी काई फंसी हुई है, हुज़ूर ! अब आप, मछली को भी पाइप में फंसाने का इरादा रखते हैं ? जब पाइप के अन्दर काई फंसी हुई है, तब पाइप से पानी बाहर कैसे निकलेगा ? इस मामले में, बेचारा चपरासी क्या करेगा ? सारी जिम्मेदारी लाद देते हैं, बेचारे ग़रीब चपरासी पर ! बेचारे ग़रीब पर, कौन करेगा रहम ? वाह हुज़ूर, वाह ! क्या ज़माना आ गया है, आज़कल ?
बेनज़ीर – [तल्ख़ आवाज़ में] – ख़ाला ख़ामोश हो जाओ, अब एक भी अल्फ़ाज़ बाहर निकाला तो..[दाऊद मियां से, कहती है] मियां ! हमें तो लगता है, कई सालों से इस टंकी में सफ़ाई नहीं हुई है ! क्या, यह सच्च है ?
शमशाद बेग़म – [दाऊद मियां से] - कह दीजिये, जनाब ! सच्च कहने से, क्या डरना ? आज़ नहीं तो क्या, कल सबके सामने सच्चाई आ जायेगी !
दाऊद मियां – बात ऐसी है, बड़ी बी..कि, रशीदा मेडम के वक़्त, हफ़्ते में एक बार टंकी की सफ़ाई होती थी ! फिर, उनके जाने के बाद, जब आयशा मेडम बड़ी बी बनकर यहाँ आयी तब तो बस....!
बेनज़ीर – मियां, हम स्कूल में आये या नहीं ? सवाल यह नहीं है, सुन लीजिये कान खोलकर ! हम लोगों का काम यह नहीं कि, हम टंकी की सफ़ाई हुई या नहीं..इस पर निगरानी रखते, अपना वक़्त जाया करें ? यह सीनियर हायर सेकेंडरी स्कूल है, मियां ! प्रिंसिपल यदि निज़ाम बन गया तो, इस दबिस्तान की ठौड़ आपको यतीम खाना ही नज़र आएगा !
आक़िल मियां – वज़ा फ़रमाया, हुज़ूर ! आप तो दमबदम, सच्चाई को सामने ला देती हैं, ज़रा आप हमारे कमरे की खिड़की की तरफ़ निग़ाह तो डालिए..इस ठौड़ को बच्चियों ने, युरिनल बना डाला ! अब हम इन बच्चियों से, क्या कहें ? दमबदम नाक पर रुमाल ढाम्पना तो, हम दफ़्तर निग़ारों की मज़बूरी बन गयी है ! अब क्या करें, हुज़ूर...
बेनज़ीर - दफ़्तरे निग़ारों की मज़बूरी तो अब, जनाब स्कूल में दस्तअन्दाजी करनी रह गयी है ! स्कूल में सफ़ाई करवाना, वक़्त पर तनख़्वाह दिलवाना वगैरा काम बन गए हैं आप सभी मुख़्तरिकार दमकश ! ख़ुदा जाने, इस दबिस्तान का क्या होगा ? हाय अल्लाह ! दमे चंद चैन नहीं...अब क्या आराम से, दमे आब लूं ?
शमशाद बेग़म – [बड़बड़ाती है] – बड़ी बी ! दमे आब को छोड़ो, आपको तो दस्तावर पीना चाहिए..मेडम ! सब आलेमेरोज़गार, ख़त्म हो जायेगी !
बेनज़ीर – [ज़हरीली निग़ाहों से, शमशाद बेग़म को देखती हुई] – मुख़्ती होकर, अपने दिल में ग़लीज़ बातें बुदबुदा रही हैं आप ?
शमशाद बेग़म – [आँखें तरेरती हुई, कहती है] – हमें क्या पड़ी है, बड़ी बी ? हम क्यों गलीज़ बातें बुदाबुदायेंगे ? हुज़ूर, ख़ुदा सब देखता है ! मैं अल्लाह की मुरीद हूं, आपको क्या मालुम ? मैंने तो सब पढ़ रखी है, ये सारी किताबें..करीमा, मामुकीमा, आमदनामा, अयारदानिश...फिर, जुबां पर ग़लीज़ बातें..? [दोनों हाथ कानों पर रखती हुई] ख़ुदा माफ़ करें, ऐसा सोचती भी हूं तो ख़ुदाकरीम मुझे दोज़ख़ नसीब करें !
बेनज़ीर – [तेज़ आवाज़ में] – अरी, ओ माहरू ! ख़ुदा की नमाज़ी बंदी, तुम यहाँ कैसे ? क्या, कमरे साफ़ हो गए ? साफ़ हो गए हो तो, जाओ..होल को साफ़ करो ! हमारी मुख़्बिरी से, आपको कोई मुख़्बिरे सादिक का ख़िताब देने वाला नहीं !
शमशाद बेग़म – किसको शौक चर्राया, ख़िताब लेने का ? यह तो हुज़ूर, आलिमों का हक़ है ! हम कहाँ ठहरे, आलिमा ? बदनसीब ठहरे, मुख़्तारेकार आप जो हुक्म देंगी..हमको तो तामील करना है, हुज़ूर ! बदनसीब हैं हम, सलमा मेडम खड़ी थी, मुक़्तजाए फ़ितरत हमने उनको सलाम बोला ! बस...
दाऊद मियां – फिर क्या हुआ, ख़ाला ?
शमशाद बेग़म – उन्होंने हुक्म दे डाला हमें, कि “जाओ बड़ी बी के पास, जाकर उनसे कहो “दरख़ुरेअर्ज़ है...बच्चियां बदबू के कारण क्लास में बैठ नहीं सकती, उनका जी मचल रहा है..कहीं कोई दुख़्तर उल्टी न कर बैठे ? अब उनको बैठाएं, कहाँ ?” यह उनकी अरदास दरख़ुरेएतीना थी, इसलिए आपको इतला करने बीच में चली आयी ! मुझे कौनसा शौक चर्राया, आपकी मुख़्बिरी करने का ?
बेनज़ीर – [हंसकर] – आपने ज़र्रा नवाज़ी की, उसके लिए शुक्रिया ! ख़ाला, आप तो जन्नत-ए-वफ़ादार चपरासी ठहरी ! अब जाकर कह देना, सलमा मेडम को ! कि, वह बच्चियों को होल में बैठा सकती है ! [रौब से] और सुनो, तुम अब इस झाड़ू को यहीं रख दो ! पहले जाकर ख़करोब को बुलाकर ले आओ ! उसे कहना कि, ‘बड़ी बी ने, उसे इसी वक़्त बुलाया है !” याद रखना, वापस आते ही कमरे साफ़ करने हैं !
[कोने में झाड़ू रखकर, वह दाऊद मियां के पास आकर कहती है !]
शमशाद बेग़म – हुज़ूर बाहर जा रही हूं, मैं सोचती हूं कि ‘एक बार बाहर निकलूँ तो एक के स्थान पर दो काम पूरे हो जाय !’ बस आप दूध के पैसे दे दीजिएगा, वापस आते वक़्त दूध लेती आऊंगी ! तब-तक, टी-क्लब की चाय बनाने का वक़्त भी हो जाएगा !
बेनज़ीर – [तपाक से, कुर्सी से उठती हुई कहती है] – ना, ना ! ऐसा नहीं, आप अभी के अभी नाक की दांडी पकड़कर सीधी जाओ, और एक मिनट कहीं रुके बिना वापस यहाँ चली आओ ! और कोई काम बीच में नहीं, देर से आने की बहानेबाजी मेरे सामने नहीं चलेगी ! क्या मालुम, आपको कोई रास्ते में रोक ले...और आप वहां खड़ी-खड़ी, हफ्वात करती वक़्त जाया करती रहें...?
शमशाद बेग़म – हुज़ूर, मैं छोटी बच्ची नहीं हूं ! मुझे ध्यान है, बेचारी बच्चियां परेशान है ! मैं उनके दर्द को, समझती हूं !
[इतना कहकर शमशाद बेग़म, रुख़्सत हो जाती है ! बेनज़ीर वापस आकर, कुर्सी पर बैठ जाती है !]
बेनज़ीर – [दाऊद मियां से] – दाऊद मियां, हमने इन लोगों की कई दास्तानें सुनी है ! अक़सर, ये चपरासी किस तरह काम से बचे रहते हैं ? अब देखिये, ख़ाला को कितना दर्द होता है..बदहाल टंकी को देखकर ? मैं पूछती हूं, आपसे ! हर इतवार को, ज़्यादातर इनकी स्कूल में ड्यूटी लगती है...
दाऊद मियां – आपके कहने का मफ़हूम क्या है, मेडम ?
बेनज़ीर – यह मोहतरमा इतवार के दिन आकर यही करती है, ना ? यह आती है, हाज़री रजिस्टर में दस्तख़त करती है ! फिर, आराम से पंखा चलाकर सो सो जाती है..? क्या, यही काम है इनका ? आप कभी तहक़ीकात नहीं करते, ना काम करने का कोई हुक्म देते इन्हें...आप ?
[दाऊद मियां को नज़ले का अलील ठहरा, जो दिमाग़ में थोड़ा सा तनाव होते ही बाहर उभर आता है ! शमशाद बेग़म ठहरी, उनकी एहबाब ! उसके बारे में कोई ऐसी-वैसी बात कह दे, और मियां को तनाव न हो ? ऐसा, हो नहीं सकता ! बेनज़ीर ठहरी उनकी अफ़सर, उसको वापस ज़वाब देने से मियां को ख़ुद को नुक़सान है ! इस तरह यह तनाव, नाक़ाबिले बर्दाश्त ठहरा ! जिससे अब, मियां की नाक से पानी बहना स्वाभाविक है ! मियां झट ख़ाकदान में नाक सिनककर, रुमाल से नाक साफ़ करते हैं ! फिर, वे तसल्ली से कहते हैं !]
दाऊद मियां – [रुमाल को वापस जेब में रखते हुए, कहते हैं] – हुज़ूर, क्या कहूं आपसे ? इधर अल्लाहताआला ने, इस नज़ले का मरीज़ बना डाला हमें ! और फिर, काम दे डाले बहुत ! मगर मैं बेचारा करूँ, क्या ? ये चपरासी लोग तो हुक्मअदूली करने में, अपनी शान समझते हैं ! कुछ कहें तो जनाब, ये लोग हमारे सामने बोलते हैं ! अरे..., हुज़ूर...
बेनज़ीर – आपके कहने का, मफ़हूम क्या है ? साफ़-साफ़ कहिये, ना ! इन चपरासियों की शान में, मुरस्सा काहे लाते हैं ?
दाऊद मियां – इन सारे चपरासियों को, आयशा बी ने निखट्टू बना डाला ! अब आप ही देखए हुज़ूर, किसी भी वक़्त ये स्कूल से नदारद पाए जाए...और जब इनसे गायब होने का कारण पूछा जाय, तो ये बड़े अदब कहेंगे कि, “हुज़ूर ! बड़ी बी की इज़ाज़त लेकर, किसी काम से बाहर गया था !’’
बेनज़ीर – आगे कहिये, रुकते क्यों हैं आप ?
दाऊद मियां – अरे हुज़ूर, इन चपरासियों का लम्बे समय से इन्तिज़ार करते-करते हमारे अबसारों में दर्द होने लगता है, मगर इनके दीदार हमारी क़िस्मत में कहाँ ? जनाब, क्या कहूं आपसे ? ये लोग अक़सर अपना वक़्त, सैर-ओ-तफ़रीह में जाया करते हैं ! अब क्या बताएं, आपको ? इन लोगों से स्कूल का काम करवाना, ओखली में सर देने के बराबर है....
आक़िल मियां – [बीच में बोलते हुए] – जनाब, आपने वज़ा फ़रमाया ! देखिये हुज़ूर, इधर ये जनाना चपरासी बाहर के काम करने से कतराती हैं तो ये मर्द चपरासी स्कूल में झाड़ू लगाने और पानी भरने में अपनी शान में गुस्ताख़ी समझते हैं ! मैं तो जनाब, एक ही बात कहता हूं कि, “सभी हर्ज़-मुर्ज़ [समस्या] का निदान, बड़ी बी के पास है !
बेनज़ीर – [चौंकते हुए] - मेरे पास..मेरे पास..? मेरे पास क्या है, मियां ?
आक़िल मियां – [बेनज़ीर को देखते हुए] – बस हुज़ूर, आप कर दीजिएगा अपने पॉवर का डेलिगेशन..तब दाऊद मियां को सपोर्ट मिल जाएगा, दस्तगिरिफ़्त होंगे आपके ! बाद में किसकी हिम्मत होगी, जो दाऊद मियां का कहना न मानें ?
[यह मक़बूले आम बात है, ‘कोई भी अफ़सर अपने पॉवर का डेलिगेशन, अपने मफ़ाद में नहीं मानता !’ यही कारण है, अब बेनज़ीर आक़िल मियां की बात को सुनकर हो जाती है बेनियाम !]
बेनज़ीर – [तल्खी से] – आक़िल मियां, आपसे कब पूछा गया ? बिना मांगे सलाह देना, आपके मफ़ाद के लिए अच्छा नहीं ! आप मुख़्तारे ख़ास नहीं है, मियां ! अब जाइए, अपने कमरे में ! आज़ तो मैं ज़रूर आकर आपके रोकड़ का भौतिक सत्यापन करूंगी, मियां ! बहुत लंबा वक़्त बीत गया है, रोकड़ को देखे हुए ! अब जाइए, यहाँ बैठकर वक़्त जाया न करके रोकड़ तैयार करके रखिये ! अभी आ रही हूं, मैं !
आक़िल मियां – [जल्दबाज़ी में] – बड़ी बी आप सुबह आते ही, हमें हुक्म दे देती रोकड़ तैयार करने का....कब का तैयार हो जाता ! अब तो हुज़ूर, काम बहुत बढ़ गए ! उनको निपटाना भी, बहुत ज़रूरी है !
बेनज़ीर – जानती हूं, काम बहुत है ! काम न होगा तो सरकार, घर बैठे तनख़्वाह देने वाली नहीं ! जाइए, आप जल्द रोकड़ तैयार कीजिये ! सुन लीजिये आक़िल मियां एक बात, भौतिक सत्यापन मुझे करना है..आपको नहीं ! कब करूँ ? यह सब, मुझे देखना है !
[अब लगता नहीं, रोकड़ का भौतिक सत्यापन टल जाए या जल्द हो जाय ? यहाँ तो यह मोहतरमा अपनी जिद्द छोड़ने वाली लगती नहीं, फिर क्या ? आख़िर, बेचारे आक़िल मियां रुख़्सत होते हैं ! अब बेनज़ीर अपनी कुर्सी खिसकाकर, दाऊद मियां के और नज़दीक बैठ जाती है !]
बेनज़ीर – दाऊद मियां, आपको क्या मालुम ? जानते हैं आप, यह दुनिया बड़ी ज़ालिम है ? आपको मालुम ही है, हर सिक्के के दो पहलू होते हैं ! इसी तरह कई इंसान ऊपर से लगते हैं, बड़े भोले...अल्लाह मियां की गाय सरीखे ! मगर जनाब, अपने दिल में रखते हैं, खोट ! जानते हो, आक़िल मियां अभी क्या कहकर गए हैं ?
दाऊद मियां – आपने भी सुना होगा, हुज़ूर ! आप ही कह दीजियेगा, आख़िर क्या कहा उन्होंने ?
बेनज़ीर – कहा उन्होंने, कि “काम बहुत है !” अजी करें, क्या ? इनका तो रोज़ का रोना है, अरे जनाब अगर इनको कुछ भी कह दीजिये तो तड़ाक से यह ज़वाब ऐसे देंगे ‘मेडम मेरा चार्ज बदल दीजिएगा, आप ! कई सालों से, मैं इस रोकड़ के चार्ज को संभाले बैठा हूं !’
दाऊद मियां – कुछ और कहा होगा, उन्होंने ?
बेनज़ीर – कहते हैं, ‘सारे दिन काम में, उलझा रहता हूं..सर ऊपर उठाने का, वक़्त नहीं मिलता !’ और आगे इस तरह से बोलेंगे, दाऊद मियां ! ‘देखिये, जनाब ! उधर बेचारे दाऊद मियां, काम से हैं महरूम ! बेचारे दाऊद मियां, वक़्त गुज़ारने के लिए क्या-क्या नहीं करते ?
दाऊद मियां – आपके कहने का क्या मफ़हूम हैं, जनाब ?
बेनज़ीर – उनका कहना है, ‘चपरासियों को अपने पास बैठाएंगे, फिर उनसे सुर्ती बनवायेंगे...फिर, उसे होंठ के नीचे दबायेंगे ! और इधर इन मेडमों का तो, कहना ही क्या ? तितलियों की तरह, इनके आगे-पीछे मंडराती रहती है ! मेडमें यहाँ इनके पास बैठकर, अपना टिफ़िन खोलेगी ! फिर जमाएगी यहाँ, निशस्त !
दाऊद मियां – हुज़ूर फिर आगे उन्होंने यह भी कहा होगा कि, ‘फिर हफ्वात का पिटारा खुलेगा ! बस...फिर दिल में आया तो मियां, आँखें मूंदकर चले जायेंगे परवाज़े तख़्य्युल में सैर-ओ-तफ़रीह करने !’ हुज़ूर, वास्तविकता क्या है ? इसे कौन जानता है, हुज़ूर ?
बेनज़ीर – तब आप ही बता दीजिये, आख़िर वास्तविकता क्या है ?
दाऊद मियां – यहाँ तो ख़ुद का काम निपटाने के बाद, लिहाज़ के मारे दूसरों के भी काम निपटाने पड़ते हैं ! आप ख़ुद ही देख लीजिएगा, हुज़ूर ! ये मेडमें अपनी क्लास के हाज़री रजिस्टर इस टेबल पर रखकर, न जाने क्या-क्या काम मुझे देकर चली जाती है ?
बेनज़ीर – यह तो आप जानते हैं, दाऊद मियां ! मुझे, क्या मालुम ?
दाऊद मियां – कहती है, “भाईजान, आप मंथली की टोटलें करके मंथली तैयार कर लीजिएगा...देखिये ना, कितनी थक गयी मैं पढ़ाते-पढ़ाते !” फिर क्या ? लिहाज़ के मारे, फिर मैं इन सबकी मंथली तैयार करने बैठ जाता हूं ! परीक्षा हो जाने के बाद, ये मेडमें संस्कृत सब्जेक्ट की कोपियों के बण्डल यहाँ लाकर पटक देती है...फिर, क्या ? हुज़ूर, मुझे वे सारे बण्डल चैक करने पड़ते हैं ! क्या करूँ, बड़ी बी ? लिहाज़ के मारे....
बेनज़ीर – फिर तो जनाब, ये मोहतरमाएं चिपकू की तरह इसी कमरे में बैठ जाती होगी..निशस्त लगाकर..?
दाऊद मियां – अब आप बताये, हुज़ूर ! कहाँ, और किसके पास वक़्त पड़ा है...नींद लेने का ? यहाँ तो ख़ुद का भी काम करो, और साथ में लोगों का भी काम निपटाते रहो..!
बेनज़ीर – [थोड़ी सीरियस बनकर] – और कुछ कहना है, आपको ?
दाऊद मियां – और क्या कहूं, आपको ? आक़िल मियां तो भोले हैं, आपको कह दिया होगा भोलेपन में...कि, मैं आँखें मूंदकर परवाज़े तख़्य्युल में चला जाता हूं !मगर, आपको क्या मालुम ? जनाब डी.ई.ओ. दफ़्तर में जाकर मेरे बारे में क्या-क्या बयान देकर आ जाते हैं, अपने ऐसे भोलेपन में ? कोई भी दफ़्तर का शख़्स इनसे मीठा बोलकर, इनसे कई बातें बाहर निकलवा लेता है...जनाब, आपको क्या मालुम ?
बेनज़ीर – और भी कुछ कहना बाकी रह गया है, तो मियां उगल दीजिये !
दाऊद मियां – आक़िल मियां न मालुम वहां मेरे ख़िलाफ़ क्या-क्या बककर आ जाते हैं, हुज़ूर मेरे लिए सफ़ाई पेश करना हर्ज़-बुर्ज़ बन जाता है ! अच्छा तो यही है, हुज़ूर ‘ये साहबज़ादे, अपनी सीट पर ही बैठे रहें ! इतना काम डाल दीजिये, इन पर..कि, इनको सर ऊपर करने की भी फ़ुर्सत न मिलें !”
बेनज़ीर – हूँ..म.. देखती हूं, आज़कल ये बहुत जाते हैं बाहर ! ख़ुद जाए तो कुछ नहीं, मगर अपने साथ इस दाढ़ी वाले बाबा शेरखान मियां को भी साथ ले जायेंगे ! अब बताइये, एक शिक्षक को अध्यापन से दूर करना कहाँ की समझदारी है ? [उठती है !]
[अब बेनज़ीर सीधी खड़ी होकर, हाथ ऊपर ले जाती है...फिर, अंगड़ाई लेती है ! और फिर वापस, जनाबे आली दाऊद मियां को सलाह देने बैठ जाती है कुर्सी पर ! आलिमा कुर्सी पर तशरीफ़ आवरी होकर, दाऊद मियां से कहती है !]
बेनज़ीर - बहुत लंबा सेवा काल हो गया है आपका, अब तो मुक़्तज़ाए उम्र आराम करने की है ! मुक़्तज़ाए फ़ितरत, मुझको यह ज़रूर कहना पड़ेगा...आपके चार्ज में, ज़्यादा काम नहीं दिया गया है...इसकी मुझे, पूरी जानकारी है ! बस, आप समझ लीजिये..आपके पास बहुत वक़्त रहता है ! इस वक़्त को काम में लेते हुए आप, इन चपरासियों को सुधारो ! इन चपरासियों के कारण, स्कूल की छवि ख़राब होती जा रही है !
दाऊद मियां – बिना पॉवर क्या कर सकता हूं, मैं ? सारे पॉवर तो, आपने ले रखे हैं...
बेनज़ीर – [गुस्से में] – पॉवर..? अरे मियां, पॉवर तो अफ़सर के पास ही रहते हैं ! दिए नहीं जाते, समझ गए मियां ? अब कुछ और कहना है, मियां ? [थोड़ी देर ख़ामोश रहकर, उठ जाती है कुर्सी से] अब जाती हूं, मियां ! पीछे से, आवाज़ मत लगाना !
[पाँव पटकती हुई, वह चल देती है !]
दाऊद मिया – [अपने होंठों में ही, कहते हैं] – फिर, आप मुख़्तार हैं..पूछना मत बाद में, कि ‘काम कैसे चल रहा है, इस स्कूल का ?’
[मंच पर, अँधेरा छा जाता है !]
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १६, राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित मंज़र २
ग़रीब की जोरू, करती क्या ?
[मंच पर रोशनी वापस लौट आती है, स्कूल के बरामदे का मंज़र सामने नज़र आता है ! बरामदे के छोर पर आक़िल मियां का कमरा नज़र आता है, इस कमरे के सामने ही एक क्लास रूम नज़र आ रहा है ! जिसकी एक खिड़की इस बरामदे में खुलती है, इस खिड़की के पास ही टी-क्लब की टेबल और पटवार साइज़ की अलमारी रखी है ! इस टेबल पर गैस का चूल्हा है, जिस पर टी-क्लब की चाय बनती है ! पटवार साइज़ की अलमारी में, चाय बनाने के सामान रखे जाते हैं ! आक़िल मियां जो खाज़िन हैं, उनके कमरे से सटा हुआ बड़ी बी का कमरा है ! इस कमरे की एक खिड़की टी-क्लब वाले बरामदे की तरफ़ खुलती है तो, दूसरी खिड़की जाफ़री की तरफ़ खुलती है ! इस टी-क्लब वाले बरामदे में, दो-तीन टेबलें और कुछ कुर्सियां रखी है ! लंच के वक़्त यहाँ मेडमें बैठकर चुस्कियां लेती हुई आराम से चाय पीती है, और फिर वे इन टेबलों पर लंचबॉक्स रखती है..फिर, लंचबॉक्स खोलकर हफ्वात हांकती हुई आराम से खाना भी खा लिया करती है ! इस टी-क्लब के पास वाले क्लास रूम का दरवाज़ा यहीँ खुलता हैं, जहां ये मेडमें बैठा करती है ! इन मेडमों को इस दरवाज़े से कोई सारोकार नहीं, दूसरे अल्फ़ाज़ों में हम यह कह सकते हैं कि, ‘चाहे इस क्लास रूम की कोई बच्ची बाहर या अन्दर आने के लिए कितनी ही तक़लीफ़ उठा ले, मगर ये मेडमें उठकर उसे आने-जाने का रास्ता नहीं देती ! यानी उसी तरह बैठी रहेगी, और वे हरगिज़ भी टस से मस नहीं होगी !’ इसका कारण यह भी है, यहाँ बैठी पूरी स्कूल को देखती हुई क्लास में दाख़िल या बाहर आती हर दुख़्तर पर अपनी बुलंद नज़र रख सकती है ! उनको ध्यान रहता है, किस क्लास रूम से कौनसी बच्ची अन्दर दाख़िल हुई या वह बाहर गयी है ? अब शमशाद बेग़म आकर, दूध के थैली टेबल पर रखती है ! इतने में बरामदे में राउंड काट रही बेनज़ीर भी यहाँ पहुंच जाती है ! और फिर दीवार पर लगी घड़ी को देखती हुई, शमशाद बेग़म से कहती है !]
बेनज़ीर – [शमशाद बेग़म से] – गज़ब हो गया, ख़ाला ! रिसेस का वक़्त हो गया, और आपने उठकर घंटी नहीं लगाई ? आख़िर, आप अपने दिमाग़ को कहाँ रखकर आ जाती हैं ?
शमशाद बेग़म – [अपने होंठों में ही, कहती है] – मैं तो बाज़ आयी, इस नौकरी से ! यह काम करो, कभी वह काम करो..एक काम पूरा ही नहीं होता तब-तक यह मोहतरमा अगला हुक्म ज़ारी कर देती है अपने मुंह से ! ख़ुदा करे, इसका मुंह अंगारों से भर जाय मेरी बला से ..! यहाँ तो जूतियाँ घिस चुकी है, इनका हुक्म मानते-मानते ! ओ अलदूए इसयाँ, ज़रा देख, हम ठहरी ब्लड-प्रेसर की मरीज़..इधर आ रहे हैं चक्कर पे चक्कर, अब इन पांवों में कोई ताकत रही नहीं ! हाय अल्लाह, कभी मैं इस दुःख से मैं ख़ुदकुशी न कर बैठूं ...? क्या करूँ ? यह बेरहम मोहतरमा तो ठहरी, अफ़सर ! आख़िर, शिकस्त तो मेरी ही होगी...! फिर, क्या ? हारना, मुझे ही है ! इसका, क्या जाता है ? यह तो ठहरी, शैतान की चलती-फिरती तसवीर !
[फिर क्या ? बेचारी शमशाद बेग़म, आख़िर करती क्या ? पिछली बार जब चाय बनी थी, तब के काम लिए गए बरतन जो छाब में रखे हैं ! उनको उठाती है...और, नल के नीचे रखने के लिए आगे क़दम बढ़ा देती है ! और अपने दिल में सोचती है, कि ‘इन बर्तनों को रखने के बाद, वहां बॉक्स परे रखे घंटी के डंडे को उठाकर घंटी लगा देगी ! इस तरह उसे दो दफ़े पांवों को तक़लीफ़ न देनी होगी, बस मुझे तो उधर ही जाकर इन बर्तनों को रखना और वहां रखे लोहे के डंडे को उठाकर घंटी लगाना ! और क्या ?’ मगर हाय री बदक़िस्मती, बेनज़ीर के कड़वे बोल गूंज उठते हैं !]
बेनज़ीर – क्या बुदबुदा रही हो, मेरी अम्मा ? कहीं तुमको, अपने शौहर के जिन की छाया लग गयी ? चलो, वापस आ जाओ इसी टेबल के पास, और वापस रख दो इन बर्तनों को !
[बेचारी शमशाद बेग़म, आख़िर करती क्या ? नीम की पत्तियों के माफ़िक बड़ी बी की कड़वी आवाज़ सुनकर, वह पास रखी टेबल पर उठाये हुए उन काम लिए गए बर्तनों को वापस रख देती है ! फिर, वह मायूसी से बड़ी बी से कहती है !]
शमशाद बेग़म – [मायूसी से कहती है] – हुज़ूर, चाय के बरतन पहले धुल जाते तो..
बेनज़ीर – [तेज़ी से, कहती है] – जाओ, पहले घंटी लगाओ..भाड़ में जाय, चाय ! तुम्हारा पहला फ़र्ज़ है, स्कूल का काम करना..समझी ?
[फिर क्या ? ग़रीब की जोरू, करती क्या ? बेचारी बदनसीब महज़ून घंटी लगाने के लिए, क़दम बढ़ा देती है ! रुआंसी शमशाद बेग़म लोहे का डंडा उठाकर, घंटी लगाती है ! फिर जाकर पाँव घसीटती-घसीटती टी-क्लब की टेबल के पास आती है, और चाय बनाने के लिए फ़ानिज़, चाय वगैरा के डब्बे संभालती है ! मगर इधर आ रहा है, चक्कर ! ऊपर से सर-दर्द..बेचारी का दिमाग़ काम नहीं करता..! उठाना चाहिए था फ़ानिज़ का डब्बा, मगर उठा लेती है नमक का डब्बा !]
शमशाद बेग़म – काम हो गया, हुज़ूर ! [डब्बे को देखकर] हाय..अल्लाह ! इस चै..चै..मैं..मैं..की वज़ह, अभी मैं फ़ानिज़ के जगह नमक डाल देती चाय में..?
[नमक का डब्बा यथास्थान रखकर, वह फ़ानिज़ का डब्बा उठाती है ! तभी उसे पास की टेबल पर रखी, छाब नज़र आती है ! जिसमें, काम लिए गए बरतन नज़र आते हैं ! जिनको धोने के लिए, वह उन बर्तनों को नल के नीचे रखने गयी थी ! अब वह चाय बनाने में काम आये बर्तनों से भरी छाब को उठाकर, लड़खड़ाती हुई नल के पास जाती है ! फिर उस छाब को वहां रखकर, वह वापस चूल्हे के पास लौट आती है ! पानी से भरे भगोने को चूल्हे पर चढ़ाकर, उसमें चाय की पत्ती, फ़ानिज़ और चाय का मसाला डालती है ! फिर वह अपने ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को, पल्लू से साफ़ करके लम्बी सांस लेती है ! उसकी ऐसी स्थिति को देखकर, बेनज़ीर से बिना बोले रहा नहीं जाता !]
बेनज़ीर – दिल की आग को ठंडी करो, बीबी ! औरत का आली दिमाग़ होता है, सब-कुछ बर्दाश्त करते हुए तहज़ीब व तमीज़ न भूलना ! यही औरत की मंजिल है ! लाहौल विला कुव्वत....तुम क्या जानती हो, मेरे बारे मैं ? मुझसे नाराज़गी रखने वाले लोग कहते हैं कि, ‘तुम ख़ानम हो...
शमशाद बेग़म – ख़ानम हो तो लोगों का क्या गया, क्या आप उनके घर की रोटी खाती हैं ?
बेनज़ीर – पहले सुन लिया करो, ख़ाला ! बाद में, बोला करो ! वे कहते हैं, आटा, दाल और लूण-लकड़ी के बारे में मैं क्या समझती हूं ? हाथ में दो पैसे आये, और उड़ा दिए..मगर मैं कहती हूं, उनसे...कि, मैं दुख़्तरेख़ान: हूं तो क्या हो गया ? बच्चों को पढ़ाना और उन्हें इल्म देना, मेरी दुख़्तरे रज़ है, इसका मुझे नाज़ है !
[दमे आब का एक घूंट पीकर, वह ज़ब्हा पर छाये पसीने को रुमाल से पोंछती है ! फिर, वह आगे कहती है !]
बेनज़ीर – जानती हो, ख़ाला ? एक लड़की होकर सच्चे दिल से, अब्बा हुज़ूर की ख़िदमत की है ! अरे ख़ाला, तुम्हें क्या मालुम ? जब अब्बाजान सख़्त बीमार थे, तब उनसे बिस्तर से उठा नहीं जा रहा था ! उस वक़्त उनको नहलाना-धुलाना, तो क्या ? उनका पैखाना तक साफ़ किया है, मैंने ! क्या कहूं, तुम्हें ? इस ज़माने में बेटे होते हैं, मां-बाप के लाडले..मगर जब उनको ख़िदमत की ज़रूरत होती है, तब ये लाडले और इनकी बीबियाँ ख़िदमत नहीं करती !
शमशाद बेग़म – सच्च कहती हैं, आप ! सच्चाई यही है, जिन बेटे और बहू को मां-बाप से ज़ायदाद मिलती है..वे सभी ख़िदमत के वक़्त गायब हो जाया करते हैं ! ख़ाली मां-बाप की दौलत लेने के लिए, हर-वक़्त तैयार ही मिलते है !
बेनज़ीर – अरी, ओ अल्लाह की पाक नमाज़ी, हमने तो बेटी होकर यह सब काम किया है..जो काम, बेटे को करना चाहिए था ! क्या ग़लत किया है, मैंने ? जो बेटे मां-बाप को भूल जाते हैं, जिन्होंने पैदा किया है उन्हें...
[इतना कहकर, बेनज़ीर चुप हो जाती है ! ग़मगीन होकर वह छत्त की तरफ़ देखने लगती है, फिर आकर वह कुर्सी पर बैठ जाती है ! मगर अब यह ख़ालाजान, कहाँ चुप बैठने वाली ? जो हफ्वात का मसाला दाऊद मियां को सुर्ती चखाने से मिलता आ रहा है, वह अब मुफ़्त में बड़ी बी से यकायक मिल रहा है...अब इसके सिवाय, ख़ाला को और क्या चाहिए ? अब वह चाय बनाती हुई, कहती है !]
शमशाद बेग़म – [चाय बनाती हुई] – हुज़ूर ! बेटे तो मां-बाप की ज़ायदाद पर अपना हक़ जतलाते आये हैं, हुज़ूर ! अब एक बात आपसे पूछती हूं...क्या आपके अब्बा हुज़ूर, आपके भाइयों के साथ नहीं रहते थे ? तो फिर, आप कहाँ रहती है ?
बेनज़ीर – [सीरियस होकर, कहती है] – यहाँ मेरे अलावा, उनकी देख-पाल करने वाला था कौन ? बस ये भाई तो शादी के बाद, बीबी को लेकर घर से अलग हो गए ! क्या कहें, ख़ाला आपसे ? आज़कल इस ख़िलक़त में ‘इन आज़ के लड़कों की यह रवायत बन गयी है ! क्या आज़ की पढ़ाई, इनको यही सिखाती है ?’
शमशाद बेग़म – ऐसा ही लगता है, हर ठौड़ यही देखा जा रहा है ! बेचारे वालेदान खून-पसीने की कमाई से इन बच्चों को बड़ा करते हैं, और ये कमाने लायक होते ही ये अपने बूढ़े-कमज़ोर मां-बाप को छोड़कर अलग हो जाते हैं !
[अब चाय उबलने लगी है, वह चाय में चमच डालकर हिलाती जा रही है..और साथ में कहती जा रही है !]
शमशाद बेग़म – [चाय को चमच से हिलाती हुई, कहती है] - जिस मकान में आप रहती है, क्या इस मकान को आपके वालिद ने बनाया..या फिर, यह मकान किराए पर लिया हुआ है ?
बेनज़ीर – ऐसा नहीं है, अब्बा हुज़ूर की दुआ से मैंने अपनी मेहनत की कमाई से यह मकान खड़ा किया है ! और अकेले ही इस मकान में अब्बा हुज़ूर के साथ रहती हुई, इस बुढ़ापे में उनकी ख़िदमत की है ! अब उनके इन्तिकाल के बाद, इसी मकान में अब्बा हुज़ूर की यादों के सहारे जी रही हूं ! मकान का हर पत्थर, मुझे उनकी याद दिलाता है !
शमशाद बेग़म – सच्च है, इस मकान में आपके वालिद की यादें जीवित है ! [पकड़ की मदद से, चाय का भगोना उतारती हुई] हुज़ूर, चाय तैयार है !
[चाय तैयार हो चुकी है, अब शमशाद बेग़म चाय को चलनी से छानकर जग में डालती है ! बाद में इस चाय को, चीनी के प्यालों में डालती है !]
बेनज़ीर – ख़ाला अब बोलो, मैं अकेले रहकर अपना जीवन बसर कर रही हूं...इसमें, मेरा क्या दोष ? पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैंने अपना जीवन अब्बा हुज़ूर की ख़िदमत में बिताकर भूल गयी ‘इस ख़िलक़त में बुजुर्गों की ख़िदमात के अलावा, ज़िन्दगी जीने का और भी कोई पहलू है !’ उम्र ढल चुकी है, अब तो ख़िलवत पसंदी मेरी ज़िंदगी बन गयी है, ख़ाला ! मैं शुक्रगुज़ार हूं सरकार की, जिसने इस ज़िन्दगी को गुज़ारने का ज़रिया मुझे दे दिया...
शमशाद बेग़म – ऐसा कौनसा ज़रिया है, हुज़ूर ?
बेनज़ीर – यह ज़रिया है, बड़ी की कुर्सी ! अब, फिर क्या ? बच्चियों को अच्छी तालीम देना ही, मेरा मक़सद बन गया ! फ़र्ज़ को निभाते हुए किसी को कुछ कहना भी पड़े, उसके लिए मैं मुख़्ती नहीं !
[कहाँ तो शमशाद बेग़म को, हफ्वात का मसाला मुफ़्त में मिल रहा था ? मगर यहाँ तो बेनज़ीर देने लगी लम्बी तक़रीर, जिसे सुनकर शमशाद बेग़म के कान पक जाते हैं ! अगर यहाँ बेनज़ीर की तक़रीर सुनने बैठ जाए तो, चाय ठंडी हो जाय ? बेचारी इस स्थिति में फंसकर, हो जाती है परेशान ! अब वह सोचने लगती है कि, ‘तश्तरी में चाय के प्याले रखकर, झट किसी तरह यहाँ से निकलूँ...और स्टाफ़ को चाय के प्याले थमाकर, दो मिनट कहीं बैठकर आराम की सांस लूं ?’ आख़िर, हिम्मत करके वह तश्तरी उठाये वहां से जाने के लिए तैयार हो जाती है ! तभी बेनज़ीर अपनी तक़रीर को आगे बढ़ती हुई, आगे कहती है !]
बेनज़ीर – दबीस्ते सियासत को चलाने के लिए स्टाफ़ को बुरा-भला कहना ही पड़ेगा, चाहे ये मुख़्तारेकार नाराज़ हो या ख़ुश ? कहना तो पड़ेगा ही...यह कुर्सी मेरे वालिद की नहीं, जो मैं इनसे अपने घर के काम लेती हूं..?
[इतना कहकर, बेनज़ीर ग़मगीन हो जाती है ! शमशाद बेग़म अब चाय का प्याला बड़ी बी थमाकर, तश्तरी लिए दाऊद मियां के कमरे की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा देती है ! जमाल मियां के चले जाने के बाद उनकी बीबी सरयू उनके स्थान पर काम करने लगी है, जो दाऊद मियां के कमरे में उनके पास बैठा करती है ! अब शमशाद बेग़म कमरे में दाख़िल होती है ! वहां फर्श पर दरी बिछी है, उस पर बैठी सरयू बी स्कूल की दूसरी मेडमों के साथ लंच ले रही है ! सरयू बी के इस स्कूल में ड्यूटी ज्वाइन करने के बाद, स्कूल की मेडमें अक्सर यहाँ बैठकर लंच लेती है ! दूसरा कारण यह भी है, यह बड़ी बी लंच के वक़्त आकर टी-क्लब वाले स्थान यानी बरामदे में बैठ जाया करती है ! शेरखान साहब तो वैसे भी, अपना ख़ाली वक़्त दाऊद मियां के पास बैठकर गुज़ारा करते हैं ! अभी ये शेरखान साहब, दाऊद मियां के पहलू में बैठे हैं ! सभी मेडमों को चाय का प्याला थमाकर, अब शमशाद बेग़म इनके पास चली आती है, फिर इन दोनों को चाय का प्याला थमाकर इन दोनों मुअज्ज़मों से कहती है !]
शमशाद बेग़म – [चाय का प्याला थमाकर, कहती है] – अब आप बैठे-बैठे मसालेदार गरमा-गरम चाय की चुस्कियां लेते हुए, आराम से बातें करते रहें ! हमारा तो पेट भर चुका है, आलिमा की तक़रीरें सुनकर ! हाय अल्लाह, हमारी ज़िंदगी में अब अमन-चैन कहाँ ? घर पर अपने शौहर का फ़रमाइशी प्रोग्राम सुनते रहें, और यहाँ स्कूल में आकर बड़ी बी आलिमा का....
[अब वह दाऊद मियां के पास रखी ख़ाली कुर्सी पर बैठ जाती हैं, और तश्तरी से अपना चाय का प्याला उठाकर उसे टेबल पर रख देती है ! फिर वहीँ टेबल के पास रखी अपनी थैली उठाती है, उसमें से सर-दर्द की गोली सेरिडोन बाहर निकालकर पानी के साथ गिटती है ! गोली गिटने के बाद, वह पानी के जग को वापस टेबल पर रखती है ! फिर, कहती है !]
शमशाद बेग़म – [जग को टेबल पर रखकर, कहती है] – ए पीर दुल्ले शाह अभी सर-दर्द की गोली ली है, बस बाबा ऐसी मेहरबानी करना कि मुझे वापस सर-दर्द की गोली गिटनी न पड़े ! बाबा यह मुझ पर मेहरबानी ज़रूर करना, सदका उतारूं..आपके प्रसाद की रेवड़ियां, फ़क़ीरों में बाँट दूंगी !
[तभी एक बच्ची कमरे में दाख़िल होती है, और आकर शमशाद बेग़म से कहती है !]
बच्ची – [शमशाद बेग़म से, कहती है] – ख़ालाजान ! आपको बड़ी बी बुला रही है ! आप, जल्दी आना !
[इतना कहकर, वह बच्ची लौट जाती है ! अब इस बच्ची की बात सुनकर, शेरखान साहब और दाऊद मियां ठहाका लगाकर हंस पड़ते हैं ! फिर क्या ? दाऊद मियां तो तपाक से, ताना कसते हुए शमशाद बेग़म से कहते हैं !]
दाऊद मियां – हम फ़क़ीर लोग कहीं जाने वाले नहीं, ख़ाला आप बेफ़िक्र रहें ! वापस आकर, आप हमें रेवड़ियां बाँट सकती है ! बस अभी तो आप तशरीफ़ रखें, कहीं आपके वहां न पहुँचने से यहाँ तूफ़ान यहाँ न खड़ा न हो जाय..?
[खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे, जैसी स्थिति बन गयी बेचारी शमशाद बेग़म की ! अब बेचारी फ़टाफ़ट चाय पीकर, झट वहां से रुख़्सत होती है ! मगर जैसे ही वह बेनज़ीर के निकट आती है, वह बेनज़ीर उसे देखती ही अगला हुक्म सुना देती है !]
बेनज़ीर – जाओ, सलमा मेडम को बुला लाओ !
शमशाद बेग़म – [होंठों में ही, कहती है] – हाय अल्लाह, यह क्या ? सलमा मेडम को बुलाने की बात, उस बच्ची के साथ कहला देती...ख़ुदा की पनाह, इसे तो मेरे पांवों से ही दुश्मनी है...!
बेनज़ीर – अरे ओ मेरी मां, दिल में काहे गलीज़ गालियाँ दे रही हो ? जाओ, लेकर आओ...
शमशाद बेग़म – हुज़ूर, अभी सलमा मेडम लंच ले रही है ! बाद में, बुला लाऊंगी !
बेनज़ीर – [गुस्से में] – हुक्म अदूली ना करो, ख़ाला ! जाओ, इसी वक़्त....
[शमशाद बेग़म वापस लौट आती है, कमरे में ! उसको कमरे में दाख़िल होते देख, सभी मेडमें ख़िलखिलाकर ज़ोर से हंस पड़ती है ! और इन लोगों के ठहाकों के साथ, दाऊद मियां के भी ठहाके कमरे की दीवारों को गूंजा देते हैं ! अब सलमा मेडम मुस्कराती हुई, शमशाद बेग़म से कहती है !]
सलमा बी – [मुस्कराती हुई, कहती है] - लगता है ख़ाला, दवाई लेकर आ गयी गयी हैं आप ?
शमशाद बेग़म – [गुस्से से] – क्या कहा ? दवाई लाना, क्या ? पीकर भी आ गयी हूं, मैं ! चलिए अब आपको बुलाया है बड़ी बी ने, अब आप भी दवाई पीकर आ जाएँ ! जाइए, जाइए ! अगर आपने देर की तो, आपको इंजेक्शन भी लगवाना पड़ेगा ! फिर...
दाऊद मियां – [सलमा बी से] – आप जल्दी चले जाइए, मेडम ! वहां जाते ही, दो मिनट में आपका चढ़ा चिकुनगुनिया का बुख़ार हो जाएगा गायब..वह भी, हमेशा के लिए !
सरयू बी – [रोटी का निवाला चबाती हुई, कहती है] – हाय अल्लाह, यह क्या ? परवरदीगार तूने यह क्या कर डाला ? इस बेनज़ीर को बड़ी बी ना बनाकर, तुमने तो इसे ज़ल्लादों की ख़ाला की मंजूषा बनाकर रख दी ! थकी हारी सलमा बी रोटी के दो कोर अपने मुंह में डाल लेती, तो मेरी अम्मा तेरा क्या जाता ?
शमशाद बेग़म – अल्लाह मियां के घर में इंसाफ़ है....यह बड़ी बी वहां जाकर, क्या अपना मुंह दिखलाएगी ? [सरयू बी का रिदका सर से उतरकर कंधे पर आ गया है, उसे अपना सर ढकने का इशारा करती हुई कहती है] अरे अभी तो अपना सर पर पल्लू से ढक दो, मेडम ! न तो यह बेरहम....
[सरयू बी उठकर, रिदके से सर ढकती है ! इधर, सलमा बी कहती है !]
सलमा बी – जाने दीजिये, सरयू बी ! उसे रहम नहीं आता, तो क्या ? अल्लाहताआला सब देख रहा है, तब ऐसी आलिमेरोज़गार से क्या डरना ? [टिफ़िन बंद करके, उठती है] खाना तो वह अब खाने देगी नहीं, अब जाती हूं, जूठे हाथ बाहर नल के नीचे धो लूंगी !]
[सलमा बी रुख़्सत होती है ! उधर बाहर ज़ाफरी में बैठी बेनज़ीर, अब आक़िल मियां को आवाज़ देती है ! मगर, वे अपने कमरे से बाहर न आकर वहीँ से ज़ोर से बोलते हुए ज़वाब दे देते हैं !
आक़िल मियां – [ज़ोर से] - हुज़ूर, रोकड़ का भौतिक सत्यापन आप कर सकती हैं, रोकड़ तैयार कर लिया गया ! आ जाइए, जनाब !
[सलमा बी नल के पास जाकर, अपने हाथ धोती है ! फिर वह, बेनज़ीर के निकट आती है ! नज़दीक आकर, वह बेनज़ीर से कहती है !]
सलमा बी – [नज़दीक आकर] – क्या हुक्म है, मेडम ?
[बेनज़ीर आँखें तरेरकर, सलमा बी को देखती है ! फिर, कहती है !]
बेनज़ीर – [सलमा बी को बिठाने के लिए, ख़ाली कुर्सी आगे खिसकाती हुई] – आप बैठ जाइए, एक बार !
[बड़े बॉक्स पर कई खड़िया [चोक] के डब्बे रखे हैं, क्लास टीचर के मंगवाने पर एक बच्ची वहां खड़िया लेने आयी है ! उसे देखकर, बड़ी बी उसे आवाज़ देती हुई कहती है !]
बेनज़ीर – अरी ओ जमाल मियां की नेक दुख़्तर ज़रीना, ज़रा इधर आना तो...! [ज़रीना पास आती है] ज़रा, सलमा मेडम को पानी पिलाना ! [उठती हुई, सलाम बी से कहती है] मेडम आप कहीं मत जाना, मैं जस्ट वापस आ रही हूं !
[बेनज़ीर जाती है, तभी ज़रीना पानी से भरा लोटा लिए आती है ! फिर उस लोटे को, सलमा बी को थमाकर, वह वापस खड़िया लेने चली जाती है ! इधर शमशाद बेग़म चाय के झूठे प्याले इकट्ठे करके लाती है ! फिर चाय बनाने के बर्तनों के साथ, उन सबको नल के नीचे रख देती है ! फिर क्या ? मुक़्तजाए फ़ितरत वापस दाऊद मियां के कमरे में लौट आती है, और फिर पानी के साथ सेरिडोन की गोली गिटती है ! अब तसल्ली से कुर्सी पर बैठकर थैली से ज़र्दा और चूना बाहर निकालती है, फिर वह सुर्ती बनाने लगती है ! सुर्ती तैयार होने के बाद, दाऊद मियां को चखाने के लिए उस सुर्ती को हथेली में रखकर उनके सामने लाती है !
शमशाद बेग़म – [दाऊद मियां को सुर्ती थमाती हुई, कहती है] - लीजिये हुज़ूर, सुर्ती ! [दाऊद मियां के सुर्ती उठाने के बाद, बची हुई सुर्ती अपने होंठों के नीचे दबाती है..फिर, बेदिली से कहती है] घर में रहूँ तो दुःख, स्कूल में आती हूं तो भी दुःख..करूँ क्या ? वहां अपने शौहर की फ़रमाइश पूरी करती रहूँ, तो यहाँ यह बेरहम बड़ी बी...मुझ पर लाद देती है, दुखों का पहाड़ !
शेरखान – हिम्मत रखो, ख़ाला ! ऐसे कह देने से, दुःख ख़त्म नहीं होते !
शमशाद बेग़म – क्या करूँ, बाबजी ? उससे बेपनाह इस बेबक़ा जिस्म से बेनियाज़ हो गयी, या ख़ुदा अब उठा ले...मुझ दुदस्त दुखी इंसान को, निज़ात दिला दे क़ब्र में !
दाऊद मियां – [पीक थूककर] – अपने-आपको बेपनाह मत समझो, ख़ाला ! जिसका कोई नहीं, उसका ख़ुदा है ! अपने दिल-ए-दर्द को बेदिरेग़ बयान कर लीजिये, दिल को तसल्ली मिल जायेगी ख़ाला ! इस बेदिली से, निज़ात मिल जायेगी !
[अब थैली से खाने का सट बाहर निकालकर, टेबल पर रखती है ! फिर उस सट को खोलकर, रोटी का कोर तोड़ती है ! फिर उसे, प्याज़ की सब्जी में डूबाकर खाने लगती है ! अब उस कोर को चबाती हुई, वह कहती है !]
शमशाद बेग़म – हुज़ूर, आपके इन दो अल्फ़ाज़ से इस दिल को तसल्ली मिली ! कुछ चैन मिला, अब एक रोटी प्याज़ के साथ खा लेती हूं ! आख़िर ज़िंदा रहने के लिए, इस बेबक़ा जिस्म को दो रोटी की ज़रूरत रहती है !
दाऊद मियां – गला घोंटकर या ज़हर पीकर मर जाना, ख़ुदकुशी कहलाती है ! ख़ुदकुशी करने वाले इंसान को, दोज़ख़ नसीब होता है ! ख़ाला, क़यामत के दिन ख़ुदा को ज़वाब देना है !
शमशाद बेग़म – [सरयू बी की तरफ़ देखती हुई] – बीबी, क्या आपने खाना खा लिया ?
[सरयू बी इतना सुनते ही, झट अपनी अलमारी के पास जाती है ! फिर उसे खोलती है, और उसमें रखी आम के अचार की शीशी को बाहर निकालती है ! फिर, उसे शमशाद बेग़म को थमा देती है ! वह शमशाद बेग़म से, कहती है !]
सरयू बी – हमारा दस्तरख़्वान तो ख़ाला, चाय के पहले लग जाया करता है ! लीजिये ख़ाला, यह आम का अचार घर का बना हुआ है..बहुत टेस्टी है !
शमशाद बेग़म सरयू बी से, आम का अचार ले लेती है !]
दाऊद मियां – क्या हुआ था, ख़ाला ? आप कुछ कहना चाहती थी, ना..? आप बेदिरेग़ बयान करें, बड़ी बी इधर आने वाली नहीं ! आक़िल मियां के कमरे में, गयी हुई है !
शमाशाद बेगम – उनके पास क्यों ? उनका मग़ज खाने..?
शेरखान – उनका मग़ज खाना, कोई आसन काम नहीं ! वे तो ऐसे हैं ख़ाला, हर मुद्दे पर आला दर्जे की तक़रीर पेश करते हैं ! बेख़ौफ़ रहें आप, वहां तो तक़रीरों के तीर चल रहे होंगे ?
शमशाद बेग़म – [दाऊद मियां से] - हुज़ूर, आप आली ज़र्फ़ हैं ! ना तो कहाँ इतनी हिम्मत होती, मुझमें...? ये ग़म भरी बातें, आपके सामने रखने की ? हुज़ूर, आपको कहकर अपना दिल हल्का किया करती हूं ! घर के कई वाकये होते हैं, जिन पर आपकी राय..
दाऊद मियां – कहो, ख़ाला कहो ! चुप क्यों हो ?
शमशाद बेग़म – आप तो जानते ही हैं, उस छोटी दुख़्तर रजिया को ? जनाब, उसका मर्द कमाता-धमाता कुछ नहीं ! वह तो दुख़्तरे रज [शराब] पीने का आदी हो गया ! रजिया की सास व ननद तो हुज़ूर, शैतान की ख़ाला निकली...बेचारी को, रोटी के लिए तरसाती है ! एक बार हुज़ूर, हद हो गयी....
दाऊद मियां – आप कहती जाएँ ख़ाला, आप बेख़ौफ़ कह सकती है !
शमशाद बेग़म – हाय ख़ुदा, क्या कहूं आपसे ? रजिया ने अपने शौहर को, ख़ाली कमाने का ही कहा..! बस, फिर क्या ? ये दोनों मां-बेटी बेनियाम होकर, पिल पड़ी बेचारी रजिया पर ! चोटी पकड़कर, उसे घसीटा और फिर ले आयी उसे बीच आंगन में !
शेरखान – फिर क्या हुआ ? आगे कहो, ख़ाला !
शमशाद बेग़म – तब बेचारी रजिया ने अपने बचाव में, उनका हाथ क्या झटक दिया ? हाय ख़ुदा, उस बुढ़िया ने मोहल्ले के लोगों को इकट्ठा करके उनको सुनाने लगी कि...’देखो रे.., इस छोरी ने मेरे ऊपर हाथ उठाया है...
दाऊद मियां – [बात पूरी करते हुए] – यही कहा होगा उसने, ‘इस छोरी को न तहज़ीब है, ना तमीज़..इसकी कुंजड़ी मां ने आख़िर, सिखाया क्या इसे ?’ आगे बोलो, ख़ाला ! आगे क्या हुआ ?
शमशाद बेग़म – यही कहा, हुज़ूर ! बस इतना सुनते ही, रजिया आग-बबूली हो गयी और फट पड़ी...कहने लगी “ओ निखट्टू की अम्मा..शैतान की ख़ाला ! तुम्हारे घर में तामचीनी की पतेली तक नसीब नहीं, तुम्हारा भाई कंधो पर बोरिया लादते-लादते कुकडू कू बना फिरता है...’’
दाऊद मियां – अरे ख़ुदा ! क्या ज़माना आ गया ? एक मेहनती व ख़ुद्दार औरत पर, सरासर झूठी तोहमत ? आगे कहो ख़ाला, क्या हुआ ?
शमशाद बेग़म – रजिया ने कहा ‘मेरी मां के आली तबार से काहे बराबरी करती हो ? वह कुंजड़ी नहीं, तुम्हारे जैसे दस मिनखों को खाना खिला सकती है, वह ठहरी सरकारी मुलाज़िम ! [आँखों में आये अश्कों को, पल्लू से पोंछती है] फिर क्या ? घमासान लड़ाई छिड़ गयी, मियां !
दाऊद मियां – रोओ मत ख़ाला, इन अश्कों को जाया न करो..ये बड़े क़ीमती हैं !
शमशाद बेग़म – अब आगे क्या कहूं, मियां ? वह तो रजिया थी, समझदार..वह सीधी रेल में बैठकर, पहुंच गई यहाँ ! और पीछे-पीछे, उसका मर्द भी यहाँ आ गया....निक्कमा कहीं का ! अब आगे क्या बयान करूँ, मियां ? यहाँ तो चार जनों का पेट भरना हो रहा है, मुश्किल ! ऊपर से, ये दो और आ गए..!
शेरखान – बहुत तक़लीफ़ देख रही हो, ख़ाला ! फिर कुछ किया, आपने ?
शमशाद बेग़म – अब इन नए मेहमानों की आवभगत करना, हमारी औकात के बाहर है ! इन दोनों को खाना खिलाऊं, इसके मर्द को रोज़गार दिलाऊं...अब क्या-क्या करूँ, मियां ? मेरे समझ में, कुछ नहीं आ रहा है..? हाय अल्लाह, पास पैसे नहीं...यहाँ तो यह हाल है कि, ‘घर में नहीं है दाने, और अम्मा चली भुनाने !’
[इतना कहकर, शमशाद बेग़म चुप हो जाती है ! अब चारों तरफ़ सन्नाटा छा जाता है, दीवार पर टंगी घड़ी को देखकर शमशाद बेग़म उठती है ! और उठकर, वह घंटी लगाने चल देती है ! थोड़ी देर बाद, मंच पर अँधेरा छा जाता है !]
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १६, राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित मंज़र ३ “जोलिद:बयां”
[मंच रोशन होता है, ज़ाफ़री का मंज़र सामने आता है ! जहां एक टेबल रखी है, उसके आस-पास कुर्सिया रखी है ! अभी यहाँ बड़ी बी बेनज़ीर और सलमा बी, कुर्सियों पर बैठी नज़र आ रही हैं ! अब शमशाद बेग़म आती है, और बॉक्स पर रखे घंटी के डंडे को उठाकर घंटी लगा देती है ! फिर डंडा यथास्थान रखकर, बड़ी बी के पास आती है ! उसके चेहरे को देखती हुई, बेनज़ीर कहती है !]
बेनज़ीर – [ताना देती हुई] – अरी ओ मेरी अम्मा, पूरी दास्तान सुनाकर आ गयी ? या और कुछ, सुनानी बाकी है ? बकाया काम याद है, आपको ? होल साफ़ करना है, फिर ख़करोब के घर जाना है...बाद में ! अभी-तक, यह निखट्टू ख़करोब आया नहीं ! अब आप, यहाँ क्यों खड़ी हैं ?
शमशाद बेग़म – हुज़ूर, ज़रा...
बेनज़ीर – जाइए...अपना काम कीजिये..क्यों बेतकल्लुफ़ में यहाँ खड़ी हैं ?
[शमशाद बेग़म झाड़ू लेने के लिए टी-क्लब की टेबल के पास आती है, वहां आते ही कमरे में बैठे आक़िल मियां की नज़र उस पर गिरती है ! वे झट उसे आवाज़ देकर, कमरे में बुलाते हैं !]
शमशाद बेग़म – [अन्दर आकर] – हुक्म कीजिये, हुज़ूर !
आक़िल मियां – रोकड़ बही तैयार है, लीजिये ...अब जाकर, बड़ी बी के दस्तख़त करवाकर इसे वापस ला दीजिये ! वापस आकर, कमरा बंद करके ताला जड़ देना ! जल्दी जाओ, मुझे अभी रुख़्सत होना है !
शमशाद बेग़म – ज़रा अलील है, पैसों की सख़्त ज़रूरत है ! हुज़ूर, पांच सौ रुपयों का बंदोबस्त हो सकता है ?
[इतना कहकर वह टी-क्लब की टेबल पर रखी थैली से, अपनी डायरी निकाल लाती है ! तब-तक आक़िल मियां कहाँ ठहरने वाले ? वे झट रोकड़ बही ख़ुद उठाकर, दस्तख़त करवाने के लिए बड़ी बी के पास चले जाते हैं ! वहां जाकर, रोकड़ बही को मेज़ पर रखते हैं ! फिर, पास रखी कुर्सी पर बैठ जाते हैं ! इस वक़्त बेनज़ीर और सलमा बी के बीच गुफ़्तगू चल रही है !]
सलमा बी – [बेनज़ीर से] - आप जानती है, बड़ी बी ? मेरी सास बीमार है..इधर मुझे भी चिकनगुनिया बुख़ार हो गया ! जिससे मेरे घुटनों में बराबर दर्द बना रहता है, और मुझसे पैदल नहीं चला जा रहा है !
बेनज़ीर – सरकारी हुक्म है, मोहतरमा ! आपको तामील करना ही होगा ! जानती हैं, ‘आप एक जिम्मेदार सरकारी मुलाज़िम हैं !’ चलिए आप यह बताइये, आपके सिवाय इस स्कूल में गाइड टीचर है कौन ? कहिये, फिर बच्चियों को लेकर जाएगा कौन जम्बूरी में ?
[सहसा बेनज़ीर की फ़राख़ नज़र, निठठ्ली खड़ी शमशाद बेग़म पर गिरती है ! फिर क्या ? वह झट, उसे हुक्म देती है !]
बेनज़ीर – अरी ओ, ख़ालाजान ! जाओ दाऊद से कह दो कि, जम्बूरी में सलमा बी जायेगी ! उनका रिलीविंग आर्डर तैयार करके, मेरे पास लायें !
[हेड ऑफिस से आया ख़त, जिसमें जम्बूरी लगने की इतला के साथ लिखा है कि, गाइड टीचर के साथ, गाइड की बच्चियों को जम्बूरी स्थान श्री नगर भेजा जाय...वहां बच्चियां ट्रेनिंग लेगी !’ उसको इतना कहने के बाद उस ख़त को, शमशाद बी को देती है ! अब काग़ज़ लेकर, शमशाद बेग़म जाती है !]
बेनज़ीर – हां सलमा बी ! मैं आपसे कह रही थी कि, यह स्कूल जन्नत की कोलोनी नहीं है ! यहाँ मेहनत करनी पड़ती है ! कई सुख-आराम छोड़ने पड़ते हैं..तब कहीं जाकर, यह सरकार दो पैसे आपके हाथ में रखती है ! देखो मुझे, इस नौकरी के लिए क्या-क्या नहीं करती हूं ? सुबह चार बजे...
सलमा बी – [बेमन से] – बड़ी बी ! मुझे...
बेनज़ीर – [तपाक से] – चुप रहो, बीबी ! पहले मेरी बात को सुना करो ! सुनो..चार बजे उठने के बाद, नहा-धोकर खाना बनाती हूं ! फिर नमाज़ पढ़ती हूं, इसके बाद इस स्कूल में सुबह छह बजे आ जाती हूं ! फिर क्या ? स्कूल की छुट्टी होने के बाद, शाम के छह बजे घर पहुँचती हूं !
सलमा बी – मेडम, ज़रा सुनिए !
बेनज़ीर – बाद में सुन लूंगी, पहले बोलो बीबी...क्या मेरा जिस्म, आराम करना नहीं चाहता..? क्या मेरे दिल में यह इच्छा नहीं होती कि, ‘मैं अपनी मां और अपने भाइयों से, मिलकर आऊँ ?’ मगर करें, क्या ? हमारा पहला उसूल है, इन बच्चियों को तालीम देना ! जब हम-ख़ुद तालीमयाफ़्ता हैं, तब ये बच्चियां हमसे ही कुछ सिखेगी !
[आक़िल मियां उठते हैं, रुख़्सत होने के लिए ! फिर जाकर, कमरे से अपना बेग लेकर आ जाते हैं वहां ! बेग को कुर्सी पर रखकर वे कुछ कहना चाहते हैं, मगर बेनज़ीर उन्हें बोलने का कोई मौक़ा नहीं देती है ! तभी, शमशाद बेग़म लौटकर आ जाती है !]
बेनज़ीर – [आक़िल मियां से] – कहाँ जाने की तैयारी हो रही है, जनाब ? अभी शाम के पांच बजने में, काफ़ी वक़्त है ! [तभी खिड़की के पास रखे, फ़ोन पर घंटी आती है !] जाइए, उठाइये, फ़ोन ! न जाने, किसका फ़ोन आया है ?
[आक़िल मिया जाकर, फ़ोन का चोगा उठाकर कान के पास ले जाते हैं ! फ़ोन सुनकर, शमशाद बेग़म को आवाज़ देकर बुलाते हैं....फिर उसे, उसे चोगा थमा देते हैं ! फ़ोन का चोगा थामने के बाद, वे वापस बेनज़ीर के पास चले आते हैं !]
आक़िल मियां – [बेनज़ीर से] – ख़ाला की दुख़्तर रजिया का फ़ोन है ! अब बड़ी बी, ज़रा रोकड़ बही पर दस्तख़त कर दीजिये ना, फारिग़ हो जाऊंगा...बहुत देर हो चुकी है, मुझे !
बेनज़ीर – [लबों पर मुस्कान लाकर, कहती है] – जनाब ! पहले कुर्सी पर बैठिये तो सही...[तल्खी से] खड़े क्या हो..? बैठ जाओ, आराम से ! [खड़िया ले जा रही दुख़्तर को रोककर, कहती हैं] अरी ओ नेक दुख़्तर ! ज़रा, बड़े बाबूजी को पानी पिलाना ! दिन-भर काम करते-करते थक गए हैं, बेचारे....
[दुख़्तर पानी पिलाकर, चली जाती है ! चोगा क्रेडिल पर रखकर, शमशाद बेग़म आती है !]
शमशाद बेग़म – [बेनज़ीर से] - हुज़ूर ! रजिया का फ़ोन था..कह रही थी कि, “अम्मीजान ! जल्दी, घर आ जाओ ! अब्बूजान की तबीयत नासाज़ है ! अब दमेतस्लीम चाहती हूं...[थैली उठाती है !]
बेनज़ीर – [नाराज़गी से] – जाइए...जाइये, मोहतरमा ! अब तो, सभी जाने का ही कहेंगे..कोई ऐसा नहीं है, जो रुकने का नाम लेता हो ? आख़िर, हम बैठे हैं ना स्कूल में ? [थोड़ी सीरियस हो जाती है] देखो ख़ाला ! जाने के पहले तौफ़ीक़ मियां को फ़ोन कर देना, और कह देना कि ‘उनको, बड़ी बी ने जल्द बुलाया है !’
शमशाद बेग़म – और कुछ कहना है, मेडम ?
बेनज़ीर – और साथ कहना कि, छुट्टी होने के बाद स्कूल के सारे दरवाजों पर ताले आपको ही जड़ने हैं ! साथ में यह भी याद दिला देना, जब-तक आप यहाँ तशरीफ़ नहीं लायेंगे..तब-तक बड़ी बी स्कूल में ही बैठी रहेगी !
[सलमा बी जाती है, और शमशाद बेग़म चोगा उठाकर नंबर डायल करती है !]
आक़िल मियां – [बेनज़ीर से] तौफ़ीक़ मियां को न बुलाओ, बड़ी बी ! वे बेचारे सुबह की पारी में ड्यूटी दे चुके हैं ! इधर ठहरा, रमज़ान का पाक महिना ! रोज़ह रखने वाले मोमीन को तक़लीफ़ देने से, ख़ुदा भी ख़फ़ा हो जाता हैं !
बेनज़ीर – देखिये, आप अपना काम कीजिये ! फ़िज़ूल में, स्कूल के के कामों में दख़ल देना अच्छा नहीं !
आक़िल मियां – हुज़ूर, आज़ जुम्मा भी है ! जुम्मे की नमाज़ पढ़ने तक, रोज़ह खोलने का वक़्त हो जाएगा ! बेचारे...
बेनज़ीर – [गुस्से में] – बोलिए, क्या आप दरवाज़े बंद करवा देंगे ? [उनके ज़वाब नहीं देने पर, वह वापस कहती है] जनाब से कोई काम होता नहीं, फ़िजूल में बीच में बोलकर अपना और मेरा वक़्त जाया करते हैं ! अब जाइए, अपना काम कीजिये ! इस रोकड़ बही को, यहीं छोड़ दीजिये ! इस रोकड़ बही की अच्छी तरह से जांच करके, दस्तख़त कल करूंगी ! आपको मैं रोकूंगी नहीं, आप शाम के पांच बजे के बाद स्कूल से रुख़्सत हो सकते हैं !
[इतना कहकर, बेनज़ीर सीट से उठ जाती है ! और बिना आवाज़ किये बिल्ली की तरह दबे पाँव दाऊद मियां के कमरे के बाहर आती है ! वहां कमरे के दरवाजे से सटकर, खड़ी हो जाती है ! कमरे में दाऊद मियां व सलमा बी के बीच गुफ़्तगू चल रही है ! पास में, कुर्सी पर बैठे मियां शेरखान झपकी ले रहे हैं !]
दाऊद मियां – [सलमा बी से] – सलमा बी ! इस जोलिद:बयां से बचने का केवल एक ही रास्ता है, वह यह है आप मेडिकल छुट्टी ले लीजिये ! मेडिकल छुट्टी लेने की अर्जी, आप घर से भेज देना !
सलमा बी – [रुआंसी होकर] - हुज़ूर, हमने गाइड का चार्ज क्या लिया ? अब ना तौ मुझे घर में चैन, और न रहा स्कूल में चैन ! बार-बार ये कम्बख़्त ट्रेनिंगे...मिटिंगे..? इन सबके कारण, मेरी एक तिहाई छुट्टियां क़ुरबान हो चुकी है ! ख़ुदा की पनाह ! बस, अब इस जोलिद:बयां से निज़ात दिला दे मेरे मोला !
दाऊद मियां – इतने ग़मगीन मत बनों, सलमा बी ! अल्लाह पर भरोसा रखो, वह ज़रूर आपको राह दिखलायेगा !
सलमा बी – [ग़मगीन होकर] – क्या करूँ, दाऊद मियां ? यह मोहतरमा तो खंजर लिए, मेरी छुट्टियों को हलाल करने...पीछे पड़ी है ! या मेरे मोला, कुछ कर ! ना तो यह नेकबंदी.....
[तभी बेनज़ीर अन्दर दाख़िल होती है !]
बेनज़ीर – [हंसती हुई, कहती है] – आली नज़र वालों ! हम बेतुकी बातें करने वाली ज़ालिम जोलिद:बयां हैं ! [सलमा बी से] कहिये सलमा बी, ये आपके दाऊद मियां है ना...जिन्हें आप आली ज़र्फ़ कहती है, वे अब आपको रिलीविंग आर्डर देंगे ! [दाऊद मियां से, कहती है] सुन रहे हो, दाऊद मियां ? मैं क्या कह रही हूं ?
दाऊद मियां – [तैयार रिलीविंग आर्डर, बड़ी बी को थमाते हैं] - क्यों नहीं मेडम, क्यों नहीं ? लीजिये पहले आप इस हुक्म पर अपने दस्तख़त कीजिएगा ! फिर, यह दिया इनको ! [बड़ी बी रिलीविंग आर्डर पर अपने दस्तख़त करके, उसे वापस दाऊद मियां को लौटा देती है ! वे ऑफिस कॉपी के साथ रिलीविंग आर्डर, सलमा बी को थमाते हैं] हुज़ूर आख़िर, हम दफ़्तर-ए-आज़म की कुर्सी पर क्यों बैठे हैं ? हुज़ूर, हम दफ़्तर के काम से घबराने वाले नहीं हैं !
[सलमा बी ऑफिस कॉपी पर ख़त लेने दस्तख़त करके दाऊद मियां को ऑफिस कॉपी वापस लौटा देती है ! फिर वह उनको, ज़हरीली नज़रों से देखती है ! दिल में, सोचती जा रही है “हाय अल्लाह ! यह कैसा ख़िलक़त है ? जहां इंसान का खास्सा, झट बदल जाता है ! अभी तो मियां मेरी तरफ़ बोल रहे थे, और बड़ी बी के आते ही झट गिरगिट की तरह रंग बदलकर इन्होने पाला बदल डाला..?” इस तरह दबिस्तान-ए-सियासत की चाल चलकर, बेनज़ीर ने दाऊद मियां को अपनी तरफ़ झुकाकर फ़तेह हासिल कर ली है ! खुश होकर, बेनज़ीर रुख़्सत होती है ! थोड़ी देर बाद, बाहर बरामदे में बेनज़ीर के ठहाके गूंज उठते हैं ! उधर ज़ाफ़री में बतिया रही मेडमें उसकी आवाज़ सुनकर, झट अपनी-अपनी क्लासों में चली जाती है ! इस मंज़र को देख रही शमशाद बेग़म घबरा जाती है, उसे आशंका हो जाती है...बड़ी मुश्किल से घर जाने की इज़ाज़त मिली है, कहीं अब यह बड़ी बी उसे वापस न रोक ले ? ख़ुदा की पनाह, अब तो यहाँ से निकलना ही बेहतर है ! यह सोचकर वह झट थैली उठाती है, फिर तेज़ रफ़्तार से मेन गेट की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा देती है ! इस तरह शमशाद बेग़म को जल्दबाज़ी से गुज़रते देखकर, दुकान पर बैठे मनु भाई उसको पीछे से आवाज़ देते हैं ! मगर, शमशाद बेग़म रुकने का नाम नहीं लेती..बस, पीछे मुड़कर वह ज़ोर से चिल्लाती हुई कहती जाती जा रही है !]
शमशाद बेग़म – [पीछे मुड़कर, कहती है] – भागो..भागो..! जोलिद:बयां आ न जाय ..?
[मंच पर, अँधेरा छा जाता है !]
कठिन शब्द – [१] तवास्सुत = बीच की राह, [२] तशक़्क़कुक़ = फटना, [३] तल्ख़गो = कटु भाषी, [४] मुक़्तजाए फ़ितरत = स्वाभाव का तकाज़ा, [५] मुख़त्विफ़ = त्रासक, डराने वाला, [६] मुख़ातबात = ख़तोकिताबत, परस्पर बातचीत, [७] जोलिद:बयां = उलझी-उलझी बातें करने वाली, [८] निशस्त = गोष्ठी, बैठक, [९] नियाज़मंद = आज्ञाकारी, [१०] नियोश = सुनने वाला, [११] निश्तर = शल्य क्रिया, [१२] दुख़्तर = लड़की, बेटी, [१३] निफ्रीं = लानत, [१४] दमबदम = हरदम, [१५] दमे चंद = थोड़ी देर, [१६] दस्त अंदाजी = बाधा डालने, [१७] दमकश = मौन, [१८] आलेमेरोज़गार = सांसारिक कष्ट, [१९] मुग़्ल्लज़ात = गन्दी गालियाँ, [२०] मुख़्ती = कसूरवार, [२१] मुख़्बिरे सादिक = सच्ची ख़बर देने वाला, [२२] दरख़ुरे अर्ज़ = कहने योग्य, [२३] दमे तस्लीम = आज्ञा चाहना, [२४] दुख़्तरेख़ान: = ख़ानम, ऐसी लड़की जिसकी शादी नहीं हुई हो, [२५] फ़ानिज़ = शक्कर, [२६] दमे आब = पानी का घूंट, [२७] ख़ल्वत पसंदी = अकेला जीवन पसंद करने वाली, [२८] बेनियाज़ = जिसे किसी से कुछ लेने की इच्छा नहीं, [२९] बेपनाह = जिससे रक्षा न हो सके, बेअमान, [३०] आली ज़र्फ़ = बड़े दिल वाले, [३१] दुख़्तरे रज = शराब, [३२] बेनियाम = गुस्से में बेकाबू, [३३] दुदस्त = दोनों तरफ़, [३४] बेदिली = उदासी, [३५] बेबक़ा = नश्वर, [३६] बेदिरेग़ = बिना संकोच के, [३७] आलिमे कुल = सब कुछ जानने वाली, [३८] दबिस्तान = विद्यालय की ठौड़, स्कूल [३९] दस्तावर = दस्त लगाने वाली दवा, [४०] दस्तगिरिफ़्त = जिसे साहयता दी हो, [४१] आली नज़र रखने वाले, = बुलंद नज़र रखने वाले, [४२] जैलदार = निम्न कोटि का कर्मचारी, [४३] ख़करोब = कचरा उठाने वाला, सफ़ाई कर्मचारी, [४४] अबसरों को = आँखों को, [४५] मुरस्सा = अलंकृत, श्रंगारित [४६] दफ़्तरे निगार = लिपिक [४७] नमक ख़्वार = नौकर, दास [४८] नफ़रीं = शाप, कोसना !
मेरी बात –:
आली ज़र्फ़ पाठकों ! १६ सितम्बर २०१८
सलाम !
अब-तक आपने नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” पढ़ लिया होगा ! इस किताब लिखने के पहले मुझे उर्दू नहीं आती थी ! इसको लिखने के लिए, मुझे उर्दू भाषा सीखनी पड़ी ! मुझे उर्दू सिखाने वाले जनाब मोहम्मद रफ़ीक़ साहब और अध्यापिका श्रीमती सलमा मेडम थी ! मोहम्मद रफ़ीक़ साहब पाली शहर के सिलावटों के मोहल्ले में रहते हैं ! जिनका मूल निवास सोजत सिटी है, सोजत में उर्दू शाइरों की महफ़िलों में माने हुए शाइरों की गिनती में इनका नाम है ! इस किताब को लिखते वक़्त मैं गवर्मेंट गर्ल्स सेकेंडरी मिल क्षेत्र, पाली [राजस्थान], में वरिष्ठ लिपिक के पद पर कार्य करता था ! सलमा मेडम और रफ़ीक़ मियां इसी स्कूल में कार्य करते थे ! इसी स्कूल में रफ़ीक़ साहब जैलदार का ओहदा ज़रूर रखते थे, मगर इनका खास्सा पढ़े-लिखे आलिमों जैसा है ! ये ख़ुद, सीनियर हायर सेकेंडरी तालीमयाफ़्ता हैं ! जनाब रफ़ीक़ मियां “दबिस्तान-ए-सियासत” की शतरंजी चाल चलने के माहिर खिलाड़ी हैं ! मुझे इस स्कूल में, खाज़िन का चार्ज मिला था ! खाज़िन का काम करते हुए मुझे “दबिस्तान-ए-सियासत” को नज़दीक से देखने का अच्छा-ख़ासा तुजुर्बा हो गया, उसी तुजुर्बे को काम में लेता हुआ मैं इस नाटक को लिख पाया ! पाली शहर के विवेकानंद सर्किल के पास आयी हुई फर्म ‘अली स्टेशनर्स’ के प्रो. तनवीर मियां का मुझे बहुत सहयोग रहा ! वे मुझे बराबर उर्दू की पाक्षिक मैगजीन ‘अल-रसाला’ देते रहे, जिससे मुझे इस्लामी रवायत और वहीदुद्दीन साहब की तक़रीरों का बराबर ज्ञान होता रहा ! हमारी स्कूल में कार्यालय सहायक दाऊ लाल जी त्रिवेदी और महिला चपरासी श्रीमति सीता बाई रूहानी इल्म के अच्छे जानकर थे, फुर्सत के वक़्त मैं इनकी तक़रीरें सुना करता ! ये तक़रीरें, इस किताब को लिखने में बहुत काम आयी ! इस स्कूल की श्रीमती तारा भाटी, श्रीमती गीता चतुर्वेदी, श्रीमती इंद्रा हुड्डा, श्रीमती आशा सोनी, श्रीमती निर्मला शर्मा, श्रीमती सरोज आर्य, श्रीमती आशा गिदवानी आदि मोहतरमा, पुस्तकालायाध्यक्ष जनाब बहादुर पुरी, कार्यालय सहायक श्री दाऊ लाल त्रिवेदी, कनिष्ट लिपिक जसपाल सिंह और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों में श्रीमति सीता देवी गौड, श्रीमति चंपा देवी सैन, श्री मोहम्मद रफ़ीक़, श्री सुखदेव राव, श्री मोहन सिंह, श्री देवी लाल, श्री शंकर लाल, श्रीमति मनवंती बाई वगैरा का मैं आभारी हूं ! इसके साथ इस स्कूल की प्रधाध्यापिकाएं श्रीमती रेणुका व्यास, श्रीमती आशा सोनी और प्रधानाचार्य सुश्री पुष्पा भाटी का बहुत आभारी हूं..जिन्होंने इस किताब को लिखने में, बहुत सहयोग दिया ! मोहल्ले के मुअज्ज़म बाबू लालजी माली, हनवंत सिंहजी, मनोहर सिंहजी वगैरा सज्जनों ने विकास समिति के दमदार सदस्यों का रोल अदा किया है, उनका मैं शुक्रगुज़ार हूं ! मैंने उर्दू शब्दों के अर्थ बताने की पूरी कोशिश की है, किसी प्रकार की कोई कमी आपको नज़र आये तो आप मेरे ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com पर मुझे सूचित करें !
इस पुस्तक के प्रथम संस्करण प्रस्तुत को ई बुक के रूप में प्रस्तुत करते हुए, मुझे बहुत हर्ष हो रहा है, और साथ में मैं ई पत्रिका के संपादक जनाब रवि रतलामी साहब को बहुत धन्यवाद देता हूं जिन्होंने मेरी लिखी गयी पुस्तक “दबिस्तान-ए-सियासत” को अपनी ई पत्रिका “रचनाकार” में प्रकाशित करके मुझे बहुमूल्य सहयोग दिया है !
सधन्यवाद !
दिनेश चन्द्र पुरोहित
[राक़िम – दबिस्तान-ए-सियासत]
अँधेरी-गली, आसोप की पोल के आमने जोधपुर [राजस्थान].
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