वार्तालाप जिज्ञासुओं से कवि महेंद्रभटनागर से बात - डा. मीना गामी आपकी रचना-धर्मिता के प्रेरक तत्व क्या हैं? कविता के प्रति आकर्षण बचपन से ही...
वार्तालाप जिज्ञासुओं से
कवि महेंद्रभटनागर से बात
- डा. मीना गामी
आपकी रचना-धर्मिता के प्रेरक तत्व क्या हैं?
कविता के प्रति आकर्षण बचपन से ही रहा। घर का वातावरण कविता और संगीत से सिक्त रहा करता था; जिसकी छाप मेरे मानस पर पड़ती थी। त्योहारों और उत्सवों पर लोकगीतों के स्वर गूँजते थे। ढोलक और मजीरों पर। फिर, हारमोनियम। इन कार्यक्रमों में मात्र घर-पड़ोस की महिलाएँ-लड़कियाँ ही भाग लेती थीं। माँ प्रतिदिन प्रातः ‘श्रीरामचरित मानस’ का पाठ करतीं। इस सबका एक अज्ञात प्रभाव मेरे मानस पर पड़ता था। हिन्दी की पाठ्य-पुस्तिकाओं में संकलित कविताएँ बड़े चाव से पढ़ता था; गाता था। अनेक कंठस्थ थीं। विद्यालय में जब-तब कवि-सम्मेलन होते थे। कवियों के अभिनययुक्त काव्य-पाठ व कविता-गायन से आनन्दित होता था। उनको मिलने वाली वाहवाही व सम्मान-भावना भी मुझे काव्य-लोक से जुड़ने की प्रेरणा प्रदान करती थी। वैसे तो बचपन झाँसी और मुरार (ग्वालियर का उपनगर) में बीता; किन्तु पिताजी के सबलगढ़ (जिला-मुरैना) स्थानान्तरित हो जाने के कारण सबलगढ़-ग्राम में रहने का अवसर मिला। सबलगढ़-ग्राम के चारों ओर जंगल थे; जहाँ मैं खूब घूमता-फिरता था। वहाँ के प्राकृतिक-सौन्दर्य से प्रभावित हुआ। उन दिनों, शासकीय विद्यालय में, जहाँ मेरे पिताजी प्रधानाध्यापक थे, छठी कक्षा में पढ़ता था। काव्य-रचना की शुरूआत सबलगढ़ से हुई। इन दिनों की काव्य-रचना के बाल-प्रयास प्रकृति-सौन्दर्य द्वारा प्रेरित थे। ज़ाहिर है, इस काल की कविताएँ अस्तित्व में नहीं आयीं; न आ सकती थीं। पिताजी का स्थानान्तरण सबलगढ़ से फिर मुरार (ग्वालियर) हो गया। तब ‘शासकीय उच्च-विद्यालय, मुरार’ में पढ़ने लगा। यहीं से, 15 वर्ष की उम्र में, मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। जुलाई 1941 में, ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ में उच्च-अध्ययन हेतु प्रवेश लिया। इन दिनों आसमान का विराट्-सौन्दर्य मेरी काव्य-रचना का प्रमुख प्रेरक तत्व रहा। तारों पर अनेक गीत लिखे (जो सन् 1949 में ‘तारों के गीत’ अभिधान से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए।) अंग्रेज़ी और हिन्दी के अतिरिक्त अन्य विषय भूगोल और अर्थशास्त्र थे। ज्ञान-वृद्धि और बौद्धिक विकास के साथ-साथ मेरी काव्य-दृष्टि समाजोन्मुख होती गयी। समाजार्थिक परिवेश मेरे चिन्तन व लेखन का आधार बना; जो आज भी है। यद्यपि आज जीवन के अंतिम चरण में अन्तर्मुखी भी दिखायी देता हूँ; क्योंकि जीवन में बहुत-कुछ देखा-भोगा है। तीव्र दर्द की बड़ी गहरी अभिव्यक्ति मेरी परवर्ती कविता की पहचान-सी बन गयी है। माना मेरे प्रमुख सरोकार आज भी समाजार्थिक हैं। द्रष्टव्य यह भी है कि प्रकृति को मैं भुला नहीं सका हूँ। जब-तब प्राकृतिक परिवेश में बड़ी तन्मयता से डूब जाता हूँ। आपाधापी की दुनिया से हटकर प्रकृति से जुड़कर कुछ क्षणों को सुकून पाता हूँ।
काव्य-साधना में आप कब प्रवृत्त हुए? तब हिन्दी-कविता का स्वरूप क्या था?
सत्र 1941-42 में मेरी काव्य-रचना प्रारम्भ हुई। देश पराधीन था। राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम पूरे ज़ोर पर था। ‘भारत छोड़ो’ जन-आन्दोलन का प्रत्यक्षदर्शी ही नहीं; उससे किसी-न-किसी रूप में जुड़ा भी रहा मैं। हिन्दी कविता का यह युग राष्ट्रीय काव्य-धारा का युग था। मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी ‘एक भारतीय आत्मा’, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सुभद्राकुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी आदि ओजस्वी कवियों की कविताओं से देश का वायुमंडल गुंजायमान था। इस संदर्भ में मेरी भी अनेक कविताओं पर विमर्श अपेक्षित है। यह माहौल स्वतंत्रता-प्राप्ति तक रहा।
जहाँ तक पाठ्य-पुस्तकों का संबंध है; छायावादी कवियों की भूमिका प्रमुख रही। जयशंकर प्रसाद (‘आँसू’, ‘कामायनी’), सुमित्रानन्दन पंत (‘पल्लव’, ‘गुंजन’, ‘ग्राम्या’), सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा आदि का काव्य हम जैसे युवा कवियों की ज़बान पर चढ़ा हुआ था। तदुपरान्त हरिवंशराय ‘बच्चन’ के गीतों ने कविता-प्रेमियों को प्रभावित किया। गोपाल सिंह ‘नेपाली’, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ जैसे कवियों की कविताएँ भी लोकप्रिय हो रही थीं।
‘तार-सप्तक’ के प्रकाशन के बाद से सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हिन्दी कविता के क्षितिज पर क्रमशः छाते गये। यद्यपि समानान्तर वाम विचार-धारा से सम्पृक्त प्रगतिवादी कविता भी अपना महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दायित्व पूरा करने में संलग्न थी। सत्र 1945-46 के आते-आते मैं भी प्रगतिशील साहित्यान्दोलन से जुड़ गया। अमृतराय ने ‘हंस’ में मेरी कविताएँ प्रकाशित कीं। ‘हंस’, ‘जनवाणी’, ‘विप्लव’, ‘रक्ताभ’, ‘उदयन’ ‘जनयुग’ जैसी जनवादी पत्रिकाओं में छपता रहा।
यह ज़रूर है, कुछ पारिवारिक दुश्चिन्ताओं एवं शारीरिक व्याधियों के चलते कवि-कर्म का निर्वाह वांछित तत्परतापूर्वक नहीं कर सका। परिणामतः ख्याति की दिशा में पिछड़ता गया। तत्कालीन प्रमुख साहित्यिक ‘पंडों-पुरोधाओं’ से विशेष सम्पर्क नहीं रखा। वैसे, यह स्थिति आज भी यथावत् है। हिन्दी साहित्य का नेतृत्व कर रहे सम-सामयिक नेताओं, प्रमुख प्रभावशाली सक्रिय आलोचकों, विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसरों, राजकीय तंत्र से जुड़े अधिकार व साधन-सम्पन्न तमाम पदाधिकारियों, सम्मान-पुरस्कार प्रदान करवानेवाले महत्त्वपूर्ण राज-साहित्यकारों आदि से दूर-दूर का भी कोई रिश्ता न रहा; न है।
प्रारम्भ में किन सम्पादकों-समीक्षकों ने आपके लेखन में रुचि ली?
मेरी कविताओं के प्रकाशन का काल सन् 1944 से शुरू होता है। उन दिनों, मैं बी.ए. का छात्र था। मुरार (ग्वालियर का उपनगर) में रहता था। मुरार के दो यशस्वी साहित्यकार हरिहरनिवास द्विवेदी और जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द के सम्पर्क में आया। इन दोनों ने मेरे लेखन में रुचि ली। मिलिन्द जी ने अपने साप्ताहिक पत्र ‘जीवन’ में मेरी कविताएँ प्रकाशित कीं। हरिहरनिवास द्विवेदी ने अपने सम्पादन में तैयार हो रहे ‘विक्रम स्मृति-ग्रंथ’ में मेरी कविता (‘मालवानां जयः’) को स्थान दिया। इन्हीं दिनों, माखनलाल चतुर्वेदी ‘एक भारतीय आत्मा’ ने ‘कर्मवीर’ (खण्डवा, म.प्र.) में मेरी अनेक कविताएँ प्रकाशित कीं; जिससे मैं प्रोत्साहित हुआ। इंद्रनारायण गुर्टू ने मेरी कविताओं को ‘नवयुग’ साप्ताहिक (दिल्ली) में छापा।
बी.ए. उपाधि प्राप्त कर लेने के पश्चात् मैं ‘मॉडल हाई स्कूल, उज्जैन’ में भूगोल का अध्यापाक नियुक्त हुआ। उज्जैन में प्रभाकर माचवे जी से मेरे संबंध अति-घनिष्ठ रहे। बहुत कम दिन ऐसे गुज़रे होगे कि जब मेरा उनसे मिलना न हुआ हो! प्रभाकर माचवे जी से हिन्दी-साहित्य की विराट्धारा से जुड़ गया। पं. सूर्यनारायण व्यास (उज्जैन) का भी बड़ा स्नेह रहा। उनके सम्पादन में प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘विक्रम’ में लिखा भी। इन दिनों मैं ‘महेन्द्र’ नाम से लिखता था। सर्वप्रथम ‘युग और कवि’ (‘नयी चेतना’ में समाविष्ट) ‘हंस’ (वाराणसी) में महेंद्रभटनागर के नाम से अमृतराय ने प्रकाशित की। उन दिनों त्रिलोचन शास्त्री से भी आत्मीयतापूर्ण पत्र-व्यवहार रहा। बैजनाथसिंह ‘विनोद’ ने ‘जनवाणी’ (वारणसी) में मेरी कविताओं को प्रमुखता से स्थान दिया। आदित्य मिश्र ‘रक्ताभ’ (लखनऊ) में छापते रहे। नागार्जुन ने ‘उदयन’ में छापा।
सन् 1948 में ‘नागपुर विश्वविद्यालय’ से हिन्दी में एम.ए. किया और प्रसिद्ध आलोचक विनयमोहन शर्मा से जुड़ गया। बाद में, उनके निर्देशन में पी-एच.डी. का शोध-प्रबन्ध ‘समस्यामूलक उपन्यासकार प्रेमचंद’ (सन् 1957) प्रस्तुत किया।
काव्य-कृतियों के प्रकाशन में आपको किन बाधाओं का सामना करना पडा़?
काव्य-कृतियों के प्रकाशन में मुझे विशेष कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा। अलबत्ता, हिन्दी के लब्ध-प्रतिष्ठ उच्च-श्रेणी के कम प्रकाशकों ने ही मेरी काव्य-कृतियाँ प्रकाशित कीं-पटना के ‘अजन्ता प्रेस प्रकाशन’, वाराणसी के ‘हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय’, इलाहाबाद के ‘लोक भारती प्रकाशन’ और ‘किताब महल’, दिल्ली के ‘नेशनल पब्लिशिंग हाउस’ के सिवा। स्थानीय प्रकाशक मेरी काव्य-कृतियाँ छापने को सदैव तैयार रहे। एकाधिक काव्य-कृतियों के तो उन्होंने दो-दो संस्करण छापे। मेरी अनेक काव्य-कृतियाँ सरकारी बिक्री में सहज ही ली जाती रहीं। ज़िला-शिक्षाधिकारियों ने भी थोक में ख़रीदीं। कुछ नाम के कारण; कुछ प्रकाशकों के ‘प्रयत्नों’ के कारण। मध्य-भारत / मध्य-प्रदेश में मेरी काव्य-कृतियाँ बिक तो गयीं और मुझे कुछ वित्तीय लाभ भी मिला; लेकिन मेरे काव्य-कर्तृव्य का देश-भर में प्रचार-प्रसार सम्भव न हो सका। मेरे अधिकांश प्रकाशकों को केन्द्रीय पुस्तक-विक्रेताओं के सहयोग की ज़रूरत नहीं पड़ी। आज स्थिति यह है कि मेरी अधिकांश काव्य-कृतियाँ अनुपलब्ध हैं। नये संस्करण छप नहीं पा रहे हैं- व्यावसायिक कारणों से। थोक ख़रीदें लगभग बंद हैं। ग्रंथालयों को अनुदान मिल नहीं रहा।
यह अच्छा हुआ, कि सन् 2002 में, मेरे लगभग सम्पूर्ण कर्तृव्य का ‘समग्र’ छह खंडों में प्रकाशित हो गया। तीन खंड कविता के हैं; जिनमें मेरी सोलह काव्य-कृतियाँ समाविष्ट हैं। यथा-तारों के गीत (सन् 1949), टूटती शृंखलाएँ (1949), अभियान (1954), अंतराल (1954), बदलता युग (1953), विहान (1956), नयी चेतना (1956), मधुरिमा (1959), जिजीविषा (1962), संतरण (1963), संवर्त (1972), संकल्प (1977), जूझते हुए (1984), जीने के लिए (1990), आहत युग (1997), अनुभूत क्षण (2001)। दो नयी काव्य-कृतियाँ ‘समग्र’ के प्रकाशन के बाद छपीं-द्वि-भाषिक (हिन्दी और अंग्रेज़ी में)- ‘मृत्य-बोध : जीवन-बोध’ (2002) और ‘राग-संवेदन’ (2005)। इन अंग्रेज़ी-अनुवाद युक्त कृतियों को पूरे देश ने पसंद किया; विशेष रूप से अ-हिन्दी प्रदेशों ने। अर्थ-ग्रहण-सुविधा के फलस्वरूप, विभिन्न भारतीय भाषाओं में मेरी कविताओं के अनुवाद और अधिक मात्रा में प्रकाशित होने लगे। तेलुगु, कन्नड़, तमिष, मराठी, बाँग्ला, ओड़िया, मणिपुरी आदि में तो पुस्तकाकार प्रकाशित व पुस्तकाकार-प्रकाशनार्थ तैयार हैं। चेक और फ्रेंच विदेशी भाषाओं में भी काव्यानुवाद हुए हैं। फ्रेंच में पुस्तकाकार प्रकाशित हैं-
‘A Modern Indian Poet : Dr. Mahendra Bhatnagar : Un Poète Indien Et Moderne' — Tr. Mrs. Purnima Ray (2004)
चुनी हुई विशिष्ट कविताओं के संकलन समय-समय पर निकलते रहे; निकल रहे हैं। यथा-झाँसी-चिरगाँव से ‘कविश्री : महेंद्रभटनागर’, जयपुर से ‘चयनिका’, दिल्ली से ‘चालीस कविताएँ’, ‘चालीस कविताएँ के बाद’, ‘महेंद्रभटनागर के गीत’, (चतुर्थ संस्करण ‘गीति-संगीति’ अभिधान से) ‘उमंग तथा अन्य कविताएँ’, ‘महेंद्रभटनागर की कविताएँ’, ‘कविताएँ : एक बेहतर दुनिया के लिए’, ‘नव प्रबुद्ध विश्व’, ‘एक मुट्ठी रोशनी’ आदि।
अज्ञेय और शम्भूनाथ सिंह द्वारा सम्पादित नयी कविता / नवगीत संकलनों में आप सम्मिलित नहीं हैं। ऐसे किन अन्य संकलनों में आपको स्थान दिया गया है?
अज्ञेय-द्वारा सम्पादित ‘तार-सप्तक’ से भिन्न, आगामी सप्तकों में मेरे समाविष्ट होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता; क्योंकि तब-तक सप्तकों का संबंध प्रयोगवादी या एक विशिष्ट प्रकार की दुरूह व्यक्तिवादी कविता से जुड़ चुका था। ‘तार-सप्तक’ के कवियों के चयन में न ऐसी कोई दृष्टि थी; न ऐसा कोई आग्रह। समाजवादी यथार्थ के कवि सप्तकों में शामिल नहीं हैं।
‘नवगीत’ संकलनों में वे कवि ही समाविष्ट हैं; जो इन दिनों इस काव्यान्दोलन के साथ थे। वस्तुतः ‘नवगीत’ को भी पहले गीत तो होना ही चाहिए। गीत गेय होता है। क्या नवगीत गेय हैं? ग्रामीण शब्दावली के प्रयोग द्वारा उनमें नयापन भरने की कोशिश ज़रूर नज़र आती है। अन्यथा, उसका रूप-स्वरूप तथाकथित ‘नयी कविता’ जैसा ही है। माना, नवगीतों का कथ्य तथाकथित ‘नयी कविता’ से भिन्न है। वह स्वस्थ और सहज है। काव्य-कला की दृष्टि से भी नवगीत-रचनाएँ उत्कृष्ट हैं। परम्परागत गेय गीतों से भिन्न हमारी कुछ काव्य-रचनाएँ नवगीत से मेल खाती हैं। इस दृष्टि से, सन् 1949 में लिखित ‘री हवा’ शीर्षक रचना द्रष्टव्य है। इस समय तक ‘नवगीत’ का जन्म नहीं हुआ था। हमारी अन्य मुक्त-छंद की कविताएँ भी इस संदर्भ में विमर्श-योग्य हैं।
विशिष्ट प्रकार के ऐसे संकलनों में, जिनमें हमारी कुछ कविताएँ शामिल की गयी हैं; वे हैं-‘प्रगति’ भाग-1 (सम्पादक : राहुल सांकृत्यायन / प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त, प्रकाशक : श्री. नर्मदाप्रसाद खरे, आशा साहित्य सदन, जबलपुर, सन् 1962)। इसके एकाधिक भाग प्रकाशित होने थे; किन्तु भाग एक ही प्रकाशित हो सका। ‘प्रगति’ भाग-1 के पाँच कवियों में एक मैं भी हूँ। अन्य कवि हैं-केदारनाथ अग्रवाल, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’, गिरिजाकुमार माथुर, रांगेय राघव। ‘प्रगति’ भाग-1 में ऐसा कुछ नहीं था; जिससे यह संकलन विशेष चर्चित होता। ‘नई कविता’ (सम्पादक डा. वासुदेवनन्दन प्रसाद) में कुछ समीक्षा-आलेख ‘प्रगति’ भाग-1 पर द्रष्टव्य हैं-यथा, महेंद्र कुलश्रेष्ठ, डा. राजेंद्र मिश्र, डा. नत्थन सिंह के। अन्य ऐतिहासिक महत्त्व के संकलन हैं -‘प्रक्रिया’ (सम्पादक : श्री राजेन्द्रप्रसाद सिंह, मुज़फ़्प़रपुर-बिहार, सन् 1972), ‘उपलब्धि’ (संपादक : बालकृष्ण राव / डा. गोविन्द ‘रजनीश’, सन् 1974), ‘वाम कविता’ (सम्पादक : डा. ललित शुक्ल, सन् 1978)।
आपके कर्तृव्य पर पर्याप्त शोध-कार्य हुआ है तथा अनेक समीक्षा-पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं - कुछ जानकारी दे सकेंगे?
अनेक आलोचकों ने मेरे काव्य-कर्तृव्य पर स्तरीय आलोचनात्मक लेख लिखे; जिनमें से कई ‘कवि महेंद्रभटनागर : सृजन और मूल्यांकन’ में समाविष्ट हैं। यथा-डा. नरेंद्रदेव वर्मा, डा. शम्भुनाथ चतुर्वेदी, डा. नत्थन सिंह, डा. सियाराम तिवारी, डा. गोविन्द ‘रजनीश’, डा. श्याम सुन्दर घोष, प्रो. रामप्यारे तिवारी, डा. शिवनाथ (शांतिनिकेतन) आदि के कुल 15 आलेख। तदुपरान्त ‘महेंद्रभटनागर का रचना-संसार’ ; जिसमें डा. विनयमोहन शर्मा, डा. कांतिकुमार जैन, डा. राममूर्ति त्रिपाठी, डा. सत्येन्द्र, डा. त्रिभुवन सिंह, प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त, हंसकुमार तिवारी, डा. रामविलास शर्मा, गजानन माधव मुक्तिबोध, ब्रजकिशोर नारायण, डा. राधाकृष्ण सहाय (द्रष्टव्य : हिन्दी प्रगतिशील कविता पर उनकी टिप्पणी, हिन्दी साहित्य कोश’, भाग-1, संस्करण 2), डा. वासुदेवनन्दन प्रसाद, डा. रामगोपाल शर्मा ‘दिनेश’, आदि के कुल 28 आलेख। फिर, ‘सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि महेंद्रभटनागर’, जिसमें डा. हरिचरण शर्मा, डा. रमाकान्त शर्मा, डा. जीवनप्रकाश जोशी, डा. मारुतिनन्दन पाठक, श्रीनिवास शर्मा (कोलकाता), ललितमोहन अवस्थी, डा. वेदप्रकाश ‘अमिताभ’, डा. देवराज ‘पथिक’, डा. संतोषकुमार तिवारी, डा. गुरचरण सिंह, डा. शम्भूनाथ सिंह, डा. शिवकुमार मिश्र, डा. तारकनाथ बाली, डा. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, डा. प्रेमशंकर, डा. मनोज सोनकर आदि के कुल 36 आलेख। और ‘डॉ. महेंद्रभटनागर का कवि-व्यक्तित्व’; जिसमें डा. रवि रंजन, डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित, डा. ऋषभदेव शर्मा, डा. ललित शुक्ल, डा. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’, डा. ऋषिकुमार चतुर्वेदी, डा. आदित्य प्रचण्डिया, डा. मूलचंद सेठिया, आदि के कुल 44 आलेख। इनके अतिरिक्त, तमाम अन्य आलेख हैं जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे हुए हैं। वे जब भी पुस्तकाकार आएँ। दो विशिष्ट स्वतंत्र अध्ययन भी हैं-‘महेंद्रभटनागर की काव्य-संवेदना : अन्तःअनुशासनीय आकलन’ (डा. वीरेंद्र सिंह, जयपुर), तथा ‘डा. महेंद्रभटनागर का कविता-कर्म’(डा. किरणशंकर प्रसाद, दरभंगा)। पी-एच.डी. के सात शोध-प्रबन्ध हैं; जिनमें से तीन प्रकाशित हैं-‘महेंद्रभटनागर और उनकी सर्जनशीलता’ (डा. विनीता मानेकर), ‘प्रगतिवादी कवि महेंद्रभटनागर : अनुभूति और अभिव्यक्ति’ (डा. माधुरी शुक्ला), ‘महेंद्रभटनागर के काव्य का वैचारिक एवं संवेदनात्मक धरातल’ (डा. रजत षडं़गी)। इनके अतिरिक्त, एम.ए. / एम. फिल के अनेक लघु शोध-प्रबन्ध हैं; जिनमें से एक ‘डा. महेंद्रभटनागर की काव्य-साधना’ (श्रीमती ममता मिश्रा) प्रकाशित है। कई मेरी नज़र में अभी आये नहीं है। विश्वविद्यालय-ग्रंथालयों में सुरक्षित हैं।
विश्वम्भर ‘मानव’ ने अपनी आलोचना-कृतियों में मेरी काव्य-कृतियों पर प्रमुखता से लिखा। और भी अनेक नाम हैं; जिनका तत्काल यहाँ उल्लेख नहीं कर पा रहा हूँ। गरज़ यह कि हिन्दी में विपुल आलोचना-साहित्य मेरे काव्य-कर्तृत्व पर लिखा गया है।
फुटकल चर्चाएँ तो अनेक आलोचकों के आलेखों में प्रायः होती रहती है। आधुनिक हिन्दी कविता पर लिखित अनेक प्रकाशित शोध-प्रबन्ध हैं; साहित्येतिहास हैं; जिनमें मेरे काव्य-कर्तृत्व का समुचित विस्तार से या संक्षेप में उल्लेख है।
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