मधुवन (01) वो मधुवन राग सुनाती है। प्यारी कोयल काली काली।। हँसती है मुस्काती है वो झूम रही डाली डाली। क्या मिल...
मधुवन
(01)
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
हँसती है मुस्काती है वो झूम रही डाली डाली।
क्या मिला पता उसको किसको।।
वो इठलाती डाली डाली।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(02)
है कोयल की खता नहीं।
मौसम का मिला सहारा है।।
चिड़िया चीं चीं कर पूछ रहीं।
क्या जग में दोष हमारा है।।
न महल चाहिए रहने को।
भ्रमण को उपवन क्या करना।।
पत्तों का चन्द सहारा हो।
हमको बागों का क्या करना।।
कालीन मखमली आँगन क्या।
हम तो रहते माँटी माँटी।।
वो मधुवन राग सुनाती है ।
प्यारी कोयल काली काली।।
(03)
खुदगर्ज नहीं खुददारी का।
हमने हमने जीवन अपनाया है।।
भ्रमण कर खलिहानों में।
चुग मेहनत दाना खाया है।।
पोखर से नित नीर पिया।
उपवन में राग सुनाया है।।
बेदर्द जमाने ने फिर भी।
हम निर्बल को बिसराया है।।
लालच वशीभूत हुए सारे।
उपवन काटी डाली डाली।।
वो मधुवन रग सुनाती है ।
प्यारी कोयल काली काली।।
मधुवन
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(04)
धन धनी हुए बलवान सभी।
सुख वैभव सबने पाया है।।
महलों की चारदीवारी है ।
दिल चैन नहीं मिल पाया है।।
ए सी पंखा कूलर लाया।
फिर भी है गर्मी चढ़ी हुई।
धन पाकर बेईमान हुई ।
दुनिया मतलब पर अड़ी हुई।।
क्या कहें शर्म आ जाती है।
दुनिया मतलब पर चली चली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(05)
खत्म हुए खलिहान।
कहाँ जायें अब पंछी बेचारे।।
गाछ कटें नित रोज यहाँ।
फिरते जग में मारे मारे।।
सब उजड़ गया वीरान हुआ।
न पड़े नजर अब हरियाली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(06)
जनसंख्या का भार बढ़ा ।
मानव के दिल में प्यार बढ़ा।।
पंछी पर मार पड़ी सारी।
जीना पंछी दुश्वार हुआ।।
कहीं लगी हुई है इन्डस्ट्री।
कहीं पैदा खरपतवार हुआ।।
खाने को दाना नहीं मिला।
जीना पंछी दुश्वार हुआ।।
अब कहो कहें किसकी गलती।
किसको दोषी ठहरायें हम।
सुबह हुई जब आँख खुली।
दाना हेतु सब जायें रम।।
बागों में भ्रमण कर देखो।
सूनी लगती डाली डाली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
लेखक-दुर्गा प्रसाद प्रेमी
(07)
बेदर्द जमाना बन बैठा।
बेवजह लोग मुस्काते हैं।।
स्वयं दरवाजे गाय नहीं गौ दान का पाठ पढ़ाते हैं।
दया नहीं मन के अन्दर।।
नित हवन लोग करवाते हैं।
सिक्कों की चन्द खनक हेतु।।
जालिम जग को लड़वाते हैं।
कहीं ऊँच नीच कहीं भेदभाव।।
कहीं जाति पाँति लड़वाते हैं।
वर्षों बीते जिन बातों को।।
लगती गुजरी हाली हाली।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(08)
ऊँचा हुक्का ऊँची बैठक।
सब धनी राम जग कहता है।।
अरबों दौलत गोदाम भरी।
फिर भी नित प्यासा रहता है।।
हर वक्त लगी मन प्यास।
आस मिल जाये दौलत हथिया लूँ।।
माया का मन मोह लगा।
बाकी लगता खाली खाली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(09)
क्या भला हुआ जग में सोचो।
माया से मोह लगाने में।।
कोई पड़ा वैश्या पास मिला।
कोई पड़ा मिला मयखाने में।।
जरा मेल अर देख दीवाने।
वो अच्छा तू अच्छा है।
निराकार का भक्त जगत में।।
तू अच्छा वो अच्छा है।
हरि को हर ले मूरख पापी।
क्यों गिरता नाली नाली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(10)
मदिरा से कर मोह दिवाने।
क्यों जीवन से खेल रहा।।
उज्ज्वल काया को मूरख।
क्यों ठेले सा ठेल रहा।।
नहीं हुआ न हो पायेगा मधु और मदिरा का मेल।
मधु पिये जग स्वस्थ हुआ।।
मदिरा हुए फेफड़े फेल।
बिन पहिया जग में गाड़ी।।
भला बता क्या चलती है।
मानुष जैसी उज्ज्वल काया।।
बड़े भाग्य से मिलती है।
बड़े भाग्य से चमन बीच में।
कोई कली ही खिलती है।।
मुस्काती है लहराती है।
तपिश धूप को सहती है।।
फिर भी लालायित हो तन से।
खुशबू ही अपने देती है।
जग बैरी है पंछी का।
फूलों का बैरी है माली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(11)
चहुं ओर चमन है फूलों का।
कलियाँ पल पल मुस्काती हैं।।
तितली मधुमक्खी बैठ कली पर।
रस उनका पी जाती हैं।।
भँवरा नित आकर कलियों का।
ले चुंम्बन उड़ जाता है।।
अतृप्त प्यासी कलियों को वो छोड़ चमन में जाता है।
कलियाँ हैं असहाय नहीं वो।।
अम्बर में उड़ पाती हैं।
किसको अपना कहें जगत में।।
नित धोका खा जाती हैं।
किससे कैसे कहाँ मिलन हो।।
समझ नहीं वो पाती हैं।
मधुवन तो है मधुशाला।।
कलियाँ वेश्यालय बन बैठीं।
नये नये निंत भंवरे आयें।।
अपना सब कुछ दे बैठी।
कभी नहीं सोचा मन में।।
को अपना कौन पराया है।
वशीभूत प्रेम होकर प्रेमी।।
कलियों नें मान लुटाया है।
न कभी चतुरता दिखलाई।।
कर आँख बन्द विश्वास किया।
भँवरा छलिया सब लूट गया।।
लुटने बाद कली है पछताई।
अब पछतावा कर क्या हुआ।।
जब सूख गई डाली डाली।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(12)
यह जगत जमाना सदियों से।
कलियों से बैर निभाता है।।
कुछ खिली हुई अधखिली कई।
कीमत बाजार लगाता है।।
कुछ हुस्न चढ़ी खुशनुमाँ जवाँ।
दौलत बालों के पास गई।।
कुछ बेच दई चौराहों पर।
मुरझाकर कीमत खाक गई।।
जिसने देखा मुँह फेर लिया।
अब देता कोई दाम नहीं।।
इस जग में प्रेमी कलियों को।
है मिला कभी आराम नहीं।।
न मिला कभी इंसाफ उन्हें।
दिल रहा चैन खाली खाली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(13)
कलियों के भोलेपन का।
भँवरों ने लुत्फ उठाया है।।
रस चूस चूस कर कलियों का।
दिल प्रेम जाल फैलाया है।।
प्रेमी पागल कलियाँ सारी।
नित झाँसे में आ जाती हैं।।
लुट गई अदा फिर क्या कहना।
जीवन का रंग हुआ झीनां।।
घुट घुट कर दर्द जुदाई का।
कलियों को पड़ता है पीना।।
प्यारी कलियाँ फिर जीकर भी।
न कभी मुस्करा पाती हैं।।
जीवन जीती हैं बेचारी।
फिर र मुरझाकर डाली डाली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(14)
क्या जगत जमाने की नईया।
बिन कली कहीं चल पायेगी।।
क्या चमन बीच बिन कलियों के।
खुशबू की आहट आयेगी।।
जग की सुन्दरता कलियाँ हैं।
जग कलियों से महकाता है।।
नित नई नवेली चुन माली।
मंदिर का द्वार सजाता है।।
शव पर कलियाँ शिशु पर कलियाँ।
मंडप कलियों की रंगदारी।।
हर जगह दिखाई देती है।
जग में कलियों की छवि न्यारी।।
किया स्वागत द्वार बिछाई।
चुन कलियों की रंगोली।।
गई कुचल पैरों से फिर भी कलियाँ चुप न बोलीं।
क्या क्या जुल्म सहें कलियाँ।।
जनता मस्ती में मतवाली।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(15)
न चूड़ी है न कंगन है।
न मांथे रोली चन्दन है।।
रिश्तों को कौन निभायेगा।
न रहा लाज का बन्धन है।।
साड़ी से सलवार गई।
अब जीन्स जमाना आ पहुँचा।।
माँ का आँचल बस नाम रहा।
चूनर में लाल छिपा बैठा।।
अब क्या कहें संसार जमाना।
फैशन में भरमाया है।।
इज्जत का दमड़ी दाम नहीं।
फैशन में नाम कमाया है।।
अब एक किसी की बात नहीं।
जग नंगा डोले गली गली।।
वो मधुवन राग सुनाती है ।
प्यारी कोयल काली काली।।
लेखक-दुर्गा प्रसाद प्रेमी
(16)
न बदला आकाश चन्द्रमा।
न बदली ऋतु सावन की।।
न बदला कोई घड़ी पहर।
न बातें रामायण की।।
गीता के उपदेश न बदले।
वेद सार भी न बदला।।
न बदला वो जमीं आसमां।
अन्न रुप भी न बदला।।
न बदले वो वृक्ष जमीं के।
नाम फलों का न बदला।।
न बदली वो कोयल काली।
बगुला रुप नहीं बदला।।
बदल गया क्यों मानव इतना।
देता मानव को गाली।।
वो मधुवन राग सुनाती है ।
प्यारी कोयल काली काली।।
(17)
क्या कहूँ मानव की महिमा ।
शिक्षा पा अज्ञान बने।।
अनपढ़ था तब लाचारी थी।
शिक्षित बन बेईमान हुए।।
गोरे से काला धन्धा तक ।
शिक्षित ही तो करते हैं।।
नित्य ठगें भोली जनता को।
नोट तिजोरी भरते हैं।।
मन में दया धर्म नहीं दिल में।
कहते हैं आली आली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(18)
कोई बेचता मूली बैंगन।
कोई बेचता केला।।
कोई चाकरी करे नित्य मन।
हर्षाये अलबेला।।
कहने को हैं शिक्षित सारे।
अक्ल नहीं है ढेला।।
दूध दही का मान न जानें।
मदिरा रेलम पेला।।
न गीता का पाठ किया।
न साधु संगत खेला।।
हाथ ओम लिखवाकर कहता ।
मैं भोले का चेला।।
हाथ गुदा छाती गुदवाई।
ओम चुनरिया धानी।।
गली गली नित मांग रहा है।
घूँट घूँट भर पानी।।
कुल का नाम डुबाता पापी।
शिव का नाम लजाये।।
नित्य मांग जो करे इकट्ठा।
नित्य शाम पी जाये।।
बेंच रहा नित नाम हरि का।
सूरत काली काली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(19)
वहशत का बाजार लगा।
दहशत का कोई पता नहीं।।
प्रेमी पूछा क्यों करते हो।
कहता अपनी खता नहीं।।
जो सीखा वो ही करते हैं।
इससे ज्यादा पता नहीं।।
हँसकर बोला कौन हो भाई।
कहो कहाँ से आये हो।।
हम वहशी क्यों इस मंडल में।
जान गँवाने आये हो।।
प्रेमी बोले जान का क्या है।
यह तो इक दिन जानी है।।
अज्ञानी को ज्ञान सिखाना।
हमने मन में ठानी है।।
वहशत का बाजार मिटाकर।
हम जग में दिखलायेंगे।।
सत्य अहिंसा मार्ग चलना।
हम तुमको सिखलायेंगे।।
उल्टी शिक्षा पा जग में।
वहशत का राज चलाते हो।।
चन्द दाम लेकर प्यारा।
भारत बदनाम कराते हो।।
मानव होकर है शर्म नहीं।
मानव में रार कराते हो।।
चन्द खनक सिक्कों खातिर।
मानव मानव लड़वाते हो।।
वो भी मानव तुम भी मानव।
अलग खून क्या न्यारा है।।
वो भी तो है लाल किसी का।
तू भी माँ का प्यारा है।।
चन्द खनक सिक्कों की खातिर।
काहे बना हत्यारा है।।
क्यों जीता है लिए बुराई।
देख नोट की हरियाली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(20)
मानव में न हुई एकता।
पक्षी मेल बना बैठे।।
एक डाल पर भाँति भाँति के।
पक्षी महल बना बैठे।।
खुश रहते दाना खाते हैं।
पानी पी सो जाते हैं।।
सुबह सबेरे उठकर सब।
भक्ति संगीत सुनाते हैं।।
रोम रोम खुश हो जाता है।
प्यार देख मन पक्षी का।।
सुबह सुहाने मौसम में।
अनमोल स्वर सुन पक्षी का।।
काश यही मानव कर पाता।
प्रीत जहाँ में मानव से।।
सुबह सुसज्जित हो जाती।
प्रभु के गीत सुहानों से।।
हरि हरि का स्वर गूँजता।
मंदिर और शिवालयों से।।
मन क्रोध भरा है मानव के।
न जपता कोई आली आली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
(21)
(गीत)
पक्षी तो नित जपें हरि को।
तू भी हरि को जप लेना।।
हरि हरि कह प्यारे जग में।
जीवन शुद्धि कर लेना।।
हरि नाम से शुद्धि होती।
अन्तर मन धुल जायेगा।।
हरि का दर्शन पाकर प्रेमी।
जन्म सफल हो जायेगा।।
पापों से मुक्ति मिल जाये।
हरि सुमिरन तू कर लेना।
पंछी तो नित जपें हरि को।
तू भी हरि को जप लेना।।
हरि की लीला अजब है जग में।
कोई समझ न पाया है।।
मीरा समझी राधा समझी।
हरि से ध्यान लगाया है।।
सूर भक्त हरि के मतवाले।
बिन नैना सब लिख डाला।।
हरि चरणों में ध्यान लगाया।
हरि ने सब कुछ दे डाला।।
हरि के रंग में रंग ले मन को।
जग दुनिया से क्या लेना।।
पक्षी तो नित जपें हरि को।
तू भी हरि को जप लेना।।
प्रेमी हरि से करें वन्दना।
जग बुद्धि विस्तार करो।।
मानव भ्रमित है माया में।
प्रभु तुम उद्धार करो।।
पिता तुम्हीं हो सखा तुम्हीं हो।
प्रभु नईया पार करो।।
कृष्ण कन्हैया बन्शी वाले।
अब न तनिक अवार करो।।
प्रभु प्रेमी खड़ा शरण में।
एक नजर वश कर देना।।
पक्षी तो नित जपें हरि को।
तू भी हरि को जप लेना।।
(समाप्त)
(मधुवन)
(22)
ईश्वर तो सबका है जग में।
सब ईश्वर के बच्चे हैं।।
मिलता है आशीष सभी को।
हरि नजर सब अच्छे हैं।।
सबका दाता एक है जग में।
निराकार कहलाता है।।
भक्तों के उद्धार हेतु।
नित रुप बदलकर आता है।।
दे आशीष चला जाता है।
नजर नहीं वो आता है।।
इसीलिए निशदिन प्रेमी ।
ईश्वर से ध्यान लगाता है।।
मंदिर मठ में जाने से।
न मैल कभी मन धुलता है।।
मन श्रद्धा विश्वाश जगा।
जंगल में हरि मिल जाता है।।
मंदिर तो है मान हरि का।
हरि भजन का द्वारा है।।
हरि द्वार तो जगत निराला।
मंदिर सिर्फ सहारा है।।
मन मंदिर तन बना शिवालय।
नाम हरि का जप लेना।।
बिन मंदिर दर्शन पायेगा।
ध्यान हरि का धर लेना।।
हरि नहीं बसते है आकर।
मंदिर और शिवालय में।।
हरि श्वाश में रमे हैं प्रेमी।
न ढूँढो वृन्दावन में।।
वृन्दावन है धाम निराला।
भ्रमण को जो जाता है।।
नाम हरि गुण गाकर प्रेमी।
भव सागर तर जाता है।।
वृन्दावन गोकुल की गलियाँ।
हरि नाम की मतवाली।।
वो मधुवन राग सुनाती है।
प्यारी कोयल काली काली।।
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नाम-दुर्गा प्रसाद प्रेमी
पिता का नाम-श्री मोती राम
माता का नाम-श्रीमती रामकली देवी
गाँव-मौंजम नगला जागीर
डा. रतना नन्दपुर-262407
त.व.थाना-नवाबगंज
जिला- बरेली उत्तर प्रदेश(भारत)
जन्मतिथि- 05/02/1983
बहुत लाजवाज कविता गागर में सागर भर दिया
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