वार्तालाप जिज्ञासुओं से कविता में काम -चेतना प्रश्न : डा. सुरेशचंद्र द्विवेदी / उत्तर : डा. महेंद्रभटनागर काम-वासना के संबंध में आपकी धारणा ...
वार्तालाप जिज्ञासुओं से
कविता में काम-चेतना
प्रश्न : डा. सुरेशचंद्र द्विवेदी / उत्तर : डा. महेंद्रभटनागर
काम-वासना के संबंध में आपकी धारणा क्या है?
पाश्चात्य पौराणिक (mythological) संदर्भ में ईरोस यूनानी प्रेम का देवता माना जाता है; जिस प्रकार भारतीय पौराणिक संदर्भ में कामदेव (काम का देवता)। ईरोस का संबंध शारीरिक प्रेम और काम-वासना से है (erotic)। काम-एषणा जीवन की प्रमुख एषणाओं में से है। फ्ऱॉयड ने तो काम को जीवन की मूल प्रेरणा माना है। जबकि भारतीय मनीषियों ने काम, अर्थ और यश को (पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैष्णा -‘बृहदारण्यक उपनिषद्’) प्रेरक शक्तियाँ माना अवश्य है; किन्तु इन्हें उच्च स्थान नहीं दिया है। उपनिषद्कार ने ‘आत्म-प्रेम’ को सब चेष्टाओं-क्रियाओं का मूल कारण घाषित किया है। भारतीय चिन्तन धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानता है-अर्थ को मध्यम और काम को लघु।
क्या आप अपने को एक शृंगारिक (कामोद्दीपक) कवि मानते हैं?
कदापि नहीं। शृंगारिक-काव्य (संयोग पक्ष-वियोग पक्ष) और वासनापूर्ण कामोद्दीपक काव्य में अन्तर समझना चाहिए। साहित्य-रचना/काव्य-रचना का शृंगारपरक / प्रेमपरक होने का अर्थ कामशास्त्रीय होना नहीं। कविता का संबंध भावना से है; अनुभूति से है। शारीरिक काम-चेष्टाओं और रति-क्रीड़ाओं से नहीं। यह बात भिन्न है; कुछ रचनाकारों ने अपनी कृतियों में उन्मुक्त उद्दाम यौन-चित्रण किया है। जहाँ तक मेरे कवि का संबंध है; उसका प्रमुख सरोकार नारी-रूप-सौन्दर्य, प्रेम-व्यापार (action) और प्रेम-भोग नहीं है। माना, वहाँ प्रेम का तिरस्कार नहीं है। मैंने प्रेमपरक-शृंगारपरक (स्वकीया) कविताएँ भी रची हैं। लेकिन मेरे कवि को प्रमुख रूप से रोमांटिक या रोमांस का कवि नहीं ठहराया जा सकता। महाभारतकार के अनुसार पत्नी केवल काम-क्रीड़ा की ही वस्तु नहीं है; एक जीवन-संगिनी के रूप में वह मूल्यवान औषधि का काम करती है। स्वकीया प्रेम की अभिव्यक्ति-भावना तक में, मैंने उपरि-संदर्भित काम को महत्त्व नहीं दिया; क्योंकि मेरे जीवन और काव्य के सरोकार सामाजिक चेतना और मानवतावाद केन्द्रित रहे हैं। इस संदर्भ में, निम्नलिकखत कविताएँ द्रष्टव्य हैं :
छलना
आज सपनों की नहीं मैं बात करता हूँ।
चाँद-सी तुमको समझकर
अब न रह-रह कर विरह में आह भरता हूँ।
नहीं है रुग्ण मन के
प्यार का उन्माद बाक़ी,
अब न आँखों में
तुम्हारी झिलमिलाती रूप की झाँकी!
कि मैंने आज
जीवित सत्य की तसवीर देखी है,
जगत की - ज़िन्दगी की
एक व्याकुल दर्द की तसवीर देखी है।
किसी मासूम की उर-वेदना
बन धार आँसू की धरा पर गिर रही है,
और चारों ओर है जिसके अँधेरे की घटा,
जा रूठ बैठी है सबेरे की छटा।
उसको मनाने के लिए अब मैं हज़ारों गीत गाऊँगा,
अँधेरे को हटाने के लिए
नव ज्योति प्राणों में सजाऊँगा।
न जब तक
सृष्टि के प्रत्येक उपवन में बसन्ती प्यार छाएगा,
न जब तक
मुसकुराहट का नया साम्राज्य
धरती पर उतर कर जगमगाएगा,
कि तब तक
पास आने तक न दूँगा याद जीवन में तुम्हारी!
क्योंकि तुम कर्तव्य से
संसार का मुख मोड़ देती हो!
हज़ारों के सरल शुभ-भावनाओं से भरे
उर तोड़ देती हो!
(सन् 1952)
निवेदन
फूल जो मुरझा रहे
जग-वल्लरी पर
अधखिले
कारण उसी का खोजता हूँ!
हे प्राण! मुझको माफ’ करना
यदि तुम्हारे गीत कुछ दिन मैं न गाऊँ।
स्वर्ण आभा-सा
सुवासित तन तुम्हारा देख अनदेखा करूँ,
छवि पर न मोहित हो तनिक भी मुसकुराऊँ।
फूल जब मुरझा रहे
वसुधा बनी विधवा
सुमुखि! फिर अर्थ क्या शृंगार का,
पग-नूपुरों की गूँजती झंकार का?
हर फूल खिलने दो ज़रा,
डालियों पर प्यार हिलने दो ज़रा!
(सन् 1957)
शारीरिक प्रेम और यौन-लिप्तता में क्या अन्तर है?
यह सत्य है; पुरुष-स्त्री का पारस्परिक प्रणय-संबंध काम-वासना (Platonic) रहित नहीं हो सकता। काम-वासना न निन्दनीय है; न उसका बहिष्कार ही सम्भव है। भारतीय मनीषा ने काम को धर्म के आश्रित माना है। काम की इच्छा को वहाँ ‘पुत्रैषणा’ कहा गया है। संतान-कामना से प्रेरित होकर जब पति-पत्नी पारस्परिक शारीरिक/यौन संबंध स्थापित करते हैं तो यह कर्म पवित्र और मांगलिक है। इन संबंधों के विरुद्ध बोलना पाप है; क्योंकि मानव-जाति का अस्तित्व व विकास इसी पर निर्भर है।
काम-भावना से आपकी कविता कितनी प्रभावित है?
जिस युग में मैंने काव्य-रचना प्रारम्भ की वह छायावादोत्तर युग था। उत्तर-छायावादी, काव्य-रचना का प्रभाव समाप्ति पर था। प्रगतिवादी काव्यान्दोलन ने अपनी जड़ें पकड़ ली थीं। यद्यपि उत्तर-छायावादी कवि बच्चन, नरेंद्र शर्मा, ‘अंचल’ आदि की रोमानी काव्य-सृष्टि भी समानान्तर चल रही थी। रमणी-नारी के प्रति इन कवियों का दृष्टिकोण छायावादी कवियों की तरह कुतूहलपूर्ण व वायवी नहीं था; वह मांसलता लिए हुए था। नारी के कामिनी रूप के प्रति मांसल दृष्टिकोण रखने वाले कवियों में ‘अंचल’ प्रमुख थे। प्रगतिवादी कवियों ने नारी के रूप-सौन्दर्य व प्रेम-व्यापार को प्राथमिकता नहीं दी। वह समाजार्थिक और राजनीतिक चेतना से अधिक प्रेरित रही। सन् 1941 के आसपास प्रगतिवादी कविता अपने पूर्ण उभार पर थी। पंत व निराला के साथ-साथ शिवमंगलसिंह ‘सुमन’, केदारनाथ अग्रवाल प्रभूति कवि चर्चा में थे। तदुपरान्त सन् 1943 में ‘अज्ञेय’ द्वारा सम्पादित ‘तार-सप्तक’ का प्रकाशन हुआ; जिसने प्रयोगवादी कविता के प्रति काव्य-समीक्षकों को आकर्षित किया। वस्तुतः, लगभग यहीं से नव-प्रगतिवादी कविता का स्वरूप निश्चित हुआ। राजनीतिक मतवाद और कम्युनिस्ट पार्टीगत आग्रह गौण हुआ। प्रगतिवादी कविता ने नारावादी रूप त्याग कर, अधिक कलात्मक स्वरूप ग्रहण किया। यही नव-प्रगतिवादी काव्य-धारा आगे चलकर सन् 1950 के आसपास ‘नयी कविता’ के नाम से पुकारी जाने लगी। ‘नयी कविता’ का ही एक अन्य पक्ष प्रयोगवाद अथवा ‘नव-लेखन’ की हिमायत करता रहा। उपर्युक्त पृष्ठभूमि में मेरे युवा-कवि ने नारी के रूप, सौन्दर्य, शृंगार, प्रेम को अभिव्यक्ति दी। चूँकि मेरी आस्था प्रगतिवाद के प्रति रही; अतः मेरे काव्य के केन्द्र में काम-भोग भावना का स्थान अति गौण रहा। बल्कि यों कहा जाय कि इस दिशा में सतर्कतापूर्वक बचने का प्रयत्न तक रहा। माना, यह दृष्टि एकांगी थी; किन्तु वस्तु-स्थिति कुछ इसी प्रकार की थी। प्रगतिवादी समीक्षकों और पत्र-सम्पादको की दृष्टि मेरी काव्य-सृष्टि पर भी रही। उन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में मेरी जो रचनाएँ प्रकाशित होती थीं; उन पर समीक्षकों का ध्यान बराबर रहता था। उदाहरण के तौर पर एक घटना का उल्लेख यहाँ करता हूँ।
कलकत्ता से उन दिनों ‘रानी’ नाम की एक सुरुचिपूर्ण स्तरीय साहित्यिक मासिक पत्रिका प्रकाशित होती थी। इस पत्रिका में मैंने भी लिखा। मेरी कुछ रोमांटिक कविताएँ भी इसमें छपीं। निम्नलिखित कविता ‘शिशिर की रात(2)’ के प्रकाशन पर मुझे कुछ प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं।
स्तब्ध, गीली, शुभ्र धुँधली रात है,
बह रहा शीतल शिशिर का वात है।
छा रहा कुहरा धुआँ-सा दूर तक,
छिप गया है चन्द्रमा का नूर तक।
हो गयी फीकी नशीली ज्योत्स्ना,
व्योम मानो शीत का बंदी बना।
घोसलों से मूक चिड़ियाँ झाँकतीं,
नींद से डूबी हुई कुछ आँकतीं।
शांत धरती पर खड़ी ज्यों भित्तियाँ
जम गयी प्रत्येक तरु की पत्तियाँ।
आज चंचल धूल भी चुपचाप है,
उच्च टूटे शृंग पर हिमताप है,
बर्फ का तूफ़ान आएगा अभी,
श्वेत चादर-सी बिछाएगा अभी!
बन्द कर लो ये झरोखे द्वार सब,
आज तो उमड़े हृदय का प्यार सब!
रात लम्बी है सबेरा दूर है,
क्या करे, यह मन बड़ा मजबूर है।
इस तरह अब और शरमाओ नहीं,
पास आओ, दूर यो जाओ नहीं।
रूठने का आज यह अवसर नहीं
ज़िन्दगी इस रात से बेहतर नहीं।
प्रतिक्रियाओं से प्रभावित होकर ही मैंने इस कविता की अंतिम दो पंक्तियाँ
इसलिए बाँहें उठा कर आज तुम
वक्ष से जाओ लिपट मेरी कुसुम!
हटा दीं! यह कविता ‘मधुरिमा’ में समाविष्ट है। द्रष्टव्य : ‘महेन्द्रभटनागर-समग्र’ भाग 2, पृष्ठ 215
एक कविता और उद्धृत करना चाहूंगा। यह भी सम्भवतः ‘रानी’ मे छपी थी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताएँ एवं रवीन्द्र-काव्य के समीक्षकों के आलेख पढ़ते समय मैंने जाना कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने काव्य में विराट कल्पनाएँ की हैं। मैंने सोचा, क्यों न मैं भी प्रकृति पर विराट कल्पनाएँ प्रस्तुत करूँ। परिणामतः निम्नांकित कविता ‘बरखा की रात’ ने आकार ग्रहण कियाः
दिशाएँ खो गयीं तम में
धरा का व्योम से चुपचाप आलिंगन।
धरा ऐसी कि जिसने नव
सितारों से जड़ित साड़ी उतारी है,
सिहर कर गौर-वर्णी स्वस्थ
बाहें गोद में आने पसारी हैं,
समायी जा रही बनकर
सुहागिन, मुग्ध मन है और बेसुध तन।
कि लहरों के उठे शीतल
उरोजों पर अजाना मन मचलता है,
चतुर्दिक घुल रहा उन्माद
छवि पर छा रही निश्छल सरलता है,
खिंचे जाते हृदय के तार
अगणित स्वर्ग-सम अविराम आकर्षण।
बुझाने छटपटाती प्यास
युग-युग की, हुआ अनमोल यह संगम,
जलद नभ से विरह-ज्वाला
बुझाने को सघन होकर झरे झमझम,
निरन्तर बह रहा है स्रोत
जीवन का, उमड़ता आज है यौवन।
(सन् 1949, ‘मधुरिमा’)
मुझ जैसा प्रगतिवादी कवि धरा (नारी) और व्योम (पुरुष) के शारीरिक प्रेम-व्यापार को लक्ष्य कर ऐसी कविता लिखेगा; शायद कोई सोच भी न सके। साड़ी उतारना, आलिंगन, उरोज आदि इसमें हैं! इस सब के पीछे विराट् कल्पना का मोह ही रहा! फिर भी, सम्पूर्ण कविता अपने में संतुलित, शिष्ट और कलात्मक है। भाव, कल्पना, अभिव्यक्ति, भाषा आदि सभी दृष्टियों से। ‘सुहागिन’ शब्द के प्रयोग ने इस रचना को समस्त आक्षेपों से मुक्त कर दिया है। धरा-व्योम के शारीरिक मिलन को सुहाग से जोड़ दिया गया है। यह संभोग-संगम चित्रण स्वकीया का था / है। अतः पवित्र है। (‘खोलो वासना के वसन नारी-नर!’-सुमित्रानंदन पंत)
‘रानी’ में प्रकाशित इन कविताओं को पढ़ कर प्रगतिवादी साहित्यान्दोलन के पुरस्कर्ता एवं प्रमुख पत्रिका ‘हंस’ के सम्पादक श्री. अमृतराय ने मुझे लिखा :
‘रानी’ में कल तुम्हारी एक रोमानी कविता देखी-यह सब क्या मामला है? यह ‘अंचल’ वाली प्रवृत्ति छोड़ो। (दि. 14 फ़रवरी 1949 का पत्र)
इन दिनों अमृतराय मेरी कविताएँ ‘हंस’ में नियमित प्रकाशित कर रहे थे। प्रगतिवादी विचारकों, आलोचकों, कवियों की सतर्क दृष्टि से मेरा लेखन गुज़र रहा था।
अमृतराय के पत्र से मेरा चौकन्ना हो जाना स्वाभाविक था। अन्यथा भी अपने प्रकाशित कविता-संग्रहों में अपनी शृंगारपरक कविताओं को स्थान देने में संकोच करता रहा।
सन् 1953 की एक बात और। हिन्दी के लोकप्रिय कवि श्री भवानीप्रसाद मिश्र उन दिनों हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘कल्पना’ के सम्पादक-मंडल में थे। इस पत्रिका में मेरी भी कुछ कविताएँ प्रकाशित हुईं। जब निम्नलिखित कविता (‘चाँद से’) ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई; तो इसकी भी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई :
चाँद से
कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा,
मुसकुराओ ना!
तुम्हारे पास माना रूप का आगार है,
सुनयनों में बसा सुख-स्वप्न का संसार है,
अनावृत अप्सराएँ नृत्य करती हैं जहाँ,
नवेली तारिकाएँ ज्योति भरती हैं जहाँ,
उन्हीं के सामने जाओ; यहाँ पर,
झलमलाओ ना!
बड़ी खामोश आहट है तुम्हारे पैर की
तभी तो चोर बनकर आसमाँ की सैर की,
खुली ज्यों ही पड़ी चादर सुनहली धूप की
न छिप पायी किरन कोई तुम्हारे रूप की,
बहाना अंग ढकने का लचर इतना
बनाओ ना!
युगों से देखता हूँ तुम बड़े ही मौन हो
बताओ तो ज़रा, मैं पूछता हूँ कौन हो?
न पाओगे कभी जा दृष्टि से यों भाग कर
तुम्हारा धन गया है आज आँगन में बिखर,
रुको पथ बीच, चुपके से मुझे उर में
बसाओ ना!
(सन् 1950)
प्रकाशन-पूर्व, इस कविता पर ‘कल्पना’-सम्पादक श्री भवानीप्रसाद मिश्र ने अपना व्यक्तिगत मत प्रकट करते हुए लिखा था-कविता ‘कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा मैं/मुसकुराओ ना!’ मुझे तो पसंद आयी; मगर अभी दूसरे साथी हैं। ब-हर-हाल निर्णय जल्दी भेजूंगा।’ (दि. 6 जनवरी 1953 का पत्र) बाद में यह कविता ‘कल्पना’ में छपी। एक गुट-विशेष के, समकालीन कुछ कवि; जो प्रायः मेरे प्रति ‘विशेष प्रेम’ रखते थे, ‘कल्पना’ में इस कविता का प्रकाशन सहन नहीं कर सके। एक कवि ने तो ‘कल्पना’ में अपनी पत्नी के नाम से दो-चार पंक्तियों का पत्र ही छपवा डाला कि ऐसी कविता ‘कल्पना’ तो क्या; किसी भी पत्रिका में छपने योग्य नहीं! सम्भवतः, इस कविता-रचना की पृष्ठभूमि में, कहीं-न-कहीं श्री सुमित्रानंदन पंत की इस कविता का संस्कार विद्यमान रहा दीखता है :
धिक् रे मनुष्य, तुम स्वच्छ, स्वस्थ, निश्छल चुम्बन
अंकित कर सकते नहीं प्रिया के अधरों पर?
मन में लज्जित, जन से शंकित चुपके गोपन
तुम प्रेम प्रकट करते हो नारी से, कायर!
क्या गुह्य क्षुद्र ही बना रहेगा, बुद्धिमान!
नर-नारी का स्वाभाविक,स्वर्गिक आकर्षण?
(‘ग्राम्या’)
प्रिया के कपोलों को चूम लेने की चाह एक स्वस्थ युवा पुरुष के हृदय में यदि उत्पन्न होती है तो इसमें अनुचित क्या है? यह कविता भी ‘मधुरिमा’ में समाविष्ट है (द्रष्टव्य : ‘महेंद्र भटनागर-समग्र-खंड 2, पृष्ठ 211)
सन् 1959 में जब मेरे प्रेम-शृंगार गीतों का संकलन ‘मधुरिमा’ प्रकाशित हुआ तो मैंने उसकी भूमिका में लिखा :
‘‘ ‘मधुरिमा’ के गीत वैयक्तिक जीवन से संबंध रखते हैं। वैयक्तिकता जीवन का महत्त्वपूर्ण पहलू है। मनुष्य का जीवन व्यष्टि और समष्टि की परिधि में आबद्ध है। पर, वैयक्तिकता, सामाजिक पक्ष के समान उपादेय नहीं मानी जा सकती और एकांत वैयक्तिकता तो समाज-विरोधी तत्त्व ही समझी जाएगी। ऐसी स्थिति में वैयक्तिक भावनाओं की अभिव्यक्ति की एक सीमा होती है; उसका अतिक्रमण सामाजिक दृष्टि से वांछनीय नहीं। इस कारण, वैयक्तिक जीवन की प्रत्येक अनुभूति को काव्य में नहीं उतारा जाना चाहिए। यदि अनुभूतियों की कहीं अनपेक्षित अभिव्यक्ति दिखायी दे तो उसे भावातिरेक की अवस्था ही नहीं, कवि की दुर्बलता भी समझी जाए।
जीवन में प्रेम और प्रणय का महत्त्वपूर्ण स्थान है, माना कि प्रेम और प्रणय ही सब-कुछ नहीं है। एक अवस्था-विशेष पर प्रेम और प्रणय की भावनाएँ प्रत्येक के मानस पर छा जाती हैं-यह तथ्य मनु और श्रद्धा से लेकर आज-तक और भविष्य में प्रलय-काल तक कहीं भी झुठलाया नहीं जा सकता। प्रेम और प्रणय की भावनाएँ अपने स्वस्थ रूप में व्यक्ति और समाज के लिए शिव हैं। ‘मधुरिमा’ के गीतों से यदि भावुक और स्वस्थ व्यक्तियों के हृदय सहज तादात्म्य स्थापित करते हैं तो उनकी उपादेयता स्वयं-सिद्ध है। जहाँ तक मेरा संबंध है, मुझे इन गीतों से मोह भी है और विरक्ति भी।’’
‘मधुरिमा’ के अनेक आलोचकों को मेरा उपर्युक्त स्पष्टीकरण अनावश्यक लगा। इसमें उन्होंने मेरे अन्तर्मन में छिपी एक अनावश्यक झिझक महसूस की; जो वस्तुतः मेरे हृदय पर उन छापों के फलस्वरूप रही होगी, जिनका उल्लेख इस प्रश्नोत्तर में है।
वे अन्य कवि कौन-से हैं; जिन्होंने अपनी कविता में काम-भावना को स्थान दिया?
वास्तव में, इस प्रकार की कविताएँ मुझे कम ही देखने-पढ़ने को मिलीं। इस संदर्भ में, कालिदास, जयदेव, विद्यापति प्रभृति प्राचीन कवियों और ‘अंचल’, नरेंद्र शर्मा, धर्मवीर भारती, आदि और ‘अकविता’ के कवियों की काव्य-सृष्टि में देखा जा सकता है।
काम-चेष्टा, प्रेम और यौन-लिप्तता में परस्पर क्या संबंध है?
स्त्री-पुरुष के परस्पर प्रेम का एक पक्ष काम-वासना-जन्य होता है; शारीरिक होता है। प्रेमपरक शृंगारिक कविताओं में काम-वासना की निहिति स्वाभाविक है। संयोग / सम्भोग- शृंगार में ही नहीं; वियोग / विप्रलम्भ-शृंगार में भी। संयोग-वियोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सब जानते हैं, संसार का अधिकांश साहित्य / काव्य शृंगारपरक है। स्त्री-पुरुष का परस्पर स्वाभाविक आकर्षण तिरस्कार का विषय नहीं है। वह प्राकृतिक है। सभ्य मानव-समाज में उसे मांगलिक स्तर प्रदान किया गया है। अतः तथाकथित Eroticism से प्रभावित होना कोई अजूबी बात नहीं है। हाँ, अन्तर शृंगार और उद्दाम शृंगार में अवश्य है। काम / यौन चित्रण को प्रश्रय देने वाला साहित्य वरेण्य नहीं माना गया है। मनुष्य के दुर्बल पक्ष को यथार्थ के नाम पर अभिव्यक्त करना कोई उत्कृष्ट रचना-कर्म नहीं है। आध्यत्मिकता के नाम पर भी काम-चित्रण को मूर्त करना अशोभन है। खजुराहो की काम-चित्र व मूर्तिकला की कलविद् चाहे कितनी भी प्रशंसा करें; सामान्य जन पर वह कोई स्वस्थ भाव अंकित नहीं करती। अतः काम-वासना या शृंगार-भावना की साहित्य अथवा कला में अभिव्यक्ति की एक सामाजिक मर्यादा स्वीकार करना ज़रूरी है। निरंकुश चित्रण रचनाकार के रुग्ण हृदय का प्रतिबिम्ब बन कर न रह जाए।
काम और इंद्रिय-सुख, काम और आध्यात्मिकता, काम और सौन्दर्य, काम और प्रेम में परस्पर क्या संबंध है?
इस प्रश्न का उत्तर पूर्व-प्रश्न के उत्तर में समाहित है। साहित्य इंद्रिय-सुख की स्थूल वस्तु कदापि नहीं है। साहित्य अनुभूतिजन्य होता है। वह हमारी भावनाओं को उद्दीप्त करता है। भोग जहाँ समाप्त होता है (चाहे वह काल्पनिक ही क्यों न हो); वहाँ से साहित्य-सृष्टि प्रारम्भ होती है। साहित्यिक एवं कलात्मक रचानाएँ पुनआर्हूत होती हैं। अधिकतर वे काल्पनिक अथवा कल्पना-मिश्रित होती हैं। उसे आप कल्पना-विलास भी कह सकते हैं। बुद्धिवादी और नैतिक दृष्टि से वासनापूर्ण व कामोद्दीपक साहित्य-रचना को हेय समझा गया है। साहित्य कोई रति-शास्त्र नहीं है। तीव्र काम-वासना से पीड़ित अस्वस्थ कामुक व्यक्ति संभोगेच्छा ग्रस्त होते हैं; किन्तु ऐसे व्यक्ति को रचना के क्षेत्र में-साहित्य के क्षेत्र में-इतनी स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती। सामाजिक स्वास्थ्य साहित्य-रचना की प्रथम शर्त है। सौन्दर्य हमें उत्तेजित नहीं करता; आकर्षित करता है। सौन्दर्य में अश्रीलता नहीं होती; अश्रीलता होती है हमारी भावना में; दृष्टि में। आध्यत्मिकता के नाम पर या शिव-पार्वती/कृष्ण-राधा के नाम पर यदि कही शृंगार का अतिक्रमण हुआ है तो वह कितना भी ‘मधुर’ हो; ग्राह्य नहीं। संस्कृत आचार्य ऐसा चित्रण कर चिल्ला उठता है-‘शांतम् पापम् - शांतम् पापम्’।
क्या आप समझते हैं कि काम-भावना की प्रवृति सार्वभौम है?
काम-भावना विश्व-व्यापी है। सार्वकालिक है। उसका संबंध प्राणिमात्र से है। मनुष्य प्रयत्न करता है-उसके काम-व्यापारों, काम-संबंधों, काम-अभिव्यक्तियों में सौन्दर्य हो; ऐकान्तिकता हो, गोपनीयता हो। लेकिन, यह भी सच है कि काम-संदर्भों में मनुष्य पशुओं से भी गया-गुज़रा है। पशुओं की काम-वासना ऋतु-विशेष में ही प्रस्फुटित होती देखी गयी है; जबकि मनुष्य इस दिशा में हैवान भी बन जाता है। यौन-कुकर्मों और बलात्कारों की घटनाएँ अख़बारों में हम जब-तब पढ़ते ही हैं। यौन-अपराध सदा से हुए हैं; हो रहे हैं। आज तो मनुष्य गर्भ-निरोधक गोलियाँ खाकर या कण्डोम अपना कर या बन्ध्याकरण करवाके या गर्भाशय का मुँह बंद कर, अबाध सम्भोग-कर्म में रत हो जाना चाहता है। मानव इतिहास में ऐसा दौर पूर्व में कभी नहीं आया। आज सारे नैतिक मूल्यों को धता बतायी जा रही है।
संबंधों के प्रति व्यावसायिक आधिपत्य भावना, अनुचित साधनों के उपयोग और उद्दाम भावानात्मक दृष्टिकोण की आलोचना आप किस प्रकार करेंगे?
वर्तमान समाज में धन का महत्त्व सर्वविदित है। आदमी के लिए आज धन ही सर्वस्व है। ‘सबसे बड़ा रुप्यया’! लोग हर सम्भव चतुराई से, अनुचित तरीक़े से अधिकाधिक हड़प लेना चाहते हैं। पारस्परिक रिश्तों में न पर-हित का भाव रहा; न कोई मर्यादा रही। नैतिकता-अनैतिकता के मानदण्ड हमने बदल डाले हैं। आदमी धन और काम के पीछे बेतहाशा भाग रहा है।
क्या आप मानते हैं कि काम मनुष्य की सम्पूर्ण चेतना को नियंत्रित करता है?
मनुष्य को, एक विशिष्ट उम्र में ही काम-वासना प्रभावित-नियंत्रित करती है। उसके सम्पूर्ण जीवन को नहीं। व्यक्ति चाहे अन्तर्मुखी प्रवृत्ति का हो चाहे बहिर्मुखी; काम-भावना उसके रक्त में प्रवाहित रहती है। इसकी उपस्थिति स्वयं में अति-सहज और प्राकृतिक है। बाल्य-काल और वृद्धावस्था-काल ऐसे काल है; जबकि मनुष्य या तो काम-अनुभूति से अनभिज्ञ-अपरिचित रहता है या काम के क्षणिक भोग के अनुभव से परिपूर्ण। शारीरिक प्रेम यौवन-काल तक सीमित है। वार्धक्य में बाह्य शारीरिक अक्षमता ही नहीं, कामजन्य आन्तरिक अनुभूति भी विलुप्तप्राय हो जाती है। स्मृति में अतीत का भोग भी उसे उद्वेलित नहीं करता; क्योंकि भोग-क्षण तात्कालिक अस्तित्व के होते हैं। मनोविश्लेषण-शास्त्री भले ही इस सरलीकृत व स्थूल विचारधारा के समर्थक न हों; किन्तु व्यक्ति का अनुभव इसकी पुष्टि अवश्य करेगा।
क्या आप इस मत से सहमत है कि स्त्री और पुरुष की काम-श्रेणियाँ व्यावहारिक रूप से निसर्गगत हैं; वे मात्र मानव-विज्ञान से संबंधित नहीं हैं?
स्त्री और पुरुष की स्थूल यौन-भेद श्रेणियों का संबंध सृष्टि से है। निसर्गगत है। लेकिन दोनों का भावगत संबंध; जो परस्पर समान है, मानव-विज्ञान से संबंध रखता है। यौन-सुख को ‘अद्वैत’ न मान कर ‘द्वैत’ मानना अधिक सही है। स्त्री-पुरुष के पारस्परिक आकर्षण का रहस्य प्राकृतिक भिन्नता में निहित है। ‘आत्मरति’ से वह संतुष्टि उपलब्ध नहीं होती; जो ‘द्वैत’ से होती है। काम-पक्ष का यह व्यावहारिक रूप है।
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