समीक्षक - मधु संधु हरिप्रिया उपन्यास कृष्णा अग्निहोत्री ‘हरिप्रिया’ कृष्णा अग्निहोत्री का 2018 में आया ऐतिहासिक, जीवनीपरक, नायिकाप्रधान उपन्...
समीक्षक - मधु संधु
हरिप्रिया
उपन्यास
कृष्णा अग्निहोत्री
‘हरिप्रिया’ कृष्णा अग्निहोत्री का 2018 में आया ऐतिहासिक, जीवनीपरक, नायिकाप्रधान उपन्यास है। उपन्यास मध्ययुग की राजकन्या-राजरानी, कवयित्री, कृष्ण भक्त मीरा के जन्म से मृत्यु तक का समय सहेजे है। सुधाकर अदीब का ‘रंगरांची’, महेंद्र मित्तल का ‘ मीराबाई’, अँग्रेजी और मराठी के रचनाकार किरण नागरकर का ‘ककल्ड’ भी मीरा की संघर्ष यात्रा को केन्द्र में रख कर लिखी गई औपन्यासिक रचनाएँ हैं। कृष्णा अग्निहोत्री का ‘हरिप्रिया’ अपने अस्तित्व के लिए स्पेस खोज रही, विसंगतियों- असंगतियों से घिरी उस मध्यकालीन स्त्री की कहानी है, जिसके पास आज के स्त्रीवादी चिंतन जैसा बुद्धि-विवेक, भाव-विचार, लक्ष्य और चेतना है।
यह उपन्यास विशेषत: पठनीय है- क्योंकि यह ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी है, भक्ति- दर्शन की व्याख्या भी और शोध ग्रंथ भी। मीरा का समय सामाजिक दृष्टि से सामंत काल, साहित्यिक दृष्टि से भक्तिकाल, राजनैतिक दृष्टि से मुगल- राजपूत काल था। वे भक्ति की दृष्टि से कृष्ण-प्रिया/ उपासिका, सामाजिक दृष्टि से जागरण की संदेश वाहिका और साहित्यिक दृष्टि से गीत-संगीतकार थी। विरोधाभास यह है कि तब सामंत पुरुष शिकार, युद्ध, मदिरा और स्त्रियाँ श्रृंगार, चौसर में व्यस्त रहती थी।
उपन्यास नायिका प्रधान है। मीरा के जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा समेटे है। जबकि इसमें कोई तीन-चार दर्जन पात्र हैं- मीरा, रूप गोस्वामी, गुरु परमानन्द स्वामी, रसिक हरिदास, गौड़ीय सम्प्रदाय के जीव गोस्वामी, पिता रतनसिंह दूदावत, माँ ताकणी कुसुब कॅवर, भाई जयमल (ताए का बेटा), चचेरी बहन कृष्णा, नाना हमीर, बलवीर, रणवीर, सांवरमल पन्ना, मेवाडाधिपति राणा सांगा, मीरा के पति भोजराज, सौतन पासवान, करौती, रेवती, देवर विक्रमजीत, मीरा के जेठ रत्नसिंह सांगावत, सास कुँवरबाई सोलंकी/ करमावती, धनबाई, ननद ऊदा, वीरमदेव, दादा राव दूदा, महारानी रतनकुंवर, सूरजमल, सिसौदिया वंश की रानी जवाहरबाई, रोहणी, जोधाबाई, नौकरानी चंद्रा, कुसुम, मिथिला, ललिता, भक्त अंतो, राजू, भीम सिंह, संग्राम सिंह, प्रियदर्शी कबूतर आदि । पाठक पात्रों की इस भीड़ में उलझ भी सकता है, लेकिन रचना को ऐतिहासिक न्याय दिलाने के लिए यह अनिवारी था।
लेखिका ऐतिहासिक मुद्दों की तह तक गई है और उनके गहन अध्ययन के कारण ऐतिहासिक तथ्यों से कोई छेड़-छाड़ नहीं मिलती। 16वीं 17वीं शती के उस काल में राजनैतिक अस्थिरता ऐसी थी कि मुगल और पठान देश में घर कर चुके थे और राजपूत शासक पारस्परिक झगड़ों में उलझे थे। राणा सांगा द्वारा गुजरात पर आक्रमण, विकर्मी संवत 1583 में बाबर के विरुद्ध युद्ध, (जिसमें राणा सांगा तो बच गए, पर मीरा के पिता रत्न सिंह मारे गए) बाबर और इब्राहम लोदी के बीच युद्ध। बहादुर शाह द्वारा गुजरात से चित्तौड़ को घेर वहाँ रसद न पहुँचने देना और राजपूतों द्वारा केसरिया पगड़ी पहन लड़ते-लड़ते प्राण देना और रानियों का जौहर की ज्वाला में जलना- ऐतिहासिक तथ्य हैं। राजपूतों में आपसी वैमनस्य भी बढ़ रहा था। राजस्थान के छोटे- छोटे टुकड़े हो रहे थे। जर- जोरू के इसी झगड़े के कारण उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा को विष का प्याला पीना पड़ा। आमेर के राजा ने राजनैतिक कारणों के चलते बेटी जोधा की अकबर से शादी पक्की कर दी। मीरा की आठ पत्नियों की सेना रखने वाले ऐय्याश भोजराज से शादी हुई। राजनीति के लिए, दोनों राज्यों के संबंध पक्के करने के लिए स्त्री को बलि का बकरा बनाया जाता था।
‘हरिप्रिया’ एक स्त्री के, राजकुमारी- राजरानी के जीवन संघर्ष की गाथा और उस युग का दर्पण है। वह पुरुष सत्ताक सामंतीय काल था। सामन्तीय व्यवस्था का वैभव और तिरस्कार दोनों ही मीरा के हिस्से आए। वे नारी विमर्श, नारी मुक्ति, नारी स्वतन्त्रता और नारी सशक्तिकरण की प्रथम नेत्री हैं। उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा, बहु पत्नीत्व, बलात्कार, जाति भेद जैसी कुप्रथाओं, सामाजिक बुराइयों का आज की समाज- सुधारक स्त्री की तरह जमकर विरोध किया। छोटी उम्र में ही माता-पिता के स्वर्ग सिधार जाने के बावजूद मीरा ने बाल विवाह का विरोध किया और अठारह की होने पर ही सहमति दी। जैसे रोज मारने- पीटने वाले पति की मृत्यु होते ही बाजों- गाजों के साथ केतकी को सती करने का उपक्रम किया जाता है, वैसे ही भोजराज की मृत्यु होते ही मीरा पर सती होने के लिए दबाव बनाया जाता है। उपन्यास बताता है कि उस सामंत काल में जो विधवाएँ सती नहीं होती थी, उन्हें अशुभ माना जाता था। वे सफेद वस्त्र पहनती थी। एक समय ही भोजन मिलता था। त्योहारों पर उन्हें कमरे में बंद कर दिया जाता था। सती न होने वाली स्त्री के लिए मानसिक और शारीरिक शोषण की पाश्विक प्रवृतियों से बच पाना असंभव था। मानों औरत होना ही अपराध और पाप था। सती के नाम पर होने वाली हत्याओं का मीरा ने सारे-आम विरोध किया। सैनिक महल की छत पर ले जाकर मिथिला से बलात्कार करते हैं और वह उसी छत से कूदकर आत्महत्या कर लेती है। युगीन राजाओं की अनेक पत्नियाँ थी। मीरा ने जाना कि रानियों के आपसी ईर्षा द्वेष और अपने- अपने बेटे को राजा बनाने के षड्यंत्र राज्यों को कमजोर कर रहे थे। उन्होंने कन्या हत्या का भी विरोध किया।
कृति चरित्र प्रधान, नायिका प्रधान है। मीरा राजकुल से थी। राठौर वंश की बेटी और राणा सिसौदिया वंश की बहू। शास्त्रीय संगीत, नृत्य, तलवार, घुड़ सवारी में पारंगत थी। मुँह दिखाई में ही ससुर ने तीन हजार आमदन वाले तीन परगने उसके नाम कर दिये थे और पति ने कक्ष के समीप कृष्ण मंदिर बनवा दिया था। राजपाट था उनके पास। फिर भी मीरा उच्च कुल की होते हुए भी निम्नवर्ग एवं दलितों के बीच रही । अपनी जागीर की आय से किसानों को भोजन करवाती थी। मीरा के आराध्य कृष्ण की प्रेयसी राधा राजा वृषभानु की बेटी थी और कृष्ण ग्वाले, ऐसे में मीरा जाति भेद कैसे मानती। जातिभेद छोड़ उन्होंने दास- दासियों के लिए मंदिर के पट खोले, उनके यहाँ भोजन किया। कृष्ण ग्वाल थे और मीरा को भी ग्वालों से खूब सम्मान और स्नेह मिला। समाज सुधार की बातें तो भक्तिकालीन कबीर, नानक, रैदास, दादू भी कर चुके थे, लेकिन सामन्तीय राजपरिवार, उच्चकुल का हिस्सा होकर, स्त्री होकर जाति पांति न मानना मीरा की आत्मशक्ति का पर्याय है। मीरा ने भारत के दीन- दुखी समाज को कृष्ण संकीर्तन द्वारा एक सूत्र में पिरोने का असम्भव काम किया। मीरा की कविता को कृष्णा अग्निहोत्री ने गहराई से समझा है।
मीरा के मायके की पूरी आस्था वैष्णव धर्म पर थी, जबकि ससुराल में शिव पूजन होता है। वह तो मानों भोजराज से विवाह से पहले ही कृष्ण मूर्ति के संग फेरे ले चुकी थी। बालपन में ही उसे रूप गोस्वामी और सालिग्राम की मूर्ति से प्यार हो गया था। मीरा की भक्ति परकीया नहीं, स्वकीया भाव की थी। राजकुमारी मीरा के सांसारिक विराग, कृष्णानुराग, निर्गुण भक्ति को उपन्यासकार ने योगी रूप गोस्वामी की ओर मोड़ दिया है। बचपन से ही( बारह वर्षीय) मीरा के मन में माधुर्य का यह भाव- अनुराग पल रहा था। “जोगी न जा न जा”, “सखी मेरी नींद नसानी” जैसे गीत उसी विरह की अभिव्यक्ति हैं, जो कालान्तर में कृष्ण प्रेम में परिणित हो गया। “मैं तो साँवले रंग राती।” पंडितों ने भी उनके भजन-कीर्तन का बहिष्कार किया, लोगों को उनके पास आने से रोका। आश्चर्य कि लोगों को मीरा के कीर्तन नृत्य पर चिंता थी, लेकिन महावीर की नग्नता पर उन्हें कोई चिंता नहीं थी। निंबार्क, विष्णु स्वामी, वल्लभ सम्प्रदाओं में सम्मिलित करने हेतु आमन्त्रित किया गया। जबकि मीरा ने न किसी सम्प्रदाय में दीक्षा की, न कोई साधना पद्धति अपनाई। मीरा का सम्प्रदाय मानवता था। वे न बाल कृष्ण की उपासिका थी और न राधा थी। वे योगिराज कृष्ण की उपासिका थी। योग में भी उनकी पूरी रूचि थी। धर्म और धर्मांधता का अंतर वे समझती थी।
रजवाड़ों की शौर्य गाथाएँ और षड्यंत्र यहाँ एक साथ चित्रित हैं। मीरा ने सशक्त सामंतीय युग से टक्कर ली थी। पारिवारिक यातनाएं भी कम नहीं थी। कड़क सास को न मीरा की कृष्ण भक्ति पसंद थी, न शाकाहारी होना और न गीत गाना, न दासियों से मित्रवत व्यवहार करना। वह उससे सामिष भोजन बनवाती है, अपनी कुलदेवी की पूजा के लिए कहती है, ताने-व्यंग्य से पीड़ित करती है। ऐसी स्त्री की उस काल में क्या नियति थी ? महलों को छोड़ मंदिरों को आवास बनाया। बार बार मीरा को अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। उसे गंवार, कुल कलंकिनी, ऐय्याश, घुम्मकड़, रास क्रीड़ा में संलिप्त रहने वाली कहा जाता है। बचपन में माँ बाप गए, फिर पति गया। मीरा: मध्यकाल की एक स्त्री, जिस के विरूद्ध अपनों ने ही बलात्कार और हत्या की साजिशें रची। साधु वेश में राजपूत सैनिकों, अंग्रेज़ गुप्तचरों, पंडितों, गोरखपंथियों, ग्रामीणों को शीलहरण के लिए भेजा गया। देवर विक्रमादित्य ने वृन्दावन के संपेरों द्वारा फूलों की डलिया में साँप भेज कर डसवाने की कोशिश की। एक ग्वाले के हाथ विष का प्याला भेजा। मीरा के घोड़ों को विष देकर मार दिया गया। उनके लिए कृष्ण की मूर्ति बनाने वाले शिल्पकार का हाथ काट दिया गया।
मीरा को देवावतार बताने, अलौकिकता से जोड़ने के लिए उपन्यासकार ने कुछ परामनोवैज्ञानिकता प्रसंग भी लिए हैं। जैसे मीरा के जन्म से पहले ही उसकी माँ को स्वप्न में कमल और सिंह, त्रिशूल आर घट हाथी दिखने लगे थे। मीरा को स्वप्न में लगातार हरि का कृष्ण रूप दिखता है। वे हँसते और मुरली बजा कर मीरा को पास बुलाते हैं। मीरा के चारों ओर एक दिव्य चक्र सा रहता था, जिसे पार करने में भोजराज असमर्थ थे। समाधि और योग में भी मीरा व्यस्त रहती थी। मीरा मूल नक्षत्र में पैदा हुई थी, इसलिए पिता पर भारी थी।
उपन्यासकार ने मीरा को पर्यावरण सजग स्त्री बताया है। कुड़की के मंदिर में मीरा ने तुलसी के अनेक पौधों का रोपण किया। तुलसी पर्यावरण संतुलित करती है, इसीलिए मीरा भक्तों एवं संतों को तुलसी के पौधे वितरित किया करती थी। उसे अपनी घोड़ी से अत्याधिक प्रेम था। लिखवाया था कि इसकी संतान कहीं न बेची जाये।
यहाँ वहाँ बिखरे सूत्र वाक्य उपन्यास के विचार सौन्दर्य को पुष्ट करते हैं। जैसे –
1. जब हम भावनाओं से पराजित होते हैं तो सच्ची भावनाओं से जुडते हैं।
2. अभाव से ही भाव का जन्म होता है और अमंगल से ही मंगल फूटता है।
3. गर्मी में सावन मनभावन होता है और शिशिर में धूप की किरणें सुखदायक होती हैं।
4. राजनीति और रणनीति दोनों के अपने अपने धर्म हैं।
5. शासक जाति –पाति एवं धर्म को ही नहीं, ईश्वर तक को भी देखेगा
6. लाज, शर्म, लिहाज, अनुशासन- ये सब मानसिक चेतना हैं।
7. आस्था का सम्बन्ध मन से है। मन को कोई राजा न शौर्य, न तलवार से जीत सकता है।
8. मनुष्य में यदि विवेक, सोच, ज्ञान हो, तो वह सम्पूर्ण मानव बन सकता है।
9. स्त्री को कमजोर, निरीह बनाना हो तो उसे कुलटा, चरीत्रहीन सिद्ध कर इन्हीं अलंकारों से विभूषित कर दो, बेचारी जीते-जी इस झूठ को असत्य सिद्ध करने में ही मर खप जाएगी।
10. मोक्ष किसी कर्मकांड से नहीं, मन की चेतना से मिलता है।
चुनौतियों ने मीरा को आंतरिक शक्ति दी। स्त्री होने की सज़ा वे जीवन भर भुगतती रही। अपने विद्रोही आंदोलन की मीरा जनक भी थी और संचालिका भी। उन्होंने सशक्त सामंती युग से टक्कर ली थी। राष्ट्र निर्माण में स्त्री की भूमिका देते, शोषक व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करते, संघर्षचेता स्त्री का चित्रण करते मानों इस युग के नज़रिये से कृष्णा अग्निहोत्री ने उस युग की बात की है। मीरा ने सामाजिक रूढ़ियों से अहिंसात्मक लड़ाई लड़ी। न गौरी पूजन किया, न परदा प्रथा मानी, न सती हुई। परंपरा रूपी इन असुरों को नष्ट करने के प्रयास किए। उस सामंत काल में भी राजाज्ञा न मान अपने सिद्धांतों पर अडिग रही। शिव भक्त परिवार में शादी होने पर भी कृष्ण प्रेम के प्रति पूर्णत: समर्पित रही। विवाहिता होते हुए भी दाम्पत्य धर्म के प्रति अनासक्त रही। राजमहलों का ऐश्वर्य पाकर भी वैरागिन रही, आतंक में भी संत्रासमुक्त रही। उपन्यास में अनेक ऐसे प्रसंग आते हैं कि मानवता की पुजारिन मीरा हमें असत्य, रूढ़िवादिता, अत्याचार, जीवनघाती रूढ परम्पराओं का खुलकर विरोध करती दिखाई देती है। वह स्त्री जिसके नाम से उसके पति की पहचान होती है- भक्तिकाल की श्रेष्ठ कवयित्री और निर्बल राजा की पत्नी। उपन्यास में परिच्छेद वितरण का कोई विधान नहीं है। एक सहज तारतम्य से कथा चलती जाती है। उपन्यास मीरा के गीतों से भरा पड़ा है। वे इकतारे के साथ गीत गाती थी। इन गीतों की भाषा राजस्थानी है। इस उपन्यास को लिखते समय इतिहास के साथ न्याय किया गया है। उपन्यासकार के गंभीर अध्ययन से पाठक पल-पल परिचित होता है। ऐतिहासिक उपन्यास लिखना दूसरे उपन्यासों से कहीं कठिन है। बातचीत में कृष्णा अग्निहोत्री जी ने बताया कि उपन्यास का लेखन काल कोई डेढ़ वर्ष लंबा रहा।
पुस्तक: हरिप्रिया
लेखिका: कृष्णा अग्निहोत्री
प्रकाशक: विद्या विहार, नई दिल्ली
पृष्ठ: 166
मूल्य: 300/-
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